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जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 169
(साधना मार्ग में कुछ सावधानियों का पालन अति आवश्यक होता है, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक समुदाय को अनेक अवसरों पर बहुत सी सावधानियों के विषय में समझाया है। निम्न उद्धरण में भी उन्होंने एक अवसर पर इस ओर साधक समुदाय को संबोधित किया था। कल इसका एक भाग प्रकाशित हो चुका है..)
..दूसरा आदेश है व्यवहार। एक आदेश दिया आहार के बारे में, अब दूसरा दे रहे हैं व्यवहार के बारे में। अपने व्यवहार को संसार के अनुकूल बनाओ। इसमें बहुत से लोग भूल किया करते हैं। कहते हैं अजी हमसे किसी की खुशामद नहीं होती, किसी की गुलामी नहीं होती। यह गुलामी और खुशामद होती है दो प्रकार की - एक एक्टिंग में एक फैक्ट में। हम फैक्ट में नहीं कह रहे हैं कि तुम किसी के आगे झुक जाओ। फैक्ट में तो हरि-हरिजन केवल दो के ही आगे झुकना है और संसार में केवल शब्दों का व्यवहार ही रखना है।
घर और, ऑफिस में, तमाम जगह आपको विभिन्न प्रकार के लोगों से संपर्क रखना पड़ेगा। उस संपर्क को इस प्रकार से बनाओ कि कम से कम बवाल आपके ऊपर आये। आपका जो ऑफिसर है अगर उसको एक्टिंग में अपने व्यवहार से आप खुश नहीं रख सकते तो सदा आपको परेशान करता रहेगा। अगर वह व्यवहार ठीक नहीं रख पाओगे तो उस परेशानी को आपको उठाना ही पड़ेगा। इसलिये अपने व्यवहार को मधुर बनाओ। इसके लिये एक चीज तो यह है कि कम बोलो, मीठा बोलो। वाणी का इस्तेमाल कम से कम करो। एक पॉज की अक्ल नहीं है किसी को और अपने को अधिक विद्वान मानता है और जब अधिक बोलेगा तो कहीं न कहीं गड़बड़ होगी ही और जब गड़बड़ होगी तो उसका रिएक्शन भी और वह सामने आयेगा।
इसलिए अपने घर में भी और बाहर भी कम से कम बोलो और मधुर बोलो। इससे आपके झगड़े कम हो जायेंगे, घर के भी और बाहर के भी और आपके मन में जो यह फीलिंग की बीमारी आया करती है , यह भी कम हो जायेगी, उसको कम करने की दवा बता रहे हैं, एकदम उसको समाप्त नहीं कर सकते हो। जब आपका अन्त:करण शुद्ध हो जायेगा, देहाभिमान मिट जायगा, तब एकदम बन्द होने की बात आयेगी।
अपने व्यवहार को मधुर बनाओ। और अगर किसी के मधुर व्यवहार को देखो तो उस पर एकदम विश्वास न कर लो। यह समझे रहो कि वह अपने स्वार्थ के लिये ऐसा कर रहा है, इसलिये मीठा बोल रहा है। किसी के शब्दों पर हमें विश्वास नहीं कर लेना है। इस सिद्धान्त को सदा याद रखना है कि कोई भी व्यक्ति किसी के लिये कुछ नहीं कर सकता, सब अपने स्वार्थ के लिये ही वर्क करते हैं। यह जो तमाम लोग संसार में कहा करते हैं, मैं आपकी हेल्प कर दूँ और कहते ही नहीं करते भी हैं। होशियार रहो वह कोई बड़ा भारी स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। कोई भी लड़की किसी भी लड़के को किसी भी प्रकार के शारीरिक कॉन्टैक्ट की फ्रीडम न दे। सावधान रहे। जैसे आप दाँत काढ़ रहे हैं, मजाक कर रहे हैं, बातें बना रहे हैं, कंधे पर हाथ रख दिया। यह तो हमारा भैया है, चाचा का लड़का, ताऊ का लड़का। तुरंत संभल जाओ। शरीर से दूर और आँखों से संभलकर व्यवहार करो। बाकी टाइम में संसारी व्यवहार करो, संसार का काम करो। इस समय के लिये भी एक प्रमुख आदेश यह है कि अपने गुरु और इष्टदेव को सदा अपने साथ रियलाइज करो।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, नवम्बर 1998
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
- यंत्र एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है एक उपकरण। यह एक रहस्यमय आरेख माना जाता है जिसका उपयोग प्राचीन काल से ध्यान और मानसिक शांति पाने के लिए एक सहायता के रूप में किया जाता रहा है। यंत्र न केवल देवताओं से जुड़े होते हैं बल्कि जन्म कुंडली के अनुसार शासित ग्रह के लिए भी होते हैं। यंत्र प्रार्थना की तीव्रता को बढ़ाने में मदद करता है। यंत्र की सहायता से प्रार्थना करने से ब्रह्मांड से लाभकारी ऊर्जा को आकर्षित करने और जीवन में नकारात्मक ऊर्जाओं के दुष्प्रभाव को कम करने में मदद मिलती है। आज हम महालक्ष्मी यंत्र के बारे में जानेंगे।महालक्ष्मी यंत्रश्वेत हाथियों के द्वारा स्वर्ण कलश से स्नान करती हूई कमलासन पर विराजमान देवी महालक्ष्मी के पूजन से वैभव और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। यदि घर में हमेशा दरिद्रता बनी रहती है और किस्मत साथ नहीं दे रही है तो अपने घर या ऑफिस में श्री महालक्ष्मी यंत्र की स्थापना करें।। इस यंत्र को सर्व सिद्धिदाता, धनदाता या श्रीदाता कहा जाता है। मान्यता है कि इस यंत्र को स्थापित करने से देवी कमला की प्राप्ति होती है और जीवनभर के सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती हैं। वहीं इस यंत्र से जुड़ी एक पौराणिक कथा भी है, जिसके अनुसार एक बार लक्ष्मी जी पृथ्वी से बैकुंठ धाम चली गईं, इससे पृथ्वी पर संकट आ गया। तब महर्षि वशिष्ठ ने महालक्ष्मी को धरती पर वापस लाने के लिए और प्राणियों के कल्याण के लिए श्री महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित किया और उसकी साधना की। इस यंत्र की साधना से लक्ष्मी जी पृथ्वी पर प्रकट हो गईं।महालक्ष्मी यंत्र के लाभ-धन संबंधी सारी समस्याओं से निजात पाने के लिए श्री महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित करें।-यदि कर्ज है और उसे चुका नहीं पा रहे हैं तो अपने कार्यस्थल पर इस यंत्र को प्रतिष्ठित करना चाहिए।-धन के साथ -साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से निजात पाने के लिए भी इस यंत्र को रोगी के कमरे में स्थापित कर सकते हंै। इससे मरीज के स्वास्थ्य में जल्द ही सुधार होने लगता हैं।-इस यंत्र को स्थापित करने से यदि व्यापार में घाटा हो रहा है तो खत्म होने के आसार हैं।-श्री महालक्ष्मी यंत्र को प्रतिष्ठित करने से लक्ष्मी मां का आशीर्वाद प्राप्त होता है और वह स्थाईरूप से निवास करने लगती हैं।ध्यान रखने योग्य बातेंश्री महालक्ष्मी यंत्र की आकृति विचित्र होती हैं और इस यंत्र में जो भी अंक या आकृतियां बनी होती हैं उनका संबंध किसी न किसी देवी-देवता से जरूर होता है। इस यंत्र को श्रीयंत्र के पास रखने से सभी कार्य सफलतापूर्वक पूर्ण हो जाते हैं। इस यंत्र को खरीदते वक्त ध्यान रखना चाहिए कि यह विधिवत बनाया गया हो और प्राण प्रतिष्ठित हो। प्राण प्रतिष्ठा करवाए बिना इस यंत्र का विशेष लाभ प्राप्त नहीं होता है। श्री महालक्ष्मी यंत्र को खरीदने के पश्चात किसी अनुभवी ज्योतिषी द्वारा अभिमंत्रित करके उसे घर की सही दिशा में स्थापित करना चाहिए। अभ्यस्त और सक्रिय महालक्ष्मी यंत्र को शुक्रवार के दिन स्थापित करना चाहिए।स्थापना विधिश्री महालक्ष्मी यंत्र को स्थापित करने के लिए कार्तिक अमावस्य़ा का दिन शुभ माना जाता है। यंत्र स्थापना से पूर्व सबसे पहले प्रात:काल उठकर स्नानादि से निवृत्त होकर इस यंत्र को पूजन स्थल पर रखकर इस यंत्र के आगे दीपक जलाएं और इस पर फूल अर्पित करें। तत्पश्चात इस यंत्र को गौमूत्र, गंगाजल और कच्चे दूध से शुद्ध करें और 11 या 21 बार "ऊं ह्रीं ह्रीं श्रीं ह्रीं ह्रीं फट्।।" बीज मंत्र का जाप करें। तत्पश्चात इस यंत्र को स्थापित करने के बाद इसे नियमित रूप से धोकर दीप-धूप जलाकर ऊं महालक्ष्मयै नम: मंत्र का 11 बार जाप करें और लक्ष्मी माता से प्रार्थना करे वह आप पर कृपा बरसाती रहें। इस यंत्र को स्थापित करने के पश्चात इसे नियमित रूप से धोकर इसकी पूजा करें ताकि इसका प्रभाव कम ना हो। यदि आप इस यंत्र को बटुए या गले में धारण करते हैं तो स्नानादि के बाद अपने हाथ में यंत्र को लेकर उपरोक्त विधिपूर्वक इसका पूजन करें। यदि आप इस यंत्र से अत्यधिक फल प्राप्त करना चाहते हैं तो महालक्ष्मी यंत्र की रचना चांदी, सोने और तांबे के पत्र पर करवा सकते हैं।श्री महालत्र्मी यंत्र का बीज मंत्र - ओम श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नम:॥
- जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 168
(साधना मार्ग में कुछ सावधानियों का पालन अति आवश्यक होता है, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक समुदाय को अनेक अवसरों पर बहुत सी सावधानियों के विषय में समझाया है। निम्न उद्धरण में भी उन्होंने एक अवसर पर इस ओर साधक समुदाय को संबोधित किया था। इसका दूसरा भाग कल प्रकाशित होगा..)
..पहली बात यह है कि आपको यह शरीर तो रखना है इसलिये इस अज्ञान को अपने पास न आने दीजिये कि यह शरीर अभी तो ठीक चल रहा है इसलिये इसका कोई मूल्य नहीं है। आम तौर से युवा लड़के युवा लड़कियों को हिदायत दी जा रही है क्योंकि ये लोग बहुत गड़बड़ करते हैं, खाने पीने में असावधानी बरतना शान समझते हैं। समय से नहीं खाया। एक रोटी खा ली तो एक ही सही और चार खा ली तो 4 ही सही। पूछिये ऐसा क्यों कर रहे हो? काम तो चल रहा है। यह जो काम चल रहा है यह कुछ ही सालों में विराट रूप धारण करके रोग बनके आयेगा, फिर कृपालु की बात याद आयेगी।
इसलिए पहले से ही होशियार हो जाओ। शरीर की जो आवश्यकतायें हैं उनको कायदे से पूरा करते रहो, इससे जो युवावस्था में बुढ़ापा आ जाता है वह न आयेगा। जब शरीर खराब हो जाता है तो न तो संसारी काम ही ठीक ढंग से हो पाता है और न स्प्रिचुअल साधना ही हो पाती है। इसलिये हमारे शास्त्र वेदों ने जहाँ संसार को मिथ्या कहा वहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने श्रीमुख से यह हिदायत भी की - 'युक्ताहार विहारस्य......'।
आहार विहार सब युक्त होना चाहिये, शरीर को जिन जिन तत्वों की आवश्यकता है वे सब आपके खाने में होने चाहिये विटामिन ए, बी, सी, डी सब होने चाहिये। जबान के लिये मत खाओ, शरीर के लिये खाओ। खाने के लिये जिन्दा मत रहो, जिन्दा रहने के लिये खाओ। यह पहला आदेश है, इसको स्वर्णाक्षरों में लिख लो। लेकिन अगर आपने कहा कि उससे क्या होता है तो चल जायेगा पता थोड़े ही दिनों में कि क्या होता है, नेचर किसी को बख्शेगी नहीं। दण्ड आपको भोगना ही पड़ेगा। शरीर के खाने पीने के मामले में आप उदासीन हैं, इसका मतलब है आप रसनेन्द्रिय की बीमारियों से उदासीन हैं। यह देह बड़ा भारी साधन है, भोग का भी और योग का भी, इससे उदासीन का मतलब है आप संसार और परमार्थ दोनों से उदासीन हैं। भले ही इस समय आप कहते रहे हैं कि चल रहा है, इसकी ओर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है।
इस समय यह चल रहा है इसलिये कि मशीन नई है। जब पुर्जे भीतर से बिगड़ जायेंगे तो बीमारी का रूप धारण करके वे सामने आयेंगे। फिर केवल पछताना ही रह जायेगा। फिर इकोनॉमिक, फिजीकल और मेन्टल सब तरफ का आपका लॉस (हानि) होगा और हमेशा परेशान रहोगे। अतः खान-पान ठीक हो, इसकी सबसे पहली हिदायत है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, नवम्बर 1998०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (6)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 6
०० 'जगदगुरुत्तम-दिवस तथा श्री कृपालु जी महाराज को प्राप्त जगदगुरुत्तम उपाधि'
आज ही सन 1957 में मकर संक्रांति के दिन श्री कृपालु जी महाराज को भारतवर्ष की सर्वमान्य 500 शास्त्रज्ञ विद्वानों की एकमात्र सभा काशी विद्वत परिषद द्वारा पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम की उपाधि से विभूषित किया गया था । इस दिन को ही 'जगदगुरुत्तम-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। आप सभी को इस अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं।
०० जगद्गुरु की मौलिक उपाधि क्यों?
'जगद्गुरु' शब्द बहुत पुराना जो कि भगवान श्रीकृष्ण के लिए शास्त्रों में प्रयुक्त हुआ है । श्रीकृष्ण को 'कृष्णं वंदे जगद्गुरुं' कहकर पुकारा गया है । इस प्रकार आदि जगद्गुरु तो श्रीकृष्ण ही हैं लेकिन कलियुग में बढ़ रहे पाखंड एवं ढोंग तथा अंधविश्वास के चलते उनके निर्मूलन के लिए एक ऐसी पद्धति के आविष्कार की आवश्यकता अनुभव की गई जिसके अंतर्गत यह सुनिश्चित किया गया कि किसी ऐसे महापुरुष को जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की जाय जिसे समस्त शास्त्रों-वेदों का सम्यक ज्ञान हो और वह भगवत्प्राप्त भी हो ताकि इस पाखंड के वातावरण में भी जिज्ञासु लोग बिना किसी शंका के उनके पास जाकर अपनी जिज्ञासा शांत कर सकें । इस प्रकार आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी प्रथम मौलिक जगद्गुरु हुए जिन्हें आज से 2500 वर्ष पूर्व यह उपाधि प्रदान की गई । उन्होंने अद्वैतवाद का प्रचार किया और संसार में फैले अंधविश्वास, अज्ञान आदि का निर्मूलन प्रारम्भ किया ।
०० अब तक के पाँच मौलिक जगद्गुरु
अब तक संसार में केवल 5 मौलिक जगद्गुरु हुए हैं । आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी, श्री रामानुजाचार्य जी, श्री निम्बार्काचार्य जी, श्री माध्वाचार्य जी एवं जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज । जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के अलावा पूर्ववर्ती अन्य मौलिक जगदगुरुओं ने किसी न किसी विशेष मत का प्रचार किया परंतु श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे एकमात्र जगद्गुरु हुए हैं जिन्होंने किसी भी विशेष मत का प्रचार किये बिना ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगदगुरुओं एवं अन्य सभी महापुरुषों के सिद्धान्तों का सर्वप्रथम समन्वय किया । जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को प्रदान की गई उपाधि की यह विशेषता है कि उन्हें अब तक हुये सभी मौलिक जगदगुरुओं में भी उत्तम अर्थात जगदगुरुत्तम के रूप में स्वीकार किया गया है। काशी विद्वत परिषद द्वारा प्रदत्त पद्याप्रसूनोपहार के श्लोक संख्या 5 में उनकी अर्चना में यह अंकित है ।
०० जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज : विशेषता
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज का आविर्भाव सन 1922 की शरद पूर्णिमा की मध्यरात्रि में इलाहाबाद के निकट कुंडा तहसील के मनगढ़ नामक छोटे से ग्राम में हुआ था । बचपन से ही अलौकिक ज्ञान एवं भक्तिरस के साक्षात स्वरुप श्री कृपालु जी को 14 जनवरी 1957 को मकर संक्रांति के दिन भारतवर्ष के तत्कालीन 500 शास्त्रज्ञ एवं मूर्धन्य विद्वानों की एकमात्र सभा काशी विद्वत परिषत द्वारा पंचम मौलिक जगद्गुरु की उपाधि प्रदान की गई । इनके पूर्व अन्य सभी जगद्गुरु शास्त्रार्थ में विजय कर जगद्गुरु हुए किन्तु श्री कृपालु जी प्रथम जगद्गुरु हैं जिन्हे बिना शास्त्रार्थ के ही सर्वसम्मति से यह उपाधि दी गई । उनके ज्ञान और अगाध प्रेम के अद्भुत समन्वय स्वरुप के दर्शन कर विद्वत परिषत द्वारा उन्हें कुछ अन्य उपाधियाँ भी दी गई । इनमें प्रमुख हैं निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य एवं भक्तियोगरसावतार की उपाधि । उनका भक्तियोग तत्वदर्शन यह है जीव भगवान श्रीकृष्ण का नित्य दास है और अनंत जन्मों से आनंद की खोज में व्याकुल उसे इसकी प्राप्ति भगवान को पाकर ही मिलेगी । श्रीराधाकृष्ण का माधुर्यभाव युक्त गोपीप्रेम प्राप्त करना ही जीव की सर्वोच्च गति है, यह प्रेम गुरु सेवा एवं गुरुकृपा के द्वारा ही प्राप्त होनी है ।
भारत को आध्यात्मिक गुरु के पद पर आसीन करने के लिये हमारे भारत में अनेक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न महापुरुष हुये, जिन्होंने वेदों, शास्त्रों के ज्ञान को सुरक्षित रखा। किन्तु वर्तमान समय में अनेक पाखण्डयुक्त मत चल गये। जो वेद शास्त्र का नाम तक नहीं जानते, ऐसे दम्भी गुरु जनता को गुमराह कर रहे हैं। वैदिक मान्यतायें लुप्त हो गई हैं। शास्त्रों, वेदों के अर्थ का अनर्थ हो रहा है। अतः लोग अज्ञानान्धकार में डूबते जा रहे हैं।
इस समय जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा दिये गये असंख्य प्रवचन जो आज भी उनकी वाणी में उपलब्ध हैं, उनके द्वारा वेद, शास्त्र सम्मत साहित्य, ऋषि-मुनियों की परंपरा को पुनर्जीवन प्रदान कर रहा है। शास्त्रों, वेदों के गूढ़तम सिद्धान्तों को भी सही रुप में अत्यधिक सरल, सरस भाषा में प्रकट करके एवं उसे जनसाधारण तक पहुँचाकर उन्होंने विश्व का महान उपकार किया है। उन्होंने भारतीय वैदिक संस्कृति को सदा सदा के लिये गौरवान्वित कर दिया है एवं भारत जिन कारणों से विश्व गुरु के रुप में प्रतिष्ठित रहा है, उसके मूलाधार रुप में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने सनातन वैदिक धर्म की प्रतिष्ठापना की है।
उनके द्वारा उद्भूत ज्ञान 'कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' के नाम से जाना जाता है। जो वेदों, शास्त्रों, पुराणों, गीता, भागवत, रामायण तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार है। जो जाति-पाँति, देश-काल की सीमा से परे है। सभी धर्मों के अनुयायियों के लिये मान्य है, सार्वभौमिक है। आज के युग के अनुरुप है। सर्वग्राह्य है। सनातन है। समन्वयात्मक सिद्धान्त है। सभी मतों, सभी ग्रंथों, सभी आचार्यों के परस्पर विरोधाभाषी सिद्धान्तों का समन्वय है। निखिलदर्शनों का समन्वय है। भौतिकवाद, आध्यात्मवाद का समन्वय है, जो आज के युग की माँग है। विश्व शांति और विश्व बन्धुत्व की भावनाओं को दृढ़ करते हुये शाश्वत शान्ति और सुख का सर्वसुगम सरल मार्ग है।
ऐसे जगद्वन्द्य जगदोद्धारक 'कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' का सम्पूर्ण जगत चिरकाल तक आभारी रहेगा।
०० सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (5)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 5
०० 'भक्तियोगरसावतार'
शरद पूर्णिमा की पावन रात्रि में आविर्भूत श्री कृपालु जी महाराज पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् तो हैं ही, वे स्वयं भक्तिरस के अवतार हैं। काशी विद्वत् परिषद के द्वारा उन्हें प्रदान की गई उपाधियों में एक उपाधि 'भक्तियोगरसावतार' भी है। कलिकाल के प्रभाव से जनमानस भगवन्नाम-संकीर्तन के माहात्म्य को भूलता जा रहा था। दूसरी ओर नाना प्रकार के मत, नाना प्रकार के साधन समाज में प्रचलित होने लगे जिससे लोग दिग्भ्रमित होने लगे। ऐसे समय में ऐसे ही किसी अवतार की आवश्यकता थी जो लोगों के हृदय में पुनः भक्ति की ज्योति जगाये और आध्यात्मिक रुप से पुनर्जीवित करे। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज वही अवतार हैं जिन्होंने कलिकाल में भक्ति की प्राधान्यता और वास्तविकता स्थापित की।
उनके रोम रोम से भक्तिरस की धारा प्रवाहित होती थी। जब वे 16 साल के थे, तब से ही उनका भक्तिमय व्यक्तित्त्व अधिकारी जनों के समक्ष प्रकाशित होने लगा था। वे अधिकारीजन इन्हें सदा श्रीराधाकृष्णप्रेम में भवाविष्ट पाते। बाह्य जगत के ज्ञान से शून्य इनके शरीर में भक्ति की सर्वोच्च अवस्था महाभाव के लक्षण रह-रहकर प्रकट होते जिसके दर्शन कर हृदय में अदभुत रोमांच भर उठता था। ऐसी प्रेममय दशा देखकर अनायास ही प्रेमावतार श्री गौरांग महाप्रभु जी की याद आती थी जिन्होंने अपनी माता श्रीमती शचीदेवी जी को वचन दिया था -
आरो दुइ जन्म एइ संकीर्तनारम्भे, हइब तोमार पुत्र आमि अविलम्बे..(चैतन्य भागवत)
एइ अवतारे भगवत रुप धरि, कीर्तन करिया सर्व शक्ति परचारि..संकीर्तने पूर्ण हइव सकल संसार, घरे घरे हइव प्रेम भक्ति परचार..(चैतन्य भागवत)
लगता था कि वही गौरांग पुनः अपने जीवों को प्रेम का दान करने आ गए हैं। उत्तर प्रदेश के मनगढ़ नामक ग्राम में परम सौभाग्यवती माँ भगवती की गोद में शरद पूर्णिमा की रात्रि में जन्में श्री कृपालु जी का बालपन अनोखी लीलाओं से भरा है। उनकी बाललीलाओं को देखकर ऐसा लगता था जैसे कि बालकृष्ण ही साक्षात् लीला कर रहे हैं। जगद्गुरु बनने से पूर्व अक्सर ही भवाविष्ट अवस्था में जंगल की ओर निकल पड़ते थे। प्रेमानंद आस्वादन में निमग्न वे चित्रकूट के पावन वनों में महीनों-महीनों विचरा करते, उनकी उस दशा का यथार्थ वर्णन लेखनी के द्वारा संभव नहीं है। कभी वहाँ वे प्रिया-प्रियतम के रूपदर्शन में निमज्जित रहते तो कभी उनके अन्तर्धान से परम व्याकुल होकर करुणापूर्वक चीत्कार करते। जिन्होंने भी जब भी इन्हें उन जंगलों में देखा तो यही देखा कि कभी ये भूमि पर मूर्च्छित पड़े हैं, कभी करुणक्रन्दन कर रहे हैं तो कभी राहों पर बिखरे कंकण और काँटों पर भी प्रिया-प्रियतम के विरह में समाधिस्थ हैं।
चित्रकूट और शरभंग आश्रम तथा वृन्दावन के निकट के जंगलों में इनका यह रुप जंगल के पेड़-पौधों और जंगली जीव-जंतुओं के हृदय में भी प्रेम का संचार कर देता था। उनकी इस अलौकिक दशा का जब लोगों को पता लगना शुरू हुआ तो उनका वहाँ पहुँचना प्रारम्भ हो गया. उन्होंने जैसे तैसे इन्हें मनाकर अपने घरों में लाने की कोशिश की किन्तु ये पुनः जंगलों की ओर ही निकल पड़ते थे और पुनः-पुनः उसी समाधिस्थ अवस्था में चले जाते, हुँकार भरते, उच्च अट्टहास करते, अविरल अश्रुपात करते। यद्यपि वे इस अवतार में जीव-कल्याण के उद्देश्य को लेकर आये थे अतएव भक्तों के द्वारा इस ओर ध्यानाकृष्ट करने पर वे आम लोगों के संपर्क में आने लगे। जंगलों से आमजन के मध्य में आने के पश्चात् इन्होंने साहित्य एवं आयुर्वेद का अध्ययन किया। इस समय भी वे कभी 7 दिन, कभी 15 दिन, कभी एक महीने तो कभी 4-4 महीने का अखंड संकीर्तन कराते। भावविष्ट जब ये राधाकृष्ण की लीलास्थली वृन्दावन पहुँचे थे, तब वहाँ पहुँचते ही प्रेमातिरेक में उस पावन ब्रजरज में लोटपोट होकर बिलखने लगे। कभी उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते, कभी लीलाविष्ट हो जाते और कभी सुध खोकर गिर पड़ते। राधा गोविन्द नामों और हरि बोल का संकीर्तन उस वक्त अद्भुत रस का संचार कर देता था।
यह तो ऐसे अलौकिक महापुरुष की उस अलौकिक अवस्था का किंचितमात्र ही वर्णन है। वस्तुतः वह लेखनी का विषय ही नहीं है, न उसके वर्णन की पात्रता किसी में हो सकती है। काशी विद्वत् परिषत् के 500 मूर्धन्य विद्वानों के समक्ष अद्वितीय रुप माधुरी, काले घुँघराले केशों और गौर वर्ण के ये कृपालु जब उपस्थित हुए तो इनके रोम रोम से भक्तिरस की बहती धारा को देखकर मंत्रमुग्ध विद्वत्सभा ने एकमत होकर यह स्वीकार किया कि ये तो स्वयं भक्ति महादेवी ही इनके रुप में साक्षात् विराजित है। वहाँ अपने व्याख्यानों में आपने समस्त वेदों-शास्त्रों और अन्यान्य धर्मग्रंथों का सार बताते हुए कलियुग में एकमात्र भक्ति को ही जीव-कल्याण का साधन सिद्ध किया, आपको विद्वत् परिषत् की ओर से 'भक्तियोगरसावतार' की उपाधि प्रदान की गई।
जगद्गुरु बनने के उपरान्त आपने राधाकृष्ण की उस माधुर्यमयी भक्ति के सिद्धांत का जन-जन में प्रचार किया। कलियुग के इस चरण में जीवों को भक्ति के लिए तत्वज्ञान की परम अनिवार्यता को जानकर आपने वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों और अन्यान्य धर्मग्रंथों के वास्तविक रहस्य को संसार के मध्य बारम्बार प्रकट किया। वेदों के 'आवृत्ति रसकृदुपदेशात्' और गौरांग महाप्रभु के 'सिद्धांत बलिया चित्ते न कर आलस' की उक्तियों को लोगों की बुद्धि में भरकर बार बार महापुरुषों के सिद्धांतों को सुनने पर जोर दिया।
कलियुग में संसार के लोगों को गृहस्थ में रहकर ही भक्ति करते हुए सरलता से भगवत्प्रेमप्राप्ति का साधन बतलाते हुए उनकी साधना और भगवान्नुराग को बढ़ाने के लिए हजारों ब्रजरस से ओतप्रोत संकीर्तन एवं पदों की रचना की जिसे सुनकर और गाकर हृदय में बरबस ही प्रेमरस की धार उमड़ पड़ती है और मन राधाकृष्ण की उस रूपमाधुरी पर मुग्ध होता जाता है। श्री कृपालु जी का रुप ही ऐसा है जिसे कोई एक बार देख ले तो उसी के द्वारा वह अपने पुराने भक्ति-संस्कारों को पुनः प्राप्त कर लेता था।
अपनी जन्मभूमि मनगढ़ को आपने 'भक्तिधाम' के रुप में प्रतिष्ठित किया। भविष्य में युगों-युगों तक भक्ति की ध्वजा फहराने वाला मनगढ़ का 'भक्ति मंदिर' और वृन्दावन का 'प्रेम मंदिर' इस विश्व को अनुपम भेंट है। प्रेम मंदिर के स्वागत द्वार पर आपके द्वारा रची गई पंक्ति 'प्रेमाधीन ब्रम्ह श्याम वेद ने बताया, याते याय नाम प्रेम मंदिर धराया' के द्वारा भी आपने भक्ति को सर्वोच्च सिद्ध किया। मनगढ़ में स्थित 'भक्ति भवन' और वृन्दावन का निर्माणाधीन 'प्रेम भवन' ऐसे ऐतिहासिक भवन हैं जो भविष्य में जीवों को भक्तिपथ की साधना का सन्देश देंगे। इस मनगढ़ धाम में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा सन् 1966 से साधना शिविर का आयोजन होता रहा है।
उनके 'राधा गोविन्द गीत' से....
मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे,सोते जागते हो राधे प्रेम अगाधे..मनगढ़ ऐसा जामें गोविंद राधे,नित ही 'कृपालु' रहें और कृपा दें..
ऐसी दिव्य विभूति, भक्तियोगरसावतार के श्रीचरणों में बारम्बार अभिनन्दन है।
०० सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
पौष अमावस्या 13 जनवरी को है। हिन्दू पंचांग के अनुसार, पौष अमावस्या पौष माह कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि होती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि के दिन पितरों के निमित्त उपाय किये जाते हैं। इस दिन दान-स्नान का विशेष महत्व है। ऐसा करने से पुण्यफल की प्राप्ति होती है। पितरों की आत्मा की शांति के लिए इस दिन कुछ विशेष उपाय करने चाहिए।
अमावस्या के दिन अपने पितरों का ध्यान करते हुए पीपल के पेड़ पर गंगाजल, काले तिल, चीनी, चावल, जल तथा पुष्प अर्पित करें और ? पितृभ्य नम: मंत्र का जाप करें। इससे आप पर पितरों का अशीर्वाद बना रहेगा।
पितरों के निमित्त भूखे लोगों में भोजन के रूप में मीठे चावल जरूर बांटें। साथ ही अमावस्या के दिन चीटियों को शक्कर मिला हुआ आटा खिलाएं। ऐसा करने से आपको सभी पापों से मुक्ति मिल जाएगी।
इस दिन सुबह स्नान आदि करने के बाद आटे की गोलियां बनाएं और किसी तालाब या नदी के किनारे जाकर ये आटे की गोलियां मछलियों को खिला दें। ऐसा करने से करने से आपकी सभी परेशानियों का अंत होगा।
यदि आप कालसर्प दोष से पीडि़त है तो आप अमावस्या के दिन चांदी के नाग नागिन की पूजा करें और इसे बहते जल में प्रवाहित कर दें। आपकी कुंडली से काल सर्प दोष दूर हो जाएगा।
इस दिन पितरों का आशीर्वाद पाने के लिए ब्राह्मणों को घर बुलाएं और आदर के साथ उन्हें भोजन कराएं और दक्षिणा देकर उन्हें विदा करें। ऐसा करने से आपकी पितृ प्रसन्न होंगे।
पितरों की आत्मा की शांति के लिए पौष अमावस्या के दिन गाय, कुते और कौए को भोजन अवश्य कराना चाहिए। अमावस्या पर काले कुत्ते को तेल से चुपड़ी रोटी खिलाने से शत्रु का भय दूर हो जाता है और शत्रुओं पर विजय मिलती है।
अमावस्या के दिन शाम के समय घर के ईशान कोण में पूजा वाले स्थान पर गाय के घी का दीपक जलाएं। ऐसा करने से आपको सभी सुखों की प्राप्ति होगी। अमावस्या के दिन तुलसी की परिक्रमा अवश्य करें। -
सूर्य के उत्तरायण होने और धनु राशि से मकर राशि में संक्रांति करने के पर्व को मकर संक्रांति कहा जाता है। यह शुभ पर्व हर वर्ष 14 जनवरी को मनाया जाता है इस वर्ष भी मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही मनाई जाएगी। मकर संक्रांति पर दान स्नान और सूर्य उपासना का बहुत महत्व माना जाता है। यह नई उमंग और उल्लास के साथ नई ऋतु के आगमन का त्योहार है। माना जाता है कि इस दिन किए गए कार्यों का हमें कई हजार गुना ज्यादा फल प्राप्त होता है। मां लक्ष्मी को प्रसन्न करके सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए आप मकर संक्रांति के दिन कुछ उपाय कर सकते हैं। इसी में से एक उपाय है जो धन-धान्य, लक्ष्मी और सफलता के लिए अचूक माना जाता है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार जानते हैं मकर संक्रांति पर सुख-समृद्धि लाने का उपाय----
संक्रांति की सुबह को स्नान करने के पश्चात शुभ मुहूर्त में 14 स्वच्छ कौडिय़ां लें। अब एक पात्र में दूध लेकर उसमें थोडा सा केसर मिलाएं, अब इस दूध में कौडिय़ों को स्नान करवाएं। दूध से कौडिय़ा निकालने के बाद उसे गंगाजल से शुद्ध करें और पूजा के स्वच्छ पात्र में रख दें।
इसके बाद पूजा घर में मां महालक्ष्मी के सामने दो दीपक, एक शुद्ध घी का और दूसरा तिल के तेल का दीपक प्रज्वलित करें। तेल का दीपक बांयी तरफ और घी के दीपक को दांयी ओर रखें। इसके बाद कौडिय़ों को सिद्ध करने के लिए 14 बार इस मंत्र का जाप करें।
इसके बाद संक्रांति की पूजा यानि सूर्य पूजा और दान आदि का कार्य भी पूर्ण कर लिजिए।
अब 12 बजे के समय उन कौडिय़ों को उठाकर अपने घर के मुख्य धन स्थान और अलग-अलग महत्वपूर्ण स्थानों पर रख दीजिए। इन कौंडिय़ों को पर्स, अलमारी, देवस्थान, किचन, भंडार घर में और काम करने की मेज पर रख दें।।
यह कार्य करने के बाद दीपक का स्थान बदल दें यानि दांयी तरफ वाले दीपक को बांयी ओर और बांयी ओर वाले दीपक को दांयी ओर कर दीजिए। ध्यान रहे कि दीपक जलता रहे।
तिल के तेल का जो दीपक है उसे शाम के समय अपने घर की दहलीज पर और घी का दीपक तुलसी में रख दीजिए। यह उपाय सुख, समृद्धि, धन, धान्य, लक्ष्मी और सफलता के लिए बहुत ही कारगर और अचूक माना गया है।
यह पूरा उपाय मकर संक्रांति के दिन ही करना है। -
भगवान सूर्य 14 जनवरी की सुबह में 08 बजकर 15 मिनट पर दक्षिणायन की यात्रा समाप्त करके उत्तरायण की राशि मकर में प्रवेश करने वाले हैं जिसके फलस्वरूप देवताओं के दिन का शुभारंभ हो जाएगा। इस दिन से सभी तरह के मांगलिक कार्य, यज्ञोपवीत, मुंडन, शादी-विवाह, गृहप्रवेश आदि आरम्भ हो जाएंगे।
प्रयाग में तीर्थों का कुंभ
माघ के महीने में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश काल के समय जब सभी देवों के दिन का शुभारंभ होता है तो तीनों लोकों में प्रतिष्ठित गंगा, यमुना और सरस्वती के पावन संगम तट त्रिवेणी पर साठ हजार तीर्थ और साठ करोड़ नदियां, सभी देवी-देवता, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर आदि तीर्थराज प्रयाग में एकत्रित होकर गंगा-यमुना-सरस्वती के पावन संगम तट पर स्नान, जप-तप, और दान-पुण्य कर अपना जीवन धन्य करते हैं। तभी इसे तीर्थों का कुंभ भी कहा जाता है। मत्स्य पुराण के अनुसार यहाँ की एक माह की तपस्या परलोक में एक कल्प (आठ अरब चौसठ करोड़ वर्ष) तक निवास का अवसर देती है इसीलिए यहां भक्तजन कल्पवास भी करते हैं।
रामचरित मानस में प्रयाग तीर्थ की महिमा
प्रयाग तीर्थ की महिमा का वर्णन करते हुए गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है कि
माघ मकर रबिगत जब होई। तीरथपति आवहिं सब कोई।
देव दनुज किन्नर नर श्रेंणी। सादर मज्जहिं सकल त्रिवेंणी।
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज-निज आश्रम जाहीं।।
--अर्थात- माघ माह में मकर संक्रांति के पुण्य अवसर पर सभी तीर्थों के राजा प्रयाग के पावन संगम तट पर मास पर्यंत वास करते हुए स्नान-ध्यान तपादि करते हैं। वैसे तो प्राणी इस माह में किसी भी तीर्थ, नदी और समुद्र में स्नान कर दान-पुण्य करके त्रिबिध तापों से मुक्ति पा सकता है किन्तु, प्रयागतीर्थ के मध्य देव संगम का फल सभी कष्टों से मुक्ति दिलाकर मोक्ष देने में सक्षम है। यहाँ का एक माह का कल्पवास करने से जीवात्मा एक कल्प तक जीवन-मरण के बंधन से मुक्त रहता है। इस माह अपने पितरों को अघ्र्य देने और श्राद्ध-तर्पण आदि करने से पितृ श्राप से भी मुक्ति मिल जाती है।
तीर्थराज प्रयाग का सुरक्षा घेरा
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार प्रयाग तीर्थ में आठ हजार श्रेष्ट धनुर्र्धारी हर समय मां गंगा की रक्षा करते हैं। सूर्यदेव अपनी प्रियपुत्री यमुना की रक्षा करते हैं। देवराज इंद्र प्रयाग तीर्थ की रक्षा, शिव अक्षय वट की और विष्णु मंडल की रक्षा करते हैं। इस अवधि में लौकिक-पारलौकिक शक्तियां पृथ्वी पर एकत्रित होकर संगम तट पर अनेकानेक रूपों में वास करती हैं परिणाम स्वरुप यहां जल का स्तर बढ़ जाता है। यह अद्भुत संयोग जीवात्माओं को अपने किये गए शुभ-अशुभ कर्मों का प्रायश्चित करने का सुअवसर देता है।
कर्मविपाक संहिता में सूर्य की महिमा
सूर्य के उत्तरायण यात्रा के फलस्वरूप ही तीर्थराज प्रयाग में सभी तीर्थों के महाकुंभ का संयोग बनता है। सूर्य के विषय में भी कहा गया है कि, ब्रह्मा विष्णु: शिव: शक्ति: देव देवो मुनीश्वरा, ध्यायन्ति भास्करं देवं शाक्षीभूतं जगत्त्रये। अर्थात- ब्रह्मा, विष्णु, शिव, शक्ति, देवता, योगी ऋषि- मुनि आदि तीनों लोकों के शाक्षी भूत भगवान सूर्य का ही ध्यान करते हैं। जीवात्मा की जन्मकुंडली में भी सूर्य की स्थिति का गंभीरता से विचार किया जाता है क्योंकि, अकेले सूर्य ही बलवान हों तो सात ग्रहों का दोष शमन कर देते हैं, सप्त दोषं रबिर्र हन्ति शेषादि उत्तरायणे' उत्तरायण हों तो आठ ग्रहों का दोष शमन कर देते हैं।
शास्त्र भी प्राणियों को भगवान सूर्य को जल का अघ्र्य देने की सलाह देते हैं। जो मनुष्य प्रात:काल स्नान करके सूर्य को अघ्र्य देता है उसे किसी भी प्रकार का ग्रह दोष नहीं लगता क्योंकि इनकी सहस्रों किरणों में से प्रमुख सातों किरणें सुषुम्णा, हरिकेश, विश्वकर्मा, सूर्य, रश्मि, विष्णु और सर्वबंधु, जिनका रंग बैगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी और लाल है हमारे शरीर को नयी उर्जा और आत्मबल प्रदान करते हुए हमारे पापों का शमन कर देती हैं। प्रात:कालीन लाल सूर्य का दर्शन करते हुए ? सूर्यदेव महाभाग ! त्र्यलोक्य तिमिराप:। मम् पूर्वकृतं पापं क्षम्यतां परमेश्वर:। यह मंत्र बोलते हुए सूर्य नमस्कार करने से जीव को पूर्वजन्म में किये हुए पापों से मुक्ति मिलती है। - जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (4)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 4
00 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्सम्प्रदायपरमाचार्य'
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज शिष्य भी नहीं बनाते और सम्प्रदाय भी नहीं चलाते। उनके अनुसार यह सब उचित नहीं है। वे कहते हैं सम्प्रदायों में परस्पर द्वेष फैलता है। वे सभी संप्रदायाचार्यों के सिद्धान्तों का पूरा समन्वय करते हैं।
उन्होंने आज तक किसी को मन्त्रदान नहीं दिया। अमेरिका में एक बहुत बड़े पादरी ने आपसे प्रश्न किया कि आपके कितने लाख शिष्य हैं? इनका उत्तर सुनकर वह आश्चर्य चकित हो गया जब इन्होंने मुस्कुराते हुये उत्तर दिया - एक भी नहीं। उसने पुन: प्रश्न किया, आप वर्तमान मूल जगदगुरु हैं और आपका एक भी शिष्य नहीं। क्या आप कान नहीं फूँकते? जगदगुरु श्री कृपालु जी ने उत्तर दिया - नहीं, मैं कान नहीं फूँकता।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कोई भी नया सम्प्रदाय नहीं चलाया। वे कहते हैं तीन सनातन तत्व हैं - ईश्वर, जीव और माया। अत: दो ही क्षेत्र हैं - ब्रम्ह श्रीकृष्ण एवं मायिक जगत। मन ही शुभाशुभ कर्म का कर्ता है। यदि मन श्रीकृष्ण में लगा दिया जाय तो श्रीकृष्ण सम्बन्धी ज्ञान (सर्वज्ञता) एवं आनंद (दिव्य अनंत) प्राप्त होगा। यदि मायिक जगत में मन लगा रहेगा तो अज्ञान एवं दु:ख ही प्राप्त होता रहेगा। अत: जो भगवान में ही शाश्वत सुख मानते हैं तदर्थ निरंतर प्रयत्नशील हैं वे 'भगवत्सम्प्रदाय' वाले हैं और जो इसके विपरीत मायिक जगत में मन को लगाते हैं वे माया के सम्प्रदाय वाले हैं, और कोई सम्प्रदाय ही नहीं, हो ही नहीं सकता। इनको श्रेय और प्रेय भी कहते हैं।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार, सत्य मार्ग यह है कि जीव एकमात्र पूर्णतम पुरुषोत्तम आनन्दकन्द सच्चिदानन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में ही अपने आपको समर्पित कर दें, एवं उन्हीं के नाम, गुण, लीलादिकों का स्मरण करता हुआ रोमांचयुक्त होकर, आनंद एवं वियोग के आँसू बहावे। अपने हृदय को द्रवीभूत कर दे, तथा मोक्ष पर्यन्त की समस्त इच्छाओं का सर्वथा त्याग कर दे। इस प्रकार बिना किये अन्त:करण शुद्धि नहीं हो सकती। सत्य एवं दया से युक्त धर्म एवं तपश्चर्या से युक्त विद्या भी भगवान की भक्ति से रहित जीव को पूर्णत: शुद्ध नहीं कर सकती।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज सम्प्रदायवाद से दूर रहकर, शिष्य परम्परा से भी दूर हटकर केवल श्रीकृष्ण की निष्काम भक्ति के लिये ही जीवों को निर्देश देते हैं। उन्होंने अपने 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ में लिखा है :::
सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान।मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान।।
कर्म, ज्ञान अरु योग को, जो भी फल श्रुति गाय।अनायास बिनु माँगे भगत, सकल फल पाय।।
सौ बातन की बात इक, धरु मुरलीधर ध्यान।बढ़वहु सेवा वासना, यह सौ ज्ञानन ज्ञान।।
यही 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदाय' है। अत: आचार्य श्री को 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य' की उपाधि से अलंकृत किया गया।
00 सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - 14 जनवरी 2021 को सूर्य की मकर संक्रांति है। इस दिन सुबह 8 बजकर 15 मिनट पर सूर्य मकर राशि में प्रवेश करेंगे। आज जानते हैं कि किस राशि में पर इसका क्या प्रभाव होगा और कौन सी वो 4 राशियां हैं, जिसकी किस्मत खुलने वाली है-मेष राशिसूर्यदेव आपके दसवें स्थान पर गोचर करेंग सूर्य के इस गोचर से करिअर में मेहनत का फल जरूर मिलेगा। आप काफी आगे बढ़ेंगे। साथ ही इस दौरान आपके पिता की भी तरक्की सुनिश्चित होगी।उपाय-अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के शुभ फल बनाये रखने के लिए सिर ढंक कर रखें। साथ ही काले और नीले रंग के कपड़े न पहनें।वृष राशिसूर्यदेव आपके नवे स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में नवा स्थान भाग्य का स्थान है। इस स्थान पर सूर्य के गोचर से आपके भाग्य में वृद्धि होगी।उपाय-अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के शुभ फलों को सुनिश्चित करने के लिये घर में पीतल के बर्तनों का इस्तेमाल करें। साथ ही प्रतिदिन सूर्यदेव को नमस्कार करें।मिथुन राशिसूर्यदेव आपके आठवें स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में यह स्थान आयु से संबंध रखता है। इस स्थान पर सूर्य के गोचर से आपकी आयु में वृद्धि होगी और आपका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा।उपाय- अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के शुभ फल सुनिश्चित करने के लिए काली गाय या फिर बड़े भाई की सेवा करें।कर्क राशिसूर्यदेव आपके सातवें स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में यह स्थान जीवनसाथी का होता है। इस स्थान पर सूर्य के गोचर से जीवनसाथी के साथ आपका तालमेल ठीक बना रहेगा और आपका वैवाहिक जीवन खुशहाल रहेगा।उपाय- अगले 30 दिनों के दौरान सूर्यदेव के इस गोचर का शुभ फल बनाये रखने के लिये स्वयं भोजन करने से पहले किसी दूसरे व्यक्ति को भोजन जरूर खिलाएं।सिंह राशिसूर्यदेव आपके छठे स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में यह स्थान मित्र का होता है। इस स्थान पर सूर्य के गोचर से मित्रों के साथ अच्छे संबंध स्थापित करने के लिये आपको अधिक मेहनत करनी पड़ सकती है। इस दौरान अपने शत्रु पक्ष से बचकर रहने की जरूरत है।उपाय- अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के अशुभ फलों से बचने के लिये और शुभ फल सुनिश्चित करने के लिये मंदिर में बाजरा दान करें।कन्या राशिसूर्यदेव आपके पांचवें स्थान पर गोचर करेंगे। सूर्य के इस गोचर से आपको अपने गुरु से बनाकर रखनी चाहिए। आपकी कही कोई बात उन्हें बुरी लग सकती है, इसलिए कोई भी बात संभलकर करें और अपना विवेक बनाये रखें।उपाय- अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के अशुभ फलों से छुटकारा पाने के लिए और शुभ फल सुनिश्चित करने के लिये पक्षियों को दाना डालें।तुला राशिसूर्यदेव आपके चौथे स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में यह स्थान माता, भूमि-भवन और वाहन के सुख से संबंध रखता है। सूर्य के इस गोचर से अगले 30 दिनों के दौरान आपको अपने कार्यों में माता से पूरा सहयोग मिलेगा। इस दौरान आपको भूमि-भवन और वाहन का सुख मिलने की भी पूरी उम्मीद है।उपाय-अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के शुभ फल सुनिश्चित करने के लिये किसी जरूरतमंद को भोजन कराएं। साथ ही मौका मिलने पर किसी दिव्यांग की मदद जरूर करें।वृश्चिक राशिसूर्यदेव आपके तीसरे स्थान पर गोचर करेंगे। सूर्य के इस गोचर से आपको भाई-बहनों से उम्मीद के अनुसार सहयोग नहीं मिल पायेगा। जीवन में उनका साथ बनाये रखने के लिये आपको कोशिश करनी होगी।उपाय- अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के अशुभ फलों से बचने के लिये और शुभ फल सुनिश्चित करने के लिये प्रतिदिन सूर्यदेव के इस मंत्र का 11 बार जप करें। मंत्र है - ऊँ घृणि: सूर्याय नम:।धनु राशिसूर्यदेव आपके दूसरे स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में यह स्थान धन से संबंध रखता है। सूर्य के इस गोचर से आपको धन की बढ़ोतरी के बहुत से साधन मिलेंगे। आपको अचानक से धन लाभ हो सकता है। इससे आपकी आर्थिक स्थिति अच्छी बनी रहेगी। सूर्य के शुभ फल सुनिश्चित करने के लिये मंदिर में नारियल का तेल या कच्चे नारियल का दान करें।मकर राशिसूर्यदेव आपके पहले स्थान पर गोचर करेंगे। सूर्य के गोचर से आपको प्रेम-संबंधों का भरपूर लाभ मिलेगा। समाज में आपका मान-सम्मान बढ़ेगा। आपके पास पैसों की लगातार आवक बनी रहेगी। साथ ही आपकी संतान को भी न्यायलय संबंधी कार्यों से भरपूर लाभ मिलेगा।उपाय- अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के इन शुभ फलों का लाभ पाने के लिए प्रतिदिन सुबह स्नान आदि के बाद सूर्यदेव को जल चढ़ाएं।कुंभ राशिसूर्यदेव आपके बारहवें स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में यह स्थान शैय्या सुख और व्यय से संबंध रखता है। सूर्य के इस गोचर से आपको शैय्या सुख की प्राप्ति तो होगी, लेकिन साथ ही आपके खर्चों में भी बढ़ोतरी होगी।उपाय-अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के अशुभ प्रभावों से बचने के लिये और शुभ प्रभाव सुनिश्चित करने के लिये धार्मिक कार्यों में अपना सहयोग दें और सुबह के समय अपने घर के खिड़की, दरवाजे खोलकर रखें, ताकि सूर्य का उचित प्रकाश घर के अंदर आ सके।मीन राशिसूर्यदेव आपके ग्यारहवें स्थान पर गोचर करेंगे। जन्म कुंडली में यह स्थानआमदनी और कामना पूर्ति से संबंध रखता है। सूर्य के इस गोचर से आपकी अच्छी आमदनी होगी। आपको आमदनी के नये स्रोत भी मिलेंगे। साथ ही आपकी जो भी इच्छा होगी, वो जरूर पूरी होगी।उपाय- अगले 30 दिनों के दौरान सूर्य के शुभ फल सुनिश्चित करने के लिये मंदिर में मूली का दान करें।
- जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (3)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 3
00 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य'
जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् हैं। उनके जन्मदिवस को विश्व में 'जगद्गुरुत्तम जयंती' के रुप में मनाया जाता है। 1957 में मकर संक्रान्ति के दिन उन्हें 'जगदगुरुत्तम' की उपाधि प्राप्त हुई, यह दिन 'जगदगुरुत्तम-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना भक्तिप्राधान्य समन्वयवादी सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, अतएव उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।
जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में चित्रकूट में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलन में ही आचार्य श्री का यह स्वरुप प्रकट हो गया था। 1956 में कानपुर में आयोजित द्वितीय महाधिवेशन में काशी विद्वत् परिषद के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी भी उपस्थित थे। उन्होंने विद्वत् परिषद के अन्य विद्वानों से सहमति करके उन्हें विद्वत् परिषत् आमंत्रित किया। जहाँ काशी विद्वत् परिषत् ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया।
जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -
(1) समस्त मौलिक जगद्गुरुओं में जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे जगद्गुरु हैं जिन्हें इस उपाधि से विभूषित किया गया है।
(2) इस उपाधि का तात्पर्य है कि उन्होंने समस्त दर्शनों अर्थात् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, उपनिषदों तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों एवं साथ ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगद्गुरुओं के परस्पर विरोधाभासी सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए उनका समन्वयात्मक रुप प्रस्तुत किया।
(3) समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कलियुग में भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति के लिए 'भक्तिमार्ग' की ही प्राधान्यता स्थापित की है। इस सिद्धांत को उन्होंने वेदादिक ग्रंथों का प्रमाण देते हुए सिद्ध भी किया है।
(4) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कभी भी किसी वेद-शास्त्र आदि का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्हें समस्त वेद-शास्त्र कंठस्थ थे। अपने प्रवचनों में वे इन वेदादिक-ग्रंथों के प्रमाण धाराप्रवाह नंबर सहित बोलते थे। प्रसिद्ध विचारक, लेखक और आलोचक श्री खुशवन्त सिंह ने इन्हें 'कंप्यूटर जगद्गुरु' की संज्ञा दी है।
(5) समस्त जगद्गुरुओं ने शंकराचार्य जी के अद्वैत मत का खंडन किया किन्तु समन्वयवादी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने उनके इस सिद्धांत का खंडन तो किया लेकिन उनके जीवन में भक्ति के क्रियात्मक स्वरुप को उजागर किया। बोलने मात्र का भेद है। वस्तुत: शंकराचार्य जी ने भी अपने अंतिम जीवन में श्रीकृष्ण-भक्ति ही की थी। उन्होंने अंत:करण शुद्धि के लिए कहा था -
'शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते।'(प्रबोध सुधाकर)
अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि नहीं हो सकती।
उन्होंने अपने शिष्य से यह भी कहा था कि एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है - 'कामारि-कंसारि-समर्चनाख्यम्'। अपनी माता को शंकराचार्य जी ने श्रीकृष्ण भक्ति का उपदेश किया और स्वयं दुन्दुभिघोष से यह कहा था -
काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम्, केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि: ।अस्माकं यदुनंदनांघ्रियुगलध्यानावधानार्थिनाम्, किं लोकेन् दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम् ।।
अर्थात् सकाम भक्ति करने वाले भोले लोग स्वर्गप्राप्ति हेतु सकाम कर्म करें, मैं नहीं करता एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों, हमें नहीं चाहिए. हम तो आनंदकंद श्रीकृष्णचरणारविन्दमकरंद के भ्रमर बनेंगे।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी के श्रीकृष्णभक्ति संबंधी श्लोकों को अपने प्रवचनों में उद्धरित करके जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज यही सिद्ध करते हैं कि श्री शंकराचार्य जी प्रच्छन्न श्रीकृष्णभक्त ही थे।
(6) जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और वेदादिक ग्रंथों के अनर्थ कर देने से प्रचलित गलत मार्गों यथा - गुरुडम आदि का पुरजोर विरोध किया और शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा उसकी वास्तविकता को विश्व के समक्ष रखा।
ऐसे जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के विलक्षण समन्वयवादी स्वरुप को देखकर काशी विद्वत् परिषद के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी ने 1956 में सार्वजनिक रुप से घोषणा करते हुए कहा था -
'इतनी छोटी अवस्था में इन्होंने सब वेदों शास्त्रों का इतना विलक्षण ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह मैंने इससे पूर्व कभी भी स्वीकार नहीं किया था। किन्तु कल का प्रवचन सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। उन्होंने समस्त दर्शनों का विवेचन करके जिस विलक्षण ढंग से भक्तियोग में समन्वय किया है वह अलौकिक था, दिव्य था। इस प्रकार का प्रवचन भगवान् की देन है। इस प्रकार की प्रतिभा एवं इस प्रकार का ज्ञान कोई स्वयं अर्जित नहीं कर सकता। आप लोगों का यह परम सौभाग्य है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके मध्य आये हैं..'
साथ ही समस्त विद्वानों ने नतमस्तक होकर यह स्वीकार किया था -
'शास्त्रार्थ तो मनुष्य से किया जाता है, ये मनुष्य तो हैं नहीं. इनसे हम क्या शास्त्रार्थ कर सकते हैं??'
तुलसीदास जी की काव्यकला के लिए कहा गया है -
'कविता करि के तुलसी न लसे, कविता लसि पा तुलसी की कला..'
इसी प्रकार 'जगद्गुरुत्तम्' की उपाधि से कृपालु जी नहीं अपितु कृपालु जी को पाकर 'जगद्गुरु' की उपाधि ने सम्मान पाया है।
00 सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (2)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 2
00 'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य'
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। इन्होंने जो वेदमार्ग प्रतिष्ठापित किया है, वह सार्वभौमिक है। वैदिक सिद्धान्तों के सार को प्रकट करते हुये जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज भगवत्प्राप्ति के सर्वसुगम सर्वसाध्य मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इन्होंने वेदों, शास्त्रों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों में जो मतभेद सा है, उसका पूर्णरूपेण निराकरण करके बहुत ही सरल मार्ग की प्रतिष्ठापना की है, जो कलियुग में सभी जीवों के लिये ग्राह्य है।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार यद्यपि ईश्वरप्राप्ति के अन्य मार्ग भी हैं तथापि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ व सर्वसुलभ मार्ग है। आपके अनुसार कलियुग में एकमात्र नाम-संकीर्तन की ही साधना निर्धारित की गई है। यदि यह भी मान लें कि कलियुग में अन्य साधनों से भगवत्प्राप्ति हो सकती है,तब भी विचारणीय हो जाता है कि इतने अमूल्य, सरस एवं शीघ्र फल प्रदान करने वाली संकीर्तन साधना को छोड़कर क्लिष्ट अन्य साधनाओं में प्रवृत्त होने में बुद्धिमत्ता ही क्या है।
आपके मतानुसार तो स्वसुखवासना गन्धलेशशून्य श्रीकृष्ण सुखैक तात्पर्यमयी सेवा ही जीव का लक्ष्य है अर्थात अपने सेव्य के सुख के लिये ही उनकी नित्य निष्काम सेवा प्राप्त करना ही जीवमात्र का परम लक्ष्य है। जो रसिक महापुरुष की अनन्य शरणागति पर उनकी अहैतुकी अकारण करुणा से ही प्राप्त होगा।
00 जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया 'श्रुति-सारांश'
"...ब्रम्ह, जीव एवं माया तीनों ही सनातन हैं। एवं जीव तो ब्रम्ह की परा शक्ति है, चेतन है। माया तो ब्रम्ह की अपरा शक्ति है, जड़ है। दोनों शक्तियों का शासक ब्रम्ह है।
ब्रम्ह की चेतन शक्ति होने के कारण, जीव को ब्रम्ह का अंश कहा गया है। ब्रम्ह एवं आनंद पर्यायवाची हैं, अत: जीवशक्ति, आनंद का अंश हुआ। इसी से प्रत्येक आनंदांश जीव अपने अंशी आनंद श्रीकृष्ण को ही स्वभावत: चाहता है। साथ ही अनादिकाल से प्रतिक्षण आनंदप्राप्ति के हेतु ही प्रयत्नशील है। किंतु उपाय से अनभिज्ञ है।
आनंदकंद श्रीकृष्णचंद्र की प्राप्ति से ही वह दिव्यानंद प्राप्त होगा। वह श्रीकृष्ण प्राप्ति केवल भक्ति से ही होगी। भक्ति निष्काम होनी चाहिये तथा उसमें अनन्यता भी होनी चाहिये।
तदर्थ श्रीगुरु एवं राधाकृष्ण का रूपध्यान करते हुये रोकर उनका नाम गुणादि संकीर्तन करना चाहिये। इससे अन्त:करण शुद्ध होगा। तब स्वरूप शक्ति से अन्त:करण दिव्य बनेगा। तब गुरु द्वारा दिव्य प्रेम दान होगा। तब माया निवृत्ति एवं दिव्यानंद प्राप्ति होगी। (भवदीय, जगदगुरु: कृपालु:)..."
कलियुग के हम पामर जीव इन दिव्य वचनों से निश्चय ही आत्मकल्याण का अति सुगम मार्ग प्राप्त कर सकते हैं, जिस पर श्रद्धापूर्वक आरूढ़ होकर चलने से हम भी भगवान के दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश कर सकेंगे तथा अनादिकाल के दु:ख-क्लेश आदि से निवृत्ति प्राप्त करेंगे।
00 सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
सुबह उठने के बाद गायत्री मंत्र का जाप करें
घर में मौजूद ऊर्जा का असर हमारे सपनों पर भी पड़ता है। नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव अधिक होने से सपने भी नकारात्मकता दर्शाते हुए नजर आते हैं। माना जाता है कि मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही अच्छे या बुरे स्वपन देखता है। अशुभ सपने अगर लगातार आ रहे हैं तो घर का वास्तु ठीक करना आवश्यक हो जाता है। वास्तु में कुछ आसान से उपाय बताए गए हैं, जिन्हें अपनाने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाया जा सकता है और डरावने स्वपन से मुक्ति भी मिल सकती है।
हनुमान जी सभी प्रकार का अनिष्ट दूर करने वाले हैं। अगर लगातार डरावने स्वपन आते हैं तो हनुमानजी को याद करें। घर में सुंदरकांड का पाठ करें। रोजाना हनुमान चालीसा का पाठ करें। भयानक स्वप्न आए तो? नम: शिवाय का जप करते हुए सो जाएं। लगातार बुरे स्वपन आएं तो प्रात: उठकर बिना किसी से कुछ बोले तुलसी के पौधे से पूरा स्वप्न कह डालें। बच्चों को अगर डरावने स्वप्न परेशान करते हैं तो उनके सिरहाने पर चाकू रख लें। यह भी माना जाता है कि बेड के सिरहाने पर जूते या चप्पल रखे हों तो भी डरावने स्वप्न आ सकते हैं। गहरे रंग की चादर न ओढ़ें। रात में झूठा मुंह कर सोने से भी डरावने सपने आते हैं। सपने में नदी, झरना या पानी दिखाई दे तो यह पितृ दोष की वजह से हो सकता है। घर में नियमित गंगाजल का छिड़काव करें। अगर बुरा स्वप्न देखकर नींद खुल जाए तो फिर से सो जाना चाहिए। घर में हवन करने के बाद इससे मुक्ति पाई जा सकती है। बुरे स्वप्न किसी को नहीं बताने चाहिए। नियमित रूप से अगर सूर्यदेव की आराधना की जाए तो भी बुरे स्वप्न से निजात पाई जा सकती है। बुरे स्वप्नों से मुक्ति पाने के लिए सुबह उठने के बाद गायत्री मंत्र का जाप करें। जरूरतमंद व्यक्ति को दान दें।
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सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण होने पर मकर संक्रांति का पर्व देशभर में अलग-अलग रूप में, अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। ज्योतिषीय दृष्टि से यह पर्व बेहद खास माना जाता है। मकर संक्रांति में सूर्य देव धनु राशि से मकर राशि में आते हैं। मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदी अथवा जलकुंड में स्नान, दान-पुण्य के कार्य किए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इस दिन कुछ विशेष चीजों का दान करने से जातकों को दोगुना फल प्राप्त होता है।
सुख-शांति के लिए दान करें खिचड़ी
मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व के नाम से जाना है। इस दिन प्रसाद के रूप में खिचड़ी बांटने की परंपरा है। मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी दान करने से जीवन में सुख और शांति आती है। स्वास्थ्य पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ता है।
गुड़ और तिल दान से सूर्य देव होते हैं प्रसन्न
मकर संक्रांति के दिन इस दिन गुड़ और तिल दान करने का बड़ा महत्व है। शास्त्रों के अनुसार, मकर संक्रांति के दिन गुड़ एवं तिल का दान करने से कुंडली में सूर्य और शनि की स्थिति मजबूत होती है। समाज में मान-सम्मान बढ़ता है और कार्य सिद्ध होते हैं।
शनि साढ़ेसाती के लिए करें काले तिल का दान
जिन लोगों पर शनि की साढ़े साती का प्रभाव होता है। उन्हें मकर संक्रांति के दिन तांबे के बर्तन में काले तिल को भरकर किसी गरीब को दान करना चाहिए। इस उपाय के करने से आपकी कुंडली में शनिदोष दूर होगा। कार्य-व्यापार में तरक्की होगी और आपकी परेशानियां खत्म हो जाएंगी।
चल रहा हो बुरा समय तो करें नमक दान
मकर संक्रांति के दिन नमक दान करने का भी महत्व है। अगर किसी व्यक्ति का बुरा समय चल रहा है तो उसे मकर संक्रांति के दिन नमक का दान करना चाहिए।
मां लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए करें घी का दान
मकर संक्रांति के दिन घी का दान करना अच्छा माना जाता है। यह उपाय आपकी आर्थिक परेशानियों को दूर करने में कारगर सिद्ध हो सकता है। इस उपाय से जीवन में माता लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है।
जरूरतमंद लोगों को करें अनाज दान
मकर संक्रांति के दिन गरीब, असहाय और जरूरतमंद लोगों को अनाज दान करना चाहिए। इस उपाय को करने से मां अन्नपूर्णा का खास आशीर्वाद मिलता है। जातकों के धन-धान्य के भंडार सदा भरे रहते हैं। - जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (1)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा उपाधियों की व्याख्या, भाग - 1
०० 'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण'
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिये गये प्रवचन एवं संकीर्तनों में उनका यह स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को भी जनसाधारण के लिये बोधगम्य बनाना उनकी प्रवचन शैली की विशेषता है। गूढ़ से गूढ़ शास्त्रीय सिद्धान्तों को इतनी मनमोहक सरल शैली में प्रस्तुत करते हैं कि मन्द बुद्धि वाले भी निरंतर श्रवण करने से ऐसे तत्वज्ञ बन जाते हैं जो बड़े-बड़े विद्वान तार्किकों को भी तर्कहीन कर देते हैं।
सरलता और सरसता के साथ साथ दैनिक जीवन के क्रियात्मक अनुभवों का मिश्रण उनके प्रवचन की बहुत बड़ी विशेषता है। बोलचाल की भाषा में ही; जिसमें कुछ अंग्रेजी के शब्द भी आ जाते हैं, वह कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को जीवों के मस्तिष्क में भर देते हैं। श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष ही ऐसा करने में सक्षम हो सकता है। जब प्रवचनों में प्रमाण स्वरूप शास्त्रों वेदों के श्लोक बोलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो समस्त शास्त्र वेद उनके सामने उपस्थित हैं और वे एक के बाद एक पन्ने पलटते जा रहे हैं।
जितने भी आचार्य श्री के द्वारा ग्रन्थ प्रकट किये गये हैं चाहे वह गद्य में हों अथवा पद्य में, उन सभी में शास्त्रों वेदों के गूढ़तम रहस्यों को बहुत ही सरलता व सरसता से प्रतिपादित किया गया है। प्रत्येक ग्रन्थ नाना पुराण निगमादि सम्मत तो हैं ही, साथ ही अपने आप में अप्रत्यक्ष रूप से ब्रम्ह सूत्र का भाष्य ही है। गौरांग महाप्रभु ने भागवत को ब्रम्हसूत्र भाष्य के रूप में स्वीकार किया है।
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित प्रत्येक ग्रन्थ ही भागवत, वेद, पुराण, गीता आदि का पूर्णरूपेण सरलतम रूप है, जो इस कलिकाल के मन्द से मन्द बुद्धि वालों के लिये भी ग्राह्य है। पद्य में विषय अधिक बोधगम्य हो जाता है क्योंकि संकीर्तन में ही श्रवण भक्ति का भी समावेश हो जाता है। पूर्ण तत्वज्ञान युक्त पदों का पुनः पुनः गान करने से बुद्धि में विषय स्वाभाविक रूप से बैठ जाता है, जो जीव को भक्तियोग की क्रियात्मक साधना की ओर स्वतः प्रेरित करता है। साहित्य के विषय में कुछ भी लिखना प्राकृत बुद्धि से संभव नहीं है, बस इतना ही कहा जा सकता है कि इनका प्रत्येक ग्रन्थ गागर में सागर ही है। इनका साहित्य ऐसा प्रेमरस सिन्धु है जिसमें अवगाहन करने पर शुष्क से शुष्क हृदय भी ब्रजरस में डूब जाता है। हृदय श्रीराधाकृष्ण प्रेम में विभोर हो जाता है तथा युगल झाँकी के दर्शन की लालसा तीव्रातितीव्र होती जाती है। सत्य ही है, उनके प्रत्येक ग्रन्थ को यदि ब्रम्हसूत्र का भाष्य कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित ब्रजरस साहित्यों की सूची इस प्रकार है : प्रेम रस मदिरा (पद ग्रन्थ), राधा गोविन्द गीत (दोहा ग्रन्थ), श्यामा श्याम गीत (दोहा ग्रन्थ), भक्ति-शतक (दोहा ग्रन्थ), युगल शतक (कीर्तन ग्रन्थ), युगल रस (कीर्तन ग्रन्थ), ब्रज रस माधुरी (4 भाग, कीर्तन ग्रन्थ), श्री राधा त्रयोदशी (पद ग्रन्थ), श्री कृष्ण द्वादशी (पद ग्रन्थ), युगल माधुरी (कीर्तन ग्रन्थ)
इनके अलावा गद्य अथवा उनके प्रवचन के लिखित रूप पर आधारित प्रेम रस सिद्धान्त, भक्ति-शतक, सेवक सेव्य सिद्धान्त, मैं कौन मेरा कौन, नारद भक्ति दर्शन, दिव्य स्वार्थ, कृपालु भक्ति धारा, कामना और उपासना आदि अगणित साहित्यों में से कोई भी ग्रन्थ पढ़ने के पश्चात पाठक के लिये कोई भी ज्ञातव्य ज्ञान शेष नहीं रह जाता। भक्तिमार्गीय साधक के लिये जितना ज्ञान आवश्यक है, वह सम्पूर्ण रूप में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित प्रवचन, संकीर्तन तथा साहित्यों में उपलब्ध है।
अतः काशी विद्वत परिषद द्वारा प्रदत्त उपाधि 'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण' श्री कृपालु जी के व्यक्तित्व में सत्यशः परिलक्षित होता है। हम सभी का सौभाग्य है कि उनके द्वारा प्रदत्त दिव्यज्ञान से लाभ प्राप्त कर अपना आत्मिक कल्याण करने का सुअवसर हमारे हाथ में है।
०० सन्दर्भ ::: 'भगवतत्त्व' पत्रिका०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 161
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें (भाग - 7) ::::::
(1) भगवान और महापुरुष को न सुकृत छू सकता है, न दुष्कृत छू सकता है, यानी न पुण्य छू सकता है, न पाप छू सकता है। यह पाप पुण्य की जो कानून की किताब है, उन पर नहीं लागू होती है। वे धर्म और अधर्म से परे हैं।
(2) वस्तुतः हमारी बुद्धि संशययुक्त है। अतः अनंत बार भगवान के अवतार एवं सिद्ध संतों के मिलने पर भी हमने उन पर विश्वास नहीं किया। और जहाँ विश्वास किया, वे सब मायिक अज्ञानी थे, अतः हम 84-लाख में भटकते रहे।
(3) कोई व्यक्ति घोड़े पर चढ़ना चाहता है और उसके लिये प्रयत्न भी करता है। प्रयत्न में वह बार बार गिरता भी है लेकिन फिर भी अगर प्रयत्न को नहीं छोड़ता तो एक दिन वह घोड़ा सवार बन ही जाता है और जो प्रयत्न नहीं करता वह वहाँ का वहाँ ही रह जाता है। यह साधक और संसार वाले में फर्क है। साधक प्रयत्न करते करते एक दिन सुधर जायेगा।
(4) सांसारिक जीव सांसारिक सुख दुःख में सुखी दुःखी होता है जबकि भगवान अथवा महापुरुष प्रत्येक अवस्था में समान रूप से शांत और आनन्दित रहते हैं। वे सांसारिक सुख दुःख से उसी प्रकार अविचलित रहते हैं जिस प्रकार अनेक नदियों के प्रवेश करने पर भी समुद्र शान्त और अविचलित रहता है।
(5) तुम्हारी जिस वस्तु में सबसे अधिक आसक्ति हो, उसी को भगवान को अर्पण कर दो। इससे तुम्हारी आसक्ति कम हो जायेगी। आसक्ति ही भगवत क्षेत्र में बाधा डालती है। तुम्हारी आसक्ति किसमें है, यह जानने के लिये चिन्तन द्वारा पता लगाओ, तत्पश्चात उस वस्तु का समर्पण कर दो।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश एवं साधन साध्य पत्रिकाएँ०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
अर्थशास्त्र के महान ज्ञानी चाणक्य ने मनुष्य के जीवन को सुखमय बनाने के लिए नीति शास्त्र की रचना की। इनकी नीतियों का अनुसरण करके कई राजाओं ने अपना राजकाज चलाया। चाणक्य की नीतियां हर वर्ग के लोगों के लिए हितकारी मानी गई हैं। इन्हें अपनाने से जीवन के कष्टों से मुक्ति मिल सकती है। अपने नीति शास्त्र में वो कहते हैं कि मनुष्य अगर तीन बातों का ख्याल रखे तो वो हमेशा खुश रह सकता है और उसके घर में लक्ष्मी का वास हो सकता है
--आइए जानते हैं इस नीति के बारे में...
मूर्खा यत्र न पूज्यन्ते धान्य यत्र सुसंचितम्।
दंपतो: कलहो नास्ति तत्र श्री: स्वयमागता।।
चाणक्य नीति के तीसरे अध्याय के इस 21वें श्लोक में चाणक्य कहते हैं कि जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहां अन्न-धान्य विपुल मात्रा में संचित रहते हैं, जहां पति-पत्नी लड़ाई नहीं करते, वहां लक्ष्मी बिना बुलाए स्वयं चली आती हैं।
उनके कहने का अर्थ है कि मनुष्य को मूर्खों की पूजा नहीं करनी चाहिए, उन्हें ज्यादा तवज्जो भी नहीं देना चाहिए. सम्मान सिर्फ ज्ञानियों का ही किया जाता है। बात भी उन्हीं की मानी जाती है, जहां मूर्खों की पूजा नहीं होती वहां लक्ष्मी का वास होता है।
आचार्य कहते हैं कि जिस घर में अनाज के भंडार भरे रहते हैं, लोग भूखे नहीं मरते हैं, अन्न का एक दाना भी न फेंका जाता हो और पति-पत्नी में कलह-क्लेश न रहता हो, वह लड़ाई-झगड़े न करते हों, ऐसे स्थान या ऐसे घर में लक्ष्मी बिना बुलाए स्वयं ही निवास करने के लिए चली आती हैं। - रामायण हिन्दू रघुवंश के राजा भगवान राम की गाथा है। । यह आदि कवि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया संस्कृत का एक अनुपम महाकाव्य, स्मृति का वह अंग है। इसे आदिकाव्य तथा इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि को 'आदिकवि' भी कहा जाता है। रामायण के छ: अध्याय हैं जो काण्ड के नाम से जाने जाते हैं, इसके 24 हजार श्लोक हैं। यह त्रेतायुग का काव्य है।रावण की सेना लाखों से ज्यादा करोड़ो की संख्या में थी, इसके बावजूद भी सिर्फ वानरों की सेना के सहारे ही प्रभु राम ने सिर्फ आठ दिन में ही युद्ध समाप्त कर रावण और अन्य राक्षसों का वध किया और धर्म की पुनस्र्थापना की।कैसी थी रावण की सेनादशग्रीव रावण की सेना में में ऐसे अदम्य बलवान और पराक्रमी राक्षस योद्धा थे जिन्हे भगवान् की सिवाय किसी और मनुष्य का हारा पाना नामुमकिन सा था इसलिए भगवान विष्णु के साथ भगवान् शिव के ग्यारहवें अंश हनुमान जी और बहुत से देवताओं के अंश ने जन्म लिया तथा हर प्रकार से मदद की।रावण की सेना में उसके प्रतापी सात पुत्र और कई भाई सेना नायक थे इतना ही नहीं रावण के कहने पर उसके भाई अहिरावण ने श्री राम और लक्ष्मण का छल से अपहरण कर मारने की कोशिश की थी। रावण स्वयं दशग्रीव था और उसके नाभि में अमृत होने के कारण लगभग अमर था।रावण का पुत्र मेघनाद (जन्म के समय रोने की नहीं बल्कि मुख से बदलो की गरज की आवाज आई थी) को स्वयं ब्रह्मा ने इंद्र को प्राण दान देने पर इंद्रजीत का नाम दिया था। ब्रह्मा ने उसे वरदान भी मांगने बोला तब उसने अमृत्व मांगा पर वो न देके ब्रह्मा ने उसे युद्ध के समय अपनी कुलदेवी का अनुष्ठान करने की सलाह दी, जिसके जारी रहते उसकी मृत्यु असंभव थी।रावण का पुत्र अतिक्या जो की अदृश्य होकर युद्ध करता था, रावण का भाई कुम्भकरण जिसे स्वयं नारद मुनि ने दर्शन शास्त्र की शिक्षा दी थी, वो अधर्म के पक्ष में है जानकार भी रावण के मान के लिए अपनी आहुति दी थी।हनुमान जी ने रावण की सेना को इस तरह बताया -- 10 हजार सैनिक पूर्वी द्वार पर तैनात हैं।- एक लाख सैनिक, चतुरंगिणी सेना के साथ दक्षिणी द्वार पर तैनात हैं।-दस लाख सेना जो हर अस्त्रों से लडऩे में निपुण हैं वो पश्चिमी द्वार पर खड़ी है।- दस लाख से ज्यादा राक्षस सेना जो रथ और घोड़े वाली है, उत्तरी द्वार पर तैनात हैं।- दस लाख राक्षस सेना जो पूरी लंका में हर तरफ तैनात हैं।रावण के भाई -कुम्भकर्ण - भगवान राम ने माराखर - भगवान राम ने मारादूषण - रभगवान राम ने माराअहिरावण - हनुमान जी ने मारारावण के सात शूरवीर पुत्र -मेघनाद - रावण का सबसे बड़ा पुत्र जिसे इंद्रजीत कहा गया, लक्ष्मण ने माराप्रहस्त - सुग्रीव के कई बलशाली योद्धाओं को मारा, युद्ध के पहले दिन ही लक्ष्मण ने मारानरान्तक - हनुमान जी ने मारादेवान्तक - हनुमान जी ने माराअतिकाय - लक्ष्मण जी ने मारात्रिशिरा - भगवान राम ने माराअक्षयकुमार - हनुमान जी ने माराकुम्भकरण के दो पुत्र -कुम्भ - सुग्रीव ने मारानिकुम्भ - हनुमान जी ने माराखर के दो पुत्र -मकराक्ष - भगवान राम ने माराविशालाक्ष -अन्य- अकम्पना - हनुमान जी ने मारा, अशनिप्रभ - द्विविद ने मारा ,धूम्राक्ष - हनुमान जी ने मारा ,दुर्धष - भगवान राम ने मारा ,जाम्बाली - हनुमान जी ने मारा ,महाकाय - भगवान राम ने मारा ,महापाश्र्वा - अंगद ने मारा,महोदर - सुग्रीव ने मारा ,प्रजनघ - अंगद ने मारा ,नगपुत्रा - अंगद ने मारा ,सारण - भगवान राम ने मारा ,समुन्नत - दुर्मुख ने मारा ,शार्दूल - जिसने बताया, राम की सेना समुद्र पार करके आ गई है ,शोनिताक्ष - अंगद ने मारा, शुक - भगवान राम ने मारा, विद्युन्माली - सुषेण ने मारा, विरूपाक्ष - लक्ष्मण जी ने मारा, यज्ञशत्रु - भगवान राम ने मारा आदि।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 160
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 6 के दोहा संख्या 30 से आगे)
मन ही शुभाशुभ कर्म करे बामा।याते मन ते ही करो भक्ति आठु यामा।।31।।
अर्थ ::: मन ही शुभ अशुभ कर्मों का कर्ता है। अतएव मन से ही श्यामा श्याम की निरन्तर भक्ति करो। केवल इन्द्रियों द्वारा की गई भक्ति, भक्ति नहीं है।
मन ने ही बाँधा कर्मपाश कह बामा।काटे पाश मन ही शरण गहि श्यामा।।32।।
अर्थ ::: जीव तो कुछ करता नहीं है। मन ने ही इसको कर्मजाल में फँसा रखा है। कर्मबन्धन में बँधा हुआ जीव जब अपने मन को श्रीराधा के शरणागत कर देता है तब यह मन ही जीव को कर्मबन्धन से मुक्त कर देता है।
माना मन अति चंचल कह बामा।बार बार समझाओ मन तेरी श्यामा।।33।।
अर्थ ::: यह सत्य है कि मन अत्यंत चंचल है किन्तु यदि मन को बार बार समझाया जाय कि श्रीराधा ही तेरी हैं (सांसारिक नातेदार तो केवल शरीर के हैं और उन नातों का आधार केवल स्वार्थ ही है) तो धीरे धीरे मन संसार से विरक्त होकर श्रीराधा में अनुरक्त हो जायेगा।
तेरे हैं अनन्त पाप कह ब्रज बामा।याते धीरे धीरे मन भायेंगी श्यामा।।34।।
अर्थ ::: हे जीव! अनादिकाल से अनन्तानन्त पाप करने के कारण तेरा मन अत्यन्त मलिन हो चुका है अतएव (साधना द्वारा अन्तःकरण शुद्धि की मात्रानुसार) श्रीराधा धीरे धीरे ही मन को अच्छी लगेंगी, एकाएक नहीं।
धीरे धीरे शिशु बने युवा कह बामा।ऐसे ही माँगो सदा देंगी प्रेम श्यामा।।35।।
अर्थ ::: जैसे एक बालक धीरे धीरे ही युवा बनता है, ऐसे ही श्री किशोरी जी की शरण में जाकर उनसे सदा उनका दिव्य प्रेम माँगते रहो, अभ्यास करते करते जिस क्षण तुम्हारी याचना शत-प्रतिशत शरणागतियुक्त हो जायेगी, उसी क्षण किशोरी जी तुम्हें दिव्य प्रेम दे देंगी।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
हस्तरेखा सामुद्रिक शास्त्र का मुख्य भाग है। कर्मों के अनुसार हथेली की रेखाएं बनती और बिगड़ती रहती हैं। ऐसे में माना जाता है कि रेखाओं का फल स्थाई नहीं रहता। ऐसे में हाथ में रेखाओं के शुभ और अशुभ संकेत बनते रहते हैं। ऐसे ही बहुत से लक्षण हैं जो भाग्योदय की ओर इशारा करते हैं।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति की हथेली में सूर्य रेखा से निकलकर कोई शाखा गुरु पर्वत तक पहुंचे तो व्यक्ति शासकीय अधिकारी बनता है।
हथेली में शुक्र पर्वत अच्छा हो, विस्तृत हो और कोई अशुभ लक्षण ना हो तो व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रहता है।
बुध पर्वत पर एक छोटा सा त्रिभुज व्यक्ति को प्रशासनिक विभाग में उच्च पद दिलाता है।
स्वास्थ्य रेखा की लंबाई मस्तिष्क रेखा और भाग्य रेखा तक ही सीमित हो तो यह अच्छा संकेत माना जाता है। ऐसी स्वास्थ्य रेखा वाले व्यक्ति का स्वास्थ्य उत्तम बना रहता है।
यदि नाखून एकदम साफ और स्वच्छ दिखाई दें तो यह भी अच्छा लक्षण है। नाखूनों पर कोई दाग-धब्बा अथवा कालापन न हो तो शुभ रहता है।
अंगूठा मजबूत, लंबा, सुंदर हो तथा मस्तिष्क रेखा भी शुभ हो तो व्यक्ति नौकरी से लाभ प्राप्त करता है।
यदि व्यक्ति की हथेली में चक्र जैसा कोई निशान बना हो तो यह महत्वपूर्ण है। हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार हथेली में चक्र का निशान अंगूठे पर हो तो व्यक्ति बहुत भाग्यशाली माना जाता है। इस प्रकार के निशान वाले व्यक्ति धनवान होते हैं। अंगूठे पर चक्र का निशान होने पर व्यक्ति ऐश्वर्यवान, प्रभावशाली और दिमाग से संबंधित कार्य में योग्य होता है। ऐसे लोग बुद्धि का प्रयोग करते हुए काफी धन लाभ प्राप्त करते हैं। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 159
(साधक की साधना की कमाई कैसे सुरक्षित रहे, इस सावधानी के संबंध में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन)
जिस वातावरण से तुमको नुकसान होने वाला है, उस वातावरण में तुम क्यों जाते हो? शास्त्र में लिखा है, धधकते अंगारों के बीच लोहे के पिंजड़े में प्राण त्याग देना अच्छा है बजाय इसके कि गलत एटमॉस्फियर में पहुँच जाना। भगवत्प्राप्ति के एक सेकण्ड पहले तक पग पग पर खतरा है। शास्त्रों का ज्ञाता, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा अजामिल भी एक क्षण के कुसंग से पापियों की एक्जाम्पिल बन गया। अनंत जन्मों का गलत अभ्यास है इसलिये बिगडऩा जल्दी हो जाता है और बनना देर में होता है। बिगडऩे की बहुत लंबी प्रैक्टिस है।
कुसंग से बचने वाली बात हम लोग बहुत कम मानते हैं। अपनी बुराई सुनते ही धक्क से लग जाती है जबकि दूसरे की बुराई बड़े गौर से सुनते हैं और करते हैं। इतनी असावधानी है इस जीव की। मान लो कोई बुरा भी है और हम उसकी बुराई को सुनते हैं तो उससे होगा क्या? एक वेश्या और एक योगी बराबर मकानों में रहते थे। वेश्या को अपने जीवन से बड़ी घृणा होती, वह योगी के बारे में चिंतन करती रहती कि इसका जीवन कितना अच्छा है। इधर योगी जी वेश्या के नीच कर्म के बारे में सोचते रहते कि यह हमारे पड़ोस में क्यों आ बसी है। मरने के बाद योगी जी को नरक मिला और वेश्या स्वर्ग को गई क्योंकि योगी का मन सदा कुसंग करता रहा और वेश्या का मन सत्संग करता रहा।
आप निर्भीक होकर कुसंग सुनते हैं, बोलते हैं। रोज कमाते हैं, रोज गँवाते हैं। हममें वह बुराई होते हुये दूसरे की बुराई करते हैं। चन्दन पर सांप का विष नहीं लगता। लेकिन तुम तो अभी चन्दन नहीं हो। गंगा पार होने पर नाव को छोड़कर नाचो कूदो, लेकिन पानी में नाव को छोडऩा खतरे से खाली नहीं।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, मार्च 2001 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 158
(जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित दोहे के माध्यम से एक विनोदमयी चर्चा)
मोसे पतितों ने दिये गोविन्द राधे।विरद पतित पावन का निभा दे।।(स्वरचित दोहा)
गोलोक में भगवान को 'पतितपावन' नाम नहीं मिला, क्योंकि वहाँ कोई पतित है ही नहीं। वहाँ तो सब शुद्ध निर्मल महापुरुष रहते हैं, भक्तवत्सल नाम उनको मिला। हमारे मृत्युलोक में आये तो हम सरीखे तमाम ढेर लाखों, करोड़ों, अरबों पतितों ने मिलकर ये प्लान बनाया कि हमारे यहाँ भगवान आये हैं, इनको कोई उपाधि देनी चाहिये। अभिनन्दन कहते हैं हमारे संसार में, उपाधि दी जाती है हमारे प्राइम मिनिस्टरों को, ऐसे बड़े बड़े लोगों को। विदेश में 'डॉक्टरेट' की उपाधि मिलती है, किसी को 'भारतरत्न' मिलता है, किसी को 'पद्म-विभूषण' मिलता है।
तो पतितों ने सोचा कुछ हम लोगों को भी देना चाहिये। तो पतितों ने मिलकर भगवान को एक नाम दिया - 'पतितपावन', पतितों को पवित्र करने वाले। अब भगवान भूल गये। क्यों जी, हम ही से तुमको उपाधि मिली और हमको ही भुला दिये, ये तो बहुत खराब बात है। अरे! एहसान मानना चाहिये कि ये पतितों ने हमको पतितपावन की उपाधि दी तो पतितों का उद्धार तो करके जायँ। ऐसे ही चले गये अपने लोक को, ये ठीक नहीं किया। खैर, चले गये, कोई बात नहीं, वहाँ से कर दो अपना काम। ये विरद निभा दो, नहीं तो जानते हो, टाइटल छीन लेंगे हम लोग!!
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सन्दर्भ ::: 'कृपालु भक्ति धारा' प्रवचन पुस्तक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
मान्यता है कि सफला एकादशी व्रत से सारे काम सफल होते हैं। सफला एकादशी 9 जनवरी को है। इस दिन भगवान विष्णु जी का आशीर्वाद पाने के लिए सफला एकादशी का व्रत रखा जाएगा। हिन्दू पंचांग के अनुसार, पौष मास कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को सफला एकादशी कहा जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने सफला एकादशी तिथि को अपने ही समान बलशाली बताया है।
वहीं पद्म पुराण के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को एकादशी तिथि का महत्त्व समझाते हुए बताया है कि सभी व्रतों में एकादशी व्रत श्रेष्ठ है। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने जनकल्याण के लिए अपने शरीर से पुरुषोत्तम मास की एकादशियों सहित कुल 26 एकादशियों को उत्पन्न किया। इसलिए एकादशी तिथि में नारायण के समान ही फल देने का सामथ्र्य है। एकादशी व्रत के बाद भगवान विष्णु की पूजा-आराधना करने वालों को किसी और पूजा की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि ये अपने भक्तों के सभी मनोरथों की पूर्ति कर उन्हें विष्णु लोक में स्थान देते हैं।
इनमें सफला एकादशी तो अपने नाम के अनुसार ही सभी कार्यों को सफल एवं पूर्ण करने वाली है। पुराणों में इस एकादशी के सन्दर्भ में कहा गया है कि हज़ारों वर्ष तक तपस्या करने से जिस पुण्य की प्राप्ति होती है वह पुण्य भक्तिपूर्वक रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी का व्रत करने से मिलता है। इस दिन दीपदान करने का भी बहुत महत्त्व बताया गया है। साधक को इस दिन उपवास रखकर भगवान विष्णु की विधिवत पूजा और आरती करनी चाहिए।
पुराणों के अनुसार राजा माहिष्मत का ज्येष्ठ पुत्र सदैव पाप कार्यों में लीन रहकर देवी-देवताओं की निंदा किया करता था। पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा ने उसका नाम लुम्भक रख दिया और उसे अपने राज्य से निकाल दिया। पाप बुद्धि लुम्भक वन में प्रतिदिन मांस और फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा। उस दुष्ट का विश्राम स्थान बहुत पुराने पीपल वृक्ष के पास था। पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन वह शीत के कारण निष्प्राण सा हो गया। अगले दिन सफला एकादशी को दोपहर में सूर्य देव के ताप के प्रभाव से उसे होश आया। भूख से दुर्बल लुम्भक जब फल एकत्रित करके लाया तो सूर्य अस्त हो गया। तब उसने वही पीपल के वृक्ष की जड़ में फलों को निवेदन करते हुए कहा- इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों। अनायास ही लुम्भक से इस व्रत का पालन हो गया जिसके प्रभाव से लुम्भक को दिव्य रूप, राज्य, पुत्र आदि सभी प्राप्त हुए। -
चाणक्य नीति की तरह विदुर नीति में भी मनुष्य के जीवन के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। विदुर जी बहुत ही विद्वान और शांत स्वाभाव के थे। आज के समय में हर कोई चाहता है कि वह धन की बचत कर पाए और उसके धन में बढ़ोत्तरी होती रहे। ज्यादातर लोगों को यही शिकायत रहती है कि उनके पास धन आता तो है, पर वह इसकी बचत नहीं कर पाते हैं और न ही धन में बढ़ोत्तरी हो रही है। यदि आपको भी यही शिकायत है तो विदुर नीति की कुछ बातों को ध्यान में रखकर आप भी अपने धन की बचत और उसमें बढ़ोत्तरी कर सकते हैं।
विदुर नीति कहती है कि जो लोग अच्छे कर्म करते हैं मां लक्ष्मी हमेशा प्रसन्न रहती हैं और स्थाई रूप से निवास करती हैं। कहने का तात्पर्य है कि जब व्यक्ति परिश्रम और ईमानदारी से कार्य करता है तो ही उसे स्थाई धन की प्राप्ति होती है। विदुर नीति के अनुसार धन का सही प्रबंधन और निवेश करना बहुत आवश्यक होता है। सही प्रकार से धन का प्रबंधन करने से बचत होती है तो वहीं सही कार्य में निवेश करने से धन लगातार बढ़ता है। यदि आप सही कार्यों में धन को लगाते हैं तो निश्चित ही धन में बढ़ोत्तरी होती है। हमेशा धन के आय और व्यय का ध्यान रखना चाहिए। यदि आय के अनुसार सोच-समझकर व्यय किया जाए तो धन की बचत होने के साथ उसमें बढ़ोत्तरी होती है साथ ही आपके घर में धन का संतुलन बना रहता है।
विदुर नीति कहती है कि मानसिक, शारीरिक और वैचारिक संयम रखने से धन की रक्षा होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि केवल शौक और इच्छाओं की पूर्ति के लिए धन का दुरपयोग नहीं करना चाहिए। धन का प्रयोग हमेशा परिवार और समाज की जिम्मदारियों को समझते हुए करना चाहिए। - हीरा अत्यंत मूल्यवान रत्न है। यह ज्योतिष शास्त्र के साथ ही फैशन की दुनिया में भी काफी महत्व रखता है। ज्योतिष शास्त्र में हीरा को शुक्र का रत्न माना जाता है। इस रत्न को धारण करने के पीछे की वजह है कि शुक्र को प्रभावी बनाना। जिन जातकों की कुंडली में शुक्र प्रभाव हीन होते हैं उनके जीवन में अनेक तरह की परेशानियां आती रहती हैं। ज्योतिष में शुक्र को प्रेम व समृद्धि का कारक माना जाता है। शुक्र की कृपा होने पर जातक सुख समृद्धि का भोगी बनता है। लेकिन यदि शुक्र खराब हो या किसी पाप ग्रह से पीडि़त हो तो ऐसे में शुक्र से मिलने वाला नहीं मिल पाता है। इसलिए ज्योतिष कहते हैं कि शुक्र को मजबूत करने के लिए हीरा धारण करें, लेकिन इससे पूर्ण एक बार कुंडली का आकलन करवाना न भूलें।किस राशि के जातक धारण करें हीरा?हीरा धारण करना वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर और कुंभ लग्न में जन्मे जातकों के लिए शुभ होता है। वृषभ और तुला लग्न के जातकों के लिए हीरा सदा लाभकारी होता है। लेकिन मेष, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन लग्न में हीरा पहनना शुभ नहीं होता है। इनमें से वृश्चिक लग्न के जातकों को तो हीरा भूल से भी नहीं पहनना चाहिए। यदि आप फैशन के तौर पर भी हीरा धारण कर रहे हैं तो आपको ज्योतिषाचार्य से परामर्श जरूर लें। अन्यथा आपको इससे हानि का सामना करना पड़ सकता है।हीरा धारण करने के फायदेहीरा धारण करने से शुक्र मजबूत होते हैं जिससे जीवन सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं रहती है। हीरा धारण करने से धारक के अंदर आत्मविश्वास व सम्मोहन शक्ति मजबूत होती है। धारक की ओर लोग आकर्षित होते हैं। प्रेम को भी यह बढ़ावा देता है। विपरीत लिंग के लोग अधिक संपर्क में आते हैं। वैवाहिक जीवन भी सुखमय होता है। ज्योतिषियों का कहना है कि कला, मीडिया, फिल्म व फैशन से जुड़े लोगों के लिए धारण करना शुभ होता है, लेकिन ज्योतिषीय परामर्श पर नहीं तो इसका बुरा असर देखने को मिलता है।हीरा धारण करने की विधियदि आप हीरा धारण करना चाहते हैं तो आपको 0.50 से 2 कैरेट तक के हीरे को चांदी या सोने की अंगूठी में जड़वाकर शुक्लपक्ष के शुक्रवार को सूर्य के उदय होने के बाद धारण करना चाहिए। हीरा धारण करने से पूर्व इसे दूध, गंगा जल, मिश्री और शहद के घोल में डाल कर रख दें, उसके बाद अगरबत्ती, दीप व धूप दिखाकर शुक्र देव के बीज मंत्र का 108 बार जाप कर मां लक्ष्मी के चरणों में रखकर उनका आह्वान कर इसे धारण करना चाहिए। ज्योतिषियों कहना है कि हीरा अपना प्रभाव 20 से 25 दिन में दिखाना शुरू कर देता है और लगभग 6 से 7 वर्ष तक अपना प्रभाव दिखाता है। इसके बाद नया हीरा धारण करना चाहिए।