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- रोबोट की दुनिया में रोबोट कुत्ते की भी एंट्री हो गई है। यह तेजी से उछलता है, आपका हुक्म मानता है और आपके घर को गंदा नहीं करता। ऐसा ही एक कुत्ता चीन ने बनाया है, जिसका नाम है अल्फा डॉग, जो चीन में पालतू जीवों और तकनीक के प्रति बढ़ते प्यार का नतीजा है ।यह रोबोटिक कुत्ता सेंसरों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से देखता और सुनता है. इसे साथ लेकर आप टहलने भी जा सकते हैं। इसे बनाने वाली कंपनी वाइलान के मुख्य तकनीकी अधिकारी मा जी का कहना है, "यह असली कुत्ते से काफी मिलता जुलता है।" अल्फा डॉग को "स्पॉट" के पदचिन्हों पर ही बनाया गया है। चार पैरों वाले "स्पॉट" को बोस्टन डायनेमिक्स ने औद्योगिक इस्तेमाल के लिए बनाया था जिसका वीडियो यूट्यूब में आने के बाद इंटरनेट पर सनसनी फैल गई थी।चीन के नानजिंग में अल्फाडॉग को बनाने वाले लोगों ने इसके जरिए आम लोगों तक पहुंचने की योजना बनाई है। उनका दावा है कि 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से भागने और किसी पप्पी की तरह उछल कूद करने वाला कुत्ता बाजार में सबसे तेज है। धातु से बने इसके चारों पांव इसे असली कुत्ते से ज्यादा स्थिरता देते हैं।मा जी ने बताया, "यह घर्षण को पहले से जान लेता है और जमीन की ऊंचाई को भी ताकि उसके हिसाब से अपनी ऊंचाई कम या ज्यादा कर सके, यह अपनी उछाल को व्यवस्थित कर सकता है और वातावरण के हिसाब से खुद को ढालने में भी सक्षम है।" रोबोट खुद से ऑपरेट कर सके इसलिए इसमें 5जी तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। इसके जरिये इसके रिएक्शन टाइम को बेहद कम रखने में सफलता मिली है।चीन में साम्यवादी नेता माओ त्से तुंग के शासन में कुत्ता पालने पर पाबंदी थी। हालांकि उसके बाद से यह देश में बड़ी तेजी से बढ़ी। रोबोटिक कुत्ता भी बड़ी तेजी से चीनी घरों में अपनी जगह बना रहा है। बाजार में उतरने के पहले महीने में ही 2400 डॉलर की भारी कीमत के बावजूद 1800 से ज्यादा अल्फा डॉग बेचे जा चुके हैं।चीन अपने कामगारों को ज्यादा कुशल बनाना चाहता है। इस कोशिश में रोबोटिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में भारी निवेश किया जा रहा है। रोबोटों का इस्तेमाल पार्सल डिलीवर करने, रेस्तरां में खाना परोसने, स्टेशनों पर सूचना देने और यहां तक कि कोविड-19 के लिए टेस्ट करने में पहले से ही हो रहा है। अल्फा डॉग बनाने वाले मानते हैं कि यह कुत्ता उन लोगों की मदद कर सकता है जिन्हें दिखाई नहीं देता। वह लोगों को सड़क पार करने और सुपरमार्केट से सामान लाने जैसे कामों में बड़ी मदद कर सकता है।इस कुत्ते के सॉफ्टवेयर में बदलाव कर इसे आने वाले दिनों में भौंकने में भी सक्षम बनाया जाएगा। इसके बाद इसमें इंसानी आवाज भी डालने की योजना है ताकि यह अपने मालिक से बात भी कर सके। (साभार-एनआर/एमजे (एएफपी))
- नयी दिल्ली। भारतीय खगोल वैज्ञानिकों ने एक दुर्लभ सुपरनोवा विस्फोट की निगरानी की और एक ‘वुल्फ-रेएट' तारे या डब्ल्यूआर तारे का पता लगाया, जो सबसे गर्म तारे में एक है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने एक बयान में यह जानकारी दी। बयान के मुताबिक दुर्लभ वुल्फ-रेएट तारे सूर्य से एक हजार गुना अधिक प्रकाशमान होते हैं, जिस कारण खगोल वैज्ञानिक लंबे समय तक संशय में रहे। ये आकार में बहुत बड़े तारे हैं। इस तरह के सुपरनोवा विस्फोट की निगरानी से वैज्ञानिकों को इन तारों की जांच में सहयोग मिलेगा, जो कि अब तक उनके लिए पहेली बनी हुई थी। ब्रह्मांड में होने वाले सुपरनोवा विस्फोट में भारी मात्रा में ऊर्जा निकलती है। इन विस्फोटों की दीर्घकालीन निगरानी विस्फोट वाले तारे की प्रकृति और विस्फोट के तत्वों को समझने में मदद करते हैं। बयान में कहा गया है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के तहत आने वाले नैनीताल स्थित स्वायत्त संस्थान आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान (एरियस) से खगोल वैज्ञानिकों की एक टीम ने अन्तर्राष्ट्रीय सहयोगियों के साथ 2015 में मिले एनएसजी 7371 आकाशगंगा में इसी प्रकार के सुपरनोवा एसएन 2015डीजे की ऑप्टिकल निगरानी की। बयान के मुताबिक, उन्होंने इस तारे के द्रव्यमान की गणना की। उनका अध्ययन हाल ही में ‘द एस्ट्रोफिजिकल जर्नल' में प्रकाशित हुआ है। यान में कहा गया है कि वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि असली तारा दो तारों का मिश्रण था- जिनमें से एक विशाल डब्ल्यूआर तारा था और दूसरे तारे का द्रव्यमान सूर्य से कम था।-file photo
- भारतीय ज्योतिष और पुराणों की परंपरा के आधार पर सृष्टि के संपूर्ण काल को चार भागों में बांटा गया है- सत युग, त्रेता युग, द्वापर युग और कलि युग।इस काल विभाजन को कुछ लोग जीवन की स्थितियों की लाक्षणिक अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार सोता हुआ कलि है, जम्हाई लेता हुआ द्वापर, उठता हुआ त्रेता और चलता हुआ सतयुग है। प्राचीन काल में युगों के अतिरिक्त काल का विभाजन युग, मन्वंतर और कल्प के क्रम से भी होता रहा है।सतयुग- चार प्रसिद्ध युगों में सतयुग पहला है। इसे कृतयुग भी कहते हैं। इसका आरंभ अक्षय तृतीया से हुआ था। इसका परिमाण 17 लाख 28 हजार वर्ष है। इस युग में भगवान के मत्स्य अवतार , कूर्म अवतार, वराह अवतार और नृसिंह अवतार ये चार अवतार हुए थे। उस समय पुण्य ही पुण्य था, पाप का नाम भी न था। कुरुक्षेत्र मुख्य तीर्थ था। लोग अति दीर्घ आयु वाले होते थे। ज्ञान-ध्यान और तप का प्राधान्य था। बलि, मांधाता, पुरूरवा, धुन्धमारिक और कार्तवीर्य ये सत्ययुग के चक्रवर्ती राजा थे। महाभारत के अनुसार कलि युग के बाद कल्कि अवतार द्वारा पुन: सत्ययुग की स्थापना होगी।त्रेता युग- दूसरे युग त्रेता की अवधि बारह लाख छियानवे हज़ार वर्ष मानी जाती है। इस युग का आरंभ कार्तिक शुक्ल नौमी से होता है। मनु और सतरूपा के दो पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद इसी युग में हुए। ये पृथ्वी के सर्वप्रथम राजा थे। श्रीराम और परशुराम ने इसी युग में अवतार लिया। इस युग में पुण्य अधिक होता है। मनुष्य की आयु अधिक होती है।द्वापर युग- यह चार युगों में तीसरा युग है। इसका आरंभ भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी से होता है। इसकी अवधि पुराणों में आठ लाख चौसठ हज़ार वर्ष मानी गई है। यह युद्ध प्रधान युग है और इसके लगते ही धर्म का क्षय आरंभ हो जाता है। भगवान कृष्ण ने इसी युग में अवतार लिया था।कलि युग- आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत का युद्ध 3109 ई पू में हुआ था और उसके अंत के साथ ही कलयुग का आरंभ हो गया। इसे कलियुग भी कहते हैं। कुछ विद्वान कलियुग का आरंभ महाभारत युद्व के 625 वर्ष पहले से मानते हैं। फिर भी सामान्यत: यही विश्वास किया जाता है कि महाभारत युद्ध के अंत, श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण और पांडवों के हिमालय में गलने के लिए जाने के साथ ही कलियुग का आरंभ हो गया। इस युग के प्रथम राजा परीक्षित हुए। आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत का युद्ध 3109 ईपू में हुआ था और उसके अंत के साथ ही कलियुग का आरंभ हो गया।
- सदियों से लोग यह जानने की कोशिश में लगे हुए हैं कि गुलाब की पंखुडिय़ों में भीनी भीनी खुशबू क्यों होती है। दरअसल यह एक एंजाइम का कमाल है। इस एन्जाइम के बारे में पता लगने से अब गुलाब की विभिन्न किस्मों की गायब हो रही खुशबू फिर से लौटाने में मदद मिल सकती है। इत्र और सौंदर्य प्रसाधनों के लिए आवश्यक तेल मुहैया करने वाले गुलाब को उसकी खूबसूरती और मोहक खुशबू के लिए उगाया जाता है लेकिन समय के साथ इसकी खुशबू गायब होती जा रही है।शोधकर्ताओं ने पाया कि गुलाब की पुरानी खुशबू को वापस लाने के लिए उसकी महक के बायो सिंथेसिस मार्ग की बेहतर समझ की आवश्यकता होगी। कुछ वैज्ञानिकों का यह दावा है कि टेरपीन सिंथेसिस एन्जाइम एकमात्र ऐसा माध्यम है जो पौधों में सुगंधित मोनोटरपीन्स पैदा करता है।वहीं एक अन्य शोध में पाया गया कि फूलों की सुगंध का कारण कोई एक दम अलग अप्रत्याशित एन्जाइम का परिवार है। रिसर्चर्स ने गुलाब की तेज खुशबू वाली पापा मीलांद किस्म और कम खूशबू वाली रोग मिलांद किस्म के ट्रांस्क्रिप्टोम्स की तुलना की ताकि उनके आनुवांशिक अंतर का पता लगाया जा सके। उन्होंने पाया कि आरएचएनयूडीएक्स1 एन्जाइम खुशबू पैदा करता है।
- होली भारत का बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था। भारत में पूर्वी भागों में यह शब्द प्रचलित था। जैमिनि एवं शबर का कथन है कि होलाका सभी आर्यो द्वारा सम्पादित होना चाहिए। काठकगृह्य में एक सूत्र है राका होला के , जिसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है- होला एक कर्म-विशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है, उस कृत्य में राका देवता है।होलाका उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं। इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र में भी हुआ है जिसका अर्थ टीकाकार जयमंगल ने किया है। फाल्गुन की पूर्णिमा पर लोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। हेमाद्रि ने बृहद्यम के एक श्लोक का उल्लेख किया है। जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी कहा गया है। लिंग पुराण में आया है- फाल्गुन पूर्णिमा को फाल्गुनिक कहा जाता है, यह बाल-क्रीड़ाओं से पूर्ण है और लोगों को विभूति, ऐश्वर्य देने वाली है। वराह पुराण में आया है कि यह पटवास-विलासिनी है।जैमिनि एवं काठकगृह्य में वर्णित होने के कारण यह कहा जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से होलाका का उत्सव प्रचलित था। कामसूत्र एवं भविष्योत्तर पुराण इसे वसन्त से संयुक्त करते हैं, इसलिए यह उत्सव पूर्णिमान्त गणना के अनुसार वर्ष के अन्त में होता था। होलिका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सूचक है और वसन्त की कामप्रेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य एवं संगीत वसन्तागमन के उल्लासपूर्ण क्षणों के परिचायक हैं। वसन्त की आनन्दाभिव्यक्ति रंगीन जल एवं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिक आदान-प्रदान से प्रकट होती है।कुछ प्रदेशों में यह रंग युक्त वातावरण होलिका के दिन ही होता है, किन्तु दक्षिण में यह होलिका के पांचवें दिन (रंग-पंचमी) मनायी जाती है। प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुुसंहार में पूरा एक सर्ग ही वसन्तोत्सव को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंदबरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, मलिक मुहम्मद जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने बसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं।पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएं की हैं। सूफ़ी संत हजऱत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफ़ऱ जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएं लिखी हैं। संस्कृत शब्द होलक्का से होली शब्द का जन्म हुआ है। वैदिक युग में होलक्का को ऐसा अन्न माना जाता था, जो देवों का मुख्य रूप से खाद्य-पदार्थ था।----
- आजकल कृषि में यूरिया का इस्तेमाल तेजी से हो रहा है। पैदावार बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है। किसान अधिकतर नाइट्रोजन युक्त उर्वरक (ज्यादातर यूरिया) या नाइट्रोजन युक्त और मिश्रित जटिल उर्वरक (ज्यादातर यूरिया या डीएपी) का उपयोग करते हैं तथा पोटाश और अन्य अभाव वाले पोषकों के उपयोग को नजऱ अंदाज कर देते हैं।दूसरी तरफ, बहुपोषक तत्व कमियां भी अधिकतर मिट्टियों में पहले ही उभर आई हैं तथा विस्तारित हो चुकी हैं। विभिन्न परियोजनाओं के तहत देश के विभिन्न हिस्सों में किए गए मिट्टी यानि मृदा विश्लेषण से कम से कम 6 पोषक तत्वों- नाइट्रोजन (एन), फोसफोरस (पी), पोटाश (के), जिंक (जेडएन) और बोरॉन (बी) की व्यापक कमी प्रदर्शित हुई। उत्तर-पश्चिमी भारत के चावल-गेंहू उगाए जाने वाले क्षेत्रों में किए गए कुछ नैदानिक सर्वे से पता लगा कि किसान उपज स्तर को बनाए रखने के लिए, जिन्हें पहले कम उर्वरक उपयोग के जरिए भी हासिल कर लिया जाता था, अक्सर अनुशंसित दरों से ज्यादा नाइट्रोजन का उपयोग करते हैं।नाइट्रोजन उर्वरकों में सबसे आम यूरिया का अंधाधुंध उपयोग किया जाता है चाहे वैज्ञानिक निर्देश कुछ भी क्यों न हो। यूरिया के अत्यधिक उपयोग का मिट्टी, फसल की गुणवत्ता और कुल पारिस्थितकी प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यूरिया के अत्यधिक/अंधाधुंध उपयोग के कुछ बड़े नुकसान इस प्रकार हैं -1. यह मिट्टी के पोषक तत्वों, जिनका उपयोग नहीं किया गया है या पर्याप्त रूप से उपयोग नहीं किया गया है, के खनन को बढ़ाता है जिससे मृदा की उर्वरता में गिरावट आती है। ऐसी मिट्टियों को अधिकतम उपज देने के लिए भविष्य में अधिक उर्वरकों की जरूरत होगी।2. फसल की मांग से अधिक उपयोग में लाया गया नाइट्रोजन वाष्पीकरण और निक्षालन के जरिए खत्म हो जाता है।3. नाइट्रोजन का अत्यधिक उपयोग जलवायु परिवर्तन और भूजल प्रदूषण को बढ़ावा देता है। भूजल के नाइट्रेट तत्व में वृद्धि हानिकारक साबित हो सकती है क्योंकि अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में इसे पीने के पानी के उपयोग में लाया जाता है।4. सलाह से अधिक मात्रा में यूरिया का उपयोग फसल के रसीलेपन को बढ़ा देता है जिससे पौधे बीमारियों और कीट संक्रमण के शिकार हो सकते हैं।5. यूरिया का असंतुलित उपयोग नाइट्रोजन की कुशलता को घटा देता है जिससे उत्पादन की लागत में वृद्धि हो जाती है और शुद्ध मुनाफे में कमी आती है।6. नाइट्रोजन एवं अन्य पोषक तत्वों की कुशलता, लाभप्रदत्ता और पर्यावरण सुरक्षा को बढ़ाने के लिए यूरिया के उपयोग को युक्तिसंगत बनाने की जरूरत है।नाइट्रोजन उर्वरकों के युक्तिसंगत उपयोग के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। उर्वरक यूरिया उपयोग का संतुलन न केवल फोसफोरस और पोटास के साथ किया जाना चाहिए बल्कि द्वितीयक और सूक्ष्म पोषक तत्वों के साथ भी किया जाना चाहिए। मृदा परीक्षण आधारित उर्वरक अनुशंसाओं का पालन किया जाना चाहिए। किसानों को सल्फर सूक्ष्म पोषण परीक्षण के लिए जोर देना चाहिए क्योंकि (सल्फर और सूक्ष्म पोषकों के बगैर) केवल नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश अब संतुलित उर्वरक नुस्खा नहीं है।---
- सुबह सोकर उठने पर सबके मुंह से किसी ना किसी तरह की अलग सी गंध आती है। रात को तो ऐसा नहीं था फिर रात भर में मुंह में ऐसा क्या हो जाता है, जिससे बदबू पैदा होती है। पहली बात तो यह कि मुंह में हमेशा ही कुछ बैक्टीरिया रहते हैं। रात को जब हमारी लार वाली ग्रंथियां कम मात्रा में लार निकालती हैं तो इसके चलते मुंह थोड़ा सूख जाता है। इस माहौल में मुंह के कुछ बैक्टीरिया खूब फलते फूलते हैं। यह खास बैक्टीरिया सल्फर-वाले व्यर्थ पदार्थ निकालते हैं और इन्हीं के कारण मुंह से बदबू आती है।असल में बैक्टीरिया को ऊर्जा मिलती है अमीनो एसिड और प्रोटीन के पाचन से। कुछ अमीनो एसिड में सल्फर पाया जाता है, जो बैक्टीरिया के इस्तेमाल करने के बाद मुक्त हो जाता है। बैक्टीरिया के इस पाचन की प्रक्रिया में सल्फर के अलावा कुछ बदबूदार गैसें भी निकलती हैं। रिसर्च में पाया गया है कि सांस की दुर्गंध में कई चीजों का मिश्रण होता है। यह चीजें हो सकती हैं - कैडावरीन (लाश की गंध), हाइड्रोजन सल्फाइड (सड़े अंडे की गंध), आइसोवैलेरिक एसिड (पसीने वाले पैर की गंध), मिथाइलमेर्काप्टेन (मल की गंध), पट्रीशाइन (गलते मांस की गंध) और ट्राइमिथाइलअमीन (सड़ती मछली जैसी गंध)।रात को सोने से पहले ब्रश करने और जीभ को साफ करने से अगली सुबह सांस की दुर्गंध में कमी लायी जा सकती है, लेकिन मुंह के बैक्टीरिया रात को जब बंद जगह में नमी पाते हैं तो तेजी से अपनी संख्या बढ़ाते हुए 600 से भी ज्यादा तरह के कंपाउंड बनाते हैं।कई लोग माउथवॉश का भी इस्तेमाल करते हैं। असल में माउथवॉश में पाये जाने वाले जाइलिटॉल, ट्रिकलोजान और इसेंशियल ऑयल जैसे पदार्थ बैक्टीरिया को पसंद नहीं आते, लेकिन सच यह है कि थोड़े ही समय बाद यह भी बैक्टीरिया पर बेअसर हो जाते हैं। इसलिए सुबह मुंह से ऐसी गंध आना आम बात है और इसके लिए बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं, लेकिन अगर बदबू बहुत तेज हो तो जरूर डॉक्टर के पास जाना चाहिये क्योंकि यह हेलीटोसिस की स्थिति हो सकती है। दांतों में कैविटी, मसूडों में सडऩ और टॉन्सिल होने पर भी दुर्गंध बढ़ जाती है।
- दुनिया के 5वें और सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह ज्यूपिटर (बृहस्पति) पर गोली की तरह तेजी से हवा चलती है। खगोल वैज्ञानिकों का दावा है कि ये गति पृथ्वी पर आ चुके सबसे तेज तूफान की गति से भी तीन गुना अधिक है। वैज्ञानिकों के अनुसार बृहस्पति ग्रह पर 1,448 किमी. प्रति घंटे तक की रफ्तार से हवा चलती जो 560 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से ऊपर उठती है।पृथ्वी पर आ चुके सबसे तेज तूफान की गति से भी तीन गुना अधिक हवा तेजफ्रांस के एस्ट्रोफिजिक्स लैबोरेटरी के प्रमुख शोधकर्ता डॉ. थिबॉल्ट कैवेली का कहना है कि उनकी टीम ने अध्ययन में पाया है कि बृहस्पति के ध्रुवों पर 400 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से हवा चलती है। एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा की ये गति बृहस्पति ग्रह के ग्रेट रेड स्पॉट क्षेत्र में प्रवेश करने वाली गति से दो गुना अधिक है। यही नहीं पृथ्वी पर आए अब तक के सबसे तेज और शक्तिशाली तूफान की तुलना में ये तीन गुना अधिक तेज है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अमेरिका के ओकलाहोमा में वर्ष 1999 में पृथ्वी का सबसे तेज तूफान आया था, जिसकी गति 511 किमी प्रति घंटे थी।हवा के साथ तेज गति वाला भंवरलैबोरेटरी से जुड़े पीएचडी छात्र बिलाल बेनमाही का कहना है कि ज्यूपिटर पर चलने वाली तेज हवा के साथ भंवर भी देखा गया है। अनुमान है कि भंवर बहुत बड़ा और शक्तिशाली है जिसका व्यास पृथ्वी के व्यास से चार गुना अधिक तक भी हो सकता है। इसकी ऊंचाई 900 किमी होने का अनुमान है।रेडियो टेलीस्कोप से मापी हवा की गतिसौर मंडल में हवा की गति को मापने के लिए खगोल वैज्ञानिकों ने 66 विशालकाय रेडियो टेलीस्कोप का इस्तेमाल किया है। इससे ब्रह्मांड में विशेष तौर पर हवा के कारण वहां पर होने वाले सूक्ष्म बदलावों को देखा जा सकता है। सूक्ष्म कणों की गति के आधार पर वहां हवा की गति पता चल जाती है। वैज्ञानिक 30 मिनट से भी कम समय में हवा की गति को मापने में कामयाब हुए हैं।ये अद्भुत और आश्चर्यजनक परिणामटेक्सास के साउथ वेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के वायुमंडलीय शोधकर्ता डॉ. थॉमस ग्रेटहाउस का कहना है कि हवा की गति मापने का जो भी परिणाम आया है वो अद्भुत और आश्चर्यजनक है। बृहस्पति ग्रह को लेकर वैज्ञानिकों को जो कामयाबी मिली है, वो शानदार है। अत्यधिक विशाल टेलीस्कोप की मदद से आने वाले समय में इस ग्रह को लेकर और कुछ बेहतर जानकारियां मिल सकती हैं।
- क्या कोई जीव समुद्र में उड़ सकता है, साइंस पत्रिका के ताजा अंक में तीन करोड़ साल पहले समुद्र में रहने वाली एक ऐसी ही शार्क को खुलासा किया गया है जो अपने दो मीटर लंबे पंखों के सहारे पानी के भीतर चलती थी।उसकी चाल अन्य मछलियों की तरह तैरने के बजाय आसमान में बड़े पक्षियों के उड़ान भरने जैसी शैली जैसी थी। इस शार्क के जीवाश्म को 2012 में मैक्सिको में कुछ खदान श्रमिकों ने 9.3 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों में काम करने करते पाया था। इस शार्क को एक्विलोलाम्ना मिलारके नाम दिया गया। अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि इसके दोनों ओर फैले लंबे पंख करीब दो मीटर लंबे थे। यह लंबाई आज पृथ्वी के कुछ सबसे बड़े बाज के बराबर है, इसी वजह से इसे ईगल शार्क नाम दिया गया है। (फाइल फोटो)
- साइलेंट वैली यानी शांत घाटी राष्ट्रीय उद्यान केरल के पलक्कड़ जिले में नीलगिरी की पहाडिय़ों में स्थित है। यह उद्यान भारत के दक्षिण-पश्चिमी घाट के वर्षा वनों और आर्द्र उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन के आखिरी अनछुए छोर पर है। यह घाटी नीलगिरी अंतर्राष्ट्रीय जैवमंडल संरक्षित क्षेत्र के केंद्र में है और विश्व विरासत स्थल के रूप में मान्य पश्चिमी घाट का हिस्सा है।यह क्षेत्र आम भाषा में 'सैरंध्रीवनमÓ कहलाता है, जिसे मलयालम भाषा में सैरंध्री का वन कहते हैं। स्थानीय हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार सैरंध्री का अर्थ द्रौपदी है। पांडव अपने वनवास के दौरान घूमते हुए केरल पहुंच गए थे, जहां वे एक जादुई घाटी में आ गए, जहां लहराते हुए घास के मैदान तंग वन घाटियों से मिलते थे, एक गहरी हरी नदी अगम्य वन में अपना रास्ता ढूंढती हुई सी लगती है, जहां सुबह और शाम, बाघ और हाथी किनारे पर इक_ा पानी पीते थे, जहां सब कुछ सामंजस्यपूर्ण था और जहां इंसान नहीं पहुंचा था। वर्ष 1847 में वनस्पतिशास्त्री रॉबर्ट वाइट शांत घाटी क्षेत्र के जलभंडारण का अनुसंधान करने के लिए गए पहले अंग्रेज थे।अंग्रेजों ने इस क्षेत्र का नाम शांत घाटी इसलिए दिया, क्योंकि वहां शोर करने वाले सिकाडा कीड़ों का अभाव था। अन्य कहानी के अनुसार इस नाम का संबंध सैरंध्री नाम के अंग्रेजी रूपांतरण से जुड़ा है। तीसरी कहानी घाटी की अनछुई प्रकृति की तरफ इशारा करती है अर्थात जहां कोई इंसानी शोर नहीं होता। शांत घाटी में लघुपुच्छ वानरों की बड़ी संख्या निवास करती है, जो कि नर-वानरों की लुप्तप्राय प्रजाति है। शांत घाटी राष्ट्रीय पार्क प्राकृतिक वर्षावनों का एक अनूठा स्थल है। यह विविध प्रकार के जीवों का वास है, जिनमें से कुछ विशेष रूप से पश्चिमी घाट के ही हैं।कुंटीपूझा नदी इस पार्क के उत्तर से दक्षिण की तरफ 15 किलोमीटर लम्बाई से गुजरती हुई भारतापूझा नदी में मिलती है। साफ, स्वच्छ और बारहमासी होना नदी की विशेषता है। शांत घाटी में वृक्ष प्रजातियों की संख्या (0.4 हेक्टेयर में 84 प्रजातियों के 118 संवहनी पौधे) बहुत ज्यादा है, जबकि दूसरे उष्ण कटिबंधीय वनों में 60 से 140 प्रजातियां ही उपलब्ध होती हैं। मुदुगार और इरुला जनजातीय लोग इस क्षेत्र के मूल निवासी हैं और वे पास की अत्तापदी संरक्षित वन्य क्षेत्र की घाटी में रहते हैं। इसके अलावा, कुरुंबर लोग पार्क के बाहर के क्षेत्र में नीलगिरी की पहाडिय़ों के निकट रहते हैं।शांत घाटी के जीवों के बारे में अध्ययन से पता चलता है कि इस घाटी में अद्भुत और दुर्लभ जीव हैं। दुर्लभ इसलिए, क्योंकि पश्चिमी घाट के पूरे क्षेत्र में इनकी कई मूल प्रजातियां मनुष्यों की बस्तियों के विस्तार या अन्य कारणों से अपने आशियाने उजडऩे के कारण लुप्तप्राय हो गयी हैं। फिर भी, इस क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम मानवीय घुसपैठ के कारण यहां शांत घाटी में कुछ विशेष प्रकार के जीव अभी भी उपलब्ध हैं। यह अद्वितीय इसलिए है कि अब तक एकत्र थोड़े बहुत आंकड़ों और वर्गीकरण, प्राणि-वृत्तांत और पारिस्थितिक अध्ययन की दृष्टि से उपलब्ध यह जानकारी वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत दिलचस्प है। पश्चिमी घाट की शांत घाटी में 50 से 100 साल पहले तक बडी संख्या में कीड़ों, मछलियों, उभयचरों, सर्पों, और स्तनधारियों की प्रजातियां उपलब्ध थीं और अभी भी मौजूद हैं। 1970 तक यह एक अनजाना, और अछूता वन क्षेत्र था। क्षेत्र में प्रस्तावित एक पनबिजली परियोजना की घोषणा के बाद 1984 में यहां पार्क का निर्माण हुआ। अब शांत घाटी के दो क्षेत्र हैं। मुख्य क्षेत्र (89.52 वर्ग किमी) और सुरक्षित क्षेत्र (148 वर्ग किमी)। मुख्य क्षेत्र संरक्षित है और वन्य जीवन में कोई दखलंदाजी नहीं है। केवल वन विभाग के कर्मचारियों, वैज्ञानिकों, और वन्य जीवन फोटोग्राफरों यहां जाने की अनुमति है।
- उत्तरी इटली में पार्मा शहर के पास एक भूलभुलैया है। कहते हैं कि यह यूरोप की सबसे बड़ी भूलभुलैया है। एक प्रसिद्ध भूलभुलैया लखनऊ में भी है, लेकिन पार्मा वाले से अलग वह इमारत में बनी है और उससे अलग तो है ही।यूरोप की सबसे बड़ी भूलभुलैया बांसों की भूलभुलैया है। यूं तो हर कहीं जगह जगह पर मक्के के खेतों में भूलभुलैया बने मिल जाते हैं, लेकिन यूरोप की सबसे बड़ी भुलभुलैया के रास्ते तीन किलोमीटर में फैले हैं और इसका क्षेत्रफल है 70 हजार वर्ग मीटर। इस लिहाज से "लाबिरिंतो डेला मासोने" यूरोप की सबसे बड़ी भूलभुलैया है। पेशे से प्रकाशक रहे फ्रांको मारियो रिची ने इस भूलभुलैया का सपना तब देखा था जब वे नौजवान थे, तीस साल पहले। दरअसल पार्मा शहर के बाहर उनका एक वीकएंड हाउस हुआ करता था। वहां उनके दोस्त और उनके प्रकाशन गृह से जुड़े लेखक अर्जेंटीना के खॉर्गे लुइस बोर्गेस भी आकर रहा करते थे।बोर्गेस की रचनाओं का एक विषय लेवरिंथ भी था। 1899 में जन्मे बोर्गेस की 55 साल के होते होते आंखों की रोशनी पूरी तरह चली गई थी। फोंटानेलाटो में अपने वीकएंड हाउस में उनका हाथ पकड़ इधर उधर ले जाते रिची को इस बात का अहसास हुआ कि जीवन में अनिश्चितताएं कितनी महत्वपूर्ण होती हैं, जब आप चीजों को देख न सकें या उनका आभास न कर सकें। और इसी अहसास से फ्रांको मारियो रिची के उस सपने का जन्म हुआ जिसे उन्होंने बाद में अपनी निजी जमीन पर साकार किया।फ्रांको मारियो रिची अपने अनुभवों को दुनिया के बहुत से दूसरे लोगों के साथ साझा करना चाहते थे, उन्हें जिंदगी की भूलभुलैया की याद दिलाने के लिए एक कृत्रिम भूलभुलैया में ले जाना चाहते थे। तो अपनी जमीन पर उन्होंने बांस के लगभग दो लाख पेड़ लगाए। जो लोग गांवों में रहते हैं और जिनके पास बांस के बगीचे हैं उन्हें पता है कि बांस के पेड़ बहुत तेजी से बढ़ते हैं, हमेशा हरे भरे रहते हैं और 15 मीटर तक बढ़ सकते हैं। और बांस के पेड़ अगर बड़े इलाके में फैले हों तो उनके झुरमुट में कोई भी रास्ता भूल सकता है।फ्रांको मारियो रिची की भूलभुलैया में घुसने का एक रास्ता है और निकलने का भी, लेकिन उनके बीच इतने सारे रास्ते हैं कि आदमी उनमें खो ही जाता है। सारे रास्ते एक जैसे लगते हैं और लोगों को लगता है कि उन्हें तो यह रास्ता पता है और फिर लगता है कि यह तो बिल्कुल ही अलग जगह है बिल्कुल अलग। पता ही नहीं चलता कि वे कहां हैं और वहां से बाहर कैसे निकलें। "लाबिरिंतो डेला मासोने" एक ज्यामिति डिजाइन पर आधारित है और रोमन दौर की याद दिलाता है। सीधे सीधे रास्ते हैं जो 90 डिग्री के कोण पर मुड़ते है इसीलिए उन्हें याद रखना और मुश्किल हो जाता है। लेकिन ये भूलभुलैया इतनी भी बड़ी नहीं कि उससे बाहर न निकला जा सके और लोग घबड़ाने लगें. लोग यहां जितने कन्फ्यूज होते हैं, उतने ही मंत्रमुग्ध भी। इमरजेंसी की स्थिति में वे मदद मांग सकते हैं।भूलभुलैया में जगह-जगह पर पहचान के लिए पोजिशन मार्क लगे हैं। खोए हुए लोग फोन करके अपनी पोजिशन बताते हैं और उसके बाद भूलभुलैया के डायरेक्टर एदुआर्दो पेपीनो उन्हें खुद लेने पहुंचते हैं और बाहर लेकर आते हैं। वे बताते हैं, "इस भूलभुलैया का मूल अर्थ बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण है। यह हमारे जीवन का प्रतीक है, ऐसी ही मुश्किल चीजों से हमारा वास्ता अपने जीवन में पड़ता है और ऐसे ही मुश्किल रास्तों से हम गुजरते हैं और आखिर में हमें अपनी मुक्ति का रास्ता मिल ही जाता है। "
- आपने ये बात, तो जरूर सुनी होगी कि शहर में रहने वाले लगभग हर इंसान के पास अपनी गाड़ी होती है। लेकिन क्या आपने कभी ऐसे शहर के बारे में सुना है, जहां रहने वाले हर आदमी के पास अपना हवाई जहाज है। इतना ही नहीं इस शहर के लोग दफ्तर या अपने काम पर जाने के लिए भी लोग अपने एयरक्राफ्ट का ही इस्तेमाल करते हैं। आपको ये बात थोड़ी अजीब जरूर लग रही होगी, लेकिन यह सच है।दरअसल, ये हवाई शहर अमेरिका के कैलिफोर्निया में है। इस शहर में रहने वाले अधिकतर लोग पायलट हैं। ऐसे में प्लेन रखना आम बात है। इसके अलावा इस शहर में डॉक्टर्स, वकील आदि भी हैं, लेकिन ये लोग भी प्लेन रखने के शौकीन हैं। इस शहर में रहने वाले लोगों को हवाई जहाज का इतना शौक है कि हर शनिवार सुबह सभी लोग इक_ा होते हैं और लोकल एयरपोर्ट तक जाते हैं।हवाई शहर में प्लेन का मालिक होना एकदम वैसा ही है जैसे कार का मालिक होना। यहां के कॉलोनी की गलियों और लोगों के घरों के सामने बने हैंगर में विमानों को देखा जा सकता है। हैंगर वो जगह होती है, जहां एयरप्लेन वगैरह खड़े किए जाते हैं। इस शहर की सड़कें भी काफी चौड़ी हैं, ताकि पायलट इसे रनवे के तौर पर इस्तेमाल कर सकें।बता दें कि इस शहर में हवाई जहाजों के पंखों को नुकसान ना पहुंचे इसके लिए सड़क के संकेतों और लेटरबॉक्स को सामान्य से कम उंचाई पर लगाया गया है। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि इस शहर में सड़क के नाम भी विमानों के साथ जुड़े हुए हैं जैसे कि बोइंग रोड।द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने हवाई जहाजों के परिचालन को खूब बढ़ावा दिया और इसके लिए देश में कई हवाई अड्डे बनाए गए। वहां पायलटों की संख्या 1939 में 34 हजार थी, जो 1946 तक बढ़कर 4 लाख से भी अधिक हो गई। ऐसे में अमेरिकी नागरिक उड्डयन प्राधिकरण ने देश में आवासीय हवाई अड्डों के निर्माण का प्रस्ताव रखा था, जिसका उद्देश्य सेवानिवृत्त सैन्य पायलटों को समायोजित करना भी था।
- ऐसे कई उदाहरण हैं जब कभी-कभी हम अपने फोन को घर में रखकर भूल जाते हैं और हमें याद नहीं रहता है कि हमने उसे कहां रखा दिया है। तो कभी-कभी जब हम घर से बाहर होते हैं तो फोन चोरी या गुम हो जाता है। पहली वाली स्थिति में हम पेयर्ड स्मार्टवॉच पर फाइंड माई फोन फीचर का उपयोग करके अपने एंड्रॉयड फोन को आसानी से ढूंढ सकते हैं, इसके लिए हमें किसी से उस पर कॉल करने के लिए कहना होगा। लेकिन अगर फोन घर से बाहर कहीं चोरी हो गया है, तो हमें थोड़ी अधिक मदद की जरूरत होगी।फाइंड माय फोन फीचर का करना होगा इस्तेमालअच्छी बात यह है कि गूगल यूजर को एक आसान तरीका उपलब्ध करवाता है, जिससे वे खो चुके एंड्रॉयड फोन को ढूंढा सके, उसे लॉक कर सके या उसका डेटा मिटा सके। इसके लिए फाइंड माय डिवाइस फीचर का उपयोग करना होगा, जो अनजान लोगों से बचाने के लिए उसमें रिमोटली पिन, पासवर्ड या पैटर्न सेट करने की सुविधा देता है।साथ ही यूजर खो चुके फोन की लॉक स्क्रीन पर एक मैसेज भी दिखा सकता है कि जिसमें वे खोजकर्ता से कॉल करने के लिए भी कह सकता है। यह फीचर एंड्रॉयड फोन से डेटा डिलीट करने की भी सुविधा देता है ताकि खोजकर्ता इसका उपयोग न कर सके और इससे डिवाइस की सिक्योरिटी को भी ट्रिगर किया जा सकता है, ताकि फोन दूसरे के लिए किसी काम का न रहे।ऐसे एंड्रॉयड स्मार्टफोन ढूंढे और डेटा डिलीट करेंअगर आप अपने फोन को ढूंढना चाहते हैं तो इसके लिए फोन का ऑन होना, गूगल अकाउंट में साइन इन होना, मोबाइल डेटा या नेटवर्क से कनेक्टेड होना, लोकेशन और फाइंड माय डिवाइस भी ऑन रहना जरूरी है। अगर ये सब कुछ आपने अपने स्मार्टफोन में पहले से किया हुआ है और फिर आपका फोन खोता है तो आप इन स्टेप्स को फॉलो कर सकते हैं...1. https://www.google.com/android/find सबसे पहले आपको इस लिंक पर क्लिक करना होगा और अपने गूगल अकाउंट में साइन इन करना होगा। एक बार साइन इन होने के बाद आप देखेंगे कि आपका फोन टॉप लेफ्ट कॉर्नर पर दिख रहा होगा। इसके बाद आपको फोन को चुनना होगा। ये आपको फोन के बैटरी की जानकारी और आखिरी बार ऑनलाइन की जानकारी देगा।2. इसके बाद गूगल आपको लोकेशन दिखाएगा कि आपका फोन कहां है। अगर आपको फोन नहीं मिलता है तो ये आपको लास्ट लोकेशन दिखाएगा।3. अगर फोन के लोकेशन को आप पहचानते हैं तो आप वहां जाकर अपने फोन को रिंग कर सकते हैं। ये 5 मिनट तक नॉन स्टॉप रिंग करता रहेगा जिससे आपको आवाज सुनाई देगी, भले ही आपने फोन को साइलेंट कर रखा हो।4. अगर किसी अनजान जगह पर फोन की लोकेशन दिखाई दे रही है, तो अकेले फोन ढूंढने की कोशिश न करें। पुलिस की मदद लें। इसके लिए आपको फोन का सीरियल नंबर और IMEI नंबर बताना होगा। https://support.google.com/store/answer/3333000?hl=en इस लिंक को क्लिक कर आप अपने फोन का सीरियल नंबर पा सकते हैं।5. अगर फोन लॉक करना चाहते हैं तो 'सिक्योर डिवाइस ऑप्शन' चुने। यह आपके फोन का लॉक कर देगा और गूगल अकाउंट भी साइन-आउट कर देगा। इसकी मदद से खो चुके फोन की लॉक स्क्रीन पर आप अपना फोन नंबर या कोई मैसेज भी छोड़ा जा सकता है, ताकि किसी को मिले तो वो आपके संपर्क कर सके। अगर आपने फोन लॉक नहीं किया है, तो इस फीचर की मदद से फोन लॉक भी किया जा सकता है।6. आप थर्ड पार्टी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं और इरेज डिवाइस कर सकते हैं। इससे फोन का पूरा डेटा हमेशा के लिए डिलीट हो जाएगा और कोई भी आपके फोन और डेटा के साथ खिलवाड़ नहीं कर पाएगा। अगर आपका फोन ऑफलाइन है तो आप तभी डेटा डिलीट कर पाएंगे जब कोई आपका फोन ऑन कर ऑनलाइन आएगा।(File Photo)
- अरुणाचल प्रदेश की जिरो घाटी में बसे अपातानी जनजाति की महिलाएं बाकी सबसे अलग दिखती आई हैं। कभी किसी और जनजाति के लोगों से अपनी महिलाओं को अपहरण से बचाने के लिए शुरु हुआ यह रिवाज कभी अपने चरम पर था। हालांकि इस पर सरकारी रोक लगने के कारण अब यह प्रचलन से गायब हो रहा है, लेकिन अभी भी गांव में बुजुर्ग महिलाएं अपनी नाक के दोनों ओर ठेपियां लगाए नजर आ जाती हैं।जिरो घाटी में अपातानी जनजाति के 37 हजार से भी अधिक सदस्य बसते हैं। ये लोग प्रक्रियाबद्ध तरीके से खेती की जमीन का इस्तेमाल करते हैं और अपने आसपास की पारिस्थितिकी के प्रबंधन और संरक्षण के बारे में गहरी समझ रखते हैं। यहां की महिलाएं अपनी नाक में दोनों ओर ठेपियों जैसा स्थानीय लकड़ी से बना एक प्लग सा पहनने के कारण अलग से पहचान में आती रही हैं, जिसे यापिंग हुलो कहते हैं। इस पर 1970 के दशक के शुरुआत में सरकार ने रोक लगा दी। कुछ का कहना है कि यह सुंदरता से जुड़ा मामला है। वहीं कुछ मानते हैं कि पहले के समय में किसी और जनजाति के लोगों से अपनी महिलाओं को अपहरण से बचाने के लिए अपनी एक अलग पहचान के तौर पर ऐसे करना शुरु किया गया। नाक में इस तरह लकड़ी की ठेपियां अजीबोगरीब तो लगती ही थीं, साथ ही स्वास्थ्यगत कारणों से भी ये ठीक नहीं था। इसका विरोध भी होने लगा। खासकर इस जनजाति के युवा लोग ही इसका विरोध करने लगे. इससे इस आदिवासी जनजाति की सुंदर महिलाएं भी बदसूरत लगने लगती थीं। वर्ष 1970 से ये परंपरा बंद हो गई. हालांकि गांव की वृद्ध महिलाएं अब भी इसके साथ नजर आ जाती हैं।यह सब बंद होने के बाद आजकल इस इलाके को यहां किवी के फल से बनी वाइन के लिए जाना जाता है। हाल के सालों तक अरुणाचल में किवी की खेती करने वाले बहुत किसान नहीं होते थे, लेकिन 2016 में कृषि इंजीनियरिंग पढऩे वाली इसी जनजाति की एक महिला ताखे रीता ने अपने गांव में वाइनरी का काम शुरु किया। 2017 में उन्होंने नारा-आबा नाम से शुद्ध ऑर्गेनिक किवी वाइन बनाना शुरु किया।किवी से वाइन बनाने की प्रक्रिया में फरमेंटेशन की प्रक्रिया काफी समय लेती है। इसमें 7 से 8 महीने लगते हैं। अरुणाचल के ऑर्गेनिक फलों से बनी यह वाइन पूर्वोत्तर भारत के दूसरे राज्यों जैसे असम और मेघालय में भी मिलती है। अब इन्हें भारत से बाहर निर्यात किए जाने की योजना पर काम चल रहा है। रीता के इस नए बिजनेस से इलाके के किवी किसानों को काफी बढ़ावा मिला है। वे उन्हें फलों को खरीदने का भरोसा देती हैं और उन्हें इसकी अच्छी खेती के लिए ट्रेनिंग भी देती हैं। किसान कहते हैं कि किवी से वाइन बनाने के कारोबार ने उन्हें अपनी आमदनी बढ़ाने और जीवनस्तर सुधारने की नई संभावना दी है। इस वाइन के कारण जिरो घाटी के कई किसान अब खेती किसानी के अपने मूल पेशे में लौटने लगे हैं। इस घाटी में मिलने वाली अच्छी धूप से यहां फल अच्छे उगते हैं। ऑर्गेनिक तरीक से किवी उगा कर उन्हें अपनी आय का एक स्थाई स्रोत मिल गया है।
- केप कैनावेरल (अमेरिका) । हाल में मंगल की सतह पर उतरे नासा के रोवर ने इस सप्ताह लाल ग्रह पर अपने पहले प्रायोगिक मुहिम में 21 फुट की दूरी तय की। मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना तलाशने की मुहिम के तहत पर्सेवियरेंस रोवर ग्रह की सतह पर उतरने के दो सप्ताह बाद अपने स्थान से कुछ दूर चला। रोवर शुक्रवार को आगे और पीछे चला। यह प्रक्रिया करीब 33 मिनट बेहद सुगमता से चली। कैलिफोर्निया के पासाडेना में नासा के जेट प्रणोदक प्रयोगशाला ने एक संवाददाता सम्म्मेलन में इस घटना की तस्वीरें साझा कीं। इंजीनियर अनास जराफियान ने कहा, रोवर के चलने और उसके पहियों के निशान देखकर मैं बहुत खुश हूं।''उन्होंने कहा, ‘‘अभियान में यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।'' जितनी जल्दी पर्सेवियरेंस पर सिस्टम का नियंत्रण पूरा होगा, रोवर एक प्राचीन नदी के डेल्टा के लिए आगे बढ़ेगा और धरती पर लौटने से पहले वहां से चट्टानें एकत्र करेगा।
- घर में चूहे, कॉकरोच, मच्छर-मक्खी होना किसी को पसंद नहीं होता। परेशानी तब ज्यादा बढ़ जाती है, जब इनका आतंक घर में बढ़ जाता है और घर की चीजें नुकसान होने लग जाती हैं। ऐसे में कई तरह के उपाय करने के बाद भी कभी-कभी इनसे पीछा छुटाना बहुत मुश्किल हो जाता है। आज हम आपको ऐसे उपाय बता रहे हैं जिनसे चूहे, कॉकरोच, छिपकली आपके घर से चले जाएंगे।चूहों को भगाने के उपाययदि आप घर में चूहों से परेशान हो तो पिपरमिंट के कुछ टुकड़ों को घर और किचन के कोनों कोनों में रख दें। चूहे पिपरमिंट की गंध से भागते हैं। ऐसा करने से वे दोबारा किचन में नहीं दिखेंगे, यदि आपको लगता है कि चूहे फिर भी आ रहे हैं तो आप हफ्ते में 3-4 दिन लगातर करते रहें। ऐसा करने से चूहे हमेशा के लिए आपके घर को अलविदा कह देंगे।मक्खी भगाने के उपायमक्खी से छुटकारा पाने के लिए आप सबसे पहले इस बात का ध्यान जरूर दें कि घर के दरवाजे बंद रखें। और घर की साफ सफाई रखें। इसके अलावा आप किसी भी तरह के तेज गंध वाले तेल में रूई को भिगों लें और इसे दरवाजों के पास रख दें। क्योंकि मक्खियां तेज गंध से दूर भागती हैं।ऐसे भगाएं छिपकलियांघर में छिपकलियों को भगाने के लिए आप मोर के तीन से चार पंखों को दीवारों पर चिपका दें। मोर छिपकलियों को खा जाते हैं, इसलिए छिपकलियां मोर के पंखों से दूर भागती हैं। इन सरल और आसान घरेलू उपायों को अपनाने से आप इन समस्याओं से आसानी से मुक्ति पा सकते हो।
- वेलिंगटन। गहरे सागर में रहने वाले कई जीव अंधेरे में चमकने के लिए जाने जाते हैं। अब पहली बार मरीन वैज्ञानिकों को विशाल चमकीली शार्क मिली है। रिर्चर्स ने न्यूजीलैंड के पूर्वी तट पर एक काइटफन शार्क स्पॉट की थी जिसमें खुद चमकने की क्षमता है। यह शार्क छह फीट तक लंबी हो सकती है और समुद्र स्तर से 984 फीट नीचे रहती है।इसके बारे में नई खोज ने इसे चमकने वाला सबसे बड़ा वर्टिब्रेट ( यानी रीढ़ की हड्डी वाला जीव) बना दिया है। यह शार्क जहां रहती है उसे महासागर का ट्वाइलाइट जोन यानी गोधुलि क्षेत्र कहते हैं। यह समुद्र के 3 हजार 200 फीट नीचे तक जाता है और यहां रोशनी नहीं पहुंचती। स्टडी में पाया गया है कि क्योंकि ये ऐसी अंधेरी जगह पर रहती हैं, उनके छिपने के लिए कोई जगह नहीं होती।क्यों चमकती हैं ये शार्कवह अपने शरीर की चमक को दूसरे जीवों को धोखा देने के लिए इस्तेमाल करती हैं जो इनके लिए पानी की चमकीली सतह की तरह दिखकर खुद को छिपाने का तरीका होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि धीमी गति से तैरने वाली शार्क तेज गति से तैरने वाले अपने शिकार को पकडऩे के लिए इसका इस्तेमाल करती है ताकि छिपकर हमला कर सके।केमिकल की वजह से चमकफ्रंटियर्स इन मरीन साइंस जर्नल में छपी स्टडी बेल्जियम और न्यूजीलैंड के वैज्ञानिकों ने मिलकर की है जिन्होंने जनवरी 2020 में खोज की थी और 26 फरवरी को इसके नतीजे छपे हैं। इस प्रजाति को पहले से पहचाना गया है लेकिन चमकने की क्षमता पहली बार देखी गई है। इसे लिविंग लाइट या कोल्ड लाइट भी कहते हैं। मछली के अंदर मौजूद केमिकल लूसिफेरिन की वजह से चमक निकलती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह क्षमता हमारे ग्रह के सबसे बड़े ईकोसिस्टम में यकीनन एक बड़ी भूमिका निभाती है।
- रूस में अजीब भूवैज्ञानिक धारियों ने नासा के शोधकर्ताओं को हैरान कर दिया है। साइबेहरिया इलाके में मर्खा नदी के पास आकाश से ली गईं सैटेलाइट तस्वीरों में रहस्यममयी धारियां नजर आ रही हैं। इन धारियों ने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के वैज्ञानिकों को भी हैरान कर दिया है। वैज्ञानिक यह समझ नहीं पा रहे हैं कि इन धारियों के पीछे वजह क्या है।पैटर्न सबसे ज्यादा कब दिखाई देता हैनासा द्वारा कई सालों से लैंडसैट 8 से कैप्चर की गई इन फोटोज पर नजर डालें तो सिलवटदार जमीन नजर आ रही है। मर्खा नदी के दोनों ओर गहरी और हल्की, दोनों ही तरह की धारियां नजर आ रही हैं। ये रहस्यमयी धारियां सभी मौसमों में नजर आ रही है, लेकिन सर्दियों में बर्फ की वजह से ये एक-दूसरे से अलग ये धारियां बिल्कुंल साफ नजर आ रही हैं।बर्फ से जुड़ा है मामलासाइबेरिया में दिखीं इन रहस्यमयी धारियों को लेकर वैज्ञानिक आश्वस्त नहीं हैं, लेकिन वे मानते हैं कि इसका रहस्य बर्फ से है। रूस के इस इलाके में कुछ समय के लिए ही जमीन दिखाई देती है और साल के 90 प्रतिशत दिनों में बर्फ से ढंका रहता है।'बर्फ पिघलने के बाद बने निशान'कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कभी बर्फ के नीचे दबने और कभी बर्फ के पिघलने पर जमीन के बाहर आने से यह रहस्यमयी डिजाइन बना है। इस चक्र के दौरान, मिट्टी और पत्थर स्वाभाविक रूप से खुद को आकार देते हैं।नार्वे में भी देखी गई हैं धारियांकुछ अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि करोड़ों सालों में जमीन के क्षरण की वजह से ये धारियां पड़ी हैं। इस तरह की धारियां नार्वे में भी देखी गई हैं, लेकिन साइबेरिया के मुकाबले यह बहुत छोटी हैं।मिट्टी-पत्थर के कटाव से बने निशानयूएस जियोलॉजिकल सर्वे के अनुसार, पैटर्न मिट्टी और पत्थर के कटाव का एक परिणाम हो सकता है और ये धारियां चट्टानों की तलछट है। हालांकि नासा के वैज्ञानिकों का मानना है कि यह धारियां अभी भी उनके लिए रहस्य बनी हुई हैं।कटाव से कैसे बने हैं पैटर्नजब पिघलती बर्फ या बारिश का पानी नीचे की ओर बहता है, तो चट्टानों के कटाव के कारण स्लाइस के समान परतें बन सकती हैं। यूएस जियोलॉजिकल सर्वे के एक शोधकर्ता ने दावा किया कि गहरे रंग की धारियां खड़ी या अधिक ढलान वाले क्षेत्रों को दर्शाती हैं, जबकि हल्की धारियां सपाट क्षेत्रों को दिखाती हैं।
- - अमेरिका और रूस के दो टापू हैं 3 मील दूर- फिर भी दोनों के बीच 21 घंटे का है अंतर- बीच से गुजरती है इंटरनैशनल डेट लाइन- कोल्ड वॉर के बाद दोनों में 'बढ़ी दूरी'मॉस्को/वॉशिंगटन। बिग डायोमीड और लिटिल डायोमीड नाम के दो टापू एक-दूसरे से सिर्फ तीन मील दूर हैं लेकिन इनके बीच आती है प्रशांत महासागर से गुजरने वाली इंटरनैशनल डेट लाइन। इससे बड़ा टापू छोटे टापू से एक दिन आगे रहता है। इंटरनैशनल डेट लाइन एक काल्पनिक रेखा है जो उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक जाती है। यह कैलेंडर के एक दिन और दूसरे दिन के बीच की सीमा होती है।इसकी वजह से बिग डायोमीड को टू मारो और लिटिल डायोमीड को यस्टरडे आइसलैंड भी कहते हैं। ये दोनों इतने करीब हैं कि सर्दियों में बर्फ का पुल बनने पर इनके बीच पैदल जाया जा सकता है। हालांकि, कानूनी रूप से इसकी इजाजत नहीं है।रूस और अमेरिका के बीचदोनों टापू अलास्का और साइबेरिया के बीच बेरिंग स्ट्रेट पर हैं। बड़ा टापू रूस के हिस्से में है और छोटा अमेरिका के हिस्से में। इन्हें ग्रीक संत डायोमीडीस का नाम दिया गया है। इनकी खोज 16 अगस्त, 1728 को डैनिश-रूसी नैविगेटर वाइटस बेरिंग ने की थी। इसी दिन रूस की ऑर्थोडॉक्स चर्च संत की याद में मनाती है। बिग डायोमीड पूरी तरह सुनसान रहता है जबकि लिटिल डायोमीड पर 110 लोग रहते हैं।इनके बीच के रास्ते को बर्फ का पर्दा भी कहते हैं। हालांकि, ऐसा तापमान की वजह से नहीं बल्कि शीत युद्ध के दौरान दोनों देशों के बीच आए तनाव के कारण है। शीतयुद्ध के बाद रूस ने यहां से अपने लोगों को साइबेरिया भेज दिया था जबकि अमेरिका के लोग अभी भी इस टापू पर रहते हैं।
- मार्च का महीना साल का तीसरा महीना होता है। इस महीने कई लोगों का जन्मदिन आता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, हमारे जन्म का महीना हमारे जीवन के कई रहस्यों को बताता है। मार्च के महीने में जिन लोगों का जन्मदिन होता है उन लोगों में कुछ खूबियां तो कुछ दोष भी पाए जाते हैं। आइए ज्योतिष शास्त्र के नजरिए से जानते हैं मार्च माह में जन्म लेने वाले जातकों के स्वभाव, गुण एवं दोषों के बारे में -मार्च माह में जन्म लेने वाले जातक हृदय से कोमल होते हैं। इस महीने जन्म लेने वाले जातक परोपकारी, दानी और धार्मिक स्वभाव वाले होते हैं। धर्म और समाज कल्याण के कार्यों में आप बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं। मिलनसार होने के कारण आप आसानी से अंजान लोगों से अपनी मित्रता को स्थापित कर लेते हैं। इसलिए आपकी दोस्ती का दायरा विस्तृत होता है।ज्योतिष विज्ञान के अनुसार जिन लोगों का जन्म मार्च के महीने में होता है वे वैचारिक रूप से अधिक महत्वाकांक्षी होते हैं। भले आप दिखने में सामान्य दिखाई देते हों, लेकिन वैचारिक रूप से गंभीर होते हैं। आप जब तक उस विषय पर बात नहीं करते हैं तब तक आपको उसकी पूर्ण जानकारी न हो। आप परिस्थिति का पूर्वानुमान लगा लेते हैं जिसके चलते आपको लाभ मिलता है।मार्च माह में जन्मे जातकों को अपनी जिम्मेदारियों का पूरा अहसास होता है। आपको जो भी जिम्मेदारी दी जाती है उसमें आप खरा उतरते हैं। आप अपने कार्य का पूरा सम्मान करते हैं। आपकी यही बात आपको सक्सेसफुल बनाती हैं। वहीं समाज हित में बनाए गए नियमों का आप अच्छी तरह से पालन करते हैं और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देते हैं।अव्वल नंबर के बातूनीजिन लोगों का जन्म मार्च के महीने में होता है वे अव्वल नंबर के बातूनी होते हैं। अपनी बात करने की कला से आप महफिर में छा जाते हैं। लेकिन कभी-कभी लोग आपके बातूनी स्वभाव से नाराज भी हो जाते हैं। भले ही आप बातूनी क्यों ना हों, लेकिन कई मौकों पर आप निर्णय लेने में हिचकिचा भी जाते हैं। आपके दो-तरफा रवैया से लोग खफा हो जाते हैं।थोड़े अडिय़लइस महीने जन्में लोग अडिय़ल स्वभाव के होते है। इनके द्वारा कही गई बातों को ये लोग पत्थर की लकीर मानते है। हालांकि कई बार यही आदत इनके लिए रास्ते का रोड़ा बन जाता है। इसके साथ ही आप बातों को बढ़ाचढ़ाकर भी पेश करते हैं। जिससे लोग आपके सामने गुप्त बातों को साझा करने से कतराते हैं।इन चीजों के शौकीनजिन महिलाओं का मार्च के महीने में जन्म होता है वे सजने संवरने की शौकीन होती हैं। जीवन में एडवेंचर आपको पसंद आता है। रहस्यमयी चीजों को जानने में गहरी रूचि रखते हैं। धर्म और अध्यात्म के विषयों को जानने की तीव्र इच्छा होती है।उपायइस माह में जन्में लोगों को भगवान विष्णु की पूजा जरूर करनी चाहिए। इस माह में जन्में जातक को भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों का उच्चारण करना चाहिए ऐसा करने से व्यक्ति के रूके हुए कार्य जल्दी सिद्ध हो जाते हैं। साथ ही प्रत्येक रविवार को तांबे के पात्र में जल लें और उसमें शहद मिलाकर प्रात:काल सूर्य देव को अध्र्य दें।शुभ अंक= 3, 7, 9शुभ रंग =हरा, पीला और गुलाबीशुभ दिन =रविवार, सोमवार और शनिवार
- मिर्च से जुड़ी दो बातें काफी प्रचलित हैं। पहला ये कि यह हमारे देश से कोई ताल्लुक नहीं रखती है यानी करीब 7 से 8 सौ साल पहले यह भारत आई थी और दूसरा ये कि दुनिया की सबसे तीखी मिर्च भी भारत में ही पाई जाती है। लेकिन एक मिर्च ऐसी भी है, जो बिल्कुल तीखी नहीं होती है। आप समझ ही गए होंगे कि हम शिमला मिर्च की बात कर रहे हैं।शिमला मिर्च वैसे तो भारत में पांच सौ साल पहले ही आई थी, लेकिन इसके साक्ष्य साढ़े सात हजार ईसा पूर्व के मिले हैं। नेटिव अमेरिकंस इतिहास में शिमला मिर्च का जिक्र आता है। ऐसा माना जाता है कि यह मिर्च दुनियाभर में यहीं से फैली है। इस मिर्च से क्रिसोफर कोलंबस का नाम भी जुड़ा है। जी वही कोलंबस, जिन्होंने अमेरिका की खोज की थी। माना जाता है कि कोलंबस ही इस मिर्च को यूरोप तक लेकर आए थे।भारत में पुर्तगाली अपने साथ कई सब्जियां और खाने का सामान लाए थे। उनमें से अधिकांश पूरे भारत में हर किचन में पाई जाती हैं। इनमें आलू, टमाटर, अनानास, पपीता और काजू शामिल हैं। इस सूची में शिमला मिर्च का भी नाम है। 1510 ई. में जब पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्जा किया, तो वे अपने साथ खास सब्जियां भी लेकर आएं। इसके बदले वे भारत से कई मसाले लेकर गए थे।हमारे देश में कैप्सिकम के आते ही उसे भारतीय नाम दे दिया गया 'शिमला मिर्च'। शिमला मिर्च अब भारत के लगभग सभी राज्यों में उगाया जा रहा है। देश में अब अलग-अलग रंग की शिमला मिर्च भी बहुतायक में उगाई जाने लगी है, जैसे कि पीली, नारंगी आदि।शिमला मिर्च में फाइबर, कार्ब, विटामिन ए, विटामिन सी, विटामिन ई, विटामिन के और प्रोटीन जैसे जरूरी तत्व पाए जाते हैं। इसके साथ ही इसमें आयरन, मैग्निशियम, फास्फोरस, पोटैशियम, कॉपर, मैगनीज आदि भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इसलिए अब यह सब्जी भारतीयों की खास पसंद बन चुकी है।
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इंसानों के ब्लड बैंक के बारे में आपने बहुत सुना होगा, लेकिन क्या आपने कभी जानवरों के ब्लड बैंक के बारे में सुना है। आपको सुनने में ये बात थोड़ी अजीब जरूर लग रही होगी, लेकिन यह सच है। दुनियाभर के कई देशों में 'पेट्स ब्लड बैंक' बनाए गए हैं। इन ब्लड बैंकों में अधिकांश बिल्लियों और कुत्तों का खून मिलता है। क्योंकि इन जानवरों को अधिकांश लोग पालते हैं। अगर कोई कुत्ता या बिल्ली को खून की जरूरत पड़ती है, तो यही ब्लड बैंक उनके काम आते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि कुत्ते और बिल्लियों में भी इंसानों की तरह अलग-अलग प्रकार के ब्लड ग्रुप होते हैं। जहां कुत्तों में 12 प्रकार के ब्लड ग्रुप होते हैं, तो वही बिल्लियों में तीन प्रकार के ब्लड ग्रुप पाए जाते हैं।
उत्तरी अमेरिका में स्थित पशु चिकित्सा ब्लड बैंक के प्रभारी डॉक्टर केसी मिल्स के मुताबिक, कैलिफोर्निया के डिक्सन और गार्डन ग्रोव शहरों के अलावा मिशिगन के स्टॉकब्रिज, वर्जीनिया, ब्रिस्टो और मैरीलैंड के अन्नापोलिस शहर समेत उत्तरी अमेरिका के कई शहरों में पशु ब्लड बैंक हैं। यहां लोग समय-समय पर अपने पालतू जानवरों को ले जाकर रक्तदान करवाते हैं। डॉक्टर मिल्स ने बताया कि पशुओं के रक्तदान की प्रक्रिया में लगभग आधे घंटे का समय लगता है। सबसे खास बात तो ये है कि उन्हें एनेस्थेसिया देने की भी जरूरत नहीं पड़ती है।
हालांकि, ऐसी जगह जहां पर पशु ब्लड बैंक नहीं है, वहां लोगों को जागरूक करने के लिए रक्त और प्लाज्मा दान कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटेन और अमेरिका में लोग पशुओं के रक्तदान के प्रति जागरूक हैं, जबकि बाकी जगहों पर पशुओं के रक्तदान के प्रति अभी जागरूकता फैलाने की जरूरत है। - असम की मागूरी झील में मंदारिन डक नामक एक बत्तख को करीब 120 साल बाद देखा गया है। विश्व का सबसे सुंदर बत्तख कहे जाने वाले मंदारिन डक की तलाश सबसे पहले स्वीडन के जीव विज्ञानी कार्ल लीनेयस ने 1758 में की थी।यह बत्तख चीन, जापान, कोरिया और रूस के कुछ हिस्सों में भी पाया जाती है। फिलहाल विशेषज्ञ पता लगा रहे हैं कि यह पक्षी इतने लंबे अंतराल के बाद कैसे और क्यों असम तक पहुंचा है। असम ही नहीं बल्कि मुंबई, कोलकाता, दिल्ली और पुणे जैसे दूरदराज के इलाकों से भी पक्षी प्रेमी इस बत्तख को देखने के लिए बीते एक सप्ताह के दौरान तिनसुकिया जिले का दौरा कर चुके हैं। इलाके में सर्वेक्षण करने वाली वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक टीम भी इस बत्तख को देख चुकी है।ऊपरी असम के तिनसुकिया जिले में स्थित डिब्रू-साईखोवा नेशनल पार्क के भीतर मागुरी झील में बीते एक सप्ताह से इस दुर्लभ व सुंदर बत्तख को देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ रही है। स्थानीय लोगों ने इसे जीवन में पहली बार देखा है। यह बत्तख पूर्वी एशिया में पाई जाती है। 18वीं सदी में इनको इंग्लैंड भी ले जाया गया था। पहले चीन बड़े पैमाने पर इस पक्षी का निर्यात करता था, लेकिन 1975 में इसके निर्यात पर पाबंदी लगा दी गई थी. वैसे, 1918 में इन बत्तखों को न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में भी देखा जा चुका है। उस समय स्थानीय लोगों और पक्षी प्रेमियों को काफी हैरत हुई थी। हालांकि दुर्लभ होने के बावजूद इसको विलुप्तप्राय प्रजाति का जीव नहीं माना जाता।
- इंसानी कान एक सुई के गिरने की हल्की सी आवाज को भी पहचानता है और विस्फोट के बड़े शोर को भी। हम जो भी कुछ सुनते हैं, विज्ञान की दुनिया में उसे डेसीबल स्केल पर नापा जाता है। जानिए, आपके कान के लिए सही डेसीबल कितना है।0 डेसीबलसन्नाटे की भी एक आवाज होती है। डेसीबल स्केल पर इसे सबसे कम शोर के रूप में आंका जाता है। इसे शून्य डेसीबल कहते हैं। जब शोर इससे दस गुना होता है तो उसे 10 डेसीबल, सौ गुना होता है तो 20 डेसीबल, हजार गुना को 30 डेसीबल कहा जाता है।10 डेसीबलपत्तों के गिरने की आवाज दस डेसीबल की होती है। सांसों का शोर भी इतना ही होता है। 10 से 40 डेसीबल के बीच की आवाज पर हमारा बहुत ज्यादा ध्यान नहीं जाता है।20 डेसीबलघड़ी की टिक टिक बीस डेसीबल की होती है। यूं तो 40 डेसीबल तक की आवाज कानों को मधुर लगती है लेकिन घड़ी की टिक टिक उबाऊ भी हो सकती है।30 डेसीबलजब किसी के कान में हम धीरे से कोई बात कहते हैं, तो वो आवाज तीस डेसीबल की होती है।40 डेसीबलफ्रिज की आवाज चालीस डेसीबल की होती है। दिन रात फ्रिज चलता है और हमें इसे सुनने की ऐसी आदत हो जाती है कि इसकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।50 डेसीबलबारिश का शोर पचास डेसीबल का होता है। पंखे की आवाज भी इतनी ही होती है।60 डेसीबलबातचीत का शोर साठ डेसीबल का होता है। 40 से 60 डेसीबल तक की आवाज इंसानी कानों के लिए मधुर होती है। इसे सुनने में ना कानों पर जोर पड़ता है और ना ही तनाव होता है।70 डेसीबलकार की आवाज 70 डेसीबल की होती है। सत्तर डेसीबल से ऊपर की हर आवाज को ऊंचे स्वर का माना जाता है।80 डेसीबलट्रक का शोर 80 डेसीबल का होता है। हेडफोन लगाए हों तो कोशिश कीजिए कि 85 डेसीबल से ऊपर ना सुनें। अधिकतर स्मार्टफोन भी इससे ऊपर चेतावनी देते हैं।90 डेसीबलहेयर ड्रायर की आवाज 90 डेसीबल की होती है। 90 से 110 डेसीबल बेहद ऊंचे स्वर की श्रेणी में आता है जिससे कान भी खराब हो सकते हैं।100 डेसीबलहेलीकॉप्टर जब हमारे सिर के ऊपर से गुजरता है, तब सौ डेसीबल की आवाज आती है। 15 मिनट से ज्यादा 100 डेसीबल पर हेडफोन लगाकर म्यूजिक सुनेंगे तो कान खराब होना तय है।110 डेसीबलडिस्कोथेक या नाइट क्लब में 110 डेसीबल की आवाज होती है। इसीलिए वहां एक दूसरे से बात करने के लिए जोर जोर से चिल्लाना पड़ता है।120 डेसीबलपुलिस का सायरन 120 डेसीबल का होता है ताकि दूर दूर तक सुनाई दे सके।130 डेसीबलजेट प्लेन जब टेक ऑफ करता है तब 130 डेसीबल की आवाज होती है। गोली चलने पर भी इतनी ही आवाज होती है।140 डेसीबलइतने ऊंचे स्वर की आवाज सुनने पर कान में दर्द होने लगता है।
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लंदन। वैज्ञानिकों ने डीएनए के छोटे वृत्तों को एक कोशिका के अंदर गतिविधियां करते हुए दर्शाने के लिए एक तकनीक विकसित की है। उन्हें पहली बार ऐसा करने में कामयाबी मिली है। लीड्स, शेफील्ड, यॉर्क और जॉन इंस सेंटर के अनुसंधानकर्ताओं की टीम ने अत्याधुनिक आणविक बल सूक्ष्मदर्शी प्रौद्योगिकी और एक सुपर कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हुए इस बात का खुलासा किया है कि मुड़े हुए आकार में मौजूद डीएनए घुमावदार आकृति बनाते हैं।
अब से पहले वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी का इस्तेमाल करते हुए डीनए की सिर्फ स्थिर तस्वीरें ही देख पाते थे। लेकिन अब यॉकशायर की टीम ने डीएनए के मुड़े हुए अणुओं का वीडियो बनाने के लिए अत्याधुनिक आणविक बल सूक्ष्मदर्शी को सुपर कंप्यूटर से जोड़ दिया। इस तकनीक के जरिए अनुसंधानकर्ता डीएनए में एक-एक अणु की स्थिति को और वह कैसे मुड़ता है, उसे देख सकते हैं। शेफील्ड विश्वविद्यालय में पॉलीमर एवं साफ्ट मैटर की डॉ एलिस पाइन ने यह वीडियो बनाई। उन्होंने कहा, ''डीएनए जैसी छोटी चीज को इस तरह से देखना बहुत ही चुनौतीपूर्ण था। अब से पहले इतनी गहराई से इसे कभी नहीं देखा गया था। '' यह अध्ययन नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में प्रकाशित हुआ है।