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- खूबसूरत डांसर और स्ट्रिपर रहीं माता हारी का नाम डबल एजेंट्स की लिस्ट में बहुत ऊपर आता है। वे जर्मनी और फ्रांस के लिए जासूसी करती थीं। जर्मनी से आए एक टेलीग्राम के पकड़े जाने पर उनके लिए मुश्किलें पैदा हुईं. फ्रांस को उन पर शक हुआ. इसी शक के आधार पर 24 और 25 जुलाई, 1917 को पेरिस के बाहर किसी जगह बंद दरवाजों के पीछे आरोपों की सुनवाई हुई। दोषी पाए जाने पर उसी साल 15 अक्टूबर को माता हारी को गोली मार दी गई।माता हारी 1905 में पेरिस पहुंची थीं। नृत्य में अपने खास अंदाज की वजह से बहुत जल्दी लोकप्रियता मिली। फिर डांस की प्रस्तुतियों के लिए ही वह पूरे यूरोप में काफी यात्राएं करने लगीं। उनके जन्म के बारे में कई तरह की कहानियां प्रचलित हुईं, जैसे कि माता हारी का जन्म किसी पवित्र भारतीय मंदिर में हुआ जहां कि पुजारिन ने उन्हें प्राचीन तरह का नृत्य सिखाया। कहानियों में यह भी बताया गया कि उनका प्रचलित नाम माता हारी भी उसी पुजारिन का दिया हुआ था। मलय भाषा में इस नाम का अर्थ होता है दिन की आंख। असल में उनका जन्म 1876 में नीदरलैंड्स में हुआ था और उनका असली नाम मार्गरेटा गैट्रुइडा सेले था।पहले विश्व युद्ध के समय तक माताहारी एक डांसर और स्ट्रिपर के रूप में मशहूर हो गई थीं। उनका कार्यक्रम देखने कई देशों के लोग और सेना के बड़े अधिकारी पहुंचा करते थे। इसी मेलजोल के दौरान गुप्त जानकारियां एक से दूसरे पक्ष को दी जाने लगीं। फरवरी 1917 में कुछ फ्रांसीसी अधिकारियों ने जासूसी के आरोप में माता हारी को गिरफ्तार करवाया। मुकदमे में उन पर गुप्त जानकारी दुश्मन पक्ष को देने का आरोप सिद्ध हुआ। 15 अक्टूबर 1917 को उनकी आंखों पर पट्टी बांध कर उन्हें गोली से उड़ाने की सजा दी गई, लेकिन मर कर भी वे जासूसी जगत में हमेशा के लिए अमर हो गईं।
- 21वीं सदी में चीजों के बारे में जानना बेहद आसान हो गया है, जैसे बारिश कब होगी, तूफान कब आएगा आदि। लेकिन अगर प्राचीन समय की बात की जाये तो मौसम की जानकारी जुटाना यकीनन काफी मुश्किल होता रहा होगा। लेकिन भारत में एक गांव ऐसा है , जहां के एक मंदिर से लोगों को मानसून का पूर्वानुमान हो जाता है।यकीनन सुनने में यह काफी अटपटा है, लेकिन आइये जानते हैं इस खास जगह के बारे में ...ये जगह उत्तर प्रदेश के औद्योगिक शहर कानपुर से करीबन 50 किमी की दूरी पर स्थित बेहटा गांव है। कहा जाता है कि, यहां मौजूद भगवान जगन्नाथ का मंदिर किसानों को मानसून के आने की सटीक सूचना प्रदान करता है। आप सोच रहे होंगे कैसे? कहा जाता है कि 5000 साल पुराने इस मंदिर में मानसून के आने से ठीक 15 पहले ही मंदिर की छत से पानी टपकना प्रारंभ हो जाता है। पानी के टपकने की गति से पता चलता है कि, गांव में इस बार कैसा मानसून रहेगा। बताया जाता है कि, इस मंदिर में पानी की बूंद तब तक टपकती रहती है जब तक गांव में मानसून की बारिश ना हो जाये। इतना ही नहीं , कहा जाता है कि, जितनी तीव्र गति से पत्थर से पानी टपकता है, बारिश भी हमेशा उतनी ही तेज होती है। मानसून के आते ही छत से पानी टपकना बंद हो जाता है। अगर बूंद छोटी हो तो सूखे की आशंका माना जाता है। बहुत से वैज्ञानिकों और पुरातत्व विशेषज्ञों ने मंदिर से गिरने वाली बूंदों की पड़ताल की, लेकिन सदियां बीत गई, इस रहस्य को कोई नहीं जान पाया। मंदिर एक विशाल पत्थर को काटकर बनाया गया है जिसकी छत भी पत्थर की ही है।आपको जानकर हैरानी होगी, कि मंदिर के आसपास पानी का कोई स्त्रोत मौजूद नहीं है फिर कड़कती धूप में इस मंदिर की छत से पानी टपकना अद्भुत है, कोई नहीं जानता कि पानी की यह बूंदे कैसे और कहां से आती है? इसी भविष्यवाणी पर आस-पास के 100 गांवों के किसान खेतों की बुआई की तैयारी शुरू करते हैं। फिलहाल, अब यह मंदिर पुरातत्व विभाग के अधीन है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन यहां भव्य विशाल शोभा यात्रा निकाली जाती है।
- शुक्र ग्रह पर वैज्ञानिकों को जीवन के संकेत मिले हैं। शुक्र ग्रह के वातावरण में फॉस्फीन गैस की मौजूदगी से वैज्ञानिकों को लगता है कि वहां जीवन होने की संभावना हो सकती है।इस खोज के बाद धरती के बाहर जीवन के संकेत के बारे में वैज्ञानिक उत्साहित हैं। हालांकि शोधकर्ताओं ने शुक्र ग्रह पर वास्तविक जीवन के रूपों की खोज नहीं की है, लेकिन यह माना है कि पृथ्वी पर फॉस्फीन गैस तब बनती है जब बैक्टीरिया ऑक्सीजन की गैरमौजूदगी वाले वातावरण में उसे उत्सर्जित करते हैं।हवाई में जेम्स क्लार्क मैक्सवेल टेलीस्कोप की मदद से अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों की टीम ने सबसे पहले फॉस्फीन की खोज की और उसके बाद चिली में स्थित एटाकामा लार्ज मिलीमीटर/सब मिलीमीटर ऐरे रेडियो टेलीस्कोप की मदद से इसकी पुष्टि की। जर्नल नेचर एस्ट्रोनॉमी में छपे इस शोध के मुख्य लेखक और कार्डिफ यूनिवर्सिटी के खगोल विज्ञानी जेन ग्रीव्स कहते हैं, मैं बहुत ही आश्चर्यचकित था, वास्तव में मैं दंग रह गया।पृथ्वी के बाहर जीवन की तलाश वैज्ञानिक लंबे समय से कर रहे हैं और इसकी तलाश के लिए वैज्ञानिक खोज और टेलीस्कोप की मदद ले रहे हैं ताकि उन्हें बायो सिग्नेचर मिल सके, जो हमारे सौर मंडल और उससे आगे के अन्य ग्रहों और चांद पर जीवन के अप्रत्यक्ष संकेत दे।शोध की सह-लेखिका क्लारा साउसा-सिल्वा कहती हैं, हमें जो भी शुक्र के बारे में पता है, वह फॉस्फीन का सबसे मुमकिन स्पष्टीकरण है, जैसा कि काल्पनिक हो सकता है, यह जीवन है। साउसा-सिल्वा कहती है, यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर यह फॉस्फीन गैस है और जीवन है तो इसका मतलब है कि हम अकेले नहीं है। वे इस खोज के बारे में आगे कहती हैं, इसका मतलब है जीवन खुद बहुत सामान्य होना चाहिए और हो सकता है कि आकाशगंगा में कई और ग्रह हो सकते हैं जहां जीवन हो।ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक एलन डफी ने इस खोज पर खुशी का इजहार करते हुए कहा कि यह पृथ्वी के अलावा किसी अन्य ग्रह पर जीवन की मौजूदगी होने का सबसे रोमांचक संकेत है. जिस तरह से मंगल ग्रह पर वैज्ञानिक जीवन की संभावनाओं को देख रहे हैं उस तरह से शुक्र ग्रह पर वे ध्यान नहीं देते आए हैं।फॉस्फीन-एक फास्फोरस का कण और तीन हाइड्रोजन के कणों से मिलकर बनता है, यह इंसान के लिए बहुत जहरीला होता है। शुक्र का वायुमंडल बहुत ही जहरीला है और वहां का तापमान 471 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, इतना गर्म की सीसा भी पिघल जाए।
- भारत की पवित्र नदियों की एक लंबी श्रंृखला है। इन्हीं में से एक है गोमती नदी, जो गंगा नदी की सहायक नदी है। पुराणों के अनुसार गोमती नदी को ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की पुत्री माना गया है। पुराणों में कहा गया है कि एकादशी को इस नदी में स्नान करने से मानव के संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार गोमती भारत की उन पवित्र नदियों में से है जो मोक्ष प्राप्ति का मार्ग हैं।पौराणिक मान्यता ये भी है कि रावण वध के पश्चात ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिये भगवान श्री राम ने भी अपने गुरु महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार इसी पवित्र पावन आदि-गंगा गोमती नदी में स्नान किया था एवं अपने धनुष को भी यहीं पर धोया था और स्वयं को ब्राह्मण की हत्या के पाप से मुक्त किया था।गोमती के किनारे भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने अपने अपराध का प्रायश्चित किया था। भगवान बुद्ध ने इसके तटों पर विश्राम किया था और धम्म के उपदेश दिए होंगे। चीनी यात्री ह्वेनसांग इसके किनारों से होकर गुजरे थे। पृथ्वीराज चौहान के शत्रु बने राजा जयचंद ने मशहूर योद्धा बंधुओं आल्हा- ऊदल को पासी और भारशिवों का दमन करने के लिए यहां भेजा था। मुगल बादशाह अकबर ने यहीं पर वाजपेय यज्ञ कराने के लिए एक लाख रुपये ब्राह्मणों को दिये थे और तब गोमती का तट वैदिक ऋचाओं से गूंज उठा था। गोस्वामी तुलसीदास की प्रिय नदी यही धेनुमती तो थी। लोगों का मानना है कि जो भी व्यक्ति गंगा दशहरा के अवसर पर यहां स्नान करता है, उसके सभी पाप आदि गंगा गोमती नदी में धुल जाते हैं। गोमती नदी का उद्गम उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले से हुआ है। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ इस नदी के किनारे बसी हुई है। यह वाराणसी के निकट सैदपुर के पास कैथी नामक स्थान पर गंगा में मिल जाती है।
- कोरोना महामारी शुरू होने के महीनों बाद भी अंतरराष्ट्रीय उड़ानें बंद पड़ी हैं। भारत और इन देशों के बीच कुछ सीमित उड़ानें चल रही हैं। सूची में और देशों को जोडऩे पर बात चल रही है। भारत ने 13 देशों के साथ एयर बबल बनाएं हैं। एयर बबल बनाने का मकसद किन्हीं दो देशों में अटके वहां के नागरिकों को सुरक्षित वापस लाना होता है। अमेरिका, जर्मनी और फ्रांस के साथ जुलाई से ही भारत ने एयर बबल शुरू कर दिया था।कोरोना महामारी शुरू होने पर उन लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा जिनका वीजा खत्म हो रहा था या जिन्हें नौकरी या पढ़ाई के लिए दूसरे देश में जाना था। शुरू में वंदे भारत मिशन के तहत भारत ने कुछ स्पेशल उड़ानें चलाईं और दुनिया भर से भारतीयों को देश वापस लाया गया। फिर धीरे- धीरे एयर बबल की शुरुआत हुई। वंदे भारत मिशन से अलग एयर बबल के तहत एक व्यक्ति किसी देश में जा कर वहां से लौट भी सकता है। इसके तहत नियमित रूप से उड़ानें चल रही हैं लेकिन यात्री को ठोस वजह देने के बाद ही सफर की अनुमति मिलती है। कोरोना काल में यूरोप के तीन छोटे छोटे बाल्टिक देशों - एस्टोनिया, लिथुआनिया और लातविया ने सबसे पहले एयर बबल बनाए थे। इसकी सफलता के बाद बाकी देशों ने भी ऐसा करना शुरू किया। अमेरिका, जापान, कनाडा, कतर, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, अफगानिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात, मालदीव, इराक, नाइजीरिया, बहरीन, इन 13 देशों के साथ भारत ने एयर बबल समझौता किया है। जर्मनी की लुफ्थांसा एयरलाइंस ने भारत और जर्मनी के बीच उड़ान भरने से मना कर दिया है। उसका आरोप है कि उसे तय उड़ानें नहीं भरने दी जा रही हैं, जबकि भारत का कहना है कि एयर इंडिया की तीन से चार उड़ानों की तुलना में लुफ्थांसा हफ्ते में 20 उड़ानें भर रहा था। मौजूदा समझौते के तहत भारतीय नागरिक, ओसीआई कार्ड होल्डर और भारत का वीजा रखने वाले विदेशी भारत आ सकते हैं।इसी तरह भारत में रहने वाले विदेशी नागरिक या उस देश का वीजा रखने वाले भारतीय भी यात्रा कर सकते हैं। भारत पहुंचने पर यात्रियों को 14 दिन का क्वॉरंटीन करना अनिवार्य है। इसमें 7 दिन सरकार द्वारा निर्धारित जगह पर और 7 दिन घर में क्वॉरंटीन किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति ने यात्रा से 96 घंटे पहले तक अपना कोविड टेस्ट कराया हो, तो वह क्वॉरंटीन से बच सकता है। इस तरह की उड़ानों में एयर हॉस्टेस आपको खाना देने या सामान बेचने के लिए नहीं आती हैं। जहां जुलाई से अक्टूबर के बीच गर्मियों के मौसम में भारत से बड़ी संख्या में लोग यूरोप घूमने आया करते थे, वहीं इस साल टूरिज्म उद्योग बिलकुल ही ठप रहा। एयर बबल समझौते देशों के लिए व्यापार और कुछ हद तक टूरिज्म के दरवाजे भी खोलते हैं जिन पर कोरोना महामारी के कारण काफी बुरा असर हुआ है। इस वक्त कुल 13 देशों के साथ एयर बबल चल रहे हैं लेकिन 13 और देशों के साथ भी बात चल रही है। इनमें इटली, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, इस्राएल, कीनिया, फिलीपींस, रूस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड शामिल हैं।----
- वैज्ञानिकों ने एक नए ब्लैक होल का पता लगाया है जो अब तक का सबसे पुराना बताया जा रहा है। इसका भार हमारे सूरज के द्रव्यमान से करीब 142 गुना ज्यादा है।आमतौर पर माना जाता है कि ब्लैक होल इतने घने होते हैं कि इनके गुरुत्वाकर्षण बल से होकर प्रकाश की किरणें भी नहीं गुजर सकतीं। इस समझ के हिसाब से तो ब्लैकहोल के अस्तित्व पर ही सवाल उठ जाते हैं। दो दूसरे ब्लैकहोल के मिलने से बने इस ब्लैक होल को फिलहाल जीडब्ल्यू 190521 कहा जा रहा है। करीब 1500 वैज्ञानिकों के दो संघों ने इस बारे में कई रिसर्चों के बाद जानकारी दी है। रिसर्च रिपोर्ट के सहलेखक स्टारवरोस कात्सानेवास यूरोपियन ग्रैविटेशन ऑब्जर्वेटरी में खगोल भौतिकविज्ञानी हैं। उनका कहना है, इस घटना ने ब्लैक होल के बनने की खगोलीय प्रक्रिया पर से पर्दा उठाया है। यह एक पूरी नई दुनिया है।इस कथित स्टेलर क्लास ब्लैक होल का निर्माण तब होता है जब कोई बूढ़ा तारा मर जाता है और आकार में 3-10 सूरज के बराबर होता है। भारी द्रव्यमान वाले ब्लैक होल ज्यादातर गैलैक्सियों के केंद्र में पाए जाते हैं. इनमें मिल्की वे भी शामिल है। इनका भार करोड़ों से अरबों सौर द्रव्यमान के बराबर होता है।अब तक सूरज की तुलना में 100 से 1000 गुना ज्यादा मास वाले ब्लैक होल नहीं मिले हैं। रिसर्च रिपोर्ट की सहलेखिका मिषाएला यूनिवर्सिटी ऑफ पडोवा में खगोल भौतिकविज्ञानी हैं। उनका कहना है, इतने अधिक द्रव्यमान की रेंज वाला यह पहला ब्लैक होल है जिसके बारे में प्रमाण मिला है। यह ब्लैक होल के खगोल भौतिकविज्ञान में बड़ा बदलाव लाएगा। मिषाएला के मुताबिक इस खोज से इस विचार को समर्थन मिलता है कि विशालकाय ब्लैक होल का निर्माण मध्य आकार वाले ब्लैक होलों के बार बार आपस में जुडऩे से हो सकता है।ब्लैक होल और सितारे का मेलवास्तव में वैज्ञानिकों ने सात अरब साल से भी पहले की गुरुत्वाकर्षणीय तरंगों को देखा है। ये तरंगें सूरज से 85 और 65 गुना वजनी ब्लैक होल के आपस में मिलने से जीडब्ल्यू 190521 ब्लैक होल के निर्माण के दौरान पैदा हुईं थीं। जब ये ब्लैकहोल आपस में टकराए तो आठ सूरज के वजन जितनी ऊर्जा निकली। इसे ब्रह्मांड में बिग बैंग के बाद की सबसे बड़ी घटना माना जाता है। गुरुत्वीय तरंगों को सबसे पहले सितंबर 2015 में मापा गया था। दो साल बाद इसकी खोज करने वाले रिसर्चरों को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला।अल्बर्ट आइंस्टाइन ने सापेक्षता के सिद्धांत में गुरुत्वीय तरंगों का अनुमान लगाया था। इस सिद्धांत के मुताबिक ब्रह्मांड में ये तरंगें प्रकाश की तेजी से फैल जाती हैं।ब्लैक होल की कहानी में नई चुनौतीजीडब्ल्यू 190521 की खोज 21 मई 2019 को तीन इंटरफेरोमीटरों के जरिए हुई थी। ये उपकरण पृथ्वी से गुजरने वाली गुरुत्वीय तरंगों में किसी परमाणु नाभिक से हजार गुना छोटे आकार के परिवर्तन को भी माप सकती हैं। मौजूदा जानकारी के मुताबिक किसी तारे के गुरुत्वीय विखंडन से सूरज के भार की तुलना में 60-120 गुना वजनी ब्लैक होल का निर्माण नहीं हो सकता। तारों के विखंडन के तुरंत बाद होने वाला सुपरनोवा विस्फोट इनके टुकड़े- टुकड़े कर देता है।ब्लैकहोल के बनने की अब तक की कहानी में इस घटना ने एक नई चुनौती पैदा कर दी ह। यह इस बात का भी संकेत है कि अब तक कितनी कम जानकारी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्रह्मांड का एक विशालकाय भाग अब भी हमारे लिए अज्ञात है। हालांकि वैज्ञानिक इस खोज से चकित हैं। नई जानकारी देने वाली दोनों रिसर्च रिपोर्टें फिजिकल रिव्यू लेटर्स और एस्ट्रो फिजिकल जर्नल लेटर्स में छापी गई हैं। रिपोर्ट तैयार करने वाले दो संघों में एक है लेजर इंटरफेरोमीटर ग्रैविटेशनल वेव ऑब्जर्वेटरी यानी लिगो। इसमें प्रमुख रूप से एमआईटी और कैलटेक के वैज्ञानिक हैं। दूसरा संघ है विर्गो कोलैबोरेशन जिसमें पूरे यूरोप के 500 वैज्ञानिक हैं।
- -शुभि मिश्रामुगल सम्राट औरंगजेब के नाम पर महाराष्ट्र में एक शहर है-औरंगाबाद। औरंगाबाद शब्द का शाब्दिक अर्थ है सिंहासन द्वारा निर्मित । औरंगाबाद नगर मध्य-पश्चिम महाराष्ट्र राज्य के पश्चिमी भारत में कौम नदी के तट पर स्थित। यह खाड़की नाम से प्रसिद्ध है। औरंगाबाद नगर ने भारतीय इतिहास को कई करवटें लेते देखा है। इतिहास की परस्पर विरोधी धाराओं से टकराता हुआ औरंगाबाद अपने ख़ास व्यक्तित्व को लिए आज भी खड़ा है।यहां अतीत और वर्तमान के बीच सम्बन्ध सूत्र स्थापित हो गया है। पहले सातवाहनों और फिर वाकाटकों के हाथों में यहां की राजसत्ता आयी। इसके बाद यहां बादामी के चालुक्य वंश और राष्ट्रकूटों का शासन रहा। ऐश्वर्यशाली यादव वंश के उदय से पूर्व यहां कल्याणी के चालुक्य वंश का राज्य था।इस नगर की स्थापना 1610 ई. में मलिक अम्बर ने की थी। 1626 ई. में मलिक अम्बर के पुत्र फतेह ने इस नगर का नाम अपने नाम पर फतेहनगर रख दिया। कालांतर में मुग़ल शहंशाह औरंगज़ेब ने इसके समीप ही ताजमहल जैसा बीबी का मक़बरा बनवाया और नगर का नाम खाड़की से बदलकर औरंगाबाद कर दिया। बीबी का मकबरा आगरा स्थित ताजमहल की अनुकृति है। हैदराबाद की राजधानी बन जाने की वजह से, पहले स्वतन्त्र निज़ाम का मुख्यालय रह चुके इस शाहीनगर का विकास नहीं हो सका। 1947 में हैदराबाद के अधिमिलन के बाद यह भारतीय गणराज्य का अंग बन गया।इतिहास के अनुसार, सन् 1681 में औरंगजेब ने अपने अभियानों के लिए इस जगह को आधार बनाया था । मुगल साम्राज्य में भी इस जगह का इस्तेमाल किया गया था और छत्रपति शिवाजी पर जीत पाने के लिए यहां रणनीतियां भी बनाई जाती थी। भारत के केंद्र में होने की वजह से इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा सुरक्षित माना जाता था क्योंकि इस इलाके में अफगानिस्तान और मध्य एशिया के हमलावरों से खतरा कम था। औरंगजेब की मृत्यु के बाद यह शहर निजामों के अधीन हो गया। वर्ष 1956 में इस क्षेत्र को महाराष्ट्र राज्य में विलय कर लिया गया। इस शहर में मराठी और उर्दू मुख्य भाषाएं है। इस शहर को सिटी ऑफ गेटस भी कहा जाता है।इस शहर में बौद्ध धर्म का भी प्रभाव रहा। औरंगाबाद शहर से एक मील की दूरी पर सह्याद्रि की पहाडिय़ों पर औरंगाबाद की गुफाएं हैं। ये गुफाएं चालुक्य वंश के काल में छठी और सातवीं सदी ईस्वी के बीच बनायी गयीं। सभी गुफाएं बौद्ध धर्म से प्रेरित चैत्य एवं विहार हैं। परम्परा के अनुसार चैत्य गुफाएं धार्मिक पूजा-अर्चना और चिंतन-तपश्चर्या के लिए होती थी, तो विहार धर्मोपदेश के लिए सभागृह का काम करते थे।औरंगाबाद कलात्मक रेशमी वस्त्रों विशेषकर शॉल के लिए प्रसिद्ध है। मराठवाड़ा विश्वविद्यालय (1958) यहां का विख्यात शिक्षा केन्द्र है। जिससे अनेक महाविद्यालय संबद्ध हैं। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है घृष्णेश्वर मंदिर, जो महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर में दौलताबाद से महज 11 किलोमीटर की दूरी पर है। ाराष्ट्र के दक्खन के पठार के मध्य में स्थित भारतीय इतिहास में ईसा पूर्व चौथी सदी से लेकर अठारहवीं सदी के बीच आये मोड़ों का प्रत्यक्ष साझीदार यह शहर आज तक अपने को सुरक्षित रख पाया है।
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दुनियाभर में लगभग 6,900 से भी ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें से कई भाषा ऐसी हैं, जो हजारों साल पुरानी है। वहीं कई भाषा ऐसी भी हैं, जिनका अस्तित्व बहुत जल्द ही खत्म होने वाला है। क्योंकि इन भाषाओं को बोलने वाले मुश्किल से हजार लोग ही बचे हैं। कुछ इसी तरह की एक भाषा यघान है। अर्जेंटीना के एक द्वीप की ये मूल भाषा अब लगभग गायब हो चुकी है। यघान भाषा को लेकर हैरान करने वाली बात यह है कि इसे बोलने वाला एक ही शख्स जीवित है, जो एक महिला है।
यघान भाषा को अर्जेंटीना और चिली के बीच बसे टिएरा डेल फ्यूगो नामक द्वीप पर रहने वाले आदिवासी बोला करते थे। इस भाषा को संस्कृत से मिलता-जुलता माना जाता है। हालांकि, अब इसे बोलने वाली एकमात्र बुजुर्ग महिला है। इस भाषा को बोलने वाली इस महिला का नाम क्रिस्टिना काल्डेरॉन है। क्रिस्टिना को स्थानीय लोग अबुइला बुलाते हैं। अबुइला एक स्पेनिश शब्द है, जिसका अर्थ दादी मां होता है। 14 पोते-पोतियों और ढेर सारे पड़पोते-पड़पोतियों के होने के बाद भी अब क्रिस्टिना के साथ उनकी मूल भाषा में बात करने वाला कोई नहीं। इसकी वजह ये है कि भाषा को जानने वाली उनकी बहनों की मौत हो चुकी हैं और परिवार के बाकी सदस्य स्पेनिश या अंग्रेजी जैसी भाषाएं बोलते हैं। हालांकि कई सदस्य भाषा समझते तो हैं लेकिन बोल नहीं पाते।यघान भाषा के अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए क्रिस्टिना को कई बार सम्मानित भी किया जा चुका है। साल 2009 में चिली सरकार ने उन्हें लिविंग ह्यूमन ट्रेजर की उपाधि दी। यूनेस्को के तहत आने वाली ये उपाधि उन लोगों को मिलती है, जिन्होंने कल्चर को सहेजने में बेहद बड़ी भूमिका निभाई हो ।बंजारा समुदाय का भी था नामयघान एक भाषा ही नहीं बल्कि एक बंजारा समुदाय का नाम था, जो दक्षिणी अमेरिका से होते हुए चिली और अर्जेंटिना तक पहुंच आए। पुर्तगालियों ने सबसे पहले साल 1520 में इस कबीले के बारे में पता लगाया था। आज के समय में क्रिस्टिना यघान भाषा को सरकारी मदद से - जर्मनी में हर साल कद्दुओं यानी कुम्हड़े की प्रतियोगिता होती है जिसमें सबसे भारी कुम्हड़े के मालिक को इनाम दिया जाता है। इस साल का विजेता रहा 720.5 किलो का कद्दू।लुडविग्सबुर्ग पंपकिन फेस्टिवल के आयोजक इस साल के विजेता को देख कर हैरान हैं। 720.5 किलो के कद्दू ने यह प्रतियोगिता जीती है। आयोजक श्टेफान हिनेर का कहना था, कद्दू का आकार सच में हैरान करता है, खास कर जब आप देखते हैं कि यह भी उतने ही समय में उगा है जितने में छोटे कद्दू उगते हैं। दूसरे नंबर पर रहा 702.5 किलो के वजन वाला कद्दू और तीसरा स्थान मिला 617.5 किलो के कद्दू को। यह कद्दू जर्मनी के दक्षिणी प्रांत बवेरिया में उगा और इसके मालिक मिषाएल असम पिछले साल भी देश का सबसे भारी कद्दू उगा चुके हैं।आम तौर पर इस प्रतियोगिता के लिए एक बड़ा आयोजन किया जाता है, लेकिन इस साल कोरोना के चलते बिना दर्शकों के ही इसे आयोजित किया गया। जर्मनी में अब तक का सबसे भारी कद्दू रहा है 2018 का विजेता जिसका वजन था 916.5 किलो। दुनिया के सबसे भारी कद्दू का रिकॉर्ड बेल्जियम के कद्दू के नाम है जिसका वजन 1191.5 किलो था। गर्मियों के अंत में पहले कद्दुओं की राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता होती है और फिर यूरोपीय स्तर की।
- अग्निदेवता यज्ञ के प्रधान अंग हैं। ये सर्वत्र प्रकाश करने वाले एवं सभी पुरुषार्थों को प्रदान करने वाले हैं। सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न होते हैं और सभी रत्नों को यही धारण करते हैं।वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का नाम आता है और उसमें प्रथम शब्द अग्नि ही प्राप्त होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि विश्व-साहित्य का प्रथम शब्द अग्नि ही है। ऐतरेय ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में यह बार-बार कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है। आचार्य यास्क और सायणाचार्य ऋग्वेद के प्रारम्भ में अग्नि की स्तुति का कारण यह बतलाते हैं कि अग्नि ही देवताओं में अग्रणी हैं और सबसे आगे-आगे चलते हैं। युद्ध में सेनापति का काम करते हैं । इन्हीं को आगे कर युद्ध करके देवताओं ने असुरों को परास्त किया था।पुराणों के अनुसार इनकी पत्नी स्वाहा हैं। अग्रि को जो आहुति दी जाती है, वह स्वाहा के द्वारा देवताओं तक पहुंचती है। इसलिए किसी भी यज्ञ में स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है। केवल ऋग्वेद में अग्नि के दो सौ सूक्त प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में भी इनकी स्तुतियां प्राप्त होती हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में अग्नि की प्रार्थना करते हुए विश्वामित्र के पुत्र मधुच्छन्दा कहते हैं कि मैं सर्वप्रथम अग्निदेवता की स्तुति करता हूं, जो सभी यज्ञों के पुरोहित कहे गये हैं। पुरोहित राजा का सर्वप्रथम आचार्य होता है और वह उसके समस्त अभीष्ट को सिद्ध करता है। उसी प्रकार अग्निदेव भी यजमान की समस्त कामनाओं को पूर्ण करते हैं।अग्निदेव की सात जिह्वाएं बतायी गयी हैं। उन जिह्वाओं के नाम हैं-- काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धूम्रवर्णी, स्फुलिंगी तथा विश्वरूचि।पुराणों के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के पावक, पवमान और शुचि नामक तीन पुत्र हुए। इनके पुत्र-पौत्रों की संख्या 49 है। भगवान कार्तिकेय को अग्निदेवता का भी पुत्र माना गया है। स्वारोचिष नामक द्वितीय स्थान पर परिगणित हैं। ये आग्नेय कोण के अधिपति हैं। अग्नि नामक प्रसिद्ध पुराण के ये ही वक्ता हैं। प्रभास क्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर इनका मुख्य तीर्थ है। इन्हीं के समीप भगवान कार्तिकेय, श्राद्धदेव तथा गौओं के भी तीर्थ हैं।----
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प्राचीन लक्ष्मणपुर या लखनपुर, लखन अहीर, स्वर्ण नगर (गोल्डन सिटी), शिराज- ए-हिंद, नवाबों का शहर और आज का जीवंत शहर लखनऊ की अपनी एक खास पहचान है।
लखनऊ भारत के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी है। लखनऊ, लखनऊ जिला और लखनऊ डिवीजन का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। यह शहर अपनी बहुसांस्कृतिक खूबी, बाग़ों तथा कढ़ाई के काम से लिये जाना जाता है।
यह उस क्षेत्र में स्थित है जिसे ऐतिहासिक रूप से अवध क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। लखनऊ हमेशा से एक बहुसांस्कृतिक शहर रहा है। यहां के शिया नवाबों द्वारा शिष्टाचार, खूबसूरत उद्यानों, कविता, संगीत, और बढिय़ा व्यंजनों को हमेशा संरक्षण दिया गया। लखनऊ को नवाबों के शहर के रूप में भी जाना जाता है। इसे पूर्व की स्वर्ण नगर (गोल्डन सिटी), शिराज-ए-हिंद के रूप में जाना जाता है। आज, लखनऊ एक जीवंत शहर है जिसमे एक आर्थिक उछाल दिख रहा है और यह भारत के तेजी से बढ़ रहे प्रमुख-महानगरों के शीर्ष दस में से एक है। यह हिंदी और उर्दू साहित्य का एक केंद्र है।
लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा था। मान्यताओं के अनुसार यह श्रीराम की विरासत थी जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। इसलिए इसे लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया। अन्य कथाओं के अनुसार इस शहर का नाम, लखन अहीर था जो कि लखन किले के मुख्य कलाकार थे, के नाम पर रखा गया था।
1775 में अवध के चौथे नवाब असिफुद्दोला या अशफ - उद - दुलाह ने अवध की राजधानी को फ़ैज़ाबाद से लखनऊ स्थानांतरित किया था। वास्तुकला की दृष्टि से अवध के नवाबों का इस शहर में काफी योगदान है, इसके अलावा उस समय के लखनऊ की मुग़ल चित्रकारी भी आज बहुत से संग्रहालय में सुरक्षित हैं। भवनों के स्तर पर बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा, तथा रूमी दरवाज़ा मुग़ल वास्तुकला का जीता जागता उदाहरण है। हालांकि आधुनिक प्रशासन की उपेक्षा से इन महत्वपूर्ण विरासतों का खंडहरों में तब्दील होने का खतरा उपस्थित हो गया है।
प्राचीन अवध राज्य का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में 1857 के सिपाही विद्रोह के फलस्वरुप हुआ था। यह शहर भारत के इस पहले व्यवस्थित स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सबसे पहले जीते गये कुछ शहरों में से था। ब्रिटिश शासकों को यह शहर अपने कब्ज़े में लेने के लिये काफी मशक्कत करनी पड़ी। लखनऊ का शहीद स्मारक आज भी हमें उन क्रांतिकारियों की याद ताज़ा कराता है।
लखनऊ के आधुनिक वास्तुकारी में लखनऊ विधानसभा और चारबाग़ स्थित लखनऊ रेलवे स्टेशन का नाम लिया जा सकता है। विश्व के सबसे पुराने आधुनिक स्कूलों में से एक ला मार्टीनियर कॉलेज भी इस शहर में मौजूद है जिसकी स्थापना ब्रिटिश शासक क्लाउड मार्टिन की याद में की गयी थी। अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद शायर मीर तकी मीर अवध के चौथे नवाब अशफ - उद - दुलाह या असफ़ुद्दौला के दरबार मे लखनऊ चले आये थे और अपनी जिन्दगी के बाकी दिन उन्होंनेे यहीं गुजारे थे और 20 सितम्बर 1810 को यहीं उनका निधन हुआ। सन 1902 में नार्थ वेस्ट प्रोविन्स का नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूपी कहा गया। सन 1920 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक न्यायपीठ स्थापित की गयी।
- दुनिया भर में महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावितों की संख्या करोड़ों में है। इनमें प्रमुख हस्तियां हैं-बराक ओबामा - वर्ष 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा (अब तत्कालीन राष्ट्रपति ) वर्जीनिया प्रांत के एक हाईस्कूल में गए। तभी एक छात्र ने सवाल किया कि आप जीवित या गुजर चुकी किस हस्ती के साथ डिनर करना चाहेंगे। ओबामा ने जवाब दिया, महात्मा गांधी। अमेरिकी संसद में ओबामा के दफ्तर में महात्मा गांधी की तस्वीर भी लगाई गई थी।मार्टिन लूथर किंग- अमेरिका के मशहूर क्रांतिकारी मार्टिन लूथर किंग ने नागरिक अधिकारों के लिए अहिंसक तरीके से लड़ाई लड़ी और कामयाबी पाई। मार्टिन लूथर किंग गांधी की सोच और उनके विचारों से बहुत ही ज्यादा प्रभावित थे। एक बार मार्टिन लूथ किंग ने कहा, ईसा मसीह ने हमें लक्ष्य दिये हैं और महात्मा गांधी ने उन लक्ष्यों तक पहुंचने की रणनीति।स्टीव जॉब्स- जवानी में भारत भ्रमण पर आए स्टीव जॉब्स गांधी की जिंदगी और आध्यात्म से प्रभावित थे। स्टीव जॉब्स ने 1980 के दशक में जब अपनी कंपनी बनाई और एप्पल कंप्यूटर बेचना शुरू किया तो उन्होंने विज्ञापनों में चरखे के साथ बापू की तस्वीर लगाई। विज्ञापन का नारा था, अलग सोचो।अल्बर्ट आइनस्टाइन- 20वीं सदी के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनस्टाइन भी महात्मा गांधी के कायल थे। दोनों एक दूसरे को खत भी लिखा करते थे। गांधी जी के हत्या की खबर पाते ही आइनस्टाइन की आंखें भर आईं, उन्होंने कहा, एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि आने वाली पीढ़ी को यकीन ही नहीं होगा कि मांस और खून का बना ऐसा आदमी कभी पृथ्वी पर चला होगा।नेल्सन मंडेला- दक्षिण अफ्रीका का आधुनिक इतिहास नेल्सन मंडेला से जुड़ा है और नेल्सन मंडेला गांधी से जुड़े हैं। नेल्सन मंडेला ने गांधी के पदचिह्नों पर चलते हुए दक्षिण अफ्रीका को रंग भेद और नस्लवाद से आजादी दिलाई। भारत में तैनात दक्षिण अफ्रीका के राजदूत हैरिस माजेके ने कहा, नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पिता हैं और महात्मा गांधी हमारे दादा।जॉन लेनन- संगीत की दुनिया के सबसे बड़े नामों में शुमार बीटल्स बैंड के ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन भी गांधी से प्रभावित थे। बापू के जैसा गोल चश्मा लेनन भी पहना करते थे। लेनन कहते थे कि गांधी ने कहा है वो बदलाव खुद बनो, जो तुम दुनिया में देखना चाहते हो।दलाई लामा- तिब्बत में चीन के दमन के बाद दलाई लामा भागकर भारत आए। 1956 में 20 साल की उम्र में दलाई लामा राजघाट में बापू की समाधि पर गए। दलाई लामा ने समाधि को छुआ और जीवन में कभी हिंसा का रास्ता न अपनाने का प्रण किया। 1989 में दलाई लामा ने अपना शांति पुरस्कार महात्मा गांधी को समर्पित किया।आंग सांग सू ची- नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और म्यांमार की नेता आंग सांग सू ची अपने जीवन को महात्मा गांधी से प्रभावित बताती है। सू ची दुनिया भर में जगह जगह बच्चों को गांधी के बारे में पढऩे को कहती हैं। म्यांमार में सेना के सत्ता हथियाने के लिए खिलाफ सू ची ने लंबा अहिंसक विरोध किया। वे 15 साल नजरबंद रहीं।---
- भारत में आजादी के पहले अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ और आजादी की मांग करने वालों को अंग्रेज सरकार काला पानी की सजा देती थी। इन्हें अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट ब्लेयर में बनी सेल्युलर जेल में रखा जाता था। मूलरूप यह जेल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों को कैद रखने के लिए बनाई गई थी, जो कि मुख्य भारत भूमि से हजारों किलोमीटर दूर स्थित थी और सागर से भी हजार किलोमीटर दुर्गम मार्ग पड़ता था। इसलिए यह काला पानी के नाम से कुख्यात थी।अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता सैनानियों पर किए गए अत्याचारों की मूक गवाह इस जेल की नींव 1897 में रखी गई थी। इस जेल के अंदर 694 कोठरियां हैं। इन कोठरियों को बनाने का उद्देश्य बंदियों के आपसी मेल जोल को रोकना था। आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैली इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर आज भी वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहां अब एक संग्रहालय भी है जहां उन अस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सैनानियों पर अत्याचार किए जाते थे। चूंकि इस जेल की अन्दरूनी बनावट सेल (कोटरी) जैसी है, इसीलिए इसे सेल्यूलर जेल कहा गया है।भारत की आजादी के लिए लड़ी गई 1857 की पहली रक्तरंजित क्रान्ति और सशस्त्र संघर्ष के बाद भारतीयों पर अंग्रेजी सरकार का दमनचक्र और तेज हो गया था। देश की जनता पर बर्बरता से जुल्म ढाए जाने लगे। इससे क्रान्तिकारियों में आक्रोश की ज्वाला भड़क उठी। सम्पूर्ण भारत में जबर्दस्त जन-आन्दोलन शुरू हो गया। वीर सावरकर के नेतृत्व में एक सशक्त क्रांतिकारी दल का गठन किया गया। इस दल द्वारा अनेक अंग्रेज और उनके देशी पिट्ठुओं की हत्याएं की गई। गोरी सरकार इससे बौखला उठी और तुरन्त हरकत में आई और इनके दमन के लिए पूरे देश में पुलिस द्वारा मुखबिर छोड़े गए। उन्हीं की सहायता से अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए और उन पर मुकदमे चले। सैकड़ों क्रांतिकारियों को फांसी की सजा दी गई और हजारों को आजीवन कारावास। आजीवन कारावाज की सजा पाए क्रांतिकारियों को बंगाल की खाड़ी का अथाह समुद्र, जो यहां बिल्कुल काला नजर आता है, के बीच में बने टापुओं में छोड़ा जाता था। यहीं बनी थीं वो कालकोठरियां जिनमें क्रांतिकारियों को दिल दहला देने वाली अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। यही थी कालापानी की सजा।विनायक दामोदर सावरकर, उनके भाई गणेश दामोदर सावरकर, ननी गोपाल मुखर्जी, नन्द कुमार, पुनीत दास, त्रिलोक्य महाराज, अनातासिंह, भाई महावीरसिंह, बाबा पृथ्वीसिंह आजाद, भाई परमानन्द आदि जैसे करिश्माई व्यक्तित्व और काकोरी कांड के अभियुक्त योगेशचन्द्र चटर्जी, गोविन्द चरणकर, मुकुन्द लाल, विष्णु सरण दुबलिश, सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य तथा उनके जैसे कई अनाम क्रांतिकारियों की गाथाओं से भरा पड़ा है यहां का इतिहास। ये भारत मां के वीर सपूत 1910 से लेकर 1945 के बीच यहां कैद थे।11 जनवरी, 1979 का दिन स्वाधीनता सेनानियों के लिए यादगार दिन था, क्योंकि इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री, मोरारजी देसाई ने अंडमान निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर की उस कुख्यात सेल्यूलर जेल को राष्टï्रीय स्मारक घोषित किया। तब से यह स्वतंत्रता सैनानियों का पवित्र तीर्थ स्थल कहलाता है।
- चर्मनवती या चर्मण्वती नदी को वर्तमान समय में चम्बल नदी के नाम से जाना जाता है। यह नदी मध्य प्रदेश में बहती हुई इटावा, उत्तर प्रदेश के निकट यमुना नदी में मिलती है। पुराणों और महाभारत में इस नदी के किनारे पर राजा रतिदेव द्वारा अतिथि यज्ञ करने का उल्लेख मिलता है। यह माना जाता है कि बलि पशुओं के चमड़ों के पुंज से यह नदी बह निकली, इसीलिए इसका नाम चर्मण्वती पड़ा। किन्तु यह पुराणों की गुप्त या सांकेतिक भाषा-शैली की उक्ति है, जिससे बड़े-बड़े लोग भ्रमित हो गए हैं। राजा रन्तिदेव की पशुबलि और चर्मराशि का अर्थ केला (कदली) स्तम्भों को काटकर उनके फलों से होम एवं अतिथि सत्कार करना है। केलों के पत्तों और छिलकों को भी चर्म कहा जाता था। ऐसे कदलीवन से ही चर्मण्वती नदी निर्गत हुई थी।महाभारत, वनपर्व में अश्वनदी का चर्मण्वती में, चर्मण्वती का यमुना में और यमुना का गंगा में मिलने का उल्लेख मिलता है। चर्मावती का अर्थ है चमड़ा, यह कहा जाता है कि इस नदी के तट पर प्राचीन काल में चमड़ा सुखाया जाता था। पुराणों के अनुसार प्राचीन काल में राजा रतिदेव द्वारा स्वर्ग की कामना के लिए इस नदी के तट पर पशुओं की बलि दी जाती थी, जिसके परिणामस्वरूप इस नदी का रंग लाल हो गया था। पशुओं की त्वचा को इस नदी के तट पर सुखाने के कारण यह नदी चमड़े वाली नदी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई एवं इसका नाम चरमावती पड़ा। महाभारत के अनुसार राजा रन्तिदेव के यज्ञों में जो आर्द्र चर्मराशि इक_ी हो गई थी, उससे यह नदी का जन्म हुआ है।कुछ इतिहासकारों के अनुसार सरस्वती नदी क्षेत्र से विस्थापित लोग इस नदी के तट पर बस गए थे। तेलगू जैसी कुछ द्रविण भाषाओं के साथ साथ संस्कृत भाषा में चम्बल शब्द का शाब्दिक अर्थ मतस्य है। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इस नदी के तट पर कुछ मत्स्य शासकों ने अपने शासन का उद्गम इस नदी तट पर किया। चर्मनवती या चरमावती नदी की दक्षिणी सीमा महाभारत काल के पांचाल राज्य से मिलती थी। महाभारत के अनुसार राजा द्रुपद ने दक्षिणी पांचाल राज्य पर चर्मनवती या चरमावती नदी के तट तक शासन किया। इस नदी के बारे में यह कथा प्रचलित है कि कुंती ने अपने नवजात पुत्र कर्ण को एक टोकरी में रखकर इस नदी में प्रवाहित कर दिया था। नवजात पुत्र सहित वह टोकरी प्रवाहित होते-होते गंगा तट पर स्थित अंग राज्य की राजधानी चम्पापुरी पहुंची जहां कर्ण का बचपन व्यतीत हुआ।महाकवि कालिदास ने भी अपनी रचना मेघदूत में चर्मण्वती को रन्तिदेव की कीर्ति का मूर्तस्वरूप कहा है। इससे यह जान पड़ता है कि रन्तिदेव ने चर्मण्वती के तट पर अनेक यज्ञ किए थे। चर्मण्वती नदी को वनपर्व के तीर्थ यात्रा अनुपर्व में पुण्य नदी माना गया है।इस नदी का उद्गम जनपव की पहाडिय़ों से हुआ है। यहीं से गंभीरा नदी भी निकलती है। यह यमुना की सहायक नदी है।
- नर्मदा नदी भारत की एक प्रमुख नदी है। नर्मदा सर्वत्र पुण्यमयी नदी बताई गई है तथा इसके उद्भव से लेकर संगम तक करोड़ों तीर्थ हैं। मान्यता है कि एक बार क्रोध में आकर नर्मदा नदी ने अपनी दिशा परिवर्तित कर ली और चिरकाल तक अकेले ही बहने का निर्णय लिया। आज भी ये अन्य नदियों की तुलना में विपरीत दिशा में बहती हैं। इनके इस अखंड निर्णय की वजह से ही इन्हें चिरकुंआरी कहा जाता है। चिरकुंआरी मां नर्मदा के बारे में कहा जाता है कि चिरकाल तक मां नर्मदा को संसार में रहने का वरदान है। ऐसा उल्लेख मिलता है कि भगवान शिव ने मां रेवा को वरदान दिया था कि प्रलयकाल में भी तुम्हारा अंत नहीं होगा। अपने निर्मल जल से तुम युगों-युगों तक इस समस्त संसार का कल्याण करोगी।वेदों में इस नदी का उल्लेख नहीं है, लेकिन पुराणों में रेवा नाम की नदी का उल्लेख है, जिसे नर्मदा का प्राचीन नाम माना गया है। गंगा के उपरान्त भारत की अत्यन्त पुनीत नदियों में नर्मदा एवं गोदावरी के नाम आते हैं। रेवा नर्मदा का दूसरा नाम है और यह सम्भव है कि रेवा से ही रेवोत्तरस नाम पड़ा हो। वैदिक साहित्य में नर्मदा के विषय में कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। इस नदी का उद्गम विंध्याचल की मैकाल पहाड़ी श्रृंखला में अमरकंटक नामक स्थान में है । मैकाल से निकलने के कारण नर्मदा को मैकाल कन्या भी कहते हैं । स्कंद पुराण में इस नदी का वर्णन रेवा खंड के अंतर्गत किया गया है । कालिदास के 'मेघदूतमÓ में नर्मदा को रेवा का संबोधन मिला है , जिसका अर्थ है—पहाड़ी चट्टानों से कूदने वाली। वास्तव में नर्मदा की तेजधारा पहाड़ी चट्टानों पर और भेड़ाघाट में संगमरमर की चट्टानों के ऊपर से उछलती हुई बहती है । अमरकंटक में सुंदर सरोवर में स्थित शिवलिंग से निकलने वाली इस पावन धारा को रुद्र कन्या भी कहते हैं, जो आगे चलकर नर्मदा नदी का विशाल रूप धारण कर लेती हैं । पवित्र नदी नर्मदा के तट पर अनेक तीर्थ हैं , जहां श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है । इनमें कपिलधारा, शुक्लतीर्थ, मांधाता , भेड़ाघाट, शूलपाणि, भड़ौंच उल्लेखनीय हैं । अमरकंटक की पहाडिय़ों से निकल कर छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से होकर नर्मदा क़्ररीब 1310 किमी का प्रवाह पथ तय कर भरौंच के आगे खंभात की खाड़ी में विलीन हो जाती है । पुराणों में बताया गया है कि नर्मदा नदी के दर्शन मात्र से समस्त पापों का नाश होता है ।रामायण तथा महाभारत और परवर्ती ग्रंथों में इस नदी के विषय में अनेक उल्लेख हैं। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था।- गुप्तकालीन अमरकोश में भी नर्मदा को सोमोद्भवा कहा है।- कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है।- रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है।-मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है।- वाल्मीकि रामायण में भी नर्मदा का उल्लेख है। इसके पश्चात के श्लोकों में नर्मदा का एक युवती नारी के रूप में सुंदर वर्णन है।-महाभारत में नर्मदा को ॠक्षपर्वत से उद्भूत माना गया है।- भीष्मपर्व में नर्मदा का गोदावरी के साथ उल्लेख है।- श्रीमद्भागवत में रेवा और नर्मदा दोनों का ही एक स्थान पर उल्लेख है।- शतपथ ब्राह्मण ने रेवोत्तरस की चर्चा की है, जो पाटव चाक्र एवं स्थपति (मुख्य) था, जिसे सृञ्जयों ने निकाल बाहर किया था।- पाणिनि के एक वार्तिक ने -महिष्मत की व्युत्पत्ति महिष से की है, इसे सामान्यत: नर्मदा पर स्थित माहिष्मती का ही रूपान्तर माना गया है। इससे प्रकट होता है कि सम्भवत: वार्तिककार को (लगभग ई.पू. चौथी शताब्दी में ) नर्मदा का परिचय था। रघुवंश में रेवा (अर्थात् नर्मदा) के तट पर स्थित माहिष्मती को अनूप की राजधानी कहा गया है।जान पड़ता है कि कहीं-कहीं साहित्य में इस नदी के पूर्वी या पहाड़ी भाग को रेवा (शाब्दिक अर्थ—उछलने-कूदने वाली) और पश्चिमी या मैदानी भाग को नर्मदा (शाब्दिक अर्थ—नर्म या सुख देने वाली) कहा गया है। (किन्तु महाभारत के उपर्युक्त उद्धरण में उदगम के निकट ही नदी को नर्मदा नाम से अभिहित किया गया है)। नर्मदा के तटवर्ती प्रदेश को भी कभी-कभी नर्मदा नाम से ही निर्दिष्ट किया जाता था। विष्णुपुराण के अनुसार इस प्रदेश पर शायद गुप्तकाल से पूर्व आभीर आदि शूद्रजातियों का अधिकार था। वैसे नर्मदा का नदी के रुप में उल्लेख है।महाभारत एवं कतिपय पुराणों में नर्मदा की चर्चा बहुधा हुई है। मत्स्य पुराण, पद्म पुराण कूर्म पुराण ने नर्मदा की महत्ता एवं उसके तीर्थों का वर्णन किया है। मत्स्य पुराण एवं पद्म पुराण आदि में ऐसा आया है कि उस स्थान से जहां नर्मदा सागर में मिलती है, अमरकण्टक पर्वत तक, जहां से वह निकलती है, 10 करोड़ तीर्थ हैं। अग्नि पुराण एवं कूर्म पुराण के मत से क्रम से 60 करोड़ एवं 60 सहस्र तीर्थ हैं। नारदीय पुराण का कथन है कि नर्मदा के दोनों तटों पर 400 मुख्य तीर्थ हैं, किन्तु अमरकण्टक से लेकर साढ़े तीन करोड़ हैं। वन पर्व ने नर्मदा का उल्लेख गोदावरी एवं दक्षिण की अन्य नदियों के साथ किया है। उसी पर्व में यह भी आया हैं कि नर्मदा आनर्त देश में है, यह प्रियंगु एवं आम्र-कुञ्जों से परिपूर्ण है, इसमें वेत्र लता के वितान पाये जाते हैं, यह पश्चिम की ओर बहती है और तीनों लोकों के सभी तीर्थ यहाँ (नर्मदा में) स्नान करने को आते हैं। मत्स्य पुराण एवं पद्म पुराण ने उद्घोष किया है कि गंगा कनखल में एवं सरस्वती कुरुक्षेत्र में पवित्र है, किन्तु नर्मदा सभी स्थानों में, चाहे ग्राम हो या वन। नर्मदा केवल दर्शन-मात्र से पापी को पवित्र कर देती है; सरस्वती (तीन दिनों में) तीन स्नानों से, यमुना सात दिनों के स्नानों से और गंगा केवल एक स्नान से। विष्णुधर्मसूत्र ने श्राद्ध के योग्य तीर्थों की सूची दी हैं, जिसमें नर्मदा के सभी स्थलों को श्राद्ध के योग्य ठहराया है। नर्मदा को रुद्र के शरीर से निकली हुई कहा गया है, जो इस बात का कवित्वमय प्रकटीकरण मात्र है कि यह अमरकण्टक से निकली है जो महेश्वर एवं उनकी पत्नी का निवास-स्थल कहा जाता है। वायु पुराण में ऐसा उद्घोषित है कि नदियों में श्रेष्ठ पुनीत नर्मदा पितरों की पुत्री है और इस पर किया गया श्राद्ध अक्षय होता है। मत्स्य पुराण एवं कूर्म पुराण का कथन है कि यह 100 योजन लम्बी एवं दो योजन चौड़ी है। मत्स्य पुराण एवं कूर्म पुराण का कथन है कि नर्मदा अमरकण्टक से निकली हैं, जो कलिंग देश का पश्चिमी भाग है।विष्णुपुराण ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई रात एवं दिन में और जब अन्धकारपूर्ण स्थान में उसे जाना हो तब प्रात: काल नर्मदा को नमस्कार, रात्रि में नर्मदा को नमस्कार! हे नर्मदा, तुम्हें नमस्कार; मुझे विषधर सांपों से बचाओं इस मन्त्र का जप करके चलता है तो उसे सांपों का भय नहीं होता। कूर्म पुराण एवं मत्स्य पुराण में ऐसा कहा गया है कि जो अग्नि या जल में प्रवेश करके या उपवास करके (नर्मदा के किसी तीर्थ पर या अमरकण्टक पर) प्राण त्यागता है वह पुन: (इस संसार में) नहीं आता।
- विश्व पर्यटन दिवस हर साल 27 सितंबर को मनाया जाता है। विश्व में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए 1980 से संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व पर्यटन दिवस आयोजित करने की शुरुआत 27 सितंबर को की थी, तब से आज तक निरंतर विश्व पर्यटन दिवस सभी विश्व के संगठन के देश मनाते चले आ रहे हैं।विश्व पर्यटन दिवस के लिए 27 सितंबर का दिन चुना गया क्योंकि इसी दिन 1970 में विश्व पर्यटन संगठन का संविधान स्वीकार किया गया था। संयुक्त राष्ट्र महासभा हर साल विश्व पर्यटन दिवस की विषय-वस्तु तय करती है। विश्व पर्यटन दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य पर्यटन और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक मूल्यों के प्रति विश्व समुदाय को जागरूक करना है। विश्व पर्यटन दिवस का मुख्य उद्देश्य पर्यटन को बढ़ावा देना और पर्यटन के द्वारा अपने देश की आय को बढ़ाना है। विश्व पर्यटन दिवस के अवसर पर एक राष्ट्र को मेज़बान राष्ट्र्र घोषित किया जाता है जो कि जीवोग्राफिकल आर्डर पर होता है।विश्व पर्यटन दिवस की थीमहर साल विश्व पर्यटन दिवस अलग अलग थीम के आधार पर मनाया जाता है। साल 2020 में विश्व पर्यटन दिवस की थीम है -पर्यटन और ग्रामीण विकास। इससे बड़े शहरों के बाहर पर्यटन को बढ़ावा देना और दुनिया भर में सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत को संरक्षित करने में पर्यटन की अनूठी भूमिका बनाना है।
- सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। ऋग्वेद के अनुसार सरस्वती नदी को अम्बितम (माताओं में श्रेष्ठ), नदितम (नदियों में श्रेष्ठ) एवं देवितम (देवियों में श्रेष्ठ) नामों से वर्णित किया गया है। सरस्वती नदी को मानवीकृत रूप में देवी सरस्वती का स्वरुप माना जाता था। हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सरस्वती नदी को भगवान् नारायण की पत्नी माना गया है, जो श्राप के कारण पृथ्वी पर अवतरित हुई। यह कहा जाता है कि सरस्वती नदी स्वर्ग में बहने वाली दूधिया नदी है, जिसके पृथ्वी पर अवतरित होने के पश्चात यह नदी मानव मात्र के लिए मृत्यु के पश्चात मोक्ष पाने का एक द्वार है।ऋग्वेद के नदी सूत्र के एक मंत्र में सरस्वती नदी को श्यमुना के पूर्वश् और श्सतलुज के पश्चिमश् में बहती हुई बताया गया है, उत्तर वैदिक ग्रंथों, जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ वर्णित किया गया है, महाभारत में भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में श्विनाशनश् नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन मिलता है। महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं। महाभारत, वायु पुराण आदि में सरस्वती के विभिन्न पुत्रों के नाम और उनसे जुड़े मिथक प्राप्त होते हैं। महाभारत के शल्य-पर्व, शांति-पर्व, या वायुपुराण में सरस्वती नदी और दधीचि ऋषि के पुत्र सम्बन्धी मिथक थोड़े थोड़े अंतरों से मिलते हैं।संस्कृत महाकवि बाण भट्ट के ग्रन्थ श्हर्षचरितश् में दिए गए वर्णन के अनुसार एक बार बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण ऋषिगण सरस्वती का क्षेत्र त्याग कर इधर-उधर हो गए, परन्तु माता के आदेश पर सरस्वती-पुत्र, सारस्वतेय वहां से कहीं नहीं गया। फिर सुकाल होने पर जब तक वे ऋषि वापस लौटे तो वे सब वेद आदि भूल चुके थे। उनके आग्रह का मान रखते हुए सारस्वतेय ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया और पुन: श्रुतियों का पाठ करवाया। अश्वघोष ने अपने बुद्धचरितश्काव्य में भी इसी कथा का वर्णन किया है।यह कहा जाता है कि सरस्वती नदी प्राचीन काल में सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता थो। यह नदी पंजाब में सिरमूर राज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई कर्नाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। यह कहा जाता है कि प्रयाग के निकट तक आकर यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई थी। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई, फिर भी लोगों की धारणा है कि प्रयाग में वह अब भी अंतरूसलिला होकर बहती है। मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का भू-भाग ही ब्रह्मावर्त कहलाता था। इस नदी को घघ्घर, रक्षी, चित्तग नामों से भी जाना जाता है।---
- गुजरात की गढ़वाली पूर्व राजधानी, पाटन एक ऐसा शहर है जिसकी स्थापना 745 ईस्वी में की गई थी। तत्कालीन राजा वनराज चावड़ा द्वारा निर्मित यह पुरातन ऐतिहासिक शहर अपनी उत्कृष्ट ऐतिहासिक सम्पदाओं और प्राकृतिक भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। अपनी उत्कृष्ट प्राचीन वास्तुकला और प्राचीन सौंदर्य के लिए मशहूर पाटन में कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल मौजूद हैं। ये स्थल इतिहास और एडवेंचर प्रेमी दोनों के लिए ही महत्वपूर्ण हैं।यहां के प्रमुख पर्यटन स्थलों में हैं सहस्त्रलिंग तलाब, जो शहर के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित है। यह सरस्वती नदी के तट पर कृत्रिम रूप से निर्मित एक टैंक है। गुजरात के महान शासक सिद्धराज जयसिंह द्वारा निर्मित यह पानी की टंकी अब सूखी है और इसके बारे में कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। बताया जाता है कि तलाव जैस्मीन ओडेन नामक एक महिला द्वारा शापित है जिसने सिद्धराज जयसिंह से शादी करने से इनकार कर दिया था। इस पंचकोणीय पानी की टंकी में लगभग 42 लाख 6 हजार 500 क्यूबिक मीटर पानी रखने की क्षमता है और इससे लगभग 17 हेक्टेयर क्षेत्र के लिए सिंचाई हो सकती है। ये टैंक पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है एवं इस स्थल पर भगवान शिव को समर्पित असंख्य मंदिरों के खंडहर मौजूद हैं।इसी तरह पाटन में रानी के वाव को देश की सबसे सुंदर और जटिल नक्काशीदार बावड़ी में से एक माना जाता है। ये बावड़ी शिल्प कौशल की प्रतिभा का एक अद्भुत नमूना है एवं इसे भूमिगत वास्तुकला के एक महान उदाहरण के रूप में जाना जाता है। सोलंकी राजवंश की रानी उदयमती द्वारा निर्मित इस बावड़ी की दीवारें भगवान गणेश और अन्य हिंदू देवताओं की जटिल विस्तृत मूर्तियों से सजी हुई हैं। ये बावड़ी वास्तुकला से सजी की एक उत्कृष्ट कृति है और इसकी दीवारों पर शानदार नक्काशी की गई है।पाटन शहर में सौ से अधिक जैन मंदिर हैं। सोलंकी युग के इन मंदिरों में से एक सबसे महत्वपूर्ण पंचसारा पाश्र्वनाथ जैन दरेसर है, जो भव्यता और बेहतरीन शिल्प कौशल का प्रतीक है। इस पूरे मंदिर को पत्थर से बनाया गया है और इसका प्राचीन सफेद संगमरमर का फर्श इसकी भव्यता को और अधिक बढ़ा देता है।1886 से 1890 के आसपास निर्मित खान सरोवर को गुजरात के तत्कालीन गवर्नर खान मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका द्वारा कृत्रिम रूप से बनवाया गया था। कई इमारतों और संरचनाओं के खंडहरों के पत्थरों से निर्मित यह पानी की टंकी एक विशाल क्षेत्र में फैली हुई है और इसकी ऊंचाई 1273 फीट से लेकर 1228 फीट तक है। टैंक के चारों तरफ पत्थर की सीढिय़ां हैं और असाधारण चिनाई से खान सरोवर को अलग किया गया है।----
- पांचाल पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बरेली, बदायूं और फर्रूख़ाबाद जि़लों से परिवृत प्रदेश का प्राचीन नाम ही पांचाल है। यह कानपुर से वाराणसी के बीच के गंगा के मैदान में फैला हुआ था। इसकी भी दो शाखाएं थीं- पहली शाखा उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी तथा, दूसरी शाखा दक्षिण पांचाल की राजधानी कांपिल्य थी।पांडवों की पत्नी, द्रौपदी को पांचाल की राजकुमारी होने के कारण पांचाली भी कहा गया। सर अलेक्ज़ैंडर कनिंघम के अनुसार वर्तमान रुहेलखंड उत्तर पंचाल और दोआबा दक्षिण पंचाल था। कनिंघम ब्रिटिश सेना के बंगाल इंजीनियर ग्रुप में इंजीनियर थे जो बाद में भारतीय पुरातत्व, ऐतिहासिक भूगोल तथा इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हुए। बात करें पांचाल की तो, संहितोपनिषद ब्राह्मण में पंचाल के प्राच्य पंचाल भाग (पूर्वी भाग) का भी उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में पंचाल की परिवका या परिचका नामक नगरी का उल्लेेख है जो वेबर के अनुसार महाभारत की एकचका है।कुछ विद्वानों के अनुसार पंाचाल पंच प्राचीन कुलों का सामूहिक नाम था। वे ये थे— किवि, केशी, सृंजय, तुर्वसस,सोमक।ब्रह्मपुराण तथा मत्स्य पुराण में इन्हें मुदगल सृंजय, बृहदिषु, यवीनर और कृमीलाश्व कहा गया है। पंाचालों और कुरु जनपदों में परस्पर लड़ाई-झगड़े चलते रहते थे। महाभारत के आदिपर्व से ज्ञात होता है कि पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन की सहायता से पंाचालराज द्रुपद को हराकर उसके पास केवल दक्षिण पंचाल (जिसकी राजधानी कांपिल्य थी) रहने दिया और उत्तर पंाचाल को हस्तगत कर लिया था। द्रोणाचार्य ने परास्त होने पर कैद में डाले हुए पंाचाल राज द्रुपद से कहा—'मैंने राज्य प्राप्ति के लिए तुम्हारे साथ युद्ध किया है। अब गंगा के उत्तरतटवर्ती प्रदेश का मैं, और दक्षिण तट के तुम राजा होंगेÓ। इस प्रकार महाभारत-काल में पंाचाल, गंगा के उत्तरी और दक्षिण दोनों तटों पर बसा हुआ था। द्रुपद पहले अहिच्छत्र या छत्रवती नगरी में रहते थे। इन्हें जीतने के लिए द्रोण ने कौरवों और पांडवों को पंचाल भेजा थ।महाभारत आदिपर्व के अनुसार द्रौपदी का स्वयंवर कांपिल्य में हुआ था। दक्षिण पंाचाल की सीमा गंगा के दक्षिणी तट से लेकर चंबल या चर्मणवती तक थी। विष्णु पुराण में कुरु-पांचालों को मध्यदेशीय कहा गया है। पंाचाल निवासियों को भीमसेन ने अपनी पूर्व देश की दिग्विजय-यात्रा में अनेक प्रकार से समझा-बुझाकर वश में कर लिया था।----
- पाशुपत, संभवत: शिव को सर्वोच्च शक्ति मानकर उपासना करने वाला सबसे पहला हिंदू संप्रदाय। माना जाता है कि बाद में इस सम्प्रदाय ने असंख्य उपसंप्रदायों को जन्म दिया, जो गुजरात और महाराष्टï्र में कम से कम 12 वीं शताब्दी तक फले-फूले तथा जावा और कंबोडिया भी पहुंचे। इस संप्रदाय ने यह नाम शिव की एक उपाधि पशुपति से लिया है, जिसका अर्थ है पशुओं के देवता, इसका अर्थ बाद में विस्तृत होकर प्राणियों के देवता हो गया।महाभारत में पाशुपत संप्रदाय का उल्लेख है। शिव को ही इस व्यवस्था का प्रथम गुरु माना गया है। बाद के साहित्य, जैसे वायु-पुराण में वर्णित जनश्रुतियों के अनुसार शिव ने स्वयं यह रहस्योद्घाटन किया था कि विष्णु के वासुदेव कृष्ण के रूप में अवतरण के दौरान वह भी प्रकट होंगे। शिव ने संकेत दिया कि वह एक मृत शरीर में प्रविष्टï होंगे और लकुलिन (या नकुलिन अथवा लकुलिश, लकुल का अर्थ है गदा) के रूप में अवतार लेंगे।10 वीं तथा 13 वीं शताब्दी के अभिलेख इस जनश्रुति का समर्थन करते प्रतीत होते हैं, चूंकि उनमें लकुलिन नामक एक उपदेशक का उल्लेख मिलता है, जिनके अनुयायी उन्हें शिव का एक अवतार मानते थे। वासुदेव संप्रदाय की तरह कुछ इतिहासकार पाशुपत के उद्भव को दूसरी शताब्दी ई.पू. का मानते हैं, जबकि अन्य इसके उद्भव की तिथि दूसरी शताब्दी ई. मानते हैं।पाशुपत द्वारा अंगीकृत की गई योग प्रथाओं में दिन में तीन बार शरीर पर राख मलना, ध्यान लगाना और शक्तिशाली शब्द ओम का जाप करना शामिल है। इस विचारधारा की ख्याति को तब धक्का लगा, जब कुछ रहस्यवादी प्रथाओं में अति की जाने लगी।पाशुपत सिद्घांत से दो अतिवादी विचारधाराएं, कालमुख और कापालिक के साथ-साथ एक मध्यम संप्रदाय, शैव (जो सिद्घांत विचारधारा भी कहलाता है) का विकास हुआ। अधिक तार्किक तथा स्वीकार्य शैव से, जिसके विकास से आधुनिक शैववाद का उदय हुआ। भिन्न विशिष्टïता बनाए रखने के लिए पाशुपत तथा अतिवादी संप्रदाय अतिमार्गिक (मार्ग से भटकी हुई विचारधारा) कहलाए।----
- अलकनन्दा नदी को ही पौराणिक विष्णुगंगा नदी कहा जाता है। यह गंगा की सहयोगी नदी हैं। यह गंगा के चार नामों में से एक है। चार धामों में गंगा के कई रूप और नाम हैं। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है, केदारनाथ में मंदाकिनी और बद्रीनाथ में अलकनन्दा। यह उत्तराखंड में शतपथ और भगीरथ खड़क नामक हिमनदों से निकलती है। यह स्थान गंगोत्री कहलाता है।अलकनंदा नदी घाटी में लगभग 229 किमी तक बहती है। देव प्रयाग या विष्णु प्रयाग में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है और इसके बाद अलकनंदा नाम समाप्त होकर केवल गंगा नाम रह जाता है। अलकनंदा चमोली टेहरी और पौड़ी जिलों से होकर गुजऱती है। गंगा के पानी में इसका योगदान भागीरथी से अधिक है। हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनाथ अलकनंदा के तट पर ही बसा हुआ है। राफ्टिंग इत्यादि साहसिक नौका खेलों के लिए यह नदी बहुत लोकप्रिय है। तिब्बत की सीमा के पास केशवप्रयाग स्थान पर यह आधुनिक सरस्वती नदी से मिलती है। केशवप्रयाग बद्रीनाथ से कुछ ऊंचाई पर स्थित है।उत्तराखंड के चार धामों में गंगा की कई धाराएं उद्गमित होती हैं। गंगोत्री से उद्गमित होने वाली गंगा की धारा को भागीरथी, केदारनाथ से उद्गमित होने वाली धारा को मंदाकिनी और बद्रीनाथ से उद्गमित होने वाली धारा को अलकनंदा के नाम से जाना जाता है। अलकनंदा नदी का पौराणिक नाम विष्णुगंगा है। वास्तव में अलकनंदा नदी देवप्रयाग में भागीरथी से संगम के पश्चात ये दोनों नदियां गंगा में परिवर्तित होती हैं। उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में भागीरथी एवं अलकनंदा नदियों को क्रमश: सास-बहू के रूप में जाना जाता है। अपने कोलाहल भरे प्रवाह के कारण भागीरथी नदी सास एवं अलकनंदा नदी को बहू के रूप में प्रसिद्ध हैं। अपने उदगम से भागीरथी में संगम तक अलकनंदा नदी में पांच विभिन्न नदियां मिलती हैं जिसके कारण उत्तराखंड में इस क्षेत्र को पंच प्रयाग कहा जाता है। प्रयाग उस स्थल को कहते है जहां दो नदियों का संगम होता है। उत्तराखंड के पंच प्रयाग क्षेत्र में अलकनंदा नदी में विभिन्न स्थलों पर क्रमश: विष्णुगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी, एवं भागीरथी नदियों का संगम होता है। इन स्थलों को क्रमश: विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग एवं देवप्रयाग के नाम से जाना जाता है। अलकनंदा नदी का उद्गम सतोपंथ हिमनद है।अलकनंदा की पांच सहायक नदियां हैं जो गढ़वाल क्षेत्र में 5 अलग-अलग स्थानों पर अलकनंदा से मिलकर पंच प्रयाग बनाती हैं, जो हैं-1. विष्णु प्रयाग जहां धौली गंगा अलकनंदा से मिलती है।2. नंद प्रयाग जहां नंदाकिनी अलकनंदा से मिलती है।3. कर्ण प्रयाग जहां पिंडारी अलकनंदा से मिलती है।4. रूद्र प्रयाग जहां मंदाकिनी अलकनंदा से मिलती है।5. देव प्रयाग जहां भागीरथी अलकनंदा से मिलती है।---
- चक्रवर्ती एक संस्कृत शब्द है। विश्व शासक की प्राचीन भारतीय अवधारणा है, जो संस्कृत के चक्र, यानी पहिया और वर्ती यानी घूमता हुआ, से उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार, चक्रवर्ती को ऐसा शासक माना जा सकता है, जिसके रथ का पहिया हर समय घूमता हो या जिसकी गति को कोई रोक नहीं सके। पहिए के घूमने को धार्मिकता और नैतिक सत्ता के चक्र धर्म से भी जोड़ा जा सकता है, जैसा बौद्ध धर्म में होता है। बुद्ध का सारनाथ का उपदेश विधि का घूमता हुआ चक्र है और एक चक्रवर्ती से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने राज्य में सदाचारिता या धार्मिकता के चक्र का घूर्णन सुनिश्चित करेगा।बौद्ध और जैन स्रोतों में तीन प्रकार के धर्मनिरपेक्ष चक्रवर्तियों का उल्लेख मिलता है-1. चक्रवाल चक्रवर्ती-प्राचीन भारतीय सृष्टिशास्त्र में वर्णित सभी चार महाद्वीपों पर राज करने वाला राजा।2. दीप चक्रवर्ती- सिर्फ एक महाद्वीप पर राज करने वाला राजा, जो पहले वाले से कम शक्तिशाली होता है।3. प्रदेश चक्रवर्ती- एक महाद्वीप के किसी हिस्से के लोगों पर शासन करने वाला राजा, जो स्थानीय राजा के समकक्ष होता है।चक्रवाल चक्रवर्ती, की उपाधि ग्रहण करने वाले सबसे पहले सम्राट अशोक (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) थे। अशोक ने अपने अभिलेखों में चक्रवर्ती उपाधि का उल्लेख नहीं किया है। बाद के साहित्य में उनका इस रूप में वर्णन जरूर मिलता है। उस काल के बौद्ध और जैन दार्शनिकों ने चक्रवाल चक्रवर्ती की अवधारणा को सदाचारी और नैतिक कानूनों को बनाए रखने वाले राजा के साथ जोड़ा दिया। धर्मनिपेक्षता मेें चक्रवर्ती को बुद्ध के समकक्ष माना जाता है। उन्हें बुद्ध के समान ही कई गुणों से जोड़ा जाता है।भारत में चक्रवर्ती एक सरनेम भी है।---
- बन उड़द को हिन्दी में जंगली उड़द, मषवन, माषोनी, संस्कृत में माषपर्णी, सूर्यपर्णी, कांबोजी, हय पुच्छिका, मराठी में रान उड़द, गुजराती में जंगली उड़द, बंगाली में भाषानी बनकलई, लैटिन में टिरेनन्स लेबिएलिस कहा जाता है।बन उड़द एक प्रकार का औषधीय पौधा है। गुण में यह चिकना, तीखा, मधुर, शीतल वात-पित्तशामक, कफवद्र्धक, उत्तेजक, स्नेहन, अनुलोमन, ग्राही, रक्तवद्र्धक और शोधक, रक्तपित्तनाशक, सूजन को दूर करने वाला, चेहरे की चमक बढ़ाने वाले, धातुवद्र्धक, जलन को नष्ट करने वाला और जीवनीय होता है। यह अर्दित, लकवा, आमवात, जोड़ों का दर्द आदि वात रोगों में तथा पैत्तिक विकार, पेट दर्द, पेशाब के साथ धातु का जाना और टीबी आदि रोगों में प्रयोग किया जाता है।
- कालमेघ एक बहुवर्षीय शाक जातीय औषधीय पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम एंडोग्रेफिस पैनिकुलाटा है। कालमेघ की पत्तियों में कालमेघीन नामक उपक्षार पाया जाता है, जिसका औषधीय महत्व है। यह पौधा भारत एवं श्रीलंका का मूल निवासी है तथा दक्षिण एशिया में व्यापक रूप से इसकी खेती की जाती है। इसका तना सीधा होता है जिसमें चार शाखाएं निकलती हैं और प्रत्येक शाखा फिर चार शाखाओं में फूटती हैं। इस पौधे की पत्तियाँ हरी एवं साधारण होती हैं। इसके फूल का रंग गुलाबी होता है। इसके पौधे को बीज द्वारा तैयार किया जाता है जिसको मई-जून में नर्सरी डालकर या खेत में छिड़ककर तैयार करते हैं। यह पौधा छोटे कद वाला शाकीय छायायुक्त स्थानों पर अधिक होता है। पौधे की छंटाई फूल आने की अवस्था अगस्त-नवम्बर में की जाती है। बीज के लिये फरवरी-मार्च में पौधों की कटाई करते है। पौधों को काटकर तथा सुखाकर बिक्री की जाती है7 औसतन 300-400 कि शाकीय हरा भाग (60-80 किग्रा सूखा शाकीय भाग) प्रति हेक्टेयर मिल जाती है।भारतीय चिकित्सा पद्वति में कालमेघ एक दिव्य गुणकारी औषधीय पौधा है जिसको हरा चिरायता, बेलवेन, किरयित् के नामों से भी जाना जाता है। भारत में यह पौधा पश्चिमी बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश में अधिक पाया जाता है। इसका स्वाद कड़वा होता है, जिसमें एक प्रकार क्षारीय तत्व-एन्ड्रोग्राफोलाइडस, कालमेघिन पायी जाती है जिसके पत्तियों का उपयोग ज्वर नाशक, जांडिस, पेचिस, सिरदर्द कृमिनाशक, रक्तशोधक, विषनाशक तथा अन्य पेट की बीमारियों में बहुत ही लाभकारी पाया गया है। कालमेघ का उपयोग मलेरिया, ब्रोंकाइटिस रोगो में किया जाता है। इसका उपयोग यकृत सम्बन्धी रोगों को दूर करने में होता है। इसकी जड़ का उपयोग भूख लगने वाली औषधि के रूप में भी होता है। कालमेघ का उपयोग पेट में गैस, अपच, पेट में कृमि आदि को दूर करता है। इसका रस पित्तनाशक है। यह रक्तविकार सम्बन्धी रोगों के उपचार में भी लाभदायक है। सरसों के तेल में मिलाकार एक प्रकार का मलहम तैयार किया जाता है जो चर्म रोग जैसे दाद, खुजली इत्यादि दूर करने में बहुत उपयोगी होता है। चिली में किए गए एक प्रयोग में यह पाया गया कि सर्दी के कारण बहती नाक वाले रोगियों को कालमेघ का रस दिये जाने पर उसकी सर्दी ठीक हो गई। इंडियन ड्रग इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया है कि कालमेघ में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता पाई जाती है और यह मलेरिया और अन्य प्रकार के बुखार के लिए रामबाण दवा है। इसके नियमित सेवन से रक्त शुद्ध होता है तथा पेट की बीमारियां नहीं होतीं। यह लीवर यानी यकृत के लिए एक तरह से शक्तिवर्धक का कार्य करता है। इसका सेवन करने से एसिडिटी, वात रोग और चर्मरोग नहीं होते।
- राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने वरिष्ठ अभिनेता परेश रावल को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया है। वर्ष 1959 में स्थापित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा वित्तपोषित एक पूरी तरह से स्वायत्त संगठन है। एनएसडी दुनिया में चार सबसे अग्रणी थिएटर प्रशिक्षण संस्थानों में से एक है, संगीत नाटक अकादमी के तत्वाधान में इसकी स्थापना हुई थी और यह 1975 में एक स्वतंत्र संस्था बनी। यह थिएटर के विभिन्न स्वरूपों में 3 वर्षीय पूर्णकालिक, आवासीय प्रशिक्षण कार्यक्रम की पेशकश करता है।संस्थान के पूर्व छात्रों और संकाय सदस्यों की उल्लेखनीय सूची यह सुनिश्चित करती है कि संस्था प्रदर्शन कला के क्षेत्र में शीर्ष पर बनी हुई है। इस प्रतिष्ठित संस्थान से उत्तीर्ण अनेक थियेटर कार्मिकों जैसे नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, मंच और लाईट डिजाइनर और संगीत निर्देशकों ने भारतीय थियेटर को समृद्ध किया है और यह कार्य अभी भी जारी है। रंगमंच के अलावा, एनएसडी के पूर्व छात्रों की कलात्मक अभिव्यक्तियों ने हमेशा अन्य मीडिया में भी अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है। एनएसडी के दो परफॉर्मिग विभाग हैं- रेपर्टोरी कंपनी और थियेटर इन एजुकेशन कंपनी (टीआईई) जो क्रमश: 1964 और 1989 में प्रारंभ हुए थे। ऑउटरीच कार्यक्रम के तहत एनएसडी नई दिल्ली के साथ चार केंद्र वाराणसी, गंगटोक, अगरतला और बेंगलूरु में भी स्थापित किए गए हैं।