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- -एक स्नान, तीन डुबकी का फॉर्मूला भी लागूहिंदू धर्म में कुंभ मेले का बहुत महत्व है. ये दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक कार्यक्रम है। भारत में हर 12वें वर्ष हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में इसका आयोजन किया जाता है। हालांकि, कुंभ मेले के इतिहास में पहली बार ये पहली बार हरिद्वार में यह 12 साल की बजाए 11वें साल में आयोजित होगा।महाकुंभ 2021 के लिए हरिद्वार तैयार है, लेकिन इस बार शासन-प्रशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है श्रद्धालुओं का कोरोना महामारी से बचाव सुनिश्चित करना। अधिकारियों का सबसे अधिक ध्यान इस बात पर है कि लाखों की संख्या में आने वाले श्रद्धालुओं और साधु-संतों को कुंभ में हिस्सा लेने के बाद कैसे सुरक्षित वापस भेजा जाए।हरिद्वार महाकुंभ 2021 के लिए क्या है प्रोटोकालअगर आप भी कुंभ में स्नान के लिए जाने की योजना बना रहे हैं तो आपको कोरोना प्रोटोकॉल के बारे में जानना जरूरी है। आईजी कुंभ मेला संजय गुंज्याल ने इसके लिए बड़ी कार्ययोजना तैयार की है जिस पर अमल भी शुरू हो गया है।कोरोना लक्षण दिखने पर एंट्री नहींजो लोग सिम्पटोमैटिक हैं यानि जिनमें कोविड-19 महामारी से जुड़े लक्षण दिखाई दे रहे हैं तो उन्हें कुंभ मेला क्षेत्र में एंट्री नहीं मिलेगी। उन्हें या तो लौटा दिया जाएगा या फिर महामारी इलाज के लिए बने सेंटर में रेफर कर दिया जाएगा।निगेटिव रिपोर्ट रखें साथनिगेटिव रिपोर्ट रखें साथ- महाकुंभ स्नान के लिए आने वाले ऐसे श्रद्धालु जो एक दिन के रात्रि प्रवास (नाइट हाल्ट) के लिए आना चाहते हैं, उनको कोविड-19 टेस्ट कराने के बाद ही आने की हिदायत है। अगर उनकी रिपोर्ट निगेटिव है तभी वो कुंभ क्षेत्र में जाएं।मास्क नहीं पहना तो कंपाउंडिंग या समनकुंभ मेले में मास्क अनिवार्य है। मास्क नहीं पहना तो कंपाउंडिंग या समन- मास्क पहनना सभी के लिए अनिवार्य है। जो मास्क नहीं पहनेगा उसके खिलाफ कंपाउंडिंग या समन की कार्रवाई भी मेला पुलिस की ओर से अमल में लायी जाएगी। सभी से सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखने की अपील भी मेला प्रशासन की ओर से की जा रही है। हालांकि इस संबंध में आईजी कुंभ मेला संजय गुंज्याल का मानना है कि मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग को मेंटेन करना व्यवहारिक रूप से थोड़ा कठिन जरूर है मगर सभी से अपनी सुरक्षा के लिए इसके पालन की अपील की जा रही है।ऑनलाइन पोर्टल पर रजिस्ट्रेशनस्नान के लिए आने वाले श्रद्धालुओं को अपना रजिस्ट्रेशन ऑनलाइन पोर्टल पर करवाना होगा। पोर्टल पर उपलब्ध डेटा से यह पता चल सकेगा कि किस-किस दिन अधिक भीड़ रहेगी। मेला प्रशासन उसी हिसाब से व्यवस्थाओं को अंतिम रूप देगा। इसके अलावा अगर स्नान के दौरान कोई कोरोना पॉजिटिव पाया जाएगा तो कांट्रैक्ट ट्रेसिंग को बेहतर तरीके से अंजाम दिया जा सकेगा।बच्चों-बुजुर्गों से नहीं आने की अपीलजिला और पुलिस प्रशासन द्वारा महाकुंभ स्नान में 10 साल से छोटे बच्चों और बुजुर्गों के नहीं आने के लिए अपील की जा रही है।कोमॉर्बिडिटी वाले स्नान के वक्त बरतें खास एहतियातजिन लोगों में कोमॉर्बिडिटी (सह-रुग्णता) हैं, और जिनकी इम्युनिटी कंप्रोमाइज्ड है, उन्हें स्नान के दौरान विशेष एहतियात बरतने की हिदायत दी गई है।लगा सकेंगे सिर्फ तीन डुबकीकुंभ में स्नान के दौरान घाटों पर मनचाही डुबकियां लगाने की छूट नहीं होगी। श्रद्धालु गंगा तट पर आएं और स्नान कर सकुशल वापस जाएं, इसके लिए घाटों पर उनका कम से कम समय तक रहना सुनिश्चित किया जाएगा। इसके लिए एक स्नान, तीन डुबकी का फॉर्मूला भी लागू किया गया है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 177
साधक का प्रश्न ::: श्री राधारानी की कृपा प्राप्त करने के लिये क्या साधना करनी होगी?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: अरे! ये ही तो साधना है कि वो बिना कारण के कृपा करती हैं ये फेथ (विश्वास) करो। यही साधना है। जो कीर्तन करते हो तुम, यही तो साधना करते हो न। उस कीर्तन का मतलब क्या? रोकर उनको पुकारो कि तुम कृपा करो। यही साधना है। इसी से अन्तःकरण शुद्ध होता है। मन को शुद्ध करने के लिये साधना होती है। फिर उसके बाद वो कृपा से प्रेम देती हैं। उनका लाभ तो कृपा से मिलता है। तुम्हारा काम तो मन को शुद्ध करना है। और मन शुद्ध करने के लिये उनको पुकारना है। बस यही साधना है। और साधना कोई मूल्य थोड़े ही है कृपा का। साधना तुम करते हो गन्दे मन से और कृपा से तो दिव्य वस्तु मिलेगी। तो तुम्हारा रोना कोई दाम थोड़े ही है। तुम जाओ किसी दुकानदार के आगे रोओ कि हमको कार दे, दो पैसा नहीं है हमारे पास। तो वो कहेगा भाग जाओ, पागल है तू। तो उसी प्रकार अगर हम रोवें भी भगवान के आगे, वो कहें भाग जाओ पहले दाम दो, हम जो दे रहे हैं तुमको सामान उसका। तो हमारे पास दाम है ही नहीं, क्या देंगे? वो दिव्य प्रेम है भगवान का। हमारी इन्द्रियाँ, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा शरीर सब गन्दा। हम क्या दे करके वो दिव्य प्रेम लेंगे? इसलिये साधना मूल्य नहीं है। साधना तो केवल बर्तन बनाना है। मन का बर्तन शुद्ध कर लो तो उसमें दिव्य सामान कृपा से मिलेगा।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - हिन्दू धर्म ग्रंथों में इस बात की जानकारी भी दी गई है कि हमें क्या खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और इसका परहेज करना चाहिए। खासकर तिथियों के हिसाब से भी खानपान का ध्यान रखा गया है। आज हम जानते हैं कि हमें किस तिथि को क्या नहीं खाना चाहिए।पेठा-पौराणिक धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि किसी भी महीने की प्रथम तिथि (हिन्दू कलेंडर के हिसाब से)को पेठे का सेवन नहीं करना चाहिए। पेठे को कूष्मांड भी कहा जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि प्रतिपदा के दिन पेठे का सेवन करने से धन हानि होती है। कूष्मांड का उपयोग मां कूष्मांडा की पूजा करने में किया जाता है। इसका नवरात्र के दौरान मां कूष्मांडा का भोग लगाने के लिए किया जाता है।मूली- शास्त्रों के अनुसार चतुर्थी तिथि को मूली का सेवन नहीं करना चाहिए। माना गया है कि चतुर्थी के दिन मूली खाने से घर में दरिद्रता आती है। वहीं काम अटकते हैं, कोई काम नहीं हो पाता। हर काम में विघ्न उत्पन्न होता है।दही और सत्तूमाता लक्ष्मी को प्रसन्न करना चाहते हैं तो रात में कभी भी दही और सत्तू का सेवन न करें। रात के वक्त किसी भी रूप में दही का सेवन और सत्तू का प्रयोग करने वाला नरक का भागी होता है। रात के वक्त वैसे भी दही का सेवन आयुर्वेद में भी वर्जित माना गया है।तिल युक्त पदार्थशास्त्रों में कहा गया है कि सूर्यास्त के बाद कोई भी तिलयुक्त पदार्थ का सेवन करने से बचना चाहिए। वहीं सूर्यास्त के वक्त किसी से नमक उधार नहीं मांगना चाहिए। माना जाता है कि ऐसा करने से माता लक्ष्मी रुष्ट हो जाती हैं और शारीरिक के साथ-साथ आर्थिक कष्ट भी इंसान को उठाने पड़ते हैं।रविवार को क्या ना खाएंरविवार का दिन सूर्यदेवता को समर्पित है। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन भूलकर भी मसूर की दाल, अदरक और लाल रंग के साग का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। ब्रह्मवैवर्त पुराण में ऐसा बताया गया है कि रविवार के दिन लाल रंग की वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से लोगों को स्वास्थ्य संबंधी कष्ट होता है और तरक्की में रुकावट आती है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 176
(साधना-मार्ग सावधानी का मार्ग है, जैसे मार्ग में चलते हुये असावधानी हो तो दुर्घटना घट जाती है, ऐसे ही साधना की महत्वपूर्ण सावधानियों से अवगत होना आवश्यक है. जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इसी विषय पर राय प्रदान कर रहे हैं...)
कोई अपना नुकसान करे तो उसकी होड़ नहीं करना है। जो अच्छा कर रहा है, अरे! देखो ये आँसू बहा रहा है, और मैं पत्थर सरीखा बैठा हूँ, केवल भगवन्नाम ले रहा हूँ। इतना अहंकार है मुझको। क्या है मेरे पास? क्या मैं रूप में कामदेव हूँ, क्या मैं धन में कुबेर हूँ, क्या मैं ऐश्वर्य में इंद्र हूँ, क्या मैं बुद्धि में बृहस्पति हूँ, क्या हूँ मैं, किस बात का अहंकार है मुझको जो भगवान के सामने भी हमारे हृदय में दैन्य भाव नहीं आता, आँसू नहीं आते, ये फील करना है। बार-बार, बार-बार फील करने से फिर आँसू आने लगेंगे। लेकिन ऐसा करने पर भी अगर आँसू नहीं आते तो परेशान न हों। रूपध्यान करते रहो, लगे रहो पीछे, एक दिन आयेगा। आज नहीं कल। रूपध्यान सबसे प्रमुख है, उसका अभ्यास, लगातार करना चाहिये। वो पक्का हो जाय। वो जड़ है, जड़। जैसे मकान की नींव पक्की हो जाय फिर चाहे जितनी ऊँची बिल्डिंग बना लो कोई डर नहीं, कोई खतरा नहीं। तो इस प्रकार आप लोग सावधान होकर साधना करें तो वास्तविक फल प्राप्त करेंगे और हमको भी बड़ी खुशी होगी।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'साधना-नियम' पुस्तक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - ज्योतिष की रत्न शाखा में माणिक को सूर्य का रत्न माना गया है जिसमें सूर्य के गुण विद्यमान होते हैं और अधिकांशत: कुंडली में सूर्य के पीडि़त या कमजोर होने पर माणिक धारण करने की सलाह दी जाती है। माणिक गहरे गुलाबी या महरून रंग की आभा लिए होता है। माणिक एक बहुत ही ऊर्जावान रत्न होता है जिसे धारण करने से कुंडली में स्थित सूर्य को बल तो प्रदान होता ही है, सथ ही व्यक्ति के व्यक्तित्व में भी सकारात्मक परिवर्तन आते हैं।माणिक धारण करने से व्यक्ति की इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास बहुत बढ़ जाते हैं। आंतरिक सकारात्मक शक्ति और इम्युनिटी बढ़ती है। सामाजिक प्रतिष्ठा, यश और प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। माणिक धारण करने से व्यक्ति में प्रतिनिधित्व करने की शक्ति आती है और उसकी प्रबंधन कुशलता भी बढ़ जाती है। परिस्थितियों को मैनेज करने में वह व्यक्ति सक्षम होता है। माणिक धारण करने पर व्यक्ति के अंदर दबी हुई प्रतिभाएं उदित हो जाती हैं और वह भय मुक्त होकर अपनी प्रतिभा का अच्छे से प्रदर्शन कर पाता है। आंखों से जुड़ी समस्याएं, दृष्टि की समस्या, हृदय रोग,बाल झडऩे और हड्डियों से जुड़ी समस्याओं में भी माणिक धारण करने से सकारात्मक परिणाम मिलता है।जिन लोगों में भय, निराशा, आत्मविश्वास की कमी या दबे हुए व्यक्तित्व की समस्या होती है उनके लिए माणिक धारण बहुत ही सकारात्मक परिणाम लाता है। लेकिन माणिक केवल उन्हीं व्यक्तियों को पहनना चाहिए जिनके लिए सूर्य शुभकारक ग्रह है। माणिक सकारात्मक रत्न है। इस रत्न को धारण करने से पहले अच्छे ज्योतिषी से अवश्य चर्चा कर लें। सामान्यत: मेष, सिंह, वृश्चिक और धनु लग्न के लिए माणिक धारण करना शुभ है। कर्क लग्न के लिए यह मध्यम है। मीन, मकर और कन्या लग्न के लिए माणिक धारण करना हानिकारक होता है।ऐसे धारण करें माणिकमाणिक को ताम्बे या सोने की अंगूठी में बनवाकर सीधे हाथ की अनामिका अंगुली में रविवार को धारण करना चाहिए। इसके अलावा लॉकेट के रूप में लाल धागे के साथ गले में भी धारण कर सकते हैं। माणिक धारण करने से पूर्व उसे गाय के दूध या गंगाजल से अभिषेक करके धूप-दीप जलाकर सूर्य मंत्र का जाप करके पूर्वाभिमुख होकर माणिक धारण करना चाहिए। माणिक धारण करने के लिए Óऊं घृणि: सूर्याय नम:Ó मंत्र की एक से तीन माला अवश्य करें।
- व्यक्ति के जीवन में प्यार अथवा प्रेम का संकेत शुक्र पर्वत से मिलता है। हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार यदि व्यक्ति के हाथ में शुक्र पर्वत विकसित हो तो व्यक्ति प्रेम में सफलता पाता है। लेकिन यदि व्यक्ति की मस्तिष्क रेखा संतुलित नहीं हो तो वह प्रेम में बदनाम हो जाता है। रेखाओं की इस स्थिति में व्यक्ति के प्रेम में वासना अधिक हो जाती है। व्यक्ति के हाथ में शुक्र पर्वत का उभार उसे तेजस्वी बनाता है। ऐसे व्यक्ति के चेहरे के आकर्षण से लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। ऐसे लोग अपने काम को भी निष्ठा एवं सजगता से करते हैं। उन्हें सुन्दर तथा कलात्मक चीजों के प्रति बहुत प्रेम होता है।हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार यदि किसी की हथेली खुरदरी है और शुक्र पर्वत बहुत ज्यादा विकसित हो तो ऐसा व्यक्ति भोगी होता है। ऐसे लोग केवल भौतिक सुखों के गुलाम हो जाते हैं। हथेली चिकनी एवं मुलायम है तथा शुक्र पर्वत पूरी तरह से विकसित हो तब ऐसा व्यक्ति एक सफल प्रेमी तथा उत्कृष्ट कवि होता है।यदि हाथ में शुक्र पर्वत दबा हुआ है, अविकसित है अथवा नहीं है तो उसके जीवन में दु:ख तथा परेशानियां पैदा हो जाती हैं। किसी व्यक्ति के हाथ में शुक्र पर्वत का झुकाव मंगल पर्वत की ओर हो तो ऐसा व्यक्ति प्रेम के मामलों में बेहद निर्मम होता है। यदि अंगूठे का सिरा कोणदार हो और शुक्र पर्वत विकसित हो तब ऐसा व्यक्ति कलात्मक रुचि वाला होता है। यदि अंगूठे का सिरा वर्गाकार हो तो वह समझदार और तर्क से काम लेने वाला होता है। अंगूठे का फैला हुआ सिरा दयालुता का संकेत देता है।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 175
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें (भाग - 8) ::::::
(1) अहंकार से बचना और अपमान न फील करना, यह साधना की आधारशिला है। यह चीज साधना करने वाले जीवों के लिये श्रीगणेश है।
(2) वास्तविक साधना गुरु आज्ञापालन ही है। जो कुछ प्राप्त होना है, वह तो गुरु कृपा पर ही निर्भर है।
(3) संकीर्तन में आपके आँसू नहीं आते यह अहंकार के कारण है और अगर आँसू आते हैं और सोचता है मेरे आँसू आते हैं, यह सूक्ष्म अहंकार है।
(4) मान अपमान पर विचार करते हुये हमें यह विचार करना है कि हम किस प्रकार दीन बनें। मैं दीन हूँ और मुझे अहंकार भी है, यही सबसे बड़ा डेंजर है। लोकरंजन की भावना आ जाती है और हम समझते हैं कि लोग हमें दीन समझें। यह भी अहंकार हैं।
(5) लोग तीर्थ में जाते हैं तो आपस में बैठकर इधर उधर की बातें करते हैं फिर तीर्थ का क्या मतलब हुआ? यह थ्योरी (तत्वज्ञान/माहात्म्य ज्ञान) की नॉलेज न होने के कारण ही होता है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश एवं साधन साध्य पत्रिकाएँ०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 174
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 7 के दोहा संख्या 35 से आगे)
बीज चिरकाल में ही फल देगा बामा।ऐसे ही रोते रहो सुने कभू श्यामा।।36।।
अर्थ ::: 'कालेन परिपच्यन्ते कृषि.....।' किसान अपने खेत में विविध प्रकार के अन्नों के दाने बीज रूप में डालता है। किन्तु फसल तैयार होने में समय की अपेक्षा होती है। इसी प्रकार साधन भक्ति भी धीरे धीरे ही परिपक्व होगी। अतएव निराशा से बचते हुये किशोरी जी की कृपा प्राप्ति हेतु आँसू बहाते रहो, एक दिन उनकी कृपा अवश्य प्राप्त होगी।
मान लो पतित आपु कहँ कह बामा।बन ठन के जनि जाओ ढिंग श्यामा।।37।।
अर्थ ::: यदि तुम स्वयं को पतित स्वीकार कर लो तो तुम्हारा काम बन जाय। बनना ठनना (पतित होते हुये भी स्वयं को पतित न मानना) अर्थात तुम जैसे हो वैसे ही उनकी शरण में आ जाओ।
मन में निराशा जनि लाओ कह बामा।आशा रखो एक दिन पिघलेंगी श्यामा।।38।।
अर्थ ::: भूलकर भी अपने मन में निराशा को न आने दो। विश्वास रखो एक दिन किशोरी जी तुम्हें अवश्य अपनायेंगी।
मेरी थीं, मेरी हैं, मेरी रहेंगी भी श्यामा।दृढ़ विश्वास रहे यह आठु यामा।।39।।
अर्थ ::: श्रीराधा सदैव से ही मेरी थीं, मेरी हैं एवं सदा मेरी रहेंगी। यह दृढ़ विश्वास निरंतर बना रहना चाहिये।
जहाँ रहो मन ते कहो कह बामा।उर बैठीं तेरे कर्म लिखें श्यामा।।40।।
अर्थ ::: तू जहाँ भी रहे अपने मन में यह निश्चय रख कि श्रीराधा तेरे हृदय में बैठीं तेरे शुभाशुभ कर्मों का लेखा लिख रही हैं।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 173
प्रश्न: महापुरुष का त्यागमय जीवन उचित है कि गृहस्थ जीवन जीना उचित है?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर :::
ऐसा है कि शुरू शुरू में तो संसार से वैराग्य आवश्यक है, जैसे पहले दूध होता है, उसको एकान्त में जमा देते हैं तो दही बन जाता है। फिर दही को जब मथ दिया और उसका मक्खन निकल आया तो फिर चाहे उसे पानी में डाल दो कोई डर नहीं। उसी प्रकार संसार में जो एटमॉसफीयर है गन्दा, इससे मन को हटाने के लिये पहले विरक्त होता है आदमी और जब भगवान की शक्ति मिल गई, तो फिर हमारे देश में तो ध्रुव ने छत्तीस हज़ार वर्ष तक राज्य किया। प्रह्लाद ने तीस करोड़ वर्ष राज्य किया। भरत ने एक करोड़ वर्ष राज्य किया। सब गोपियाँ ब्रज की गृहस्थ ही थीं। ब्रह्मा, शंकर उनकी चरण धूलि चाहते थे। निन्यान्वे प्रतिशत सन्त हमारे यहाँ गृहस्थ हुए इण्डिया में और ये संन्यास तो अभी शंकराचार्य ने निकाला है ज्यादा जोरदार। तो संन्यासी बन गए लोग तमाम । नहीं तो सब हमारे गृहस्थी में ही साधना करते थे। लेकिन, चूँकि वातावरण खराब हो गया है संसार का कलियुग में, इसलिये कुछ दिन पहले विरक्त हो के साधना करके मन को जमा लें और खूब मथकर, रूपध्यान करके, साधना करके, भक्ति करके भगवान का प्रेम प्राप्त कर लें, फिर संसार का कोई डर नहीं। संसार में आवें, रहें, कुछ भी हो।
दूध में पानी डालोगे तो मिल जायेगा। मक्खन बनाकर जब पानी में डालोगे तो नहीं मिलेगा।
अगर महापुरुष संसार में न आवे तो किसी जीव का कल्याण ही नहीं हो सकता तो फिर कोई महापुरुष बनेगा कैसे? अरे! जब वो संसार में आयेगा, तो लोगों को समझायेगा, तब तो जीव भगवान की ओर चलेंगे। अगर वो अपना मतलब हल करके, बाबाजी बनके, भजन करके, भगवत्प्राप्ति करके चला जाय भगवान के यहाँ, तो हम लोग क्या करेंगे? संसार वालों को भी तो भगवत्प्राप्ति करना है। इसलिये स्वार्थ सिद्ध होने के बाद गुरु का ऋण उतारने के लिये उसको संसारी लोगों को ईश्वर की ओर ले जाने का काम दिया जाता है। वो कम्पलसरी है, वो करना पड़ेगा उसको, नहीं तो ऋण से उऋण नहीं होगा। तुमको ज्ञान दिया है किसी ने, तो तुम भी तो दूसरों को दो, वरना वो लिंक टूट जायेगी तो फिर किसी जीव का उद्धार कैसे होगा?
इसलिये प्राचीन काल में सतयुग में भी जंगलों में रहने वाले महात्मा लोग गृहस्थियों के यहाँ, राजाओं के यहाँ जाते थे, उनको तत्त्वज्ञान देते थे। रहते नहीं थे हमेशा उनके घर में, लेकिन जाते-आते थे। उस समय नॉलेज बहुत थी लोगों में। थोड़ा सा तत्त्वज्ञान देने पर ही लोग चल पड़ते थे। अब बुद्धि बहुत वीक (कमजोर) हो गई है मनुष्य की। सौ बार समझाओ तो कोई बात कहीं बुद्धि में बैठती है। दूसरी बात एक और है, जैसे सब नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, कोई टेढ़ी, कोई सीधी। उसी प्रकार मार्ग भी बहुत से हैं, भगवान को प्राप्त करने के। कोई टेढ़े हैं, कोई सीधे हैं, कोई ज्ञान मार्ग है, कोई भक्ति मार्ग है, तपस्या है, कोई कुछ है। और मार्गों में तो एकान्त वास, जंगल में रहना और वो सब नियम का पालन, योग वगैरह में शारीरिक नियम भी है बहुत। वो तो संसार में नहीं रह सकते, साधना उनकी नहीं बनेगी। लेकिन भक्तिमार्ग में भगवान की भक्ति एक ऐसा साधन है जिसमें कोई देश नियम नहीं, काल नियम नहीं, कोई प्रपंच नहीं। जैसे संसार में माँ से, पिता से, बेटे से, बीवी से, पति से कोई प्यार करता है, ऐसे ही भगवान से करता है। चाहे जहाँ रहो, चाहे जैसे रहो। भक्तिमार्ग गृहस्थ में अधिक चलता है। अधिक महापुरुष गृहस्थ में इसीलिये हुए। यहाँ पर रहकर भक्ति कर लेते हैं अपना। और जो तपस्या वगैरह है और मार्ग हैं उसमें तो एकान्त वास भी हो, खाने का भी नियम, अब पानी पीओ खाली, खाली पत्ते खाओ, अब खाली फल खाओ। सब कायदे कानून है उसमें। अष्टांग योग है यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, समाधि सब कायदे-कानून हैं। वो संसार में रहकर नहीं हो सकते। वो जंगल ही में होंगे। वातावरण ही यहाँ नहीं मिलेगा उसको। लेकिन भक्ति तो सब जगह हो सकती है। हुई है। तमाम महापुरुष संसार में ही तो हुए हैं। तुलसीदास हों, सूरदास हों, मीरा हों, कबीर हों, नानक हों, तुकाराम हों सभी गृहस्थ में ही (संसार में) हुए हैं अभी कलियुग में। रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य सब गृहस्थी। बस, एक शंकराचार्य हुए हैं जिन्होंने संन्यासी बनने का नाटक किया। अब निरे संन्यासी हो गये हमारे देश में और वो सब गृहस्थियों के यहाँ रहते हैं, जबकि संन्यासियों के लिये बड़े कायदे कानून हैं वेद में, किसी के घर के सामने एक मुहूर्त से ज्यादा न ठहरो। खाली भिक्षा माँगने जाओ बस और कोई आश्रम भी न बनाओ। सबके आश्रम हैं संन्यासियों के, सब गृहस्थियों के यहाँ रहते हैं।
भक्ति मार्ग में कोई नियम नहीं है, बस प्यार करना है भगवान् से। ये सुविधा है सबके लिये।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: जगदगुरु कृपालु जी महाराज साहित्य00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - गोपी शब्द का प्रयोग प्राचीन साहित्य में पशुपालक जाति की स्त्री के अर्थ में हुआ है। इस जाति के कुलदेवता गोपाल कृष्ण थे। कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। सूरदास के राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरुष के प्रतीक हैं और गोपियां राधा की अभिन्न सखियां हैं। राधा कृष्ण के सबसे निकट दर्शाई गई हैं, किंतु अन्य गोपियां उससे ईष्र्या नहीं करतीं। वे स्वयं को कृष्ण से अभिन्न मानती हैं।ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त गोप, गोपति और गोपा शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं। दक्षिण भागवत धर्म आल्वार भक्ति के गीतों में गोपी-कृष्ण-लीला के अनेक मनोहर वर्णन मिलते हैं। मध्ययुग में कृष्ण-भक्ति-सम्प्रदायों ने पुराणों, मुख्य रूप में श्रीमद्भागवत का आधार लेकर गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को धार्मिक सन्दर्भ में आध्यात्मिक रूप दे दिया और गोपी, गोपी-भाव तथा राधा-भाव की अत्यन्त गम्भीर और रहस्यपूर्ण व्याख्याएं होने लगीं। महाभारत में गोपियों के सम्बन्ध में कोई आध्यात्मिक व्याख्या नहीं मिलती। कृष्ण भक्त संप्रदायों, विशेष रूप से गौड़ीय वैष्णव चैतन्य संप्रदाय में, गोपी का चित्रण कृष्ण की शक्ति तथा उनकी लीला में सहयोगी के रूप में होने लगा।ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा' शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं। कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है। कुछ लोगों ने ग्रह-नक्षत्रों को ही गोपी कहा है, जो सूर्य मण्डल के चारों ओर घूमते हैं।हरिवंशपुराण में, जिसे महाभारत का 'खिल' कहा जाता है, कृष्णावतार का हेतु बताते हुए कहा गया है कि "वसुदेव पहले कश्यप थे और कुबेर की गाय हरण करने के अपराध में शापित होकर उन्होंने गौओं के बीच स्थित गोपरूप में जन्म लिया था। कश्यप की स्त्री अदिति और सुरभी, देवकी और रोहिणी थीं। इन्हीं के यहां कृष्ण ने देवताओं को ब्रज में जन्म लेने की आज्ञा देकर, स्वयं जन्म लेने की इच्छा की थी। सैकड़ो-सहस्त्रों देवता पांचाल देश के कुरुवंश और वृष्णिवंश में उत्पन्न हुए। हरिवंश में स्पष्टत: कहा नहीं गया है, परन्तु यह ध्वनित होता है कि गोप-गोपियां भी देव-देवियां ही थे। हरिवंश के बाद वैष्णव पुराणों में गोप-गोपियों का दैवी उत्पत्ति-विषयक न्यूनाधिक उल्लेख बराबर पाया जाता है।श्रीमद्भागवत में भी गोपियों को देवताओं की स्त्रियां कहा गया है, जो वसुदेव के भवन में जन्म लेने वाले साक्षात भगवान विष्णु का प्रिय करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। परन्तु 'हरिवंशपुराण', 'विष्णुपुराण' और 'भागवतपुराण' की गोपियां फिर भी लौकिक रूप में ही चित्रित की गयी हैं, उनके विषय में कोई रहस्य-संकेत नहीं है।'पद्मपुराण' और 'ब्रह्मवैवर्त्तपुराण' पुराणों में गोलोक के नित्य वृन्दावन की विशद कल्पना मिलती है, जिसमें परमानन्दरूप परब्रह्म श्रीकृष्ण राधा तथा गोपियों के साथ नित्य क्रीड़ारत रहते हैं।'ब्रह्मवैतर्त' में वर्णन है कि नन्द ब्रज में अवतीर्ण होने के पूर्व श्रीकृष्ण ने राधा तथा गोलोक के सब गोप और गोपियों को ब्रज में जन्म लेने की आज्ञा दी। साथ ही देवी-देवताओं ने भी ब्रज में जन्म लेने के लिए गोप-गोपी का रूप धारण किया था। 'पद्मपुराण' के अनुसार दण्डकारण्यवासी कृष्ण-भक्त मुनियों ने भी सौन्दर्य-माधुर्य का आस्वादन करने के हेतु गोपियों का जन्म पाया था।'दशश्लोकी' में उल्लेखगोपी सम्बन्धी सबसे अधिक विस्तार गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय और पुष्टिमार्ग((वल्लभ-सम्प्रदाय) में मिलते हैं। गौडीय वैष्णव मत के अनुसार गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं। वे अप्रकट तथा प्रकट दोनों लीलाओं में उनके नित्य परिकर के यप में निरन्तर उनके साथ रहती हैं। श्रीकृष्ण की तरह गोप-गोपियों की प्रकट और अप्रकट, दोनों शरीर होते हैं। वृन्दावन की प्रकट लीला में गोपियाँ भगवान की स्वरूप-शक्ति-प्रादुर्भाव-रूपा हैं। भगवान की आह्लादिनी गुह्यविद्या के रहस्य का प्रवर्तन उन्हीं के द्वारा होता है। वे नित्यसिद्ध हैं। रूपगोस्वामी प्रभृति चैतन्य-मत के विवेचकों ने गोपियों का वर्गीकरण करके कृष्ण की ब्रज वृन्दावन की प्रेमलीला में उनके विभिन्न स्थानों का निर्देश किया है।
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 172
(साधक को सदा गुरु के सिद्धान्त के अनुकूल ही सोचना, चलना चाहिये. इसके अतिरिक्त और कुछ महत्वपूर्ण मार्गदर्शन, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की श्रीवाणी में...)
मनुष्य में एक ही विशेषता है, वह यह कि वह किसी तत्व का सत्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है। लेकिन जब तक उस तत्व के अनुकूल बार-बार विचार न किया जाय, वह ज्ञान मिट जाता है एवं मनुष्य को और भी पतन के गर्त में गिरा देता है।
बार-बार विचार हो और सदा हो, और अनुकूल ही हो, बस, यदि यह समझ में कभी आ जायेगा तो भविष्य बन जायेगा। इसके साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि इष्टदेव एवं गुरु के प्रति निष्ठा करता रहे। यदु वहीं गड़बड़ हुई तो सब महल ढह जायेगा। और ऐसे व्यवहार से इष्टदेव अथवा गुरु को और भी दुःख देने के हम कारण बन जायेंगे। भावार्थ यह कि चार पैसे की खोपड़ी को उधर न लगाया जाए, सदा अनुकूल चिन्तन एवं कृपा को ही सोचा जाय। संसारी जीवों से कम से कम व्यवहार किया जाय, कम से कम सोचा जाय, कम से कम सुना जाय, कम से कम बोला जाय।
केवल गुरु के मिलन का महत्व सोच-सोचकर ही जीव का परम कल्याण हो सकता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। यदि बुद्धि का व्यापार बंद न होगा तो अनन्त जन्म में भी कुछ न मिलेगा। यही एकमात्र विचारणीय है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, नवम्बर 1999 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 171
(समस्त संत-शास्त्रों से सुनी गई यह बात कि भगवान सबके हृदय में निरंतर बैठे हैं, फिर भी जीव क्यों अज्ञान, दुःख और त्रास से व्यथित है, इससे कैसे छुटकारा प्राप्त होगा, पढिये जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज की श्रीवाणी में...)
श्यामसुन्दर हमारे अन्तःकरण में नित्य विद्यमान रहते हैं, किन्तु फिर भी उनसे कोई लाभ नहीं। क्यों? ठीक यों, जैसे कि गाय स्वय हृष्ट-पुष्ट नहीं हो रही, यद्यपि कितना दूध भरे है अन्दर। ग्वाला प्रतिदिन दूध निकाल रहा है उसमें से, लेकिन अगर उसी का निकाला हुआ दूध गाय को फिर पिला दिया जाय तो गाय मोटी हो जायेगी। जब तक दूध निकालकर न पिलाया जाये, दूध उसको पुष्ट नहीं करता। निकलता यद्यपि उसी से ही है। इसी प्रकार आपके अन्तःकरण में श्यामसुन्दर बैठे हैं, लेकिन जब तक प्रेम रूपी शक्ति से आप उन्हें बाहर नहीं निकालते और उनका सेवन नहीं करते, तब तक आप मायामुक्त व प्रेमानन्द प्राप्ति के योग्य हो ही नहीं सकते, अधिकारी नहीं बन सकते। जब तक भगवान एवं गुरु के लिये हृदय नहीं जलेगा, तब तक हृदय पिघलेगा नहीं, अन्तःकरण शुद्ध नहीं होगा। बिना अन्तःकरण शुद्धि के कोई दिव्य सामान नहीं मिल सकता। साक्षात ईश्वर दर्शन करने पर भी गोलोक जाकर भी वहाँ से बैरंग ही लौटेंगे, क्योंकि श्यामसुन्दर 'एक्सरे' मशीन के समान हैं। जैसे आपके अन्तःकरण की 'पिक्चर' होगी, वे वैसे ही दिखाई देंगे।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, जुलाई 1996 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - माता लक्ष्मी को धन की देवी माना गया है। मान्यता है कि जिस घर में माता लक्ष्मी का वास होता है, वह सुख समृदधि, ऐश्वर्या और धन की कभी कमी नहीं होती है। देवी लक्ष्मी को चंचला भी कहा गया है। जानें ऐसे कौन से कर्म हैं जिन्हें करने से माता लक्ष्मी रुष्ट होती हैं और उस घर से चली जाती हैं....चाणक्य नीति बोलती है कि धन की देवी लक्ष्मी का व्यवहार बेहद ही चंचल है। जहां अच्छे कामों को करने से लक्ष्मी जी का आर्शीवाद मिलता हैं वहीं गलत कामों को करने से लक्ष्मी खफा हो जाती हैं एवं उस जगह को छोड़कर चली जाती हैं। इसलिए गलत कामों को कभी नहीं करना चाहिए। लक्ष्मी जी उन व्यक्तियों को अपना आर्शीवाद देती हैं जो मानव कल्याण के बारे में सोचते हैं और कोशिश करते हैं। धन का उपयोग जो व्यक्ति दूसरों को कष्ट देने तथा हानि पहुंचाने के लिए करते हैं, उनका साथ लक्ष्मी जी बेहद शीघ्र छोड़ देती हैं।वही गीता के उपदेश में भी परोपकार के बारे में बताया है। प्रभु श्रीकृष्ण कुरुक्षेत्र में अर्जुन को उपदेश देते हुए बोलते हैं कि परोपकार करते वक्त किसी तरफ के प्रतिफल की इच्छा नहीं रखना चाहिए। जो लोग परोपकार करते हैं मतलब दूसरों की सहायता करते हैं। संसाधनों का इस्तेमाल लोक के कल्याण के लिए करते हैं वे हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं। ऐसे भक्तों की हर जगह पर प्रशंसा होती है। मान सम्मान मिलता हैं। किन्तु कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें भूलकर भी नहीं करना चाहिए। इन कार्यों को करने से लक्ष्मी जी नाराज होती हैं।किसी को धोखा नहीं देना चाहिए- चाणक्य के मुताबिक, धोखा देने वाले शख्स को समाज में सम्मान नहीं मिलता है। ऐसे लोगों पर सहज भरोसा करना कठिन होता है। धोखा देना अच्छी बात नहीं है। इसे बेहद ही बुरा माना गया है। धोखा देने वाले लोगों को लक्ष्मी जी पसंद नहीं करती हैं और वक्त आने पर ऐसे व्यक्तियों का साथ छोड़ देती हैं।धन का दिखावा न करें- लक्ष्मी जी ऐसे भक्तों को पसंद नहीं करती हैं जो धन का दिखावा करता है। धन का इस्तेमाल सामने वाले शख्स को नीचा दिखाने के लिए कभी नहीं करना चाहिए।धन की अहमियत जानना चाहिए- धन की अहमियत जानना बेहद आवश्यक है। धनवान शख्स भी धन की अहमियत नहीं जानते हैं। धन का इस्तेमाल बेहद ही सतर्कता से करना चाहिए। बुरे समय में जब सब साथ छोड़ देते हैं तब धन ही सच्चे मित्र का किरदार निभाता है। इसलिए धन की अहमियत को जानना चाहिए तथा इसका संचय करना चाहिए।---
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जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 170
(मार्ग गलत हो तो मंजिल भी गलत ही मिलेगी, यह सिद्धान्त ईश्वरीय राज्य में भी साबित होता है। भगवान को पाने के लिये अनगिनत मार्गों में से किस मार्ग पर कदम रखा जाय, इसके निश्चय के संबंध में पढ़िये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उदबोधन..)
..आज अनेक प्रकार के मार्ग, अनेक प्रकार के सम्प्रदाय चल रहे हैं। एक प्रश्न स्वाभाविक मस्तिष्क में उठता है, हमारे यहाँ शास्त्रों, वेदों में अनेक प्रकार के मत क्यों बन गये हैं? तथा इन विविध मतों में कौन सत्य है? कौन असत्य है?
एक बार उद्धव जी ने भी श्रीकृष्ण से यह प्रश्न किया था। बात यह है कि भगवान ने तो सर्वप्रथम वेदों के द्वारा केवल अपने निज भागवत धर्म का ही उपदेश किया था, किन्तु अनंतानंत जन्मों के संस्कारों के कारण तथा सत, रज, तम गुणों से युक्त बुद्धि होने के कारण एवं अनंत प्रकार की रुचि वैचित्र्य होने के कारण इस दिव्य वेद वाणी का साधकों ने अनेकानेक अर्थ कर डाला, जिसके परिणामस्वरूप अनेकानेक मत बन गये। उसमें कुछ सत्य भी हैं, कुछ असत्य भी हैं। कुछ मत तो ऐसे हैं जो कि शास्त्रों वेदों के भी विपरीत, दम्भीयों ने बीच में ही गढ़ लिया है। यह प्रश्न एक समुद्र मंथन के समान है।
कुछ शास्त्रकार धर्म को, कुछ यश को, कुछ सत्य को, कुछ शम दमादि को, कुछ यम नियमादि को, कुछ जप को, कुछ तप को, कुछ यज्ञ को, कुछ दान को, कुछ व्रत को, कुछ आचार को, कुछ योगादि को, इत्यादि विविध प्रकार के साधनों को कल्याण का साधन बताते हैं, किन्तु वास्तव में इन साधनों से वास्तविक कल्याण नहीं होता, क्योंकि इन साधनों के परिणामस्वरूप जो लोक मिलते हैं वे आदि-अंत वाले होते हैं। उनके परिणाम में दुःख ही दुःख होता है। वे अज्ञान से युक्त होते हैं। वहाँ भी अल्प एवं क्षणभंगुर ही सुख मिलता है तथा वे स्वर्गादि समस्त लोक, शोक से परिपूर्ण होते हैं। अतएव उसकी प्राप्ति, तत्वज्ञ पुरुष नहीं करता, एवं उसे भी इसी लोक के सदृश असत्य समझकर परित्याग कर देते हैं।
सत्य मार्ग यह है कि जीव, एकमात्र पूर्णतम पुरुषोत्तम आनंदकंद सच्चिदानंद श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में ही अपने आपको समर्पित कर दे, एवं उन्हीं के नाम, गुण, लीलादिकों का स्मरण करता हुआ रोमांच युक्त होकर, आनंद एवं वियोग के आँसू बहावे। अपने हृदय को द्रवीभूत कर दे तथा मोक्षपर्यन्त की समस्त इच्छाओं का सर्वथा त्याग कर दे। इस प्रकार बिना किये अन्तःकरण शुद्धि नहीं हो सकती। स्मरण रहे, सत्य एवं दया से युक्त धर्म एवं तपश्चर्या से युक्त विद्या भी भगवान की भक्ति से रहित जीव को पूर्णतः शुद्ध नहीं कर सकती।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, मार्च 2002 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
माना जाता है कि व्यक्ति की पहचान में उसके कपड़े और जूते में महत्वपूर्ण कारक हैं, लेकिन कोई कितने भी अच्छे कपड़े पहन ले, अगर जूते ठीक नहीं है तो व्यक्ति को महत्व नहीं दिया जाता। ज्योतिष शास्त्र में मानव जीवन की धुरी हर वस्तु पर किसी ने किसी ग्रह को संबध रखती है। काल पुरुष सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति की कुंडली का आठवां भाव पैरों के तलवों से संबंधित है और पैरों के जूते भी आठवें भाव को महत्व देते हैं। कुछ जूते दुर्भाग्य का सूचक होते हैं। इनको पहनने से व्यक्ति के जीवन में आर्थिक और कार्यक्षेत्र से संबंधित समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे जूतों के दोष के कारण कई काम बिगड़ जाते हैं। जानिए ज्योतिष की दृष्टि से जूतों का गणित।
-कभी भी उपहार में मिले हुए जूते नहीं पहनने चाहिए। इसे शनिदेव कार्य मे बाधाएं डालते हैं। जूते ना तो किसी से उपहार में लेने चाहिए और ना ही देने।
-चुराए हुए जूते कभी भी ना पहने। कई बार मंदिर और कीर्तन आदि स्थानों से जूते अथवा चप्पल की चोरी जाती हैं। चोरी करने वाले ध्यान रखें कि चोरी के जूते चप्पल पहनने से वह अपने स्वास्थ्य और धन का विनाश कर रहा है।
-उधड़े हुए अथवा फटे जूते पहनकर नौकरी ढूंढने अथवा महत्वपूर्ण कार्य के लिए न जाए, असफलता मिलेगी।
-ऑफिस या कार्यक्षेत्र में भूरे रंग के जूते पहनकर जाने से व्यक्ति के कार्यों में अक्सर बाधाएं उत्पन्न हो सकती हैं।
-चिकित्सा और लोहे से संबंधित व्यक्तियों को कभी भी सफेद जूते नहीं पहननी चाहिए।
-जल से संबंधित और आयुर्वेदिक कार्यों से जुड़े लोगों को नीले रंग के जूते नहीं पहनने चाहिए।
- कॉफी रंग के जूते बैंक कर्मचारियों और अध्ययन क्षेत्र से जुड़े हुए लोगों को नहीं पहनी चाहिए। इससे आपकी कार्यशैली में दिक्कतें बनी रहती हैं। आपके कार्य को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।
-अपने जूते अथवा चप्पल की पॉलिस और चमक सदैव बनी रहनी चाहिए। यह आपके व्यक्तित्व का प्रभाव दूसरे लोगों पर छोड़ती है।
- ज्योतिष और वास्तु में जूते-चप्पल शनि राहु के कारक हैं। जब भी हम अपने बेडरूम में जूते रखते हैं तो पति-पत्नी के बीच का लगाव एवं सम्मान धीरे-धीरे कम होता जाता है।
- जो व्यक्ति बाहर से आकर अपने चप्पल, जूते, मोजे इधर-उधर फेंक देते हैं, उन्हें शत्रु बहुत परेशान करते हैं। कार्य में बाधा उत्पन्न होती हैं और उनकी कार्य योजना ठीक प्रकार से पूर्ण नहीं हो पाती।
- जूते पहनकर भोजन करने से शरीर में धीरे-धीरे नकारात्मकता आ जाती है और शरीर की पवित्रता भंग हो जाती है।
-घर में जूतों के लिए अलग स्थान रखें। कभी भी मंदिर अथवा रसोई में जूते चप्पल पहनकर न जाएं।
-रसोई में महिलाएं अक्सर काम करती हैं। रसोई के लिए अलग से प्लास्टिक चप्पल या कपड़े के जूते प्रयोग कर सकती हैं। ये जूते-चप्पल केवल रसोई में ही प्रयोग करें।
- भगवान को भोग लगाते समय अथवा खाना परोसने के समय जूते निकाल कर उचित स्थान पर रखें।
-वास्तु के अनुसार जूते-चप्पल निकालने के लिए शुभ स्थान दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम ,उत्तर-पश्चिम अथवा पश्चिम दिशा ठीक मानी गई है। इन दिशा में उचित स्थान पर शू रैक बनाकर जूतों को उसमें ढक कर रखें। मुख्य द्वार पर या मुख्य द्वार के सामने शू रैक बनाना अच्छा नहीं होता है। जीने के कोने में बने शू रैकघर की उन्नति के लिए शुभ नहीं होते। हमें ऐसे स्थानों पर जूते-चप्पल रखने से बचना चाहिए। -
माघ माह की सकट चौथ का पर्व 31 जनवरी 2021 को मनाया जाएगा। इस दिन चतुर्थी तिथि 31 जनवरी 2021 को रात 8 बजकर 24 मिनट से शुरू होगी और एक फरवरी 2021 को शाम 6 बजे तक रहेगी। चंद्रमा रात्रि 8 बजे निकलेगा, इसलिए सकट चौथ का व्रत 31 जनवरी को ही रखा जाएगा। इस दिन खासतौर पर गणेश जी की पूजा की जाती है। गणेश जी को तिलकूट का प्रसाद चढ़ाया जाता है। उत्तर भारत के कई राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि में यह त्योहार खासतौर पर मनाया जाता है। संतान की सलामती के लिए इस दिन माताएं निर्जला व्रत रखती हैं। शाम को गणेश जी की कहानी सुनकर चंद्रमा को अर्घ्य देकर व्रत को खोलती हैं।
चन्द्रोदय : रात्रि 08 बजकर 27 मिनट है
चतुर्थी तिथि : 31 जनवरी 2021 को रात्रि 08 बजकर 24 मिनट से शुरू
1 फरवरी 2021 को शाम 06 बजकर 24 मिनट पर समाप्त
संकष्टी चतुर्थी या संकट चौथ का व्रत संतान की लंबी उम्र व खुशहाल जीवन के लिए रखा जाता है साथ ही इस दिन विघ्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। माना जाता है कि सकट चौथ का व्रत व इस दिन लंबोदर की पूजा से सारे संकट दूर हो जाते हैं और संतान की दीर्घायु और सुखद जीवन का वरदान प्राप्त होता है। संकट चौथ को संकष्टी चतुर्थी, वक्रतुंडी चतुर्थी, तिलकुटा चौथ के नाम से भी जाना जाता है। संकष्टी चतुर्थी का व्रत वैसे तो हर महीने में दो बार होता है लेकिन माघ महीने में पडऩे वाली संकष्टी चतुर्थी की महिमा सबसे ज्यादा है। -
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 169
(साधना मार्ग में कुछ सावधानियों का पालन अति आवश्यक होता है, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक समुदाय को अनेक अवसरों पर बहुत सी सावधानियों के विषय में समझाया है। निम्न उद्धरण में भी उन्होंने एक अवसर पर इस ओर साधक समुदाय को संबोधित किया था। कल इसका एक भाग प्रकाशित हो चुका है..)
..दूसरा आदेश है व्यवहार। एक आदेश दिया आहार के बारे में, अब दूसरा दे रहे हैं व्यवहार के बारे में। अपने व्यवहार को संसार के अनुकूल बनाओ। इसमें बहुत से लोग भूल किया करते हैं। कहते हैं अजी हमसे किसी की खुशामद नहीं होती, किसी की गुलामी नहीं होती। यह गुलामी और खुशामद होती है दो प्रकार की - एक एक्टिंग में एक फैक्ट में। हम फैक्ट में नहीं कह रहे हैं कि तुम किसी के आगे झुक जाओ। फैक्ट में तो हरि-हरिजन केवल दो के ही आगे झुकना है और संसार में केवल शब्दों का व्यवहार ही रखना है।
घर और, ऑफिस में, तमाम जगह आपको विभिन्न प्रकार के लोगों से संपर्क रखना पड़ेगा। उस संपर्क को इस प्रकार से बनाओ कि कम से कम बवाल आपके ऊपर आये। आपका जो ऑफिसर है अगर उसको एक्टिंग में अपने व्यवहार से आप खुश नहीं रख सकते तो सदा आपको परेशान करता रहेगा। अगर वह व्यवहार ठीक नहीं रख पाओगे तो उस परेशानी को आपको उठाना ही पड़ेगा। इसलिये अपने व्यवहार को मधुर बनाओ। इसके लिये एक चीज तो यह है कि कम बोलो, मीठा बोलो। वाणी का इस्तेमाल कम से कम करो। एक पॉज की अक्ल नहीं है किसी को और अपने को अधिक विद्वान मानता है और जब अधिक बोलेगा तो कहीं न कहीं गड़बड़ होगी ही और जब गड़बड़ होगी तो उसका रिएक्शन भी और वह सामने आयेगा।
इसलिए अपने घर में भी और बाहर भी कम से कम बोलो और मधुर बोलो। इससे आपके झगड़े कम हो जायेंगे, घर के भी और बाहर के भी और आपके मन में जो यह फीलिंग की बीमारी आया करती है , यह भी कम हो जायेगी, उसको कम करने की दवा बता रहे हैं, एकदम उसको समाप्त नहीं कर सकते हो। जब आपका अन्त:करण शुद्ध हो जायेगा, देहाभिमान मिट जायगा, तब एकदम बन्द होने की बात आयेगी।
अपने व्यवहार को मधुर बनाओ। और अगर किसी के मधुर व्यवहार को देखो तो उस पर एकदम विश्वास न कर लो। यह समझे रहो कि वह अपने स्वार्थ के लिये ऐसा कर रहा है, इसलिये मीठा बोल रहा है। किसी के शब्दों पर हमें विश्वास नहीं कर लेना है। इस सिद्धान्त को सदा याद रखना है कि कोई भी व्यक्ति किसी के लिये कुछ नहीं कर सकता, सब अपने स्वार्थ के लिये ही वर्क करते हैं। यह जो तमाम लोग संसार में कहा करते हैं, मैं आपकी हेल्प कर दूँ और कहते ही नहीं करते भी हैं। होशियार रहो वह कोई बड़ा भारी स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। कोई भी लड़की किसी भी लड़के को किसी भी प्रकार के शारीरिक कॉन्टैक्ट की फ्रीडम न दे। सावधान रहे। जैसे आप दाँत काढ़ रहे हैं, मजाक कर रहे हैं, बातें बना रहे हैं, कंधे पर हाथ रख दिया। यह तो हमारा भैया है, चाचा का लड़का, ताऊ का लड़का। तुरंत संभल जाओ। शरीर से दूर और आँखों से संभलकर व्यवहार करो। बाकी टाइम में संसारी व्यवहार करो, संसार का काम करो। इस समय के लिये भी एक प्रमुख आदेश यह है कि अपने गुरु और इष्टदेव को सदा अपने साथ रियलाइज करो।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, नवम्बर 1998
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- यंत्र एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है एक उपकरण। यह एक रहस्यमय आरेख माना जाता है जिसका उपयोग प्राचीन काल से ध्यान और मानसिक शांति पाने के लिए एक सहायता के रूप में किया जाता रहा है। यंत्र न केवल देवताओं से जुड़े होते हैं बल्कि जन्म कुंडली के अनुसार शासित ग्रह के लिए भी होते हैं। यंत्र प्रार्थना की तीव्रता को बढ़ाने में मदद करता है। यंत्र की सहायता से प्रार्थना करने से ब्रह्मांड से लाभकारी ऊर्जा को आकर्षित करने और जीवन में नकारात्मक ऊर्जाओं के दुष्प्रभाव को कम करने में मदद मिलती है। आज हम महालक्ष्मी यंत्र के बारे में जानेंगे।महालक्ष्मी यंत्रश्वेत हाथियों के द्वारा स्वर्ण कलश से स्नान करती हूई कमलासन पर विराजमान देवी महालक्ष्मी के पूजन से वैभव और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। यदि घर में हमेशा दरिद्रता बनी रहती है और किस्मत साथ नहीं दे रही है तो अपने घर या ऑफिस में श्री महालक्ष्मी यंत्र की स्थापना करें।। इस यंत्र को सर्व सिद्धिदाता, धनदाता या श्रीदाता कहा जाता है। मान्यता है कि इस यंत्र को स्थापित करने से देवी कमला की प्राप्ति होती है और जीवनभर के सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती हैं। वहीं इस यंत्र से जुड़ी एक पौराणिक कथा भी है, जिसके अनुसार एक बार लक्ष्मी जी पृथ्वी से बैकुंठ धाम चली गईं, इससे पृथ्वी पर संकट आ गया। तब महर्षि वशिष्ठ ने महालक्ष्मी को धरती पर वापस लाने के लिए और प्राणियों के कल्याण के लिए श्री महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित किया और उसकी साधना की। इस यंत्र की साधना से लक्ष्मी जी पृथ्वी पर प्रकट हो गईं।महालक्ष्मी यंत्र के लाभ-धन संबंधी सारी समस्याओं से निजात पाने के लिए श्री महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित करें।-यदि कर्ज है और उसे चुका नहीं पा रहे हैं तो अपने कार्यस्थल पर इस यंत्र को प्रतिष्ठित करना चाहिए।-धन के साथ -साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से निजात पाने के लिए भी इस यंत्र को रोगी के कमरे में स्थापित कर सकते हंै। इससे मरीज के स्वास्थ्य में जल्द ही सुधार होने लगता हैं।-इस यंत्र को स्थापित करने से यदि व्यापार में घाटा हो रहा है तो खत्म होने के आसार हैं।-श्री महालक्ष्मी यंत्र को प्रतिष्ठित करने से लक्ष्मी मां का आशीर्वाद प्राप्त होता है और वह स्थाईरूप से निवास करने लगती हैं।ध्यान रखने योग्य बातेंश्री महालक्ष्मी यंत्र की आकृति विचित्र होती हैं और इस यंत्र में जो भी अंक या आकृतियां बनी होती हैं उनका संबंध किसी न किसी देवी-देवता से जरूर होता है। इस यंत्र को श्रीयंत्र के पास रखने से सभी कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण हो जाते हैं। इस यंत्र को खरीदते वक्त ध्यान रखना चाहिए कि यह विधिवत बनाया गया हो और प्राण प्रतिष्ठित हो। प्राण प्रतिष्ठा करवाए बिना इस यंत्र का विशेष लाभ प्राप्त नहीं होता है। श्री महालक्ष्मी यंत्र को खरीदने के पश्चात किसी अनुभवी ज्योतिषी द्वारा अभिमंत्रित करके उसे घर की सही दिशा में स्थापित करना चाहिए। अभ्यस्त और सक्रिय महालक्ष्मी यंत्र को शुक्रवार के दिन स्थापित करना चाहिए।स्थापना विधिश्री महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित करने के लिए कार्तिक अमावस्य़ा का दिन शुभ माना जाता है। यंत्र स्थापना से पूर्व सबसे पहले प्रात:काल उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर इस यंत्र को पूजन स्थल पर रखकर इस यंत्र के आगे दीपक जलाएं और इस पर फूल अर्पित करें। तत्पश्चात इस यंत्र को गौमूत्र, गंगाजल और कच्चे दूध से शुद्ध करें और 11 या 21 बार "ऊं ह्रीं ह्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं फट्।।" बीज मंत्र का जाप करें। तत्पश्चात इस यंत्र को स्थापित करने के बाद इसे नियमित रूप से धोकर दीप-धूप जलाकर ऊं महालक्ष्मयै नम: मंत्र का 11 बार जाप करें और लक्ष्मी माता से प्रार्थना करे वह आप पर कृपा बरसाती रहें। इस यंत्र को स्थापित करने के पश्चात इसे नियमित रूप से धोकर इसकी पूजा करें ताकि इसका प्रभाव कम ना हो। यदि आप इस यंत्र को बटुए या गले में धारण करते हैं तो स्नानादि के बाद अपने हाथ में यंत्र को लेकर उपरोक्त विधिपूर्वक इसका पूजन करें। यदि आप इस यंत्र से अत्यधिक फल प्राप्त करना चाहते हैं तो महालक्ष्मी यंत्र की रचना चांदी, सोने और तांबे के पत्र पर करवा सकते हैं।श्री महालत्र्मी यंत्र का बीज मंत्र - ओम श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नम:॥
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 168
(साधना मार्ग में कुछ सावधानियों का पालन अति आवश्यक होता है, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक समुदाय को अनेक अवसरों पर बहुत सी सावधानियों के विषय में समझाया है। निम्न उद्धरण में भी उन्होंने एक अवसर पर इस ओर साधक समुदाय को संबोधित किया था। इसका दूसरा भाग कल प्रकाशित होगा..)
..पहली बात यह है कि आपको यह शरीर तो रखना है इसलिये इस अज्ञान को अपने पास न आने दीजिये कि यह शरीर अभी तो ठीक चल रहा है इसलिये इसका कोई मूल्य नहीं है। आम तौर से युवा लड़के युवा लड़कियों को हिदायत दी जा रही है क्योंकि ये लोग बहुत गड़बड़ करते हैं, खाने पीने में असावधानी बरतना शान समझते हैं। समय से नहीं खाया। एक रोटी खा ली तो एक ही सही और चार खा ली तो 4 ही सही। पूछिये ऐसा क्यों कर रहे हो? काम तो चल रहा है। यह जो काम चल रहा है यह कुछ ही सालों में विराट रूप धारण करके रोग बनके आयेगा, फिर कृपालु की बात याद आयेगी।
इसलिए पहले से ही होशियार हो जाओ। शरीर की जो आवश्यकतायें हैं उनको कायदे से पूरा करते रहो, इससे जो युवावस्था में बुढ़ापा आ जाता है वह न आयेगा। जब शरीर खराब हो जाता है तो न तो संसारी काम ही ठीक ढंग से हो पाता है और न स्प्रिचुअल साधना ही हो पाती है। इसलिये हमारे शास्त्र वेदों ने जहाँ संसार को मिथ्या कहा वहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से यह हिदायत भी की - 'युक्ताहार विहारस्य......'।
आहार विहार सब युक्त होना चाहिये, शरीर को जिन जिन तत्वों की आवश्यकता है वे सब आपके खाने में होने चाहिये विटामिन ए, बी, सी, डी सब होने चाहिये। जबान के लिये मत खाओ, शरीर के लिये खाओ। खाने के लिये जिन्दा मत रहो, जिन्दा रहने के लिये खाओ। यह पहला आदेश है, इसको स्वर्णाक्षरों में लिख लो। लेकिन अगर आपने कहा कि उससे क्या होता है तो चल जायेगा पता थोड़े ही दिनों में कि क्या होता है, नेचर किसी को बख्शेगी नहीं। दण्ड आपको भोगना ही पड़ेगा। शरीर के खाने पीने के मामले में आप उदासीन हैं, इसका मतलब है आप रसनेन्द्रिय की बीमारियों से उदासीन हैं। यह देह बड़ा भारी साधन है, भोग का भी और योग का भी, इससे उदासीन का मतलब है आप संसार और परमार्थ दोनों से उदासीन हैं। भले ही इस समय आप कहते रहे हैं कि चल रहा है, इसकी ओर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है।
इस समय यह चल रहा है इसलिये कि मशीन नई है। जब पुर्जे भीतर से बिगड़ जायेंगे तो बीमारी का रूप धारण करके वे सामने आयेंगे। फिर केवल पछताना ही रह जायेगा। फिर इकोनॉमिक, फिजीकल और मेन्टल सब तरफ का आपका लॉस (हानि) होगा और हमेशा परेशान रहोगे। अतः खान-पान ठीक हो, इसकी सबसे पहली हिदायत है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, नवम्बर 1998०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (6)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 6
०० 'जगदगुरुत्तम-दिवस तथा श्री कृपालु जी महाराज को प्राप्त जगदगुरुत्तम उपाधि'
आज ही सन 1957 में मकर संक्रांति के दिन श्री कृपालु जी महाराज को भारतवर्ष की सर्वमान्य 500 शास्त्रज्ञ विद्वानों की एकमात्र सभा काशी विद्वत परिषद द्वारा पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया गया था । इस दिन को ही 'जगदगुरुत्तम-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आप सभी को इस अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं।
०० जगद्गुरु की मौलिक उपाधि क्यों?
'जगद्गुरु' शब्द बहुत पुराना जो कि भगवान श्रीकृष्ण के लिए शास्त्रों में प्रयुक्त हुआ है । श्रीकृष्ण को 'कृष्णं वंदे जगद्गुरुं' कहकर पुकारा गया है । इस प्रकार आदि जगद्गुरु तो श्रीकृष्ण ही हैं लेकिन कलियुग में बढ़ रहे पाखंड एवं ढोंग तथा अंधविश्वास के चलते उनके निर्मूलन के लिए एक ऐसी पद्धति के आविष्कार की आवश्यकता अनुभव की गई जिसके अंतर्गत यह सुनिश्चित किया गया कि किसी ऐसे महापुरुष को जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की जाय जिसे समस्त शास्त्रों-वेदों का सम्यक ज्ञान हो और वह भगवत्प्राप्त भी हो ताकि इस पाखंड के वातावरण में भी जिज्ञासु लोग बिना किसी शंका के उनके पास जाकर अपनी जिज्ञासा शांत कर सकें । इस प्रकार आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी प्रथम मौलिक जगद्गुरु हुए जिन्हें आज से 2500 वर्ष पूर्व यह उपाधि प्रदान की गई । उन्होंने अद्वैतवाद का प्रचार किया और संसार में फैले अंधविश्वास, अज्ञान आदि का निर्मूलन प्रारम्भ किया ।
०० अब तक के पाँच मौलिक जगद्गुरु
अब तक संसार में केवल 5 मौलिक जगद्गुरु हुए हैं । आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी, श्री रामानुजाचार्य जी, श्री निम्बार्काचार्य जी, श्री माध्वाचार्य जी एवं जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज । जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के अलावा पूर्ववर्ती अन्य मौलिक जगदगुरुओं ने किसी न किसी विशेष मत का प्रचार किया परंतु श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे एकमात्र जगद्गुरु हुए हैं जिन्होंने किसी भी विशेष मत का प्रचार किये बिना ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगदगुरुओं एवं अन्य सभी महापुरुषों के सिद्धान्तों का सर्वप्रथम समन्वय किया । जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को प्रदान की गई उपाधि की यह विशेषता है कि उन्हें अब तक हुये सभी मौलिक जगदगुरुओं में भी उत्तम अर्थात जगदगुरुत्तम के रूप में स्वीकार किया गया है। काशी विद्वत परिषद द्वारा प्रदत्त पद्याप्रसूनोपहार के श्लोक संख्या 5 में उनकी अर्चना में यह अंकित है ।
०० जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज : विशेषता
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का आविर्भाव सन 1922 की शरद पूर्णिमा की मध्यरात्रि में इलाहाबाद के निकट कुंडा तहसील के मनगढ़ नामक छोटे से ग्राम में हुआ था । बचपन से ही अलौकिक ज्ञान एवं भक्तिरस के साक्षात स्वरुप श्री कृपालु जी को 14 जनवरी 1957 को मकर संक्रांति के दिन भारतवर्ष के तत्कालीन 500 शास्त्रज्ञ एवं मूर्धन्य विद्वानों की एकमात्र सभा काशी विद्वत परिषत द्वारा पंचम मौलिक जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई । इनके पूर्व अन्य सभी जगद्गुरु शास्त्रार्थ में विजय कर जगद्गुरु हुए किन्तु श्री कृपालु जी प्रथम जगद्गुरु हैं जिन्हे बिना शास्त्रार्थ के ही सर्वसम्मति से यह उपाधि दी गई । उनके ज्ञान और अगाध प्रेम के अद्भुत समन्वय स्वरुप के दर्शन कर विद्वत परिषत द्वारा उन्हें कुछ अन्य उपाधियाँ भी दी गई । इनमें प्रमुख हैं निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य एवं भक्तियोगरसावतार की उपाधि । उनका भक्तियोग तत्वदर्शन यह है जीव भगवान श्रीकृष्ण का नित्य दास है और अनंत जन्मों से आनंद की खोज में व्याकुल उसे इसकी प्राप्ति भगवान को पाकर ही मिलेगी । श्रीराधाकृष्ण का माधुर्यभाव युक्त गोपीप्रेम प्राप्त करना ही जीव की सर्वोच्च गति है, यह प्रेम गुरु सेवा एवं गुरुकृपा के द्वारा ही प्राप्त होनी है ।
भारत को आध्यात्मिक गुरु के पद पर आसीन करने के लिये हमारे भारत में अनेक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष हुये, जिन्होंने वेदों, शास्त्रों के ज्ञान को सुरक्षित रखा। किन्तु वर्तमान समय में अनेक पाखण्डयुक्त मत चल गये। जो वेद शास्त्र का नाम तक नहीं जानते, ऐसे दम्भी गुरु जनता को गुमराह कर रहे हैं। वैदिक मान्यतायें लुप्त हो गई हैं। शास्त्रों, वेदों के अर्थ का अनर्थ हो रहा है। अतः लोग अज्ञानान्धकार में डूबते जा रहे हैं।
इस समय जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा दिये गये असंख्य प्रवचन जो आज भी उनकी वाणी में उपलब्ध हैं, उनके द्वारा वेद, शास्त्र सम्मत साहित्य, ऋषि-मुनियों की परंपरा को पुनर्जीवन प्रदान कर रहा है। शास्त्रों, वेदों के गूढ़तम सिद्धान्तों को भी सही रुप में अत्यधिक सरल, सरस भाषा में प्रकट करके एवं उसे जनसाधारण तक पहुँचाकर उन्होंने विश्व का महान उपकार किया है। उन्होंने भारतीय वैदिक संस्कृति को सदा सदा के लिये गौरवान्वित कर दिया है एवं भारत जिन कारणों से विश्व गुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है, उसके मूलाधार रुप में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने सनातन वैदिक धर्म की प्रतिष्ठापना की है।
उनके द्वारा उद्भूत ज्ञान 'कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' के नाम से जाना जाता है। जो वेदों, शास्त्रों, पुराणों, गीता, भागवत, रामायण तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार है। जो जाति-पाँति, देश-काल की सीमा से परे है। सभी धर्मों के अनुयायियों के लिये मान्य है, सार्वभौमिक है। आज के युग के अनुरुप है। सर्वग्राह्य है। सनातन है। समन्वयात्मक सिद्धान्त है। सभी मतों, सभी ग्रंथों, सभी आचार्यों के परस्पर विरोधाभाषी सिद्धान्तों का समन्वय है। निखिलदर्शनों का समन्वय है। भौतिकवाद, आध्यात्मवाद का समन्वय है, जो आज के युग की माँग है। विश्व शांति और विश्व बन्धुत्व की भावनाओं को दृढ़ करते हुये शाश्वत शान्ति और सुख का सर्वसुगम सरल मार्ग है।
ऐसे जगद्वन्द्य जगदोद्धारक 'कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' का सम्पूर्ण जगत चिरकाल तक आभारी रहेगा।
०० सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (5)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 5
०० 'भक्तियोगरसावतार'
शरद पूर्णिमा की पावन रात्रि में आविर्भूत श्री कृपालु जी महाराज पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् तो हैं ही, वे स्वयं भक्तिरस के अवतार हैं। काशी विद्वत् परिषद के द्वारा उन्हें प्रदान की गई उपाधियों में एक उपाधि 'भक्तियोगरसावतार' भी है। कलिकाल के प्रभाव से जनमानस भगवन्नाम-संकीर्तन के माहात्म्य को भूलता जा रहा था। दूसरी ओर नाना प्रकार के मत, नाना प्रकार के साधन समाज में प्रचलित होने लगे जिससे लोग दिग्भ्रमित होने लगे। ऐसे समय में ऐसे ही किसी अवतार की आवश्यकता थी जो लोगों के हृदय में पुनः भक्ति की ज्योति जगाये और आध्यात्मिक रुप से पुनर्जीवित करे। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज वही अवतार हैं जिन्होंने कलिकाल में भक्ति की प्राधान्यता और वास्तविकता स्थापित की।
उनके रोम रोम से भक्तिरस की धारा प्रवाहित होती थी। जब वे 16 साल के थे, तब से ही उनका भक्तिमय व्यक्तित्त्व अधिकारी जनों के समक्ष प्रकाशित होने लगा था। वे अधिकारीजन इन्हें सदा श्रीराधाकृष्णप्रेम में भवाविष्ट पाते। बाह्य जगत के ज्ञान से शून्य इनके शरीर में भक्ति की सर्वोच्च अवस्था महाभाव के लक्षण रह-रहकर प्रकट होते जिसके दर्शन कर हृदय में अदभुत रोमांच भर उठता था। ऐसी प्रेममय दशा देखकर अनायास ही प्रेमावतार श्री गौरांग महाप्रभु जी की याद आती थी जिन्होंने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी जी को वचन दिया था -
आरो दुइ जन्म एइ संकीर्तनारम्भे, हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे..(चैतन्य भागवत)
एइ अवतारे भगवत रुप धरि, कीर्तन करिया सर्व शक्ति परचारि..संकीर्तने पूर्ण हइव सकल संसार, घरे घरे हइव प्रेम भक्ति परचार..(चैतन्य भागवत)
लगता था कि वही गौरांग पुनः अपने जीवों को प्रेम का दान करने आ गए हैं। उत्तर प्रदेश के मनगढ़ नामक ग्राम में परम सौभाग्यवती माँ भगवती की गोद में शरद पूर्णिमा की रात्रि में जन्में श्री कृपालु जी का बालपन अनोखी लीलाओं से भरा है। उनकी बाललीलाओं को देखकर ऐसा लगता था जैसे कि बालकृष्ण ही साक्षात् लीला कर रहे हैं। जगद्गुरु बनने से पूर्व अक्सर ही भवाविष्ट अवस्था में जंगल की ओर निकल पड़ते थे। प्रेमानंद आस्वादन में निमग्न वे चित्रकूट के पावन वनों में महीनों-महीनों विचरा करते, उनकी उस दशा का यथार्थ वर्णन लेखनी के द्वारा संभव नहीं है। कभी वहाँ वे प्रिया-प्रियतम के रूपदर्शन में निमज्जित रहते तो कभी उनके अन्तर्धान से परम व्याकुल होकर करुणापूर्वक चीत्कार करते। जिन्होंने भी जब भी इन्हें उन जंगलों में देखा तो यही देखा कि कभी ये भूमि पर मूर्च्छित पड़े हैं, कभी करुणक्रन्दन कर रहे हैं तो कभी राहों पर बिखरे कंकण और काँटों पर भी प्रिया-प्रियतम के विरह में समाधिस्थ हैं।
चित्रकूट और शरभंग आश्रम तथा वृन्दावन के निकट के जंगलों में इनका यह रुप जंगल के पेड़-पौधों और जंगली जीव-जंतुओं के हृदय में भी प्रेम का संचार कर देता था। उनकी इस अलौकिक दशा का जब लोगों को पता लगना शुरू हुआ तो उनका वहाँ पहुँचना प्रारम्भ हो गया. उन्होंने जैसे तैसे इन्हें मनाकर अपने घरों में लाने की कोशिश की किन्तु ये पुनः जंगलों की ओर ही निकल पड़ते थे और पुनः-पुनः उसी समाधिस्थ अवस्था में चले जाते, हुँकार भरते, उच्च अट्टहास करते, अविरल अश्रुपात करते। यद्यपि वे इस अवतार में जीव-कल्याण के उद्देश्य को लेकर आये थे अतएव भक्तों के द्वारा इस ओर ध्यानाकृष्ट करने पर वे आम लोगों के संपर्क में आने लगे। जंगलों से आमजन के मध्य में आने के पश्चात् इन्होंने साहित्य एवं आयुर्वेद का अध्ययन किया। इस समय भी वे कभी 7 दिन, कभी 15 दिन, कभी एक महीने तो कभी 4-4 महीने का अखंड संकीर्तन कराते। भावविष्ट जब ये राधाकृष्ण की लीलास्थली वृन्दावन पहुँचे थे, तब वहाँ पहुँचते ही प्रेमातिरेक में उस पावन ब्रजरज में लोटपोट होकर बिलखने लगे। कभी उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते, कभी लीलाविष्ट हो जाते और कभी सुध खोकर गिर पड़ते। राधा गोविन्द नामों और हरि बोल का संकीर्तन उस वक्त अद्भुत रस का संचार कर देता था।
यह तो ऐसे अलौकिक महापुरुष की उस अलौकिक अवस्था का किंचितमात्र ही वर्णन है। वस्तुतः वह लेखनी का विषय ही नहीं है, न उसके वर्णन की पात्रता किसी में हो सकती है। काशी विद्वत् परिषत् के 500 मूर्धन्य विद्वानों के समक्ष अद्वितीय रुप माधुरी, काले घुँघराले केशों और गौर वर्ण के ये कृपालु जब उपस्थित हुए तो इनके रोम रोम से भक्तिरस की बहती धारा को देखकर मंत्रमुग्ध विद्वत्सभा ने एकमत होकर यह स्वीकार किया कि ये तो स्वयं भक्ति महादेवी ही इनके रुप में साक्षात् विराजित है। वहाँ अपने व्याख्यानों में आपने समस्त वेदों-शास्त्रों और अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार बताते हुए कलियुग में एकमात्र भक्ति को ही जीव-कल्याण का साधन सिद्ध किया, आपको विद्वत् परिषत् की ओर से 'भक्तियोगरसावतार' की उपाधि प्रदान की गई।
जगद्गुरु बनने के उपरान्त आपने राधाकृष्ण की उस माधुर्यमयी भक्ति के सिद्धांत का जन-जन में प्रचार किया। कलियुग के इस चरण में जीवों को भक्ति के लिए तत्वज्ञान की परम अनिवार्यता को जानकर आपने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों और अन्यान्य धर्मग्रंथों के वास्तविक रहस्य को संसार के मध्य बारम्बार प्रकट किया। वेदों के 'आवृत्ति रसकृदुपदेशात्' और गौरांग महाप्रभु के 'सिद्धांत बलिया चित्ते न कर आलस' की उक्तियों को लोगों की बुद्धि में भरकर बार बार महापुरुषों के सिद्धांतों को सुनने पर जोर दिया।
कलियुग में संसार के लोगों को गृहस्थ में रहकर ही भक्ति करते हुए सरलता से भगवत्प्रेमप्राप्ति का साधन बतलाते हुए उनकी साधना और भगवान्नुराग को बढ़ाने के लिए हजारों ब्रजरस से ओतप्रोत संकीर्तन एवं पदों की रचना की जिसे सुनकर और गाकर हृदय में बरबस ही प्रेमरस की धार उमड़ पड़ती है और मन राधाकृष्ण की उस रूपमाधुरी पर मुग्ध होता जाता है। श्री कृपालु जी का रुप ही ऐसा है जिसे कोई एक बार देख ले तो उसी के द्वारा वह अपने पुराने भक्ति-संस्कारों को पुनः प्राप्त कर लेता था।
अपनी जन्मभूमि मनगढ़ को आपने 'भक्तिधाम' के रुप में प्रतिष्ठित किया। भविष्य में युगों-युगों तक भक्ति की ध्वजा फहराने वाला मनगढ़ का 'भक्ति मंदिर' और वृन्दावन का 'प्रेम मंदिर' इस विश्व को अनुपम भेंट है। प्रेम मंदिर के स्वागत द्वार पर आपके द्वारा रची गई पंक्ति 'प्रेमाधीन ब्रम्ह श्याम वेद ने बताया, याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया' के द्वारा भी आपने भक्ति को सर्वोच्च सिद्ध किया। मनगढ़ में स्थित 'भक्ति भवन' और वृन्दावन का निर्माणाधीन 'प्रेम भवन' ऐसे ऐतिहासिक भवन हैं जो भविष्य में जीवों को भक्तिपथ की साधना का सन्देश देंगे। इस मनगढ़ धाम में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा सन् 1966 से साधना शिविर का आयोजन होता रहा है।
उनके 'राधा गोविन्द गीत' से....
मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे,सोते जागते हो राधे प्रेम अगाधे..मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे,नित ही 'कृपालु' रहें और कृपा दें..
ऐसी दिव्य विभूति, भक्तियोगरसावतार के श्रीचरणों में बारम्बार अभिनन्दन है।
०० सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
पौष अमावस्या 13 जनवरी को है। हिन्दू पंचांग के अनुसार, पौष अमावस्या पौष माह कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि होती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि के दिन पितरों के निमित्त उपाय किये जाते हैं। इस दिन दान-स्नान का विशेष महत्व है। ऐसा करने से पुण्यफल की प्राप्ति होती है। पितरों की आत्मा की शांति के लिए इस दिन कुछ विशेष उपाय करने चाहिए।
अमावस्या के दिन अपने पितरों का ध्यान करते हुए पीपल के पेड़ पर गंगाजल, काले तिल, चीनी, चावल, जल तथा पुष्प अर्पित करें और ? पितृभ्य नम: मंत्र का जाप करें। इससे आप पर पितरों का अशीर्वाद बना रहेगा।
पितरों के निमित्त भूखे लोगों में भोजन के रूप में मीठे चावल जरूर बांटें। साथ ही अमावस्या के दिन चीटियों को शक्कर मिला हुआ आटा खिलाएं। ऐसा करने से आपको सभी पापों से मुक्ति मिल जाएगी।
इस दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद आटे की गोलियां बनाएं और किसी तालाब या नदी के किनारे जाकर ये आटे की गोलियां मछलियों को खिला दें। ऐसा करने से करने से आपकी सभी परेशानियों का अंत होगा।
यदि आप कालसर्प दोष से पीडि़त है तो आप अमावस्या के दिन चांदी के नाग नागिन की पूजा करें और इसे बहते जल में प्रवाहित कर दें। आपकी कुंडली से काल सर्प दोष दूर हो जाएगा।
इस दिन पितरों का आशीर्वाद पाने के लिए ब्राह्मणों को घर बुलाएं और आदर के साथ उन्हें भोजन कराएं और दक्षिणा देकर उन्हें विदा करें। ऐसा करने से आपकी पितृ प्रसन्न होंगे।
पितरों की आत्मा की शांति के लिए पौष अमावस्या के दिन गाय, कुते और कौए को भोजन अवश्य कराना चाहिए। अमावस्या पर काले कुत्ते को तेल से चुपड़ी रोटी खिलाने से शत्रु का भय दूर हो जाता है और शत्रुओं पर विजय मिलती है।
अमावस्या के दिन शाम के समय घर के ईशान कोण में पूजा वाले स्थान पर गाय के घी का दीपक जलाएं। ऐसा करने से आपको सभी सुखों की प्राप्ति होगी। अमावस्या के दिन तुलसी की परिक्रमा अवश्य करें। -
सूर्य के उत्तरायण होने और धनु राशि से मकर राशि में संक्रांति करने के पर्व को मकर संक्रांति कहा जाता है। यह शुभ पर्व हर वर्ष 14 जनवरी को मनाया जाता है इस वर्ष भी मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही मनाई जाएगी। मकर संक्रांति पर दान स्नान और सूर्य उपासना का बहुत महत्व माना जाता है। यह नई उमंग और उल्लास के साथ नई ऋतु के आगमन का त्योहार है। माना जाता है कि इस दिन किए गए कार्यों का हमें कई हजार गुना ज्यादा फल प्राप्त होता है। मां लक्ष्मी को प्रसन्न करके सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए आप मकर संक्रांति के दिन कुछ उपाय कर सकते हैं। इसी में से एक उपाय है जो धन-धान्य, लक्ष्मी और सफलता के लिए अचूक माना जाता है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार जानते हैं मकर संक्रांति पर सुख-समृद्धि लाने का उपाय----
संक्रांति की सुबह को स्नान करने के पश्चात शुभ मुहूर्त में 14 स्वच्छ कौडिय़ां लें। अब एक पात्र में दूध लेकर उसमें थोडा सा केसर मिलाएं, अब इस दूध में कौडिय़ों को स्नान करवाएं। दूध से कौडिय़ा निकालने के बाद उसे गंगाजल से शुद्ध करें और पूजा के स्वच्छ पात्र में रख दें।
इसके बाद पूजा घर में मां महालक्ष्मी के सामने दो दीपक, एक शुद्ध घी का और दूसरा तिल के तेल का दीपक प्रज्वलित करें। तेल का दीपक बांयी तरफ और घी के दीपक को दांयी ओर रखें। इसके बाद कौडिय़ों को सिद्ध करने के लिए 14 बार इस मंत्र का जाप करें।
इसके बाद संक्रांति की पूजा यानि सूर्य पूजा और दान आदि का कार्य भी पूर्ण कर लिजिए।
अब 12 बजे के समय उन कौडिय़ों को उठाकर अपने घर के मुख्य धन स्थान और अलग-अलग महत्वपूर्ण स्थानों पर रख दीजिए। इन कौंडिय़ों को पर्स, अलमारी, देवस्थान, किचन, भंडार घर में और काम करने की मेज पर रख दें।।
यह कार्य करने के बाद दीपक का स्थान बदल दें यानि दांयी तरफ वाले दीपक को बांयी ओर और बांयी ओर वाले दीपक को दांयी ओर कर दीजिए। ध्यान रहे कि दीपक जलता रहे।
तिल के तेल का जो दीपक है उसे शाम के समय अपने घर की दहलीज पर और घी का दीपक तुलसी में रख दीजिए। यह उपाय सुख, समृद्धि, धन, धान्य, लक्ष्मी और सफलता के लिए बहुत ही कारगर और अचूक माना गया है।
यह पूरा उपाय मकर संक्रांति के दिन ही करना है। -
भगवान सूर्य 14 जनवरी की सुबह में 08 बजकर 15 मिनट पर दक्षिणायन की यात्रा समाप्त करके उत्तरायण की राशि मकर में प्रवेश करने वाले हैं जिसके फलस्वरूप देवताओं के दिन का शुभारंभ हो जाएगा। इस दिन से सभी तरह के मांगलिक कार्य, यज्ञोपवीत, मुंडन, शादी-विवाह, गृहप्रवेश आदि आरम्भ हो जाएंगे।
प्रयाग में तीर्थों का कुंभ
माघ के महीने में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश काल के समय जब सभी देवों के दिन का शुभारंभ होता है तो तीनों लोकों में प्रतिष्ठित गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम तट त्रिवेणी पर साठ हजार तीर्थ और साठ करोड़ नदियां, सभी देवी-देवता, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर आदि तीर्थराज प्रयाग में एकत्रित होकर गंगा-यमुना-सरस्वती के पावन संगम तट पर स्नान, जप-तप, और दान-पुण्य कर अपना जीवन धन्य करते हैं। तभी इसे तीर्थों का कुंभ भी कहा जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार यहाँ की एक माह की तपस्या परलोक में एक कल्प (आठ अरब चौसठ करोड़ वर्ष) तक निवास का अवसर देती है इसीलिए यहां भक्तजन कल्पवास भी करते हैं।
रामचरित मानस में प्रयाग तीर्थ की महिमा
प्रयाग तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है कि
माघ मकर रबिगत जब होई। तीरथपति आवहिं सब कोई।
देव दनुज किन्नर नर श्रेंणी। सादर मज्जहिं सकल त्रिवेंणी।
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज-निज आश्रम जाहीं।।
--अर्थात- माघ माह में मकर संक्रांति के पुण्य अवसर पर सभी तीर्थों के राजा प्रयाग के पावन संगम तट पर मास पर्यंत वास करते हुए स्नान-ध्यान तपादि करते हैं। वैसे तो प्राणी इस माह में किसी भी तीर्थ, नदी और समुद्र में स्नान कर दान-पुण्य करके त्रिबिध तापों से मुक्ति पा सकता है किन्तु, प्रयागतीर्थ के मध्य देव संगम का फल सभी कष्टों से मुक्ति दिलाकर मोक्ष देने में सक्षम है। यहाँ का एक माह का कल्पवास करने से जीवात्मा एक कल्प तक जीवन-मरण के बंधन से मुक्त रहता है। इस माह अपने पितरों को अघ्र्य देने और श्राद्ध-तर्पण आदि करने से पितृ श्राप से भी मुक्ति मिल जाती है।
तीर्थराज प्रयाग का सुरक्षा घेरा
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार प्रयाग तीर्थ में आठ हजार श्रेष्ट धनुर्र्धारी हर समय मां गंगा की रक्षा करते हैं। सूर्यदेव अपनी प्रियपुत्री यमुना की रक्षा करते हैं। देवराज इंद्र प्रयाग तीर्थ की रक्षा, शिव अक्षय वट की और विष्णु मंडल की रक्षा करते हैं। इस अवधि में लौकिक-पारलौकिक शक्तियां पृथ्वी पर एकत्रित होकर संगम तट पर अनेकानेक रूपों में वास करती हैं परिणाम स्वरुप यहां जल का स्तर बढ़ जाता है। यह अद्भुत संयोग जीवात्माओं को अपने किये गए शुभ-अशुभ कर्मों का प्रायश्चित करने का सुअवसर देता है।
कर्मविपाक संहिता में सूर्य की महिमा
सूर्य के उत्तरायण यात्रा के फलस्वरूप ही तीर्थराज प्रयाग में सभी तीर्थों के महाकुंभ का संयोग बनता है। सूर्य के विषय में भी कहा गया है कि, ब्रह्मा विष्णु: शिव: शक्ति: देव देवो मुनीश्वरा, ध्यायन्ति भास्करं देवं शाक्षीभूतं जगत्त्रये। अर्थात- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, देवता, योगी ऋषि- मुनि आदि तीनों लोकों के शाक्षी भूत भगवान सूर्य का ही ध्यान करते हैं। जीवात्मा की जन्मकुंडली में भी सूर्य की स्थिति का गंभीरता से विचार किया जाता है क्योंकि, अकेले सूर्य ही बलवान हों तो सात ग्रहों का दोष शमन कर देते हैं, सप्त दोषं रबिर्र हन्ति शेषादि उत्तरायणे' उत्तरायण हों तो आठ ग्रहों का दोष शमन कर देते हैं।
शास्त्र भी प्राणियों को भगवान सूर्य को जल का अघ्र्य देने की सलाह देते हैं। जो मनुष्य प्रात:काल स्नान करके सूर्य को अघ्र्य देता है उसे किसी भी प्रकार का ग्रह दोष नहीं लगता क्योंकि इनकी सहस्रों किरणों में से प्रमुख सातों किरणें सुषुम्णा, हरिकेश, विश्वकर्मा, सूर्य, रश्मि, विष्णु और सर्वबंधु, जिनका रंग बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल है हमारे शरीर को नयी उर्जा और आत्मबल प्रदान करते हुए हमारे पापों का शमन कर देती हैं। प्रात:कालीन लाल सूर्य का दर्शन करते हुए ? सूर्यदेव महाभाग ! त्र्यलोक्य तिमिराप:। मम् पूर्वकृतं पापं क्षम्यतां परमेश्वर:। यह मंत्र बोलते हुए सूर्य नमस्कार करने से जीव को पूर्वजन्म में किये हुए पापों से मुक्ति मिलती है। - जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (4)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 4
00 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्सम्प्रदायपरमाचार्य'
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज शिष्य भी नहीं बनाते और सम्प्रदाय भी नहीं चलाते। उनके अनुसार यह सब उचित नहीं है। वे कहते हैं सम्प्रदायों में परस्पर द्वेष फैलता है। वे सभी संप्रदायाचार्यों के सिद्धान्तों का पूरा समन्वय करते हैं।
उन्होंने आज तक किसी को मन्त्रदान नहीं दिया। अमेरिका में एक बहुत बड़े पादरी ने आपसे प्रश्न किया कि आपके कितने लाख शिष्य हैं? इनका उत्तर सुनकर वह आश्चर्य चकित हो गया जब इन्होंने मुस्कुराते हुये उत्तर दिया - एक भी नहीं। उसने पुन: प्रश्न किया, आप वर्तमान मूल जगदगुरु हैं और आपका एक भी शिष्य नहीं। क्या आप कान नहीं फूँकते? जगदगुरु श्री कृपालु जी ने उत्तर दिया - नहीं, मैं कान नहीं फूँकता।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कोई भी नया सम्प्रदाय नहीं चलाया। वे कहते हैं तीन सनातन तत्व हैं - ईश्वर, जीव और माया। अत: दो ही क्षेत्र हैं - ब्रम्ह श्रीकृष्ण एवं मायिक जगत। मन ही शुभाशुभ कर्म का कर्ता है। यदि मन श्रीकृष्ण में लगा दिया जाय तो श्रीकृष्ण सम्बन्धी ज्ञान (सर्वज्ञता) एवं आनंद (दिव्य अनंत) प्राप्त होगा। यदि मायिक जगत में मन लगा रहेगा तो अज्ञान एवं दु:ख ही प्राप्त होता रहेगा। अत: जो भगवान में ही शाश्वत सुख मानते हैं तदर्थ निरंतर प्रयत्नशील हैं वे 'भगवत्सम्प्रदाय' वाले हैं और जो इसके विपरीत मायिक जगत में मन को लगाते हैं वे माया के सम्प्रदाय वाले हैं, और कोई सम्प्रदाय ही नहीं, हो ही नहीं सकता। इनको श्रेय और प्रेय भी कहते हैं।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार, सत्य मार्ग यह है कि जीव एकमात्र पूर्णतम पुरुषोत्तम आनन्दकन्द सच्चिदानन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में ही अपने आपको समर्पित कर दें, एवं उन्हीं के नाम, गुण, लीलादिकों का स्मरण करता हुआ रोमांचयुक्त होकर, आनंद एवं वियोग के आँसू बहावे। अपने हृदय को द्रवीभूत कर दे, तथा मोक्ष पर्यन्त की समस्त इच्छाओं का सर्वथा त्याग कर दे। इस प्रकार बिना किये अन्त:करण शुद्धि नहीं हो सकती। सत्य एवं दया से युक्त धर्म एवं तपश्चर्या से युक्त विद्या भी भगवान की भक्ति से रहित जीव को पूर्णत: शुद्ध नहीं कर सकती।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज सम्प्रदायवाद से दूर रहकर, शिष्य परम्परा से भी दूर हटकर केवल श्रीकृष्ण की निष्काम भक्ति के लिये ही जीवों को निर्देश देते हैं। उन्होंने अपने 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ में लिखा है :::
सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान।मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान।।
कर्म, ज्ञान अरु योग को, जो भी फल श्रुति गाय।अनायास बिनु माँगे भगत, सकल फल पाय।।
सौ बातन की बात इक, धरु मुरलीधर ध्यान।बढ़वहु सेवा वासना, यह सौ ज्ञानन ज्ञान।।
यही 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदाय' है। अत: आचार्य श्री को 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य' की उपाधि से अलंकृत किया गया।
00 सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।