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- नई दिल्ली। मानव इतिहास में वर्ष 2020 कोरोना महामारी के लिए याद रखा जाएगा, लेकिन भारतीयों ने गूगल पर 2020 में जिसके बारे में सबसे ज्यादा सर्च किया, वह कोरोना वायरस नहीं है... जानिए क्या रहे 2020 के सबसे बड़े गूगल इंडिया सर्च ट्रेंड्स....1. आईपीएलजिस विषय के बारे में भारत के लोगों ने इस साल गूगल पर सबसे ज्यादा सर्च किया, वह है आईपीएल। इसका मतलब तो यह निकलता है कि कुछ भी हो जाए, भारत के लोगों के लिए क्रिकेट से अहम कुछ नहीं है। 2. कोरोना वायरसइस साल कोरोना महामारी से बड़ा कोई मुद्दा नहीं रहा। पूरी दुनिया में इसकी वजह से हाहाकार है, लेकिन भारत के लोगों की गूगल सर्च लिस्ट में यह टॉपिक दूसरे स्थान पर आता है।3. अमेरिकी चुनाव के नतीजेपूरी दुनिया की तरह भारत के लोगों को भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों का इंतजार था। इसीलिए यह टॉपिक भारत के गूगल सर्च ट्रेंड्स में टॉप 3 में शामिल है।4. प्रधानमंत्री किसान योजनानए कृषि कानूनों पर किसानों का विरोध लगातार सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। इसलिए लोगों की भी इस मुद्दे पर दिलचस्पी है और इस बारे में वे गूगल से पूछे रहे हैं।5. बिहार चुनाव के नतीजेबिहार के चुनाव भारत के गूगल ट्रेंड्स के टॉप 5 में शामिल हैं। व्यापक चुनाव प्रचार और तीखी बयानबाजी के बाद हुए चुनावों में एनडीए अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रहा।6. दिल्ली चुनाव नतीजेदिल्ली के विधानसभा चुनाव इस साल की सबसे अहम राजनीतिक घटनाओं में से एक रही, जहां आम आदमी पार्टी ने बीजेपी को बड़े अंतर से हराते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखी।7. दिल बेचारा'दिल बेचारा' अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फिल्म है जिन्होंने साल 2020 में आत्महत्या कर ली। उनकी मौत के बाद उनकी आखिरी फिल्म के बारे में लोगों ने गूगल में खूब सर्च किया।8. जो बाइडेनभारतीयों की गूगल सर्च लिस्ट में आठवें पायदान पर हैं अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन, जिन्होंने मौजूदा राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को हराकर साल 2020 अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव जीता।9. लीप डेहर चार साल बाद लीप ईयर आता है जिसमें फरवरी का महीना 29 दिन का होता है। 2020 भी ऐसा ही साल था. तो लोगों ने लीप डे को भी खूब सर्च किया। इसलिए यह इंडिया गूगल सर्च ट्रेंड में नौवें स्थान पर है।10. अर्नब गोस्वामीभारतीय टीवी पत्रकार अर्नब गोस्वामी इस साल बहुत सुर्खियों में रहे। पहले तो वे फ्लाइट में कॉमेडियन कुनाल कामरा उलझ गए और फिर महाराष्ट्र सरकार के साथ उनका लंबा विवाद चला, जेल भी गए। इसके अलावा भी वे कई बार सुर्खियों में रहे। उनके बारे में भी भारतीयों ने गूगल पर काफी सर्च किया।
- बिल्लियां इंसानों के जज्बात समझती हैं। उन्हें एहसास होता है कि कब उनके मालिक का मूड अच्छा है और कब बुरा। बिल्लियां दिन में 16 घंटे सोती हैं बाकी के वक्त में से एक तिहाई यानि लगभग तीन घंटे वे खुद को साफ करने में लगाती हैं। जिस तरह से इंसानों की पहचान फिंगरप्रिंट्स से होती है, वैसे ही बिल्लियां नाक के प्रिंट से पहचानी जाती है। कुत्तों की तुलना में बिल्लियां का दिमाग इंसानों से ज्यादा मेल खाता है। यहां तक कि वे इंसानों की ही तरह सपने भी देखती हैं।स्तनपायी जीवों में बिल्ली की आंखें अपने शरीर के आकार के अनुसार सबसे बड़ी होती हैं। अधिकतर बिल्लियों की पलकें नहीं होतीं। खाने के मामले में बिल्लियां बेहद नखरीली होती हैं। वे भूखी रह लेंगी लेकिन जो खाना उन्हें पसंद नहीं, उसे जबरन नहीं खाएंगी। बिल्ली के दूध के दांत बेहद नुकीले होते हैं। लेकिन ये ज्यादा दिन नहीं रहते। छह महीने बाद ये गिर जाते हैं और नए दांत आते हैं। बिल्लियां जब पैदा होती हैं, तब आम तौर उनकी आंखें नीली होती हैं। वक्त के साथ साथ उनकी आंखों का रंग बदलता रहता है। टर्किश वैन नाम की नस्ल को पानी में रहना बहुत पसंद है। इसके शरीर पर एक ऐसी कोटिंग होती है जिससे यह भींग ही नहीं पाती।बिल्लियां नौ हफ्ते गर्भवती रहती हैं। डस्टी नाम की बिल्ली ने अपने जीवन में 420 बिल्लियोंं को जन्म दिया था। यह रिकॉर्ड 1952 में बना। बिल्ली के आगे के पैरों पर पांच-पांच और पीछे के पैरों पर चार-चार उंगलियां होती हैं। बिल्लियां छलांग लगाने में माहिर होती हैं। वे अपने शरीर के आकार से पांच गुना दूरी तक छलांग लगा सकती है। बिल्लियां के शरीर में कुल 230 हड्डियां होती हैं, यानि इंसानों से 24 ज्यादा। बिल्ली का दिल इंसानों की तुलना में दोगुना तेजी से धड़कता है, एक मिनट में 110 से 140 बार। काली बिल्ली का दिखना अधिकतर जगहों में अपशगुन माना जाता है लेकिन ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में मान्यता इसके विपरीत है।
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उगते हुए सूरज का देश जापान अपने संस्कृति, खान-पान से लेकर टेक्नोलॉजी के लिए दुनियाभर में मशहूर है। जापान को एशिया का सबसे विकसित देश माना जाता है। यहां के लोगों की गिनती दुनिया में सबसे अधिक कर्मठी के तौर पर होती है।
---जापान से जुड़े कुछ खास रोचक तथ्यों के बारे में जानिए....
जापान के लोग समय के पाबंद होते हैं। यहां के लोग किसी भी काम को समय पर करने के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। इतना ही नहीं जापान में चलने वाली ट्रेन भी 30 सेकेंड से ज्यादा लेट नहीं होती हैं।
जापान में ऐसा कानून भी है, जिसके तहत बच्चों को 10 साल की उमर तक किसी भी तरह की कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती है। इन 10 सालों में उन्हें बचपन की जिंदगी का मजा लेने का मौका दिया जाता है।\
जापान में सार्वजनिक स्थानों पर जोर-जोर से बोलना या किसी चीज को सूंघना असभ्यता माना जाता है। इतना ही नहीं यहां दो लोगों का हाथ पकड़कर साथ चलना भी अच्छा नहीं माना जाता है। जापान में लोग नववर्ष की खुशी में सबसे पहले मंदिर में जाकर 108 बार घंटियां बजाते हैं।
जापान एक प्राचीन देश है। यहां के रीति-रिवाज और परंपराएं भी बेहद अनूठे हैं। जैसे हमारे देश में लोग हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं, ठीक वैसे ही जापान में किसी भी व्यक्ति के सम्मान में झुककर अभिवादन का रिवाज है। सबसे खास बात ये है कि जो जितना ज्यादा सम्मानित होता है, उसके प्रति उतना ही ज्यादा झुका जाता है। वहीं व्यक्ति भी चाहे कितना भी बड़ा या प्रतिष्ठित हो, वह भी सामने वाले व्यक्ति के अभिवादन में झुक जाएगा। इनके बीच बस झुकाव की डिग्री में अंतर होता है।
जापान के लोग साफ-सफाई के प्रति बहुत जागरुक हैं। विद्यालयों में छात्र और शिक्षक दोनों मिलकर कक्षाओं की सफाई करते हैं। यहां के लोग दीर्घायु होते हैं। जापान के लोगों की औसत उम्र 82 वर्ष है, जो सभी देशों के औसत से अधिक है। -
26 मई को होगा पहला चंद्रग्रहण चंद्रग्रहण
इंदौर। आने वाले साल 2021 में सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा की चाल दुनियाभर के खगोल प्रेमियों को एक पूर्ण चंद्रग्रहण और एक पूर्ण सूर्यग्रहण समेत ग्रहण के चार रोमांचक दृश्य दिखाएगी। हालांकि, भारत में इनमें से केवल दो खगोलीय घटनाएं निहारी जा सकेंगी। उज्जैन की प्रतिष्ठित शासकीय जीवाजी वेधशाला के अधीक्षक डॉ. राजेंद्र प्रकाश गुप्त ने बताया कि अगले साल की इन खगोलीय घटनाओं का सिलसिला 26 मई को लगने वाले पूर्ण चंद्रग्रहण से शुरू होगा। उन्होंने कहा कि नववर्ष का यह पहला ग्रहण सिक्किम को छोड़कर भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों, पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों और ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में दिखाई देगा जहां चंद्रोदय देश के दूसरे इलाकों के मुकाबले जल्दी होता है। इस खगोलीय घटना के वक्त चंद्रमा पृथ्वी की छाया से 101.6 प्रतिशत ढक जाएगा। पूर्ण चंद्रग्रहण तब लगता है, जब सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी आ जाती है और अपने उपग्रह चंद्रमा को अपनी छाया से ढक लेती है। चंद्रमा इस स्थिति में पृथ्वी की ओट में पूरी तरह छिप जाता है और उसपर सूर्य की रोशनी नहीं पड़ पाती है। इस खगोलीय घटना के वक्त पृथ्वीवासियों को चंद्रमा रक्तिम आभा लिए दिखाई देता है। लिहाजा इसे ब्लड मून भी कहा जाता है। गुप्त ने भारतीय संदर्भ में की गई कालगणना के हवाले से बताया कि 10 जून को लगने वाला वलयाकार सूर्यग्रहण देश में दिखाई नहीं देगा। इस खगोलीय घटना के वक्त सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाएगा। इस कारण पृथ्वीवासियों को सूर्य रिंग ऑफ फायर (आग का चमकदार छल्ला) के रूप में 94.3 प्रतिशत ढका नजर आएगा। उन्होंने बताया कि 19 नवंबर को लगने वाले आंशिक चंद्रग्रहण को अरुणाचल प्रदेश और असम के कुछ भागों में बेहद कम समय के लिए निहारा जा सकेगा। इस खगोलीय घटना के चरम पर चंद्रमा का 97.9 प्रतिशत हिस्सा पृथ्वी की छाया से ढका दिखाई देगा। तकरीबन दो सदी पुरानी वेधशाला के अधीक्षक ने बताया कि चार दिसंबर को लगने वाले पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा कुछ इस तरह आ जाएगा कि सौरमंडल का मुखिया सूर्य 103.6 प्रतिशत ढका नजर आएगा। हालांकि, वर्ष 2021 के इस अंतिम ग्रहण को भारत में नहीं निहारा जा सकेगा। समाप्ति की ओर बढ़ रहे वर्ष 2020 में दो सूर्यग्रहण और चार चंद्रग्रहण समेत ग्रहण के छह रोमांचक दृश्य देखे गए। - जेलीफिश बीते 50 करोड़ साल से महासागरों में तैर रही हैं, वो भी बिना दिमाग के। जेलीफिश में मस्तिष्क के बजाए एक बेहद जबरदस्त तंत्रिका तंत्र होता है जो तुरंत सिग्नलों को एक्शन में बदलता है। इसीलिए जेलीफिश की कई प्रजातियों को दिमाग की जरूरत ही नहीं पड़ती।इसे भले ही जेलीफिश कहा जाता हो, लेकिन असल में यह मछली नहीं है। यह मूंगों और एनीमोन के परिवार की सदस्य हैंै। इन्हें मेडुसोजोआ नाम से भी जाना जाता हैै। जेलीफिश के शरीर में 99 फीसदी पानी होता है। वयस्क इंसान के शरीर में करीब 63 फीसदी जल होता हैै। जेलीफिश के शरीर का सबसे बड़ा हिस्सा छत्रनुमा ऊपरी हिस्सा हैै। इसके जरिये जेलीफिश खुराक लेती हैै। धागे जैसे लटके रेशों की मदद से ये शिकार करती हैै। कुछ जेलीफिश में यह रेशे एक मीटर से भी ज्यादा लंबे भी हो सकते हैंै।आमतौर पर लगता है कि जेलीफिश छोटी ही होती हैं, लेकिन ऐसा सोचना गलत हैै। एशियन नोमुरा जेलीफिश दिखने में भले ही बहुत रंगीन न हो, लेकिन ये काफी बड़ी भी होती हैै। इसके छातानुमा हिस्से का व्यास दो मीटर तक हो सकता है और वजन 200 किलोग्राम से भी ज्यादा। जेलीफिश खुद तैरकर दूसरी जगह नहीं जा पातींै। ये समुद्री लहरों के साथ ही बहती हैंै। लहरों की दिशा में बहते हुए जेलीफिश अपने शरीर को सिकोड़ती और फुलाती है, ऐसा करने से अधिकतम 10 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार हासिल होती हैै। पानी में तैरती जेलीफिश भले ही बहुत खूबसूरत लगे, लेकिन इसकी कुछ प्रजातियां बहुत ही जहरीली होती हैंै। सबसे खतरनाक लायन्स मैन जेलीफिश होती है। इसके रेशे बेहद घातक जहर छोड़ते हैं। छोटे केकेड़े और मछली के लार्वा तो तुरंत मारे जाते हैं। लायंस मैन जेलीफिश का डंक इंसान को भी तिलमिला देता है। इसके डंक से त्वचा में लाल निशान पड़ जाते हैं और तेज जलन होने लगती है। बॉक्स जेलीफिश का डंक तो जान भी ले सकता है। पूर्वी ऑस्ट्रेलिया और पश्चिमी प्रशांत महासागर में पाई जाने वाली बॉक्स जेलीफिश को दुनिया के सबसे जहरीले जीवों में गिना जाता है।जेलीफिश कई काम कर सकती है। शिकार को रिझाने या दूसरे जीवों को डराने के लिए यह चमकने लगती हैै। जेलीफिश के प्रजनन का तरीका बड़ा ही अनोखा है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता भी हैै। जेलीफिश सेक्शुअल कोशिकाएं पैदा करती है और ये कोशिकाएं आपस में मिलकर लार्वा बनाती हैै। बाद से यह लार्वा जेलीफिश में बदलता हैै। कभी कभार समुद्री तटों पर जेलीफिश की बाढ़ आ जाती है। जीवविज्ञानी इसके लिए कछुओं के शिकार को जिम्मेदार ठहराते हैंै। कछुए और कुछ मछलियां जेलीफिश को खाती हैं, लेकिन अगर ये शिकारी ही खत्म हो जाएं तो जेलीफिश की संख्या तेजी से बढऩे लगती हैै।
- वैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले मिनिएचर मेंढकों की चार प्रजातियां भारत के सुदूर इलाकों में ढूंढ निकाली हैं। यह मेंढक इतने छोटे हैं कि इंसान के नाखून पर बैठ सकें। रिसर्चरों ने भारत के पश्चिमी घाटी की पहाडिय़ों की जैव संपदा की तलाश में पांच साल बिताए। इनका मानना है कि इस इलाके में छोटे मेंढक काफी बड़ी संख्या में पाए जाते होंगे, लेकिन उनके छोटे आकार के कारण वे लोगों की नजर में नहीं आते। इस बेहद छोटे मिनिएचर मेंढक के अलावा भी रिसर्चरों ने मेंढक की तीन अन्य प्रजातियों का पता लगाया है। यह सभी उभयचर नॉक्टरनल यानि रात्रिचर प्राणी हैं. इस खोज की विस्तृत रिपोर्ट पियरजे मेडिकल साइंसेज में प्रकाशित हुई है।दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को पश्चिमी घाट के इलाके में साइट फ्रॉग्स (नैक्टिबैटरेकस) की कुल सात प्रजातियां मिली हैं। इनमें से चार मिनिएचर मेंढक हैं, जिनकी लंबाई 12.2 से 15.4 मिलिमीटर के बीच है। यह दुनिया में पाए जाने वाले सबसे छोटे मेंढकों में से एक बन गए हैं। इनके अनुवांशिक पदार्थ डीएनए की जांच, शारीरिक तुलनाओं और बायोएकूस्टिक्स से इस बात की पुष्टि की गई है कि यह सब नई प्रजातियां हैं।भारत में मेंढकों की 240 से भी अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से आधी की खोज पश्चिमी भारत के इसी पहाड़ी इलाके में हुई है, जिसे जैवविविधता का ग्लोबल हॉटस्पॉट माना जाता है.।अब तक नाइट फ्रॉग्स की करीब 35 प्रजातियों का पता लगाया जा चुका है।
- नई दिल्ली में जंतर मंतर के पास बनी अग्रसेन की बावली 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन के आदेश पर बनवायी गयी थी। लोगों का कहना है कि कभी बावली का पानी काला था । देश की सबसे भयावह जगहों की सूची में इसका नाम भी शामिल है। ऊपर-ऊपर से तो यह बावली लाल बलुए पत्थरों से बनी दीवारों के कारण बेहद सुंदर लगती है, लेकिन आप जैसे -जैसे इसकी सीढिय़ों से नीचे उतरते जाते हैं, एक अजीब सी गहरी चुप्पी फैलने लगती और आकाश गायब होने लगता है।इस बावली के तमाम ऐसे अनसुलझे रहस्य हैं, जो आज तक राज ही हैं। हालांकि अब तो लोग यहां के शांत वातावरण में किताबें पढऩे के लिए भी आते हैं। कई लोग इसकी खूबसूरती के कारण भी यहां खींचे चले आते हैं।बावली के शून्य शांत वातावरण में पत्थर की ऊंची-ऊंची दीवारों के बीच जब कबूतरों की गुटरगूँ और चमकादड़ों की चीखें और फडफ़ड़ाहट गूंजती है, तो बावली का माहौल पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर देता है। लोगों का कहना है कि कई बार तो यहां आने वालों ने किसी अदृश्य साया को भी महसूस किया है।फिलहाल अग्रसेन की बावली, एक संरक्षित पुरातात्विक स्थल है, जो नई दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास स्थित है। इस बावली में सीढ़ीनुमा कुएं में करीब 105 सीढिय़ां हैं। 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन ने इसे बनाया था। सन 2012 में भारतीय डाक अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और अवशेष अधिनियम 1958 के तहत भारत सरकार द्वारा संरक्षित हैं। इस बावली का निर्माण लाल बलुए पत्थर से हुआ है। अनगढ़ तथा गढ़े हुए पत्थर से निर्मित यह दिल्ली की बेहतरीन बावलियों में से एक है।कऱीब 60 मीटर लंबी और 15 मीटर ऊंची इस बावली के बारे में विश्वास है कि महाभारत काल में इसका निर्माण कराया गया था। बाद में अग्रवाल समाज ने इस बावली का जीर्णोद्धार कराया। यह दिल्ली की उन गिनी चुनी बावलियों में से एक है, जो अभी भी अच्छी स्थिति में हैं।बावली की स्थापत्य शैली उत्तरकालीन तुग़लक़ तथा लोदी काल (13वी-16वी ईस्वी) से मेल खाती है। लाल बलुए पत्थर से बनी इस बावली की वास्तु संबंधी विशेषताएं तुग़लक़ और लोदी काल की तरफ़ संकेत कर रहे हैं, लेकिन परंपरा के अनुसार इसे अग्रहरि एवं अग्रवाल समाज के पूर्वज अग्रसेन ने बनवाया था। इमारत की मुख्य विशेषता है कि यह उत्तर से दक्षिण दिशा में 60 मीटर लम्बी तथा भूतल पर 15 मीटर चौड़ी है। पश्चिम की ओर तीन प्रवेश द्वार युक्त एक मस्जिद है। यह एक ठोस ऊंचे चबूतरे पर किनारों की भूमिगत दालानों से युक्त है। इसके स्थापत्य में व्हेल मछली की पीठ के समान छत, चैत्य आकृति की नक्काशी युक्त चार खम्बों का संयुक्त स्तम्भ, चाप स्कन्ध में प्रयुक्त पदक अलंकरण इसे विशिष्टता प्रदान करता है।--
- डायनासोर की एक ऐसी प्रजाति का पता चला है, जिसके पंख हुआ करते थे और जो कोई साढ़े छह करोड़ साल पहले पृथ्वी पर विचरा करती थी। ये डायनासोर शायद थोड़ा बहुत उड़ा भी करते होंगे।प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने वाले इतिहासकारों ने इसका नाम "चिकेन फ्रॉम हेल" या जहन्नुमी मुर्गी रखा है क्योंकि इसके सिर पर मुर्गियों जैसी कलगी हुआ करती थी, पांव शुतुरमुर्ग जैसे हुआ करते थे, पंजे मजबूत और जबड़े इतने सख्त कि किसी भी अंडे या शिकार को पल भर में चीर के रख दें। अनुमान है कि इसकी ऊंचाई इंसानों जितनी हुआ करती होगी, लेकिन वजन 200 से 300 किलो के बीच।इसे 'अंडा चोर' समूह के डायनासोर का सबसे बड़ा जानवर बताया जा रहा है। इस बारे में मैट लमाना की रिपोर्ट प्लोस वन नाम की विज्ञान पत्रिका में छपी है। लमाना का कहना है, "हमने मजाक में इसे जहन्नुमी मुर्गी कहा और लगता है कि यह बिलकुल फिट बैठता है।तीन अलग अलग जगहों से इसके जीवाश्म जमा किए गए हैं। इन्हें जोडऩे पर करीब पांच फुट ऊंचा डायनासोर का अनुमान लगाया जा सकता है, जो साढ़े तीन मीटर लंबा दिखता है। रिपोर्ट में अहम भूमिका निभाने वाली एमा शाखनर का कहना है, "बहुत डरावना होगा. इसके सामने आना बहुत संकट वाला काम होता होगा।" वैसे इसका वैज्ञानिक नाम आंजू विली रखा गया है। आंजू मेसोपोटामिया सभ्यता की काल्पनिक चिडिय़ा का नाम है, जबकि पिट्सबर्ग के प्राकृतिक इतिहास म्यूजियम के ट्रस्टी के पोते का नाम विली है। लमाना अमेरिका में पेनसिलवीनिया के इसी म्यूजियम में काम करते हैं।इस डायनासोर का कंकाल करीब 10 साल पहले उत्तरी और दक्षिणी डकोटा में पहाडिय़ों के पास मिला। इस जगह पर दूसरे डायनासोरों के कंकाल भी मिल चुके हैं। आंजू डायनासोर के अस्तित्व का समय 6.6 करोड़ साल से 6.8 करोड़ साल पहले का बताया जा रहा है। यह दूसरे डायनासोरों के जीवनकाल के बहुत करीब है, जो 6.5 करोड़ साल पहले था। समझा जाता है कि एक विशाल क्षुद्रग्रह के धरती पर टकराने के बाद डायनासोर खत्म हो गए। आंजू प्रजाति के डायनासोर के कुछ करीबी रिश्तेदार चीन और मंगोलिया में भी रहा करते थे।इस तरह के पहले डायनासोर का पता 1924 में लगा था और उसका नाम 'अंडा चोर' रखा गया, क्योंकि इसे अंडों से भरे एक घोंसले के ऊपर पाया गया था। प्रागैतिहासिक इतिहासकारों ने माना कि यह अंडे खाने के लिए यहां आया होगा।----
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सौरमंडल में सोमवार 21 दिसंबर को एक बड़ी खगोलीय घटना देखने को मिलेगी। इस दौरान दो बड़े ग्रह बृहस्पति और शनि एक दूसरे के बेहद नजदीक आ जाएंगे। ऐसे में धरती से देखने पर ये दोनों एक ही ग्रह के समान दिखेंगे। ये दोनों ग्रह इससे पहले 17वीं शताब्दी में महान खगोलविद गैलीलियो के जीवनकाल में इतने पास आए थे। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे सौरमंडल में दो बड़े ग्रहों का नजदीक आना बहुत दुर्लभ नहीं है। बृहस्पति ग्रह अपने पड़ोसी शनि ग्रह के पास से प्रत्येक 20 साल पर गुजरता है, लेकिन इसका इतने नजदीक आना खास है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि दोनों ग्रहों के बीच उनके नजरिए से सिर्फ 0.1 डिग्री की दूरी रह जाएगी। अगर मौसम स्थिति अनुकूल रहती है तो ये आसानी से सूर्यास्त के बाद दुनिया भर से देखे जा सकते हैं. यह घटना 21 दिसंबर 2020 को होने जा रही है। यह साल का सबसे छोटा दिन माना जाता है। वांदरबिल्ट विश्वविद्यालय में खगोलशास्त्र के प्रोफेसर डेविड वेनट्रॉब ने कहा, मेरा मानना है कि यह कहना उचित होगा कि यह घटना आम तौर पर किसी व्यक्ति के जीवन में एक ही बार आता है।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले जुलाई, 1623 में दोनों ग्रह इतने करीब आए थे लेकिन सूर्य के नजदीक होने की वजह से उन्हें देख पाना लगभग असंभव था। वहीं, उससे पहले मार्च, 1226 में दोनों ग्रह करीब आए थे और इस घटना को धरती से देखा जा सकता था। इसके बाद से अब तक पहली बार हो रहा है जब यह खगोलीय घटना हो रही है और इसे देखा भी जा सकता है।
- लाखों साल पहले न्यूजीलैंड में विशालकाय तोते रहा करते थे जिनकी लंबाई एक मीटर थी और वजन सात किलोग्राम तक हुआ करता था। आप जरूर पूछेंगे कि ये सच है क्या, इसका पता कैसे चला?रिसर्चरों को करीब एक दशक पहले इस विशालकाय पक्षी के अवशेष मिले थे, प्रशांत सागर में स्थित न्यूजीलैंड में खनिकों के शहर सेंट बाथांस में। यह जानकारी अब सिडनी की फ्लाइंडर्स यूनिवर्सिटी और क्राइस्टचर्च की कैंटरबरी म्यूजियम ने दी है। खोज करने वालों ने इस पक्षी को हेराकल्स इनएक्सपेक्टाटस का नाम दिया है। नाम में उसका हर्कुलस जैसा विशाल होना और असंभावित तरीके से मिलना निहित है।विशाल तोते के जीवाश्म की उम्र 190 लाख साल आंकी गई है। अनुमान लगाया गया है कि जीवन यापन के लिए यह विशाल तोता छोटे तोतों को भी खाता रहा होगा। आजकल ज्यादातर तोते शाकाहारी होते हैं और घासफूस खाकर अपना पेट पालते हैं। रिसर्चर अभी तक यह नहीं जान सके हैं कि यह विशालकाय तोता उड़ सकता था या नहीं।तोते का पाषाण जीवाश्म 2008 में ही मिल गया था। शोधकर्ताओं को पहले जीवाश्म के बड़े आकार के कारण ये लगा कि यह पक्षी चील रहा होगा। फ्लाइंडर्स यूनिवर्सिटी के प्रो. ट्रेवर वोर्दी ने बताया, "शुरू में तो हमने तोते के बारे में सोचा ही नहीं। रिसर्चरों की टीम को इस बात को समझने में काफी समय लगा कि इन गुणों वाला पक्षी तोता ही होगा।
- लोग शार्क और बिच्छू से बहुत डरते हैं और उन्हें सबसे खतरनाक जीव-जंतुओं की सूची में रखते हैं, लेकिन अगर उनके शिकार बने लोगों की संख्या देखें, तो पता चलेगा कि उनसे बहुत कम खतरा है। जानिए, कौन हैं विश्व के सबसे खतरनाक जीव....1. मच्छरमच्छर की वजह से दुनिया में हर साल मारे गए लोगों की संख्या लगभग 7 लाख 25 हजार है। मच्छरों द्वारा फैलने वाला मलेरिया अकेले सलाना छह लाख लोगों की जान लेता है। डेंगू बुखार, येलो फीवर और इंसेफेलाइटिस जैसी खतरनाक बीमारियां भी मच्छरों से फैलती हैं.।2. इंसानहर साल मारे गए लोगों की संख्या लगभग 4 लाख 75 हजार। जी हां, इंसान भी इस खतरनाक सूची में शामिल हैं। आखिर इंसान एक-दूसरे की जान लेने के कितने ही अविश्वसनीय तरीके ढूंढ लेता है।3. सांपहर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग 50 हजार। सांपों की सभी प्रजातियां घातक नहीं होतीं। कुछ सांप तो जहरीले भी नहीं होते., पर फिर भी ऐसे काफी खतरनाक सांप हैं जो इन सरीसृपों को दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हत्यारा बनाने के लिए काफी हैं।4. कुत्ताहर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग 25 हजार। रेबीज एक वायरल संक्रमण है जो कई जानवरों से फैल सकता है। मनुष्यों में यह ज्यादातर कुत्तों के काटने से फैलता है। रेबीज के लक्षण महीनों तक दिखाई नहीं देते , लेकिन जब वे दिखाई पड़ते हैं, तो बीमारी लगभग जानलेवा हो चुकी होती है।5. घोंघा, असैसिन बग, सीसी मक्खीहर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग 10 हजार। इन मौतों के जिम्मेदार दरअसल ये जीव खुद नहीं होते, बल्कि इनमें पनाह लेने वाले परजीवी हैं। स्किस्टोसोमियासिस दूषित पानी पीने में रहने वाले घोंघे से फैलता है। वहीं चगास रोग और नींद की बीमारी असैसिन बग और सीसी मक्खी जैसे कीड़ों के काटने से। ॉ6. एस्केरिस राउंडवर्महर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग 2,500। एस्केरिस भी टेपवर्म जैसे ही परजीवी होते हैं और ठीक उन्हीं की तरह हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं, लेकिन ये सिर्फ पाचन इलाकों तक सीमित नहीं रहते। दुनिया भर में लगभग एक अरब लोग एस्कारियासिस से प्रभावित हैं।7. टेपवर्महर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग दो हजार। टेपवर्म परजीवी होते हैं जो कि व्हेल, चूहे और मनुष्य जैसे रीढ़धारी जीव-जंतुओं की पाचन नलियों में रहते हैं। वे आम तौर पर दूषित भोजन के माध्यम से अंडे या लार्वा के रूप में शरीर में प्रवेश करते हैं। इनके संक्रमण से शार्क की तुलना में 200 गुना ज्यादा मौतें होती हैं।8. मगरमच्छहर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग एक हजार। मगरमच्छ जितने डरावने दिखते हैं, उससे कहीं ज्यादा खतरनाक भी होते हैं। वे मांसाहारी होते हैं और कभी-कभी तो खुद से बड़े जीवों का भी शिकार करते हैं जैसे कि छोटे दरियाई घोड़े और जंगली भैंस। खारे पानी के मगरमच्छ तो शार्क को भी अपना शिकार बना लेते हैं।9. दरियाई घोड़ाहर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग 500। दरियाई घोड़े शाकाहारी होते हैं, लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि वे खतरनाक नहीं होते। वे काफी आक्रामक होते हैं और अपने इलाके में किसी को प्रवेश करता देख उसको मारने से पीछे नहीं रहते।10. शेर और हाथीहर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग सौ। .. जंगल का राजा शेर आपको अपना शिकार बना ले, यह कल्पना के परे नहीं है, लेकिन अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि एक हाथी द्वारा आपके मारे जाने की भी उतनी ही संभावना है। हाथी, जो कि भूमि पर रहने वाला सबसे बड़ा जानवर है, काफी आक्रामक और खतरनाक हो सकता है।11. शार्क और भेडिय़ेइन दोनों जानवरों के कारण हर साल दुनिया भर में महज दस लोगों की जान जाती है। इसमें कोई शक नहीं है कि भेडिय़े और शार्क की कुछ प्रजातियां आपकी जान भी ले सकती हैं, लेकिन वास्तव में बहुत कम लोग ही इनका शिकार बनते हैं।
- इंसान समेत कई स्तनधारी जीवों का खून लाल रंग का होता है। दरअसल इंसान और कई स्तनधारियों के लाल खून की वजह है रक्त में खूब आयरन वाले प्रोटीन। इस प्रोटीन को हिमोग्लोबिन कहा जाता है। ऑक्सीजन सोखते ही इस प्रोटीन का रंग लाल हो जाता है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि पृथ्वी पर मौजूद हर जीव का खून लाल होता है। देखिए अलग अलग रंग के रक्त वाले जीव.....1. हरा खून- न्यू गिनिया नाम के गिरगिट का खून हरा होता है। हरे खून की वजह से इसकी मांसपेशियां और जीभ भी हरी होती है।2. नीला खून- ऑक्टोपस का खून का नीले रंग का होता है। ऑक्टोपस के रक्त में तांबे की मात्रा बहुत ज्यादा होती है जिसके चलते इसका खून नीला हो जाता है।3. रंगहीन खून- क्रोकोडाइल आइसफिश का रक्त रंगहीन और पारदर्शी होता है। अंटार्कटिक की गहराई में बेहद ठंडे तापमान में रहने वाली इस मछली के रक्त में हिमोग्लोबिन (लाल रक्त वर्णक) और हिमोसाइनिन (नीला रक्त वर्णक) नहीं होता है।4. पीला खून- सी क्यूकम्बर कहा जाने वाला जीव देखने में भले ही हरा लगे, लेकिन इसका खून पीले रंग का होता है। वैज्ञानिक अब तक इसका कारण नहीं समझ पाए हैं।5. बैंगनी खून- पीनट वॉर्म कहे जाने वाले कीड़े का रक्त बैंगनी रंग का होता है। इसके शरीर में हिमोरिथरीन नाम के प्रोटीन का जब ऑक्सीकरण होता तो उसका रंग बैंगनी या कभी कभार गुलाबी होता जाता है।
- जेल एक ऐसी जगह होती है, जहां पर चोरी, डकैती से लेकर अन्य अपराधों के लिए सजा के तौर पर अपराधियों को रखा जाता है। कोई जेल अच्छी सुविधाओं के जानी जाती है, तो कोई कैदियों के प्रति अपनी क्रूरता के लिए जानी जाती है। आज हम आपको दुनिया की पांच अजीबोगरीब जेलों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो अलग वजह से ही जानी जाती हैं। कहीं कैदियों को अपने परिवार के साथ रहने की छूट है तो कहीं कैदियों को अपने लिए सेल (कमरा) खरीदना पड़ता है, जिसमें वो रह सकें।जस्टिस सेंटर लियोबेन, ऑस्ट्रियाऑस्ट्रिया की यह जेल किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं है। पूरी तरह से कांच से ढंकी हुई इस जेल का नाम 'जस्टिस सेंटर लियोबेन' है। यहां जिम से लेकर स्पोट्र्स सेंटर और कैदियों के लिए निजी आलीशान कमरे बनाए गए हैं, जिसमें टीवी से लेकर फ्रीज तक सभी जरूरी चीजें उपलब्ध हैं। साल 2004 में बनी इस जेल में कैदी किसी राजा से कम की जिंदगी नहीं जीते हैं।सार्क जेलइंग्लैंड और फ्रांस के बीच एक छोटा सा द्वीप है गुवेर्नसी, जहां दुनिया की सबसे छोटी जेल है। इसे 'सार्क जेल' के नाम से जाना जाता है। 1856 में बने इस जेल में सिर्फ दो ही कैदी रह सकते हैं। आज भी इसमें कैदियों को रात भर की कैद की सजा दी जाती है। हालांकि अगर कैदी ज्यादा उत्पात मचाते हैं तो फिर उन्हें यहां से निकालकर दूसरी बड़ी जेलों में भेज दिया जाता है। यह जेल पर्यटकों के बीच भी काफी मशहूर है। यहां बड़ी संख्या में लोग घूमने के लिए और इस जेल को देखने के लिए आते हैं।फिलीपींस की सेबू जेलफिलीपींस की यह जेल किसी डिस्को से कम नहीं है। इसका नाम है सेबू जेल। इस जेल का माहौल ही ऐसा है कि यहां कैदी कभी बोर नहीं होते। उनके लिए यहां संगीत की व्यवस्था की गई है, जिससे वो अपना पूरा मनोरंजन करते हैं। यहां के कैदियों के एक डांसिंग वीडियो को अमेरिका की मशहूर टाइम पत्रिका ने अपनी वायरल वीडियोज की सूची में पांचवें नंबर पर रखा था। दरअसल, फिलीपींस प्रशासन और यहां के लोगों का मानना है कि संगीत और नृत्य दोनों ही एक दवाई की तरह काम करते हैं, जो पुरानी जिंदगी के गमों से छुटकारा दिला सकते हैं और एक नई जिंदगी की शुरुआत करा सकते हैं।स्पेन की 'अरनजुएज जेल'स्पेन की 'अरनजुएज जेल' अपने आप में अनोखी जेल है, क्योंकि यहां कैदियों को अपने परिवार के साथ रहने की छूट है। सेलों के अंदर छोटे बच्चों के लिए दीवारों पर कार्टून बनाए गए हैं। साथ ही उनके लिए यहां स्कूल और प्लेग्राउंड की भी व्यवस्था है। दरअसल, इसके पीछे वजह ये है कि बच्चे अपने माता-पिता के साथ रह सकें और माता-पिता भी उन्हें संभालना सीख सकें। यहां 32 ऐसे सेल हैं, जहां कैदी अपने परिवार के साथ रहते हैं।बोलीविया की सैन पेड्रो जेलबोलीविया की सैन पेड्रो जेल बेहद ही अजीबोगरीब वजह से दुनियाभर में जानी जाती है। आमतौर पर अन्य जेलों में कैदियों को किसी भी सेल (कमरा) में डाल दिया जाता है, लेकिन यहां पर कैदियों को अपने लिए सेल खरीदना पड़ता है, ताकि वो उसमें रह सकें। यहां 1500 के करीब कैदी रहते हैं। इस जेल का माहौल शहर की गलियों जैसा लगता है, जहां बाजार लगे रहते हैं, फूड स्टॉल लगे होते हैं। यहां कैदी अपनी सजा इसी तरह काटते हैं।
- क्रिप्टोकरेंसी बिटकॉइन की कीमत बुधवार को पहली बार 20 हजार डॉलर के पार चली गई है। आखिर क्या है ये करेंसी और कैसे काम करती है।तीन साल पहले यही वो वक्त था जब पहली बार अमेरिकी शेयर बाजार वॉल स्ट्रीट में इसके कारोबार को मंजूरी मिली और तब इसकी कीमत आसमान पर पहुंच गई। बीच में काफी बुरा हाल देखने के बाद इसकी कीमत नई ऊंचाइयों को छू रही है। अनिश्चितता के दौर में पैसा सुरक्षित रखने के दूसरे तरीकों की तरह ही बिटकॉइन को भी कोरोना महामारी से काफी फायदा हुआ है। सोना, चांदी, प्लैटिनम की कीमत इस दौर में कई गुना बढ़ी है और बिटकॉइन भी इसमें शामिल हो गया है। बिटकॉइन की खास संरचना के कारण अब और बिटकॉइन ज्यादा संख्या में नहीं बन पा रहा है ऐसे में जो बिटकॉइन हैं उनका कारोबार तेज हो गया है।बिटकॉइन कैसे काम करता हैबिटकॉइन एक डिजिटल मुद्रा है। यह किसी बैंक या सरकार से नहीं जुड़ी है और इसे बिना पहचान जाहिर किए खर्च किया जा सकता है। बिटकॉइन के इन सिक्कों को यूजर बनाते हैं। इसके लिए उन्हें इनको "माइन" करना पड़ता है. "माइन" के लिए उन्हें गणना करने की क्षमता देनी होती है और इसके बदले में उन्हें बिटकॉइन मिलते हैं। बिटकॉइन के सिक्कों को शेयर बाजारों में अमेरिकी डॉलर और दूसरी मुद्राओं के बदले खरीदा भी जा सकता है। कुछ कारोबार में बिटकॉइन मुद्रा के रूप में इस्तेमाल होती है हालांकि बीते कुछ सालों में इसकी लोकप्रियता ठहरी हुई है।बिटकॉइन के साथ क्या हुआ हैदिसंबर 2017 में बिटकॉइन फ्यूचर को अमेरिकी शेयर बाजार वॉल स्ट्रीट में कारोबार की इजाजत मिली। शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज और शिकागो बोर्ड ऑप ट्रेड ने इनकी खरीद बिक्री को मंजूरी दी थी। बिटकॉइन को लेकर दिलचस्पी इतनी ज्यादा थी कि कारोबार की अनुमति मिलते ही इसकी कीमतों में भारी उछाल आया। 2017 के शुरुआत में इस मुद्रा की कीमत 1000 डॉलर थी जो साल के आखिर में बढ़ कर 19 हजार 783 तक पहुंच गई। हालांकि कारोबार शुरू होने के बाद बिटकॉइन फ्यूचर अगले कुछ महीनों में तेजी से नीचे आया। एक साल बाद ही इसकी कीमत घट कर 4000 डॉलर पर चली गई। निवेशकों और बिटकॉइन में दिलचस्पी रखने वालों ने बताया कि 2017 में आए उछाल की बड़ी वजहें सट्टेबाजी और मीडिया का आकर्षण थे।अभी बिटकॉइन का क्या मोल हैकॉइनबेस के मुताबिक एक बिटकॉइन की कीमत लगभग 20 हजार 700 डॉलर है। कॉइनबेस एक प्रमुख डिजिटल करेंसी एक्सचेंज है जो दूसरे टोकन और मुद्राओं का भी कारोबार करती है। हालांकि बिटकॉइन की कीमत अस्थिर है और यह एक हफ्ते में ही सैकड़ों या हजारों डॉलरों का उतार चढ़ाव देखती है। एक महीने पहले इसकी कीमत 17 हजार डॉलर थी और एक साल पहले 7 हजार डॉलर।बिटकॉइन एक बहुत जोखिम वाला निवेश है और पारंपरिक निवेश के तरीकों जैसे कि शेयर या फिर बॉन्ड की तरह व्यवहार नहीं करता, जब तक कि खरीदार कई सालों तक इस मुद्रा को अपने पास ना रखे। उदाहरण के लिए एसोसिएटेड प्रेस ने 100 अमेरिकी डॉलर की कीमत के बिटकॉइन खरीदे ताकि वह इस मुद्रा पर नजर रख सके और व्यापार में इसके इस्तेमाल के बारे में खबर दे सके। इस पोर्टफोलियो का खर्च इस महीने जा कर अपने मूलधन पर पहुंचा है।बिटकॉइन को इतना पसंद क्यों किया गयाबिटकॉइन वास्तव में एक कंप्यूटर कोड की श्रृंखला है। यह जब भी एक यूजर से दूरे के पास जाता है तो इस पर डिजिटल सिग्नेचर किए जाते हैं। लेन देन खुद को गोपनीय रख कर भी किया जा सकता है। इसी वजह से यह आजाद ख्याल के लोगों, तकनीकी दुनिया के उत्साही, सटोरियों और अपराधियों के बीच काफी लोकप्रिय है।बिटकॉइन को डिजिटल वॉलेट में रखा जाता है। इस वॉलेट को या तो कॉइनबेस जैसे एक्सचेंज के जरिए ऑनलाइन हासिल किया जा सकता है या फिर ऑफलाइन हार्ड ड्राइव में एक खास सॉफ्टवेयर के जरिए। बिटकॉइन का समुदाय यह तो जानता है कि कितने बिटकॉइन हैं, लेकिन वे कहां हैं इसके बारे में सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है।कौन इस्तेमाल करता है बिटकॉइनकुछ कारोबार बिटकॉइन का इस्तेमाल कर रहे हैं जैसे कि ओवरस्टॉक डॉट कॉम बिटकॉइन में भुगतान स्वीकार करता है। मुद्रा इतनी मशहूर है कि ब्लॉकचेन इंफो के मुताबिक औसतन हर दिन 3 लाख लेने देन होते हैं। हालांकि इसकी लोकप्रियता नगद या क्रेडिट कार्ड की तुलना में कम ही है। बहुत सारे लोग और कारोबार में इसे भुगतान के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।बिटकॉइन की सुरक्षाबिटकॉइन नेटवर्क सामूहिक अच्छाई के लिए कुछ लोगों की लालसा पर निर्भर करता है। तकनीक के जानकार कुछ लोग जिन्हें माइनर कहा जाता है वो इस तंत्र में गणना की क्षमता ब्लॉकचेन में डाल कर इसे ईमानदार बनाए रखते हैं। ब्लॉक चेन हर बिटकॉइन के लेनदेन का हिसाब रखता है. इस तरह से यह उन्हें दो बार बेचे जाने को रोकता है और माइनरों को उनकी कोशिशों के लिए जब तक तोहफों में बिटकॉइन दिए जाते हैं। जब तक माइनर ब्लॉकचेन को सुरक्षित रखेंगे इसकी नकल करके नकली मुद्रा बनने का डर नहीं रहेगा।यहां तक कैसे पहुंचा बिटकॉइनयह एक रहस्य है। बिटकॉइन को 2009 में एक शख्स या फिर एक समूह ने शुरू किया जो सातोषी नाकामोतो के नाम से काम कर रहे थे। उस वक्त बिटकॉन को थोड़े से उत्साही लोग ही इस्तेमाल कर रहे थे। जब ज्यादा लोगों का ध्यान उस तरफ गया तो नाकामोतो को नक्शे से बाहर कर दिया गया। हालांकि इससे मुद्रा को बहुत फर्क नहीं पड़ा यह सिर्फ अपनी आंतरिक दलीलों पर ही चलता रहा।2016 में एक ऑस्ट्रेलिया उद्यमी ने खुद को बिटकॉइन के संस्थापक के रूप में पेश किया। हालांकि कुछ दिनों बाद ही उसने कहा कि उसके पास सबूतों को जाहिर करने की "हिम्मत नहीं है। " इसके बाद से इस मुद्रा की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली है।
- पुरातत्वविज्ञानी अपनी खोजों से हमारी प्राचीन सभ्यता और जीवन की बहुत सी जानकारियां देते हैं। जर्मन शहर हैम्बर्ग के नजदीक हुई खुदाई में एक आदिजीव के अवशेष मिले हैं। यह अवशेष 1.1 करोड़ साल पुराना है और समुद्री कछुए का है।जर्मनी के उत्तर में स्थित हैम्बर्ग शहर के पास स्थित ग्रोसल पाम्पाउ में जब रिसर्चरों की टीम खुदाई कर रही थी तो उन्हें कुछ कुछ अंदाजा जरूर था कि उनके हाथ क्या आने वाला है। ये इलाका अपने पुरातात्विक अवशेषों के लिए जाना जाता है। इस बार जब उन्होंने खुदाई पूरी की तो उन्हें विशालकाय समुद्री कछुए के सैकड़ों टुकड़े और हड्डियां मिलीं। खुदाई करने वाली टीम के प्रमुख गेरहार्ड होएफनर का कहना है कि हड्डियां संभवत: कम से कम दो मीटर लंबे कछुए की हैं।समुद्री कछुए के अवशेष उस जगह से मिले हैं जहां खुदाई करने वाली टीम ने कई हफ्तों तक बहुत बारीकी से खुदाई की, मिट्टी को हटाया और अवशेषों को बाहर निकाला ताकि उन्हें कोई नुकसान न पहुंचे। अब इन अवशेषों को जर्मनी के उत्तरी प्रांत श्लेसविष होलश्टाइन के लुइबेक शहर के प्राकृतिक संग्रहालय में लोगों के देखने के लिए रखा जाएगा। खुदाई करने वाली टीम ने समुद्री कछुए के अवशेषों के अलावा एक छोटे कछुए की हड्डियां, कोरल, एक समुद्री मछली के कांटे, एक डॉल्फिन की खोपड़ी और समुद्री काक की हड्डियां भी पेश कीं।ये सारे अवशेष जमीन के अंदर आठ से 20 मीटर की गहराई में मिले हैं. खुदाई टीम के प्रमुख गेरहार्ड होएफनर का कहना है कि जमीन के भीतर मिले सारे अवशेष प्राचीन काल के उत्तरी सागर की जैव विविधता को दिखाते हैं। उनका कहना है कि खासकर जीवाश्म बन चुके प्राचीन कछुए के अवशेषों का मिलना विरले ही होता है क्योंकि मृत जीवों के अवशेषों को अक्सर शिकारी मछलियां खा जाती हैं और उनका सख्त कवछ पानी में गल जाता है। सन 1989 में वहां एक गड्ढे में रिसर्चरों को व्हेल की एक अतिप्राचीन प्रजाति के अवशेष मिले थे, जिसे अब उस जगह के नाम से प्रेमेगाप्टेरा पाम्पाउएनसिस कहा जाता है। उसके बाद से व्हेल के ग्यारह और कंकाल मिले हैं।ग्रोस पाम्पाउ श्लेषविस होलश्टाइन प्रांत के लाउएनबुर्ग जिले में स्थित है और ये इलाका जीवाश्म वैज्ञानिकों में काफी लोकप्रिय है। वहां पिछले 30 सालों से अक्सर व्हेल, सील और दूसरे समुद्री जीवों के लाखों साल पुराने अवशेष मिलते रहे हैं। विशेषज्ञ इसकी वजह एक भौगोलिक खासियत को बताते हैं। यहां प्राचीन उत्तरी सागर का समुद्री तल धरती के कुछ ही मीटर नीचे दबा है। उत्तरी जर्मनी का बड़ा हिस्सा उन दिनों उत्तरी सागर का हिस्सा था। अब समुद्र इस इलाके से 140 किलोमीटर दूर है।----
- 17 दिसंबर 1903 को इंसान के आसमान में उडऩे का सपना सच हुआ था। आज ही के दिन राइट बंधुओं ने 'द फ्लायर' नामक विमान पहली बार उड़ाया था। इस 12 सेकेंड की उड़ान ने सदियों की मनोकामना पूरी कर दी।ऑरविल और विल्बर राइट बंधुओं की वजह से ही आज हम और आप विमान का सफर कर पा रहे हैं। राइट बंधुओं के मामूली से प्रयोगात्मक विमान से शुरू होकर यह उड़ान जेट विमानों और अंतरिक्ष यानों तक होते हुए चंद्रमा और मंगल तक जा पहुंची है। राइट बंधुओं की यह कामयाबी दरअसल चार साल की कड़ी मेहनत और बार-बार नाकामी मिलने के बावजूद सपने को साकार करने के जज्बे का नतीजा थी। हालांकि अपने भाइयों की तरह वे कॉलेज नहीं गए, लेकिन मशीनों से दोनों को खूब लगाव था. बचपन में उनके पिता ने उन्हें एक हेलीकॉप्टर सा खिलौना दिया था, जिसने दोनों भाइयों को असली का उडऩ यंत्र बनाने के लिए प्रेरित किया। दोनों को मशीनी तकनीक की काफी अच्छी समझ थी जिससे उन्हें विमान के निर्माण में मदद मिली।यह कौशल उन्होंने प्रिंटिंग प्रेसों, साइकिलों, मोटरों और दूसरी मशीनों पर लगातार काम करते हुए पाया था। दोनों ने 1900 से 1903 तक लगातार ग्लाइडरों के साथ परीक्षण किया था, लेकिन वे ग्लाइडर नहीं उड़ा पा रहे थे। आखिरकार एक साइकिल मैकेनिक चार्ली टेलर की मदद से राइट बंधु एक ऐसा इंजन बनाने में सफल रहे, जो 200 पौंड से कम वजन का भी था और 12 हॉर्स पावर का था। फिर समस्या आयी प्रोपेलर की. जलयान के प्रोपेलर विमान के लिए उपयुक्त नहीं थे। ऐसे में, राइट बंधुओं ने ग्लाइडरों के अनुभव के आधार पर उपयुक्त प्रोपेलर बनाने में सफलता हासिल की। उसके बाद उन्होंने अपने ग्लाइडर 'किटी हॉक' में यह इंजन और प्रोपेलर लगाकर विमान तैयार किया जिसने 17 दिसंबर 1903 को पहली उड़ान भरी। 12 सेकेंड की इस उड़ान ने 120 फीट की दूरी तय की और इतिहास रच दिया।---
- दुनिया भर में कई स्थानों पर बने पुलों में प्रेमी अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में ताले लटका देते हैं। एक ओर जहां ये ताले पुलों का वजन बढ़ा रहे हैं वहीं दुनिया के कुछ देश हैं जहां ये ताले लटकाने के लिए खास जगहें बना दी गई हैं।टिबरिस, रोम- प्रेम के प्रतीक के तौर पर ताले लटकाने और चाबी नदी में फेंकने की शुरुआत रोम के मिल्वियन ब्रिज से हुई। इसे इतालवी में लुचेती द अमोरे यानी लव लॉक कहा जाता है।सर्बिया की कहानी- प्यार के तालों का इतिहास सर्बिया से शुरू होता है । पहले विश्व युद्ध के दौरान नादा नाम की एक स्कूल टीचर सर्बियाई सैनिक रेलिया से प्यार करने लगी और सगाई कर ली, लेकिन रेलिया जब लड़ाई के लिए ग्रीस गया तो उसे वहां की लड़की से मुहब्बत हो गई। नादा इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकी और मर गई। नादा के इलाके की लड़कियों ने अपने प्यार को पक्का करने के लिए उन पुलों पर ताले लगाने शुरू किए जहां नादा और रेलिया मिला करते थे, लेकिन इसकी परंपरा रोम में एक किताब आई वॉन्ट यू के आने के बाद परवान चढ़ी।चीन की दीवार- मुहब्बत के ये ताले अब चीन की दीवार से लेकर कोपनहागन के पुलों तक लटके हुए हैं। अक्सर प्रेमी अपना नाम इन पर लिख कर चाबी नदी या खाई में फेंक देते हैं। उनका विश्वास है कि इससे प्यार कभी नहीं टूटेगा।सेन, पेरिस -जर्मनी में राइनलैंड रीजनल काउंसिल में लोकसाहित्य विभाग के प्रमुख डाग्मार हैनेल कहते हैं कि पुल हमेशा से प्रेमियों के लिए प्यार का प्रतीक रहे हैं। मुहब्बत की तरह ही वो हिस्सों को जोड़ते हैं और शायद इसी कारण आज दुनिया भर के पुलों पर प्यार के ताले जड़े हुए हैं।पेरिस में अभियान- पुलों के बढ़ते वजन के कारण पेरिस में नया अभियान शुरू किया गया है, लव विदाउट लॉक। इस वेबसाइट पर लिखा गया है, हमारे पुल आपके प्यार का वजन अब नहीं उठा पा रहे हैं इसलिए अपने प्यार का इजहार बिना ताले के करें।
- नई दिल्ली स्थित संसद भवन की तस्वीर अब बदलने वाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में नए संसद भवन की नींव रखी है। कहा जा रहा है कि आजादी के 75 साल पूरे होने तक यह नई बिल्डिंग तैयार हो जाएगी। कहा जा रहा है कि नई इमारत अधिक बड़ी, आकर्षक और आधुनिक सुविधाओं वाली होगी। आइये जाने क्या है सेंट्रल विस्टा इलाका और कैसी होगी नई संसद।दरअसल सेंट्रल विस्टा राजपथ के दोनों तरफ के इलाके को कहते हैं। राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट के करीब प्रिंसेस पार्क का इलाका इसके अंतर्गत आता है। सेंट्रल विस्टा के तहत राष्ट्रपति भवन, संसद, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, उपराष्ट्रपति का घर आता है। इसके अलावा नेशनल म्यूजियम, नेशनल आर्काइव्ज, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आट्र्स, उद्योग भवन, बीकानेर हाउस, हैदराबाद हाउस, निर्माण भवन और जवाहर भवन भी सेंट्रल विस्टा का ही हिस्सा हैं। सेंट्रल विस्टा रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट केंद्र सरकार के इस पूरे इलाके को रेनोवेट करने की योजना को कहा जाता है।केंद्र सरकार की योजना संसद के अलावा इसके पास की सरकारी इमारतों को भी नए सिरे बनाने की थी। इन सभी भवनों को दिल्ली का सेंट्रल विस्टा कहा जाता है। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की ओर करीब 3 किलोमीटर का ये सीधा रास्ता और इसके दायरे मे आने वाली इमारतें जैसे कृषि भवन, निर्माण भवन से लेकर संसद भवन, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, रायसीना हिल्स पर मौजूद राष्ट्रपति भवन तक का पूरा इलाका सेंट्रल विस्टा कहलाता है।नए संसद भवन में लोकसभा का आकार मौजूदा से तीन गुना ज्यादा होगा। राज्यसभा का भी आकार बढ़ेगा। कुल 64 हजार 500 वर्गमीटर क्षेत्र में नए संसद भवन का निर्माण टाटा प्रोजेक्ट्स लिमिटेड की ओर से कराया जाएगा। नए संसद भवन का डिजाइन एचसीपी डिजाइन प्लानिंग एंड मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड ने तैयार किया है। सितंबर 2020 में टाटा प्रोजेक्ट्स ने नई इमारत के निर्माण की बोली जीती थी। इसकी लागत 861 करोड़ थी। इसका निर्माण सेंट्रल विस्टा रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट के तहत किया जाएगा। लोकसभा चैम्बर में 888 सदस्यों के बैठने की क्षमता होगी। जबकि राज्यसभा में 384 सीट होंगी।ये इस बात को ध्यान में रखकर बनाई जाएगी कि भविष्य में दोनों सदनों के सदस्यों की संख्या बढ़ सकती है और परिसीमन का काम भी होना है, जो कि 2026 के लिए शेड्यूल्ड है। अभी लोकसभा की अनुमानित क्षमता 543 सदस्य और राज्यसभा की 245 सदस्य है। मौजूदा इमारत को देश की पुरातत्व धरोहर में बदल दिया जाएगा। माना जा रहा है कि इसका इस्तेमाल संसदीय कार्यक्रमों में भी किया जाएगा।मौजूदा ढांचा 2021 में 100 साल पूरे कर लेगा। इसका निर्माण एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर ने किया था। इन दोनों को नई दिल्ली शहर की योजना और निर्माण का जिम्मा दिया गया था। उस समय इसे बनाने में छह साल और 83 लाख रुपये लगे थे।सुप्रीम कोर्ट ने नई संसद समेत कई अहम सरकारी इमारतों वाले सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में किसी भी निर्माण पर फिलहाल रोक लगा रखी है। सुप्रीम कोर्ट की रोक का आधार सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला लंबित है। नई संसद और दूसरी इमारतों का निर्माण तभी शुरू हो सकेगा, जब कोर्ट उसे मंजूरी देगा।
- सर्दियों का मौसम आ गया है। ऐसे में लोगों ने अपने-अपने स्वेटर, जैकेट, कंबल, रजाई सब निकाल लिए हैं, ताकि ठंड से बच सकें। हालांकि भारत में कुछ ही ऐसे इलाके हैं, जहां ज्यादा ठंड पड़ती है। इनमें कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड आदि जगहें हैं। यहां तापमान कभी-कभी शून्य से भी चला जाता है और भारी बर्फबारी होती है, जिससे जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है और लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन क्या आप दुनिया के उन पांच सबसे ठंडे देशों के बारे में जानते हैं, जिनके कुछ इलाके तो पूरे साल बर्फ की चादर से ढंके रहते हैं।ग्रीनलैंडयह डेनमार्क राजशाही के अधीन एक स्वायत्त घटक देश है, जो आर्कटिक और अटलांटिक महासागर के बीच कनाडा आर्कटिक द्वीपसमूह के पूर्व में स्थित है। चारों तरफ से समुद्र से घिरा हुआ यह देश दुनिया के सबसे ठंडे देशों में से एक है। यहां गर्मियों के मौसम में भी तापमान शून्य होता है।आइसलैंडआइसलैंड गणराज्य उत्तर पश्चिमी यूरोप में उत्तरी अटलांटिक में ग्रीनलैंड, फरो द्वीप समूह और नॉर्वे के मध्य बसा एक द्वीपीय देश है। यह दुनिया के सबसे ठंडे देशों में से एक है। यहां का तापमान आसानी से माइनस 10 डिग्री सेल्सियस तक गिर सकता है। यहां मौजूद वतनजोकुल ग्लेशियर गुफा दुनिया की सबसे अविश्वसनीय गुफाओं में से एक है।कजाकिस्तानआर्कटिक सर्कल के अंदर स्थित यह देश रूस के ठीक नीचे स्थित है। यहां के इलाके बहुत असमान हैं, जहां ऊंचाई के आधार पर तापमान भिन्न होता है। सर्दियों के मौसम में यहां का तापमान शून्य से भी नीचे चला जाता है, लेकिन इस देश में ऐसे कई क्षेत्र हैं जो स्थायी रूप से बर्फ से ढके ही रहते हैं।कनाडाइसे दुनिया के सबसे ठंडे देशों में से एक माना जाता है। यहां इतनी ठंड पड़ती है कि समुद्र का पानी तक जम जाता है। सर्दियों के दौरान लगभग पूरे कनाडा में भारी बर्फबारी होती है और तापमान शून्य से 40 डिग्री नीचे तक गिर सकता है।नॉर्वेयूरोप महाद्वीप में स्थित यह देश अपनी ठंड के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। यहां भयानक ठंड पड़ती है। साल 2010 में यहां की ठंड ने तो पिछले बीस साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया था। उस समय यहां का तापमान शून्य से 42 डिग्री नीचे गिर गया था।
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दुनिया में एक से एक खूबसूरत जीव हैं, जो अपनी खूबसूरती से लोगों को लुभाते हैं। इन जीवों को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वो किसी दूसरे ग्रह से आए हों। लेकिन आज हम आपको कुछ ऐसे जीवों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो बेहद ही खतरनाक और जहरीले हैं। इनका जहर इतना खतरनाक है, जो पल भर में इंसान को मौत की नींद सुला सकता है।
1. फनल वेब स्पाइडर - फनल वेब स्पाइडर (मकड़ी) मूल रूप से ऑस्ट्रेलिया में पाया जाता है, इसलिए इसे ऑस्ट्रेलियन फनल वेब स्पाइडर भी कहा जाता है। कहते हैं कि यह मकड़ी अगर किसी को काट ले तो 15 मिनट से लेकर 3 दिन के अंदर उसकी मौत हो जाती है।
2. बॉक्स जेलीफिश- जेलीफिश वैसे भी खतरनाक होती है, ये तो आप जानते ही होंगे, लेकिन बॉक्स जेलीफिश बहुत ही ज्यादा जहरीली होती है। अब तक दुनिया में जितने भी जहरीले जीव-जंतुओं की खोज हुई है, यह उनमें से सबसे ज्यादा जहरीली है। कहते हैं कि इसका जहर एक बार में करीब 60 लोगों को मार सकता है। अगर बॉक्स जेलीफिश का जहर एक बार इंसान के शरीर में पहुंच जाए तो एक मिनट के अंदर उसकी मौत निश्चित है।
3. इंडियन रेड स्कॉर्पियन- बिच्छूओं को तो आपने देखा ही होगा, लेकिन यह दुनिया की सबसे जहरीली बिच्छू है। इसे 'इंडियन रेड स्कॉर्पियन' के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह मूलत: भारत में ही पाया जाता है। भारत समेत दक्षिण एशिया के देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल में पाया जाने वाला यह बिच्छू अगर किसी इंसान को काट ले तो 72 घंटे में उसकी मौत निश्चित है।
4. ब्लू रिंग्ड ऑक्टोपस-ऑक्टोपस के बारे में तो आपने सुना ही होगा। दुनियाभर में इसकी 300 से ज्यादा प्रजातियां हैं, लेकिन इनमें 'ब्लू रिंग्ड ऑक्टोपस' सबसे ज्यादा खतरनाक और जहरीला है। कहते हैं कि इसका जहर इंसान को मात्र 30 सेकेंड में ही मार सकता है। इसके केवल एक बाइट में इतना जहर होता है कि उससे करीब 25 इंसानों की मौत एक बार में हो जाए। यह हिंद महासागर और ऑस्ट्रेलिया के समुद्रों में पाए जाते हैं।
5. कोन स्नेल- कोन स्नेल एक घोंघा होता है, लेकिन बहुत ही खतरनाक। इसका जगह इतना खतरनाक होता है कि पल भर में किसी को भी पैरालाइज (लकवाग्रस्त) कर सकता है। वैसे तो दुनियाभर में घोंघे की 600 से भी ज्यादा प्रजातियां हैं, लेकिन यह उनमें से सबसे ज्यादा जहरीला है।
- ब्रह्म पुराण के रचयिता महर्षि वेदव्यास हैं। इसकी मूल भाषा संस्कृत है। इसमें 10 हजार श्लोक दिए हुए हैं। पुराणों की दी गई सूची में इस पुराण को प्रथम स्थान पर रखा जाता है। इस पुराण में सृष्टि की उत्पत्ति, पृथु का पावन चरित्र, सूर्य एवं चन्द्रवंश का वर्णन, श्रीकृष्ण-चरित्र, कल्पान्तजीवी मार्कण्डेय मुनि का चरित्र, तीर्थों का माहात्म्य एवं अनेक भक्तिपरक आख्यानों की सुन्दर चर्चा की गयी है।भगवान् श्रीकृष्ण की ब्रह्मरूप में विस्तृत व्याख्या होने के कारण यह ब्रह्मपुराण के नाम से प्रसिद्ध है। इस पुराण में साकार ब्रह्म की उपासना का विधान है। इसमें ब्रह्म को सर्वोपरि माना गया है। इसीलिए इस पुराण को प्रथम स्थान दिया गया है। पुराणों की परम्परा के अनुसार ब्रह्म पुराण में सृष्टि के समस्त लोकों और भारतवर्ष का भी वर्णन किया गया है। कलियुग का वर्णन भी इस पुराण में विस्तार से उपलब्ध है। ब्रह्म के आदि होने के कारण इस पुराण को आदिपुरण भी कहा जाता है। व्यास मुनि ने इसे सर्वप्रथम लिखा है। इसमें दस सहस्र श्लोक हैं। प्राचीन पवित्र भूमि नैमिष अरण्य में व्यास शिष्य सूत मुनि ने यह पुराण समाहित ऋषि वृन्द में सुनाया था। इसमें सृष्टि, मनुवंश, देव देवता, प्राणि, पुथ्वी, भूगोल, नरक, स्वर्ग, मंदिर, तीर्थ आदि का निरूपण है। शिव-पार्वती विवाह, कृष्ण लीला, विष्णु अवतार, विष्णु पूजन, वर्णाश्रम, श्राद्धकर्म, आदि का विचार है। सम्पूर्ण ब्रह्म पुराण में 246 अध्याय हैं। इस पुराण की कथा लोमहर्षण सूत जी एवं शौनक ऋषियों के संवाद के माध्यम से वर्णित है। यही कथा प्राचीन काल में ब्रह्मा ने दक्ष प्रजापत्ति को सुनायी थी।यह पुराण सब पुराणों में प्रथम और धर्म अर्थ काम और मोक्ष को प्रदान करने वाला है, इसके अन्दर नाना प्रकार के आख्यान है, देवता दानव और प्रजापतियों की उत्पत्ति इसी पुराण में बताई गई है। लोकेश्वर भगवान सूर्य के पुण्यमय वंश का वर्णन किया गया है, जो महापातकों के नाश को करने वाला है। इसमें ही भगवान रामचन्द्र के अवतार की कथा है, सूर्य वंश के साथ चन्द्रवंश का वर्णन किया गया है, श्रीकृष्ण भगवान की कथा का विस्तार इसी में है, पाताल और स्वर्ग लोक का वर्णन नरकों का विवरण सूर्यदेव की स्तुति कथा और पार्वती जी के जन्म की कथा का उल्लेख लिखा गया है। दक्ष प्रजाप्ति की कथा और एकाम्रक क्षेत्र का वर्णन है। पुरुषोत्तम क्षेत्र का विस्तार के साथ किया गया है, इसी में श्रीकृष्ण चरित्र का विस्तारपूर्वक लिखा गया है, यमलोक का विवरण पितरों का श्राद्ध और उसका विवरण भी इसी पुराण में बताया गया है, वर्णों और आश्रमों का विवेचन भी कहा गया है, योगों का निरूपण सांख्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन ब्रह्मवाद का दिग्दर्शन और पुराण की प्रशंसा की गयी है। इस पुराण के दो भाग हंै।
- एरण्ड जिसे अरण्य, अरण्डी , अण्डी आदि और बोलचाल की भाषा में अण्डउआ भी कहते हैं, एक औषधीय पौधा है। इसका पेड़ छत्तीसगढ़ में भी बहुतायक में मिलता है। इसका पेड़ 8 से 15 फीट ऊंचा होता है। इसके पत्तों और शाखों पर भूरा-भूरा पदार्थ लिपटा रहता है जो छूने से हाथ में आ जाता है। इसके पत्ते आकार में बड़े और पांच चौड़ी फांक वाले होते हैं।इसमें लाल और बैंगनी रंग फूल आते हैं। जिसमें कांटेदार हरे आवरण चढ़े फल लगते हैं। इसके पेड़ लाली लिए होते हैं, तो रक्त एरण्ड और सफेद हो तो श्वेत एरण्ड कहलाता है। जिन वृक्ष के बीज बड़े होते हैं उनका तेल जलाने के काम आता है। जिनके बीज छोटे होते हैं उनका तेल औषधीय उपयोग में लाया जाता है। एरण्ड का तेल एक निरापद रेचक होता है। यह वातनाशक औषधि है। वात प्रकोप में उत्पन्न कब्ज में और वात व्याधियों में कम मात्रा में इसका उपयोग औषधि के रूप में किया जाता है। इसके अलावा बाल झडऩा, उदरविकार, पेचिस, कृमि, पाइल्स, पीलिया, किडनी की सूजन, अर्थराइटिस, स्किन डिजीज, सूजन सहित अनेक रोगों के इलाज में भी इसके इस्तेमाल किया जाता है।विविध भाषाओं में नाम-संस्कृत-एरण्ड , व्याघ्रपुच्छ, आमण्ड, हिन्दी- अरण्ड, अण्डी, अरण्डी, मराठी- एरण्ड, गुजराती- एरण्डोस दिवेलगो, बांगला- भेरेंडा, तेलुगु-आमुडामू, मलयालम- आवणक्का, फारसी- वेज अंजीर, इंग्लिश- केस्टर ऑइल प्लॉन्ट, लैटिन-रिसिनस कम्युनिस।अरण्ड की लाल और सफेद जातियों के अलावा एक और जाति होती है जिसे व्याघ्र एरण्ड कहते हैं। इसका उपयोग बहुत कम किया जाता है।अरण्ड का तेल यह वात की समस्या का उपचार आसानी से कर सकता है। वात की समस्या होने पर कब्ज की स्थिति सबसे अधिक हो सकती है। इसके अलावा, एरंड पित्त को बढ़ाने वाला, सूजन और दर्द कम करने वाला, कफ को कम करने वाला, मूत्रविशोधक, शुक्राओं की संख्या बढ़ाने, गर्भाशय को शुद्ध करने जैसी स्थितियों के उपचार में मदद कर सकता है।एरण्ड (कैस्टर) कैसे काम करता है?एरण्ड के तेल में पाए जाने वाले रसायनिक गुण और उनकी मात्रा:रिकिनोइलिक एसिड - 90त्न, रिकिनोइलिक एसिड, एक तरह का फैटी एसिड होता है जिसमें लगभग 90 प्रतिशत तेल की मात्रा होती है।लिनोलिक - 4 प्रतिशतओलिक - 3 प्रतिशतस्टीयरिक - 1 प्रतिशतलिनोलेनिक फैटी एसिड - 1प्रतिशत से अधिक
- कन्हेरी गुफ़ाएं महाराष्ट्र के शहर मुंबई में कई पर्यटन स्थलों में से एक हैं, जो मुंबई शहर के पश्चिमी क्षेत्र में बसे बोरीवली के उत्तर में स्थित हैं।कन्हेरी उत्तर कोंकण, महाराष्ट्र में स्थित है। पश्चिम रेलवे के बोरीवली स्टेशन से एक मील पर कृष्णगिरि पहाड़ी में तीन प्राचीन गुहा मंदिर है, जिनका सम्बंध शिवोपासना से जान पड़ता है। एक गुफ़ा में अनेक मूर्तियांँ आज भी देखी जा सकती हैं। बोरीवली स्टेशन से पांच मील पर कन्हेरी है, जो कृष्णगिरि पहाड़ी का एक भाग है। 'कन्हेरी' शब्द कृष्णगिरि का अपभ्रंश है। यहां 9वीं शती ई. की बनी हुई लगभग 109 गुफ़ाएं हैं, पर उल्लेखनीय केवल एक ही है जो काली के चैत्य के अनुरूप बनाई गई है। इस चैत्यशाला में बौद्ध महायान सम्प्रदाय की सुंदर मूर्तिकारी है। गुफ़ा की भित्तियों पर अजंता के समान ही चित्रकारी भी थी, जो अब प्राय: नष्ट हो चुकी है।कन्हेरी में दूसरी शताब्दी ई. में चट्टानों को काट-छांट कर 90 गुफाओं का निर्माण किया गया। कन्हेरी चैत्यगृह की बनावट कार्ले के चैत्यगृह से मिलती है। कन्हेरी के चैत्यगृह के प्रवेश द्वार के सामने एक आंगन है जो अन्य किसी चैत्यगृह में नहीं मिलता। कन्हेरी गुफ़ाएं बौद्ध कला दर्शाती हैं। कन्हेरी शब्द कृष्णागिरी यानी काला पर्वत से निकला है। इनको बड़े बड़े बेसाल्ट की चट्टानों से बनाया गया हैा।कन्हेरी की गुफ़ाओं के समूह को भारत में विशालतम माना जाता है। कन्हेरी की गुफ़ाओं में एक ही पहाड़ को तराश कर लगभग 109 गुफ़ाओं का निर्माण किया गया है। यह बौद्ध धर्म की शिक्षा हीनयान तथा महायान का एक बड़ा केंद्र रहा है। पश्चिम भारत में सर्वप्रथम बौद्ध धर्म सोपारा में ही पल्लवित हुआ था जो कभी उत्तर कोंकण की राजधानी रही थी। उसी समय से कन्हेरी को जो सोपारा के कऱीब ही है, धार्मिक शिक्षा के केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। इस अध्ययन केंद्र का प्रयोग बौद्ध धर्म के उत्थान एवं पतन में निरंतर 11 वीं सदी तक किया जाता रहा है। कन्हेरी की गुफ़ाओं के प्रारंभिक निर्माण को तीसरी सदी ईसापूर्व का माना जाता है और अंतिम चरण के निर्माण को 9 वीं सदी का माना जाता है। प्रारम्भिक चरण हीनयान सम्प्रदाय का रहा जो आडम्बर विहीन है। सीधे सादे कक्ष, गुफ़ाओं में प्रतिमाओं को भी नहीं उकेरा गया है। दूसरी तरफ अलंकरण युक्त गुफ़ाएं महायान सम्प्रदाय की मानी जाती हैं।
- राजस्थान का प्रमुख शहर बीकानेर, सुनहरी रेत के टीलों, ऊँटों और वीर राजपूत राजाओं के साथ रेगिस्तान के गहरे रोमांस की मिसाल है। राजस्थान राज्य के उत्तर पश्चिमी भाग में यह शहर थार रेगिस्तान के बीच में स्थित है। यह राठौर राजकुमार, राव बीकाजी द्वारा वर्ष 1488 में स्थापित किया गया था। यह शहर अपनी समृद्ध राजपूत, संस्कृति स्वादिष्ट भुजिया नमकीन रंगीन त्योहारों, भव्य महलों, सुंदर मूर्तियों और विशाल रेत के पत्थर के बने किलों के लिए प्रसिद्ध है। यह शहर 'बीकाजी' और 'हल्दीराम' जैसे विश्व प्रसिद्ध वैश्विक ब्रांडों का उद्गम स्थल रहा है।मुख्य भोजन ऐसा जिससे मुंह में पानी आ जाये। बीकानेर विशाल भुजिया उद्योग का उद्गम स्थल रहा है, जो कि 1877 में राजा ड़ूगर सिंह के शासनकाल में शुरू किया गया। बीकानेर में भुजिया सबसे पहले ड़ूगरशाही के नाम से शुरू की गई जो कि राजा के मेहमानों के नाश्ते के तहत निर्मित की गई। उसके बाद से यह सबकी पसंद बनता चला गया। बीकानेरी भुजिया बेसन, मसाले, कीट दाल, वनस्पति तेल, नमक, लाल मिर्च, काली मिर्च, इलायची, और लौंग के साथ तैयार की जाती है।बड़े मिठाई और नमकीन कंपनियों में से एक, 'हल्दीराम के' भुजिया सेव ब्रांड वर्ष 1937 में गंगा भीसेन अग्रवाल द्वारा स्थापित किया गया था। दुनिया भर में पहचान बना चुके हल्दीराम के भुजिया की खास बात इसका कुरकुरा और स्वादिष्ट होना है। गंगाजी को उनकी मां और लोग प्यार से हल्दीराम कहते थे। यही कारण है कि इस प्रोडक्ट का नाम हल्दीराम रखा गया। गंगाजी ने भुजिया की रेसिपी अपनी एक आंटी से सीखी थी। एक बार उन्होंने बीकानेर में एक फैमिली के स्टॉल पर यह भुजिया रेसिपी ट्राय की, जिसे लोगों ने काफी पसंद किया।हल्दीराम की बनाई भुजिया जब लोगों को पसंद आई तो उन्होंने इसे बड़े स्तर पर शुरू करने की योजना बनाई। उन्होंने एक दुकान खोली, जिसमें यह भुजिया बेचना शुरू किया। यह भुजिया आम तौर पर मिलने वाली भुजिया से पतली और चटपटी थी इसलिए यह जल्द ही लोगों के बीच लोकप्रिय हो गई। हल्दीराम ने इस भुजिया का नाम पहले तो बीकानेर के राजा डूंगर सिंह के नाम पर डूंगर सेव रखा। कुछ ही समय में उनकी यह भुजिया ब्रैंड के रूप में स्थापित हो गई।बीकानेर में तो हल्दीराम की भुजिया के चर्चे जोर शोर से होने लगे थे। इस कारोबार को आगे ले जाने का किस्सा भी मजेदार है। दरअसल हल्दीराम अपने एक रिश्तेदार की शादी में शरीक होने कोलकाता गए थे। तब उन्हें आइडिया आया कि क्यों ना यहां भी भुजिया की एक दुकान खोली जाए। बस, इस आइडिया के साथ उन्होंने वहां एक दुकान खोली और वह चल निकली। हालांकि हल्दीराम की पहली पीढ़ी उनके इस कारोबार का ज्यादा विस्तार नहीं कर सकी, लेकिन उनकी दूसरी पीढ़ी यानी की उनके पोतों ने इस कारोबार को और विस्तार दिया और 1970 में नागपुर और 1982 में दिल्ली तक ले गए। अब तो कंपनी के 30 से अधिक नमकीन प्रोडक्ट्स मौजूदा समय में बाजार में हैं। इनमें सबसे मशहूर है आलू भुजिया।
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बीजिंग। चांद पर चीन के तीसरे यान का उतरना उसके बढ़ते महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम का हिस्सा है जिसमें मंगल पर रोबोट, पुन: इस्तेमाल होने वाले अंतरिक्ष यान का विकास और चांद की सतह पर मानव भेजने की उसकी योजना शामिल है। इसी कड़ी में 1970 के दशक के बाद ‘चांगए 5' मिशन चंद्रमा की चट्टानों के अंश पृथ्वी पर वापस लाने का पहला प्रयास है। चीन की अंतरिक्ष एजेंसी ने घोषणा की है कि ‘चांगए 5' ने बुधवार को चंद्रमा की सतह से नमूने एकत्र किए जो मंगलवार को चांद पर उतरा। अंतरिक्ष अन्वेषण चीन की सत्तारूढ़ कम्यूनिस्ट पार्टी के लिए एक राजनीतिक उपलब्धि है जो चीन की आर्थिक वृद्धि के अनुरूप वैश्विक प्रभाव चाहती है। चीन इस मामले में अमेरिका तथा रूस से एक पीढ़ी पीछे है, लेकिन इसका खुफिया और सैन्य कार्यक्रम तेजी से आगे बढ़ रहा है। यह विशिष्ट अभियानों को अंजाम दे रहा है। अगर यह सफल रहा तो बीजिंग इससे अंतरिक्ष क्षेत्र में अग्रणी बन जाएगा। अंतरिक्ष क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि चांद पर चीन के तीसरे यान का उतरना उसके बढ़ते महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष कार्यक्रम का हिस्सा है जिसमें मंगल पर रोबोट, पुन: इस्तेमाल होने वाले अंतरिक्ष यान का विकास और चांद की सतह पर मानव भेजने की उसकी योजना शामिल है।