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- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 126
०० जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत प्रवचनों से 5-सार बातें ::::::
(1) दिव्य प्रेमास्पद का दिव्य प्रेम ही सर्वोत्कृष्ट तत्व है। प्रेम का तात्पर्य तत्सुख सुखित्वं अर्थात प्रेमास्पद के सुख में ही सुख मानना है।
(2) आँसू बहाओ तब अंतःकरण शुद्ध होगा। जब अंतःकरण शुद्ध होगा तब गुरु उस अंतःकरण को, इन्द्रियों को दिव्य बनायेगा। तब दिव्य भगवान का दर्शन आप इन आँखों से कर सकेंगे।
(3) ब्रम्हलोक पर्यन्त के सुखों की कामना एवं पाँचों मुक्तियों की कामनाओं का त्याग करके ही विशुद्धा भक्ति सरोवर में अवगाहन करो। अन्यथा प्रेम के उज्ज्वल स्वरूप पर कामनाओं का काला धब्बा लग जायेगा।
(4) गुरु को अपना इष्टदेव, अपनी आत्मा मानो। अर्थात आत्मा से भी आराध्य है गुरु, ऐसा मानकर जो उपासना करेगा, उसी को भगवत्प्राप्ति हो सकती है।
(5) अपने अशुद्ध मन को गुरु के निर्देशन में रहकर शुद्ध करना चाहिये। गुरु द्वारा बताई हुई साधना द्वारा अंतःकरण शुद्ध कर लेने पर ही जीव दिव्य भगवद्धाम में जाने का अधिकारी बनता है।
०० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी साहित्य०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - भारतीय इतिहास अति प्राचीन है। भगवान श्री राम की पीढ़ी 65वीं है जबकि कृष्ण की 94वीं है। कृत युग से द्वापर के अन्त तक की वंशावली यहाँ दी जा रही है। भारत के प्राचीन सप्तर्षि पंचांग के अनुसार यह कालक्रम 6676 ईपू से आरम्भ होता है।पुराणों में उपलब्ध वंशावलीउपलब्ध वंशावली मनु (प्रथम मानव) से आरम्भ होती हैं और भगवान कृष्ण की पीढ़ी पर समाप्त होती है। पूरी वंशावली जो पुराणों मे उपलब्ध है, नन्द वंश तक की ही है।अयोध्याकुल इस प्रकार हैमनु , इक्ष्वाकु , विकुक्षि-शशाद ,कुकुत्स्थ ,अनेनस, पृथु , विष्टराश्व, आद्र्र, युवनाश्व, श्रावस्त, बृहदश्व, कुवलाश्व, दृढाश्व, प्रमोद, हरयश्व, निकुम्भ , संहताश्व, अकृशाश्व, प्रसेनजित् , युवनाश्व 2 , मान्धातृ, पुरुकुत्स, त्रसदस्यु , सम्भूत, अनरण्य, त्रसदश्व , हरयाश्व 2, वसुमत , त्रिधनवन्, त्रय्यारुण ,सत्यव्रत,,हरिश्चन्द्र, रोहित , हरित , विजय , रुरुक, वृक, बाहु, सगर ,असमञ्जस् ,अंशुमन्त् , दिलीप 1 , भगीरथ ,श्रुत ,नाभाग ,अम्बरीश, सिन्धुद्वीप ,अयुतायुस् ,ऋतुपर्ण ,सर्वकाम ,सुदास, मित्रसह, अश्मक, मूलक, शतरथ , ऐडविड, विश्वसह 1 ,दिलीप 2 ,दीर्घबाहु ,रघु ,अज, दशरथ, राम, लव-कुश, अतिथि, निषध , नल ,नभस् ,पुण्डरीक , क्षेमधन्वन् ,देवानीक ,अहीनगु, पारिपात्र ,बल , उक्थ ,वज्रनाभ ,शङ्खन् , व्युषिताश्व , विश्वसह 2 , हिरण्याभ ,पुष्य , ध्रुवसन्धि,सुदर्शन , अग्निवर्ण ,शीघ्र ,मरु, प्रसुश्रुत ,सुसन्धि ,अमर्ष , विश्रुतवन्त्, बृहद्बल , बृहत्क्षय।पौरवकुल इस प्रकार हैमनु , इला, पुरुरवस्, आयु , नहुष ,ययाति ,पूरु , जनमेजय , प्राचीन्वन्त् ,प्रवीर, मनस्यु, अभयद , सुधन्वन् , बहुगव ,संयति, अहंयाति, रौद्राश्व ,ऋचेयु , मतिनार, तंसु।यादवकुल इस प्रकार हैमनु , इला , पुरुरवस् ,आय, नहुष ,ययाति ,यदु ,क्रोष्टु , वृजिनिवन्त् , स्वाहि , रुशद्गु , चित्ररथ ,शशबिन्दु , पृथुश्रवस् , अन्तर , सुयज्ञ ,उशनस् ,शिनेयु , मरुत्त ,कम्बलबर्हिस् ,रुक्मकवच ,परावृत् , ज्यामघ , विदर्भ , क्रथभीम ,कुन्ति , धृष्ट , निर्वृति , विदूरथ ,दशार्ह ,व्योमन् , जीमूत , विकृति , भीमरथ, रथवर, दशरथ ,एकादशरथ, शकुनि , करम्भ ,देवरात, देवक्षत्र, देवन , मधु , पुरुवश , पुरुद्वन्त ,जन्तु, सत्वन्त् , भीम, अन्धक, कुकुर , वृष्णि ,कपोतरोमन , विलोमन् ,नल , अभिजित् ,पुनर्वसु ,उग्रसेन ,कंस , ,कृष्ण , साम्ब।श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों चन्द्रवंशी थेसमय के साथ श्रीकृष्ण यदुवंशी बने। वहीं अर्जुन पुरुवंशी हुए। बाद में कौरव और पांडव दोनों भरतवंशी या कुरुवंशी कहलाए। कथाओं के अनुसार ब्रह्मा के मानस पुत्र ऋषि अत्री और सती अनसूया से चंद्र जन्मे। इसके बाद देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा और चंद्रमा के मेल से बुध पैदा हुए। बुध और इला से ही पुत्र पुरुरवा का जन्म हुआ। इसके बाद पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के विवाह से छह पुत्रों का जन्म हुआ। जिनमें आयु नाम के पुत्र से नहुष और नहुष के बेटे ययाति हुए। ययाति के देवयानी और शर्मिष्ट से मिलन से क्रमश: यदु और पुरु जन्मे। इसी यदु और पुरुवंश में श्रीकृष्ण और अर्जुन पैदा हुए।श्री कृष्ण चंद्रवंशी या यदुवंशी?श्रीकृष्ण जी का जन्म चन्द्रवंश में हुआ। इस वंश में सातवीं पीढ़ी में राजा यदु हुए थे। यदु की 49वीं पीढ़ी में कृष्णजी हुए। यदु की पीढ़ी में होने के कारण इनको यदुवंशी बोला गया। भाटी, चुडसमा, जाडेजा, जादौन, जादव और तवणी को आज कृष्ण का ही वंशज माना जाता है। कहा जाता है कि कृष्णजी का छत्र और सिंहासन आज भी जैसलमेर के भाटी राजपरिवार के संग्रहालय में रखा है। उन्हें भी श्रीकृष्ण का वंशज कहा जाता है। मत्स्य पुराण के श्लोक 14 से 73 में वर्णित है- ऋषियों! (अब) आप लोग राजर्षि क्रोष्टु के उस उत्तम बल-पौरुष से सम्पन्न वंश का वर्णन सुनिये, जिस वंश में वृष्णि वंशावतंस भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे।मत्स्य पुराण (64-73) के अनुसार -वसुदेव-देवकीबुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजन! पुनर्वसु के आहुक नामक पुत्र और आहुकी नाम की कन्या- ये जुड़वीं संतान पैदा हुई। इनमें आहुक अजेय और लोकप्रसिद्ध था। 9 उन आहुक के प्रति विद्वान् लोग इन श्लोकों को गाया करते हैं- 'राजा आहुक के पास दस हज़ार ऐसे रथ रहते थे, जिनमें सुदृढ़ उपासंग (कूबर) एवं अनुकर्ष (धूरे) लगे रहते थे, जिन पर ध्वजाएँ फहराती रहती थीं, जो कवच से सुसज्जित रहते थे तथा जिनसे मेघ की घरघराहट के सदृश शब्द निकलते थे। उस भोजवंश में ऐसा कोई राजा नहीं पैदा हुआ जो असत्यवादी, निस्तेज, यज्ञविमुख, सहस्त्रों की दक्षिणा देने में असमर्थ, अपवित्र और मूर्ख हो।'
- (स्मृति-लेख)
'जगदगुरुत्तम-महाप्रयाण दिवस'(जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी का गोलोकगमन-दिवस)
क्या लिखें....?
..हृदय आज नतमस्तक है और मौन है। उनके शरणागत की लेखनी और उसकी वाणी में आज किंचित भी क्षमता नहीं हो सकती है, तथापि नित्य सदा सर्वदा सर्वत्र उनकी दिव्य उपस्थिति तथा उनके दिव्य मार्गदर्शन की अनुभूति करते हुये कुछ शब्द उनके प्रति प्रेम तथा कृतज्ञ भाव से लिखे जाते हैं।
आज कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि है। यह तिथि जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु जी का 'लीला संवरण' अथवा 'गोलोक महाप्रयाण दिवस' (जगद्गुरुत्तम्-महाप्रयाण दिवस) है। आज ही की तिथि में 15 नवम्बर 2013 को उन्होंने नित्य निकुंज लीला में प्रवेश कर लिया था।
स्वयं श्रीराधाकृष्ण अथवा भक्ति महादेवी ने ही 'जगद्गुरुत्तम्' रूप में अवतार लेकर इस विश्व को आध्यात्मिक रूप से पुनः संगठित किया, भक्ति के विकृत स्वरूप को सुधारकर उसका समस्त विश्व में प्रसार किया। सर्वोत्तम रस ब्रजभक्ति (माधुर्य भाव/ गोपी भाव) का श्री कृपालु महाप्रभु ने उन्मुक्त भाव से दान किया और अनधिकारी जनों को भी उस रस का अधिकारी बनाया। आध्यात्मिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में उनके किये उपकार कभी भी भुलाए ना जा सकेंगे, और ना ही उन उपकारों का ऋण उतारा जा सकेगा..
एक बात और है कि महापुरुष भौतिक दृष्टि से तो ओझल हो सकते हैं किंतु अपने शरणागत को कभी भी वे त्यागते नहीं हैं। हे कृपालु महाप्रभु ! साधक समुदाय का यह अनुभव है कि आज यद्यपि भौतिक दृष्टि से आप दिखाई नहीं देते, परंतु आपकी अनुभूति सदैव आपके शरणागतों हृदय में क्षण क्षण रहती है, आपकी कृपा से ही उनका अस्तित्व है, आप सदैव उनके साथ हो...
अपने प्रवचनों में, अपने ब्रज-साहित्यों के अक्षर-अक्षर में, श्री प्रेम मंदिर, भक्ति तथा कीर्ति मन्दिर आदि के रूप में आप अप्रकट होकर भी प्रकट रूप में विराजमान हैं। ये सभी आपकी कृपाओं तथा महानोपकारों की अलौकिक गाथा चिरयुगों तक गाते रहेंगे।
०० जगद्गुरुत्तम् कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिया गया शास्त्रों का सारांश ::::::
1. ब्रम्ह, जीव, माया तीनों सनातन हैं।
2. ब्रम्ह की पराशक्ति जीव एवं अपराशक्ति जड़ माया है. दोनों का शासक ब्रम्ह है।
3. मायाशक्ति जीव पर सदा से अधिकार किये है, क्योंकि जीव भगवान् से विमुख है।
4. भगवान् की प्राप्ति से ही जीव को दिव्य आनन्द को प्राप्ति होगी एवं माया से छुटकारा मिलेगा।
5. भगवान् की प्राप्ति एवं माया निवृत्ति भगवान् की कृपा से ही होगी।
6. भगवान् की कृपा मन से अनन्य भाव से भक्ति करने पर ही मिलेगी।
7. भक्ति में निष्काम भाव, भगवत्सेवा तथा निरंतरता आवश्यक है।
8.रूपध्यान युक्त निष्काम आँसुओं से ही अंतःकरण शुद्ध होगा।
9. अंतःकरण शुद्ध होने पर गुरुकृपा से स्वरूप शक्ति मिलेगी. तब मायानिवृत्ति एवं भगवत्प्राप्ति होगी. तभी भगवत्सेवा रूपी चरम लक्ष्य प्राप्त होगा।
आज उनके 'महाप्रयाण दिवस' पर समस्त विश्व द्वारा उनके कोमल पादपद्मों में कोटिशः नमन... - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 124
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 1 के दोहा संख्या 5 से आगे)
रसना की भक्ति ते ना बने कछु कामा।शून्य का करोड़ गुना शून्य आवे बामा।।6।।
अर्थ ::: केवल रसना आदि इन्द्रियों की भक्ति से जीवन का वास्तविक लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। शून्य में करोड़ का गुणा करने से शून्य ही प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि अन्त:करण शुद्धि तो इष्ट में मन के संयोग से ही होगी. मन का योग ही वास्तविक भक्ति है। इन्द्रियाँ भी मन के साथ लगी रहें तो ठीक है परन्तु इन्द्रियों की क्रिया का महत्व नहीं है।
देह सम कीर्तन नाम गुन धामा।प्रान समान रूप-ध्यान श्याम श्यामा।।7।।
अर्थ ::: भगवन्नाम, लीला, गुणादि का कीर्तन शरीर के समान है। श्यामा-श्याम का रुपध्यान प्राण के समान है। प्राण के बिना जिस प्रकार शरीर मृत है, उसी प्रकार रुपध्यान से रहित नाम, लीला, गुणादि का कीर्तन लाभप्रद नहीं होगा।
श्यामा श्याम नाम जपो चाहे आठु यामा।बिना प्रेम रीझें नहिं कभू श्याम श्यामा।।8।।
अर्थ ::: श्यामा-श्याम प्रेम से ही रीझते हैं अत: प्रेम रहित नाम भले ही आठों याम क्यों न लिया जाय, श्यामा-श्याम की प्रसन्नता की प्राप्ति नहीं करा सकता।
प्रेम ही है सब साधन परिणामा।प्रेम में भी भान रहे सदा निष्कामा।।9।।
अर्थ ::: समस्त साधनों का फल प्रेम ही है। 'ढाई अक्षर प्रेम के पढ़े सो पण्डित होय'। प्रेम में भी निष्कामता का सदा ध्यान रहे।
रिद्धि मिले सिद्धि मिले मिले मोक्षधामा।सब हैं अज्ञान ज्ञान प्रेम श्याम श्यामा।।10।।
अर्थ ::: रिद्धि सिद्धि की प्राप्ति या मोक्ष की प्राप्ति तो अज्ञान ही है। सच्चा ज्ञान तो वही है जिससे श्यामा-श्याम के प्रेम की प्राप्ति हो।
00 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दु:ख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढऩे पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 123
(अनन्यता एवं शरणागति का रहस्य, जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी यहाँ से पढ़ें..)
..हम लोग अनन्यता पर ध्यान नहीं देते। अनन्य शब्द का अर्थ है अन्य नहीं अर्थात् केवल एक श्यामसुन्दर से प्रेम होना ही अनन्यता है। साधक के अन्त:करण में यदि श्यामसुन्दर के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व आ जायगा तो अनन्यता में बाधा पड़ जायेगी और प्रेमास्पद उसका न बन सकेगा। देखिये, द्रौपदी के उद्धार का रहस्य।
जब द्रौपदी दु:शासन के द्वारा सभा में लायी गयी, तब द्रौपदी के समक्ष एक भयानक परिस्थिति थी। भरी सभा में एक भारत की प्रमुख नारी इस प्रकार अपमानित हो, यह अनुभवी की अन्तरात्मा ही समझ सकती है। अस्तु, द्रौपदी ने प्रथम यह सोचा कि मेरे पांच-पांच पति हैं (युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव) ये हमारी रक्षा करेंगे, अब क्या डर है! किन्तु पांचों पति जुए में हार जाने के कारण चुपचाप बैठे रहे तो द्रौपदी के अन्त:करण से पतियों का बल निकल गया। अब द्रौपदी ने सोचा कि भीष्मपितामह, द्रोणाचार्यादि बड़े बड़े धर्माचार्य रक्षा करेंगे। जब वे भी चुप रहे, तब उनका भी बल निकल गया। अब द्रौपदी के अन्त:करण से समस्त विश्व का बल निकल गया, किन्तु अपना बल रह गया अर्थात् मैं स्वयं अपनी रक्षा करूँगी। भला एक अबला का बल ही क्या है जो 10-हजार हाथी के बल वाले दु:शासन का मुकाबला कर सके। द्रौपदी ने दाँत से साड़ी दबायी। उस समय भगवान् द्वारिका में भोजन कर रहे थे। एक ग्रास मुँह में था, उसे न निगल सके, न उगल सके, एक हाथ मुँह की ओर जा रहा था, उसे न मुँह में डाल सके, न पात्र में तथा आँखें निर्निमेष खुली रह गयीं। ऐसी विलक्षण स्थिति देखकर रुक्मिणी ने पूछा, क्या बात है? भगवान ने कहा, बड़ी गंभीर बात है, एक भक्त पर कष्ट आ पड़ा है। रुक्मिणी ने कहा, तो फिर जाकर बचाओ। भगवान् ने कहा, मैंने हजार बार कहा है-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
अर्थात् मैं उसी का योगक्षेम वहन करता हूँ जो अनन्य शरणागत हो, किन्तु वह भक्त अभी अपने बल का विश्वास कर रहा है। अस्तु, दु:शासन ने जैसे ही साड़ी को झटका दिया, वैसे ही द्रौपदी के हाथ से साड़ी खिसक गयी।
अब द्रौपदी ने अपने बल का परित्याग कर दिया। अब केवल श्यामसुन्दर के ही बल पर निर्भर हो गयी। बस, अनन्य हो गयी। अम्बरावतार हो गया अर्थात् चीर बढ़ाने के लिये भगवान् तत्क्षण पहुँच गये। भावार्थ यह है कि उपासना में अनन्यता प्रमुख वस्तु है, जिस पर लोगों का विशेष दृष्टिकोण नहीं रहता।
कुछ लोग भगवान् से भी प्रेम करते हैं किन्तु साथ ही अन्य देवताओं या संसारियों से भी प्रेम करते हैं, अतएव भगवत्प्राप्ति नहीं हो पाती। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि एक मन है, उसमें एक श्यामसुन्दर सम्बन्धी ही विषय रहे, अन्य मायिक सत्त्व, रज, तम सम्बन्धी तत्त्व न आने पायें। आजकल प्राय: उपासक लोग अनेक देवी-देवताओं की उपासना साथ-साथ करते रहते हैं। भगवान् की भी करते हैं, और यदि अवसर देखा तो कब्रिस्तान की भी कर लेते हैं। यह सब धोखा है। जब समस्त मायिक एवं अमायिक शक्तियों का मूल अधिष्ठान भगवान् ही है तो पृथक्-पृथक् उपासना क्यों की जाये? यह सिद्धान्त समझ लेना चाहिये कि सम्पूर्ण शक्तियों की उपासना करने पर भी भगवान् की उपासना नहीं मानी जायगी, किन्तु एक भगवान् की उपासना कर लेने पर सम्पूर्ण शक्तियों की उपासना मान ली जायगी।
येनार्चितो हरिस्तेन तर्पितानि जगंत्यपि।रज्यंते जन्तवस्तत्र स्थावरा जंगमा अपि॥(भ0र0सि0)
अर्थात् जिसने हरि की उपासना कर ली, उसने सबकी कर ली, सबकी तृप्ति हो गयी। वेदव्यास जी कहते हैं-
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा:।प्राणोपहाराच्चं यथेन्द्रियाणां तथैवं सर्वार्हणमच्युतेज्या॥(भागवत 4-31-14)
अर्थात् जैसे वृक्ष के मूल में जल देने से वृक्ष की शाखा, उपशाखा एवं उसके पत्र, फूल, फल सब को जल पहुँच जाता है, पृथक्-पृथक् जल देने की आवश्यकता नहीं रहती, वैसे ही समस्त शक्तियों के आधारभूत भगवान् की उपासना कर लेने पर समस्त शक्तियों की उपासना स्वयंमेव हो जाती है, तदर्थ पृथक् से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। किन्तु, जिस प्रकार समस्त पत्र, पुष्प, फलादि में जल देने से भी मूल को जल नहीं प्राप्त होता, यहाँ तक कि उस फल-फूलादि को भी जल भीतर से नहीं मिलता, उसी प्रकार समस्त देव दानव-मानव की उपासना से न उनकी तृप्ति ही होती है और न भगवान् की उपासना कहलाती है। अतएव उपासना केवल असीम दिव्य ईश्वर की ही करनी चाहिये, अन्य में आदरभावमात्र रखना चाहिए, जैसे एक पतिपरायणा स्त्री अपने पति में एकानुराग रखती है, किन्तु अपने अन्य देवर, ज्येष्ठ, सास, ससुर, नौकर आदि के प्रति आदर की बुद्धि रखती है।
(प्रवचनकर्ता - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य00 सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति के आधीन। - हिंदू धर्म में सबसे शुभ और पुण्यदायी मानी जाने वाली एकादशी, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष को मनाई जाती है। यह देवउठनी एकादशी 25 नवंबर, बुधवार को है, जिसे हरिप्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।पौराणिक मान्यता के अनुसार आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी के बीच श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर भादों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं। पुण्य की वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल एकादशी को निद्रा से जागते हैं। इसी कारण से सभी शास्त्रों इस एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है। देवउठनी एकादशी दिवाली के बाद आती है। इस एकादशी पर भगवान विष्णु निद्रा के बाद उठते हैं इसलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहा जाता है।मान्यता है कि भगवान विष्णु के चार महीने के लिए क्षीर सागर में निद्रा करने के कारण चातुर्मास में विवाह और मांगलिक कार्य थम जाते हैं। फिर देवोत्थान एकादशी पर भगवान के जागने के बाद शादी- विवाह जैसे सभी मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते हैं। इसके अलावा इस दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का धार्मिक अनुष्ठान भी किया जाता है।देवउठनी एकादशी का शुभ मुहूर्तज्योतिषाचार्य डॉ.दत्तात्रेय होस्केरे ने बताया कि हिन्दी पंचाग के अनुसार मंगलवार 24 तारीख की मध्य रात्रि 2.42 मिनट से बुधवार 25 तारीख की रात्रि 5.10 मिनट तक एकादशी तिथि है। 25 तारीख को शाम 6.20 मिनट से रात्रि 8.00 तक तुलसी विवाह के लिए शुभ मुहुर्त है।डॉ.दत्तात्रेय होस्केरे के अनुसार जब भी द्वादशीयुक्त एकादशी होती है, तो उसी दिन देवउठनी एकादशी मनाने का प्रावधान है। यह योग 25 तारीख को बन रहा है। इसीलिए 25 तारीख को भी प्रबोधिनी एकादशी मनाई जाएगी।कैसे करें तुलसी पूजनतुलसी के पौधे के चारों तरफ गन्ने से स्तंभ बनाएं। फिर उस पर तोरण सजाएं। रंगोली से अष्टदल कमल बनाएं। शंख,चक्र और गाय के पैर बनाएं। तुलसी के साथ आंवले का गमला लगाएं। तुलसी की पंचोपचार सर्वांग पूजा करें। दशाक्षरी मंत्र से तुलसी का आवाहन करें। तुलसी का दशाक्षरी मंत्र-श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा। घी का दीप और धूप दिखाएं। सिंदूर,रोली,चंदन और नैवेद्य चढ़ाएं। तुलसी को वस्त्र अंलकार से सुशोभित करें। फिर लक्ष्मी अष्टोत्र या दामोदर अष्टोत्र पढ़ें। तुलसी के चारों ओर दीपदान करें।दिव्य तुलसी मंत्र -देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरै: । नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये ।।(1) ओम श्री तुलस्यै विद्महे।विष्णु प्रियायै धीमहि।तन्नो वृन्दा प्रचोदयात।।(2) तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी।धम्र्या धर्मानना देवी देवीदेवमन: प्रिया।।लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत।तुलसी भूर्महालक्ष्मी: पद्मिनी श्रीर्हरप्रिया।।मां तुलसी की स्तुतिनमो नमो तुलसी महारानीनमो नमो हरि की पटरानीजाको दरस परस अघ नासेमहिमा वेद पुराण बखानीसाखा पत्र, मंजरी कोमलश्रीपति चरण कमल लपटानीधन्य आप ऐसो व्रत किन्होंसालिग्राम के शीश चढ़ानीछप्पन भोग धरे हरि आगेतुलसी बिन प्रभु एक ना मानीप्रेम प्रीत कर हरि वश किन्हेंसांवरी सूरत ह्रदय समानीमीरा के प्रभु गिरधर नागरभक्ति दान दीजै महारानी।
- - देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने दीपक अवश्य जलाना चाहिए। देवउठनी एकादशी के दिन आपको सूर्योदय से पहले उठ जाना चाहिए। देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के नाम का कीर्तन भी करना चाहिए।- देवउठनी एकादशी के दिन निर्जल व्रत रखना चाहिए।एकादशी पर किसी भी पेड़-पौधों की पत्तियों को नहीं तोडऩा चाहिए।- एकादशी वाले दिन पर बाल और नाखून नहीं कटवाने चाहिए।-एकादशी वाले दिन पर संयम और सरल जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। इस दिन कम से कम बोलने की किसी कोशिश करनी चाहिए और भूल से भी किसी को कड़वी बातें नहीं बोलनी चाहिए।- हिंदू शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। एकादशी वाले दिन पर किसी अन्य के द्वारा दिया गया भोजन भी नहीं करना चाहिए।- एकादशी पर मन में किसी के प्रति विकार नहीं उत्पन्न करना चाहिए ।- इस तिथि पर गोभी, पालक, शलजम आदि का सेवन न करें।-देवउठनी एकादशी का व्रत रखने वाले व्यक्ति को बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए- दक्षिणावर्ती शंख से करें विष्णु जी की पूजा- देवउठनी एकादशी के दिन दक्षिणावर्ती शंख से भगवान विष्णु की पूजा जरूर करनी चाहिए और शंख में गंगाजल भरकर भगवान विष्णु जी का अभिषेक करना चाहिए। ऐसा करने से आपके ऊपर भगवान विष्णु की कृपा बनी रहेगी।- प्रबोधिनी एकादशी के दिन जगत के पालनहार भगवान विष्णु जी को पीले रंग का प्रसाद जरूर चढ़ाना चाहिए। मान्यता है कि भगवान विष्णु को पीले रंग का प्रसाद और फल चढ़ाने पर जल्दी खुश होते हैं और अपना आशीर्वाद देते हैं।- अगर आप भगवान विष्णु का आशीर्वाद चाहते हैं तो देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु के साथ माता लक्ष्मी की पूजा जरूर करें ऐसा करने से धन लाभ होता है और आर्थिक जीवन आ रही समस्याएं दूर हो जाती हैं।- तुलसी विवाह का करें आयोजन- देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह की प्रथा है। इस एकादशी को तुलसी के पौधे और भगवान शालीग्राम का विधि अनुसार विवाह करें। संध्याकाल में तुलसी के पौधे पर एक घी का दीपक जरूर जलाएं। ऐसा करने से जीवन में सुख-संपत्ति और वैभव का आगमन होता है।- कच्चे दूध से करें विष्णुजी का अभिषेक-माना जाता है कि देवउठनी एकादशी के दिन एक लोटा जल में गाय के कच्चे दूध को मिलाकर भगवान विष्णु का अभिषेक करने से सारे पाप धुल जाते हैं। साथ ही यह उपाय शरीर के रोग-दोष को दूर सकता है।- तुलसी विवाह की पूजा में मूली, शकरकंदी, आंवला, सिंघाड़ा, सीताफल, बेर, अमरूद और अन्य मौसमी फल चढ़ाएं। इसके अलावा तुलसी के पौधे को आंगन के बीचों-बीच चौकी पर रखें और तुलसी जी को मेहंदी, फूल, चंदन, मौली धागा और सिंदूर जैसी सुहाग की चीजें अर्पित करें।- एकादशी के दिन श्रीहरि को तुलसी चढ़ाने का फल दस हज़ार गोदान के बराबर है। जिन दंपत्तियों के यहां संतान न हो वो तुलसी नामाष्टक पढ़ें। तुलसी नामाष्टक के पाठ से न सिर्फ शीघ्र विवाह होता है बल्कि बिछुड़े संबंधी भी करीब आते हैं। नए घर में तुलसी का पौधा, श्रीहरि नारायण का चित्र या प्रतिमा और जल भरा कलश लेकर प्रवेश करने से नए घर में संपत्ति की कमी नहीं होती।-नौकरी पाने, कारोबार बढ़ाने के लिये गुरुवार को श्यामा तुलसी का पौधा पीले कपड़े में बांधकर, ऑफिस या दुकान में रखें। ऐसा करने से कारोबार बढ़ेगा और नौकरी में प्रमोशन होगा।-जिन दंपत्तियों के यहां संतान नही है उन्हें देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी नामाष्टक का पाठ अवश्य करना चाहिए।-देवउठनी एकादशी के व्रत में नमक का प्रयोग बिल्कुल भी न करें हो सके तो इस दिन फलाहार से ही अपने व्रत का पारण करें।- देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु को जगाने के लिए घंटा बजाया जाता है। इसलिए इस दिन व्रत करने वाले व्यक्ति को पूजन के घंटा बजाकर भगवान विष्णु को जगाना चाहिए।-देवउठनी एकादशी पर गाय को भोजन अवश्य कराएं और किसी निर्धन व्यक्ति या ब्राह्मण को भी इस दक्षिणा अवश्य दें।
- झाड़ू हर जगह पर इस्तेमाल होती है फिर चाहे वो घर हो या फिर ऑफिस हर जगह लोग इसे साफ-सफाई के दौरान इसका इस्तेमाल करते है। वास्तु के मुताबिक, यदि झाड़ू लगाने में या रखने में सावधानी न बरती जाए तो घर की पूरी बरकत चली जाती है। इसलिए झाड़ू का इस्तेमाल करते समय कुछ सावधानियां अवश्य बरतें, जैसे कि -टूटी झाड़ू का न करें इस्तेमालअगर घर में इस्तेमाल की गई झाड़ू टूट गई है तो ऐसे में उसका इस्तेमाल नहीं करें। कई बार लोग झाड़ू टूट जाने पर उसकी तीलियों को जोड़कर फिर से उसका इस्तेमाल करते हैं, जो कि गलत है। वास्तु के हिसाब से ऐसा करना अशुभ होता है।यहां कभी नहीं रखें झाड़ूझाड़ू रखने के लिए एक खास जगह निर्धारित कर लें। वहां पर कभी भी झाड़ू ना रखें जहां पर जेवरात या कीमती सामान हो या फिर तिजोरी है। इन स्थानों पर झाड़ू रखने से कारोबार-संपत्ति पर बुरा असर पडऩे लगता है।झाड़ू खड़ी करके ना रखेंघर में झाड़ू का इस्तेमाल करने के बाद उसे खड़ा रखने की बजाए लेटा दें। झाड़ू को कभी भी खड़ा करके न रखें। इस अवस्था में झाड़ू बड़ी अपशगुन मानी जाती है। झाड़ू को हमेशा जमीन पर लेटाकर ही रखें। इससे जेब या बैंक बैलेंस कभी खाली नहीं रहेगा।शाम के वक्त ना लगाए झाड़ूअगर आपने सुना होगा मां या दादी से की शाम के वक्त झाड़ू नहीं लगाना चाहिए औऱ ये सही भी है क्योंकि ऐसा करने से मां लक्ष्मी बुरा मान जाती है। इसलिए शाम या रात के समय घर या ऑफिस में झाड़ू न लगाएं। यदि मजबूरन ऐसा करना पड़ रहा है तो कम से कम कचरा बाहर न निकालें।झाड़ू पर पैर ना लगाएंझाड़ू को लक्ष्मी के समान माना जाता है। इसलिए हमेशा ध्यान रखें कि किसी भी इंसान का पैर झाड़ू पर न लगे। इससे लक्ष्मी का अपमान होता है। इसका अनादर होने से घर में कई तरह की आर्थिक परेशानियां आ सकती हैं।शनिवार के दिन बदलें झाड़ूयदि आप घर या ऑफिस में इस्तेमाल होने वाली झाड़ू को बदलना चाह रहे हैं तो इसके लिए शनिवार का दिन बेहतर होता है। शनिवार को नई झाड़ू का उपयोग करना शुभ माना जाता है।
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कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को आंवला नवमी का त्योहार बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। 23 नवंबर यानी सोमवार को आंवला नवमी का पावन पर्व मनाया जाएगा।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, आंवला नवमी के दिन भगवान विष्णु और शिवजी आंवले में वास करते हैं। इस दिन आंवले के पेड़ की पूजा करने से आरोग्यता और सुख-समृद्धि बनी रहती है। मान्यता यह भी है कि इस दिन आंवले के पेड़ के नीचे बैठकर भोजन करने से दरिद्रता दूर होती है। साथ ही सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
अनूठा है यह पूजन
आंवला नवमी पर आंवले के पेड़ के नीचे पूजा और भोजन करने की प्रथा की शुरुआत माता लक्ष्मी ने की थी। कथा के अनुसार, एक बार मां लक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण पर आईं। रास्ते में उनके मन में भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा करने की इच्छा हुई। धरती पर आकर मां लक्ष्मी सोचने लगीं कि भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा एक साथ कैसे की जा सकती है। तभी उन्हें याद आया कि तुलसी और बेल के गुण आंवले में पाए जाते हैं। तुलसी भगवान विष्णु को और बेल शिवजी को प्रिय है।
उसके बाद मां लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ की पूजा करने का निश्चय किया. मां लक्ष्मी की भक्ति और पूजा से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और शिवजी साक्षात प्रकट हुए. मां लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाया और दोनों को श्रद्धापूर्वक खिलाया. उसके बाद उन्होंने खुद भी वहीं भोजन ग्रहण किया। मां लक्ष्मी की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु और शिवजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि जो भी महिला आंवले के पेड़ की पूजा कर यहां भोजन ग्रहण करेगी, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। मान्यताओं के अनुसार, आंवला नवमी के दिन अगर कोई महिला आंवले के पेड़ की पूजा कर उसके नीचे बैठकर भोजन ग्रहण करती है तो भगवान विष्णु और शिवजी उसकी सभी इच्छाएं पूर्ण करते हैं।
आंवला नवमी पूजा विधि
आंवला नवमी के दिन विशेष तौर पर आंवले के पेड़, भगवान विष्णु और भगवान शिव की पूजा की जाती है। उस दिन इस विधि-विधान से पूजा करें।
1. आंवला नवमी के दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करके आंवले की पेड़ की पूजा करें
2. उसके बाद आंवले के पेड़ की जड़ में दूध चढ़ाएं और रोली, अक्षत, फूल, गंध आदि से पवित्र पेड़ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना करें
3. फिर आंवले की पेड़ की सात बार परिक्रमा करें और दीये जलाएं
4. इस दिन अगर आप किसी वजह से आंवले के पेड़ की पूजा या उसके नीचे बैठकर भोजन ग्रहण नहीं कर पाएं तो इस दिन आंवला जरूर खाएं
आंवले के लाभ
आंवला एकमात्र ऐसा फल है, जिसे उबालने पर भी विटामिन सी जस-का-तस रहता है। आंवले का सेवन करने से त्वचा स्वस्थ होती है, साथ ही सिरदर्द, ब्लड प्रेशर, पेचिस, बुखार और शुगर जैसी कई बीमारियों में आंवले का सेवन लाभकारी होता है। -
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को गोपाष्टमी मनाई जाती है। 22 नवंबर को गोपाष्टमी मनाई जा रही है। गोपाष्टमी के दिन गाय और बछड़ों की उपासना की जाती है। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार, इस दिन गाय की पूजा करने से मनचाहे फल की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार वैसे तो गोपाष्टमी शनिवार, 21 नवंबर को रात 9 बजकर 48 मिनट से शुरू हो चुकी है, लेकिन उदया तिथि 22 नवंबर होने की वजह से गोपाष्टमी 22 नवंबर को ही मनाई जाएगी. इसका समापन 22 नवंबर को रात 10 बजकर 51 मिनट पर होगा। गोपाष्टमी के दिन गौ माता को स्वच्छ जल से नहलाएं। इसके बाद रोली और चंदन से गौ माता का तिलक करें। उनके पैर छूएं और आशीर्वाद लें। पूजा में फूल, मेहंदी, अक्षत् और धूप का विशेष रूप से इस्तेमाल करें। पूजा के बाद ग्वालों को दान-दक्षिणा दें और उनका आदर सम्मान करें। इसके बाद गौमाता को प्रसाद का भोग लगाएं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन गौमाता की परिक्रमा करने के बाद उन्हें कुछ दूर तक टहलाने के लिए लेकर जाना चाहिए। ऐसा करने से आपको मनोवांछित फल प्राप्त होंगे। उनके चरण रज को माथे पर लगाने से सुख-सौभाग्य में वृद्धि होती है। -
आज गोपाष्टमी पर विशेष
आज गोपाष्टमी मनाई जा रही है। आज के दिन गौ-माता की पूजा अर्चना की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार में गाय में देवी-देवताओं का वास होता है। गाय की सेवा से पुण्यफल की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि इस दिन पूरे मन से गौ-माता की आराधना करने से जातकों की हर मनोकामना पूरी होती है। गोपाष्टमी पर पढ़ें गोपाष्टमी की व्रत कथा-
पौराणिक कथा के अनुसार भगवान ने जब छठे वर्ष की आयु में प्रवेश किया तब एक दिन भगवान माता यशोदा से बोले - मैया अब हम बड़े हो गए हैं।
मैया यशोदा बोली - अच्छा लल्ला अब तुम बड़े हो गए हो तो बताओ अब क्या करें?
भगवान ने कहा - अब हम बछड़े चराने नहीं जाएंगे, अब हम गाय चराएंगे।
मैया ने कहा - ठीक है बाबा से पूछ लेना मैय्या के इतना कहते ही झट से भगवान नन्द बाबा से पूछने पहुंच गए
बाबा ने कहा - लाला अभी तुम बहुत छोटे हो अभी तुम बछड़े ही चराओ
भगवान ने कहा - बाबा अब मैं बछड़े नहीं गाय ही चराऊंगा
जब भगवान नहीं माने तब बाबा बोले- ठीक है लाल तुम पंडित जी को बुला लाओ- वह गौ चारण का मुहूर्त देख कर बता देंगे
बाबा की बात सुनकर भगवान् झट से पंडित जी के पास पहुंचे और बोले -पंडित जी, आपको बाबा ने बुलाया है, गौ चारण का मुहूर्त देखना है, आप आज ही का मुहूर्त बता देना मैं आपको बहुत सारा माखन दूंगा।
पंडित जी नंद बाबा के पास पहुंचे और बार-बार पंचांग देख कर गणना करने लगे तब नंद बाबा ने पूछा, पंडित जी के बात है? आप बार-बार क्या गिन रहे हैं? पंडित जी बोले, क्या बताएं नंदबाबा जी, केवल आज का ही मुहूर्त निकल रहा है, इसके बाद तो एक वर्ष तक कोई मुहूर्त नहीं है। पंडित जी की बात सुन कर नंदबाबा ने भगवान को गौ चारण की स्वीकृति दे दी।
भगवान जो समय कोई कार्य करें वही शुभ-मुहूर्त बन जाता है। उसी दिन भगवान ने गौ चारण आरम्भ किया और वह शुभ तिथि थी कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष अष्टमी, भगवान के गौ-चारण आरम्भ करने के कारण यह तिथि गोपाष्टमी कहलाई।
माता यशोदा ने अपने लल्ला के श्रृंगार किया और जैसे ही पैरो में जूतियां पहनाने लगी तो लल्ला ने मना कर दिया और बोले मैया यदि मेरी गौएं जूतियां नहीं पहनती तो में कैसे पहन सकता हूं। यदि पहना सकती हो तो उन सभी को भी जूतियां पहना दो... और भगवान जब तक वृंदावन में रहे, भगवान ने कभी पैरों में जूतियां नहीं पहनी। आगे-आगे गाय और उनके पीछे बांसुरी बजाते भगवान उनके पीछे बलराम और श्री कृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वाल-गोपाल इस प्रकार से विहार करते हुए भगवान ने उस वन में प्रवेश किया तब से भगवान की गौ-चारण लीला का आरंभ हुआ। - - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 122
आज 'गोपाष्टमी' है। इस दिन विशेष रूप से श्री गौमाता जी की पूजा-अर्चना होती है। ब्रजरस-प्रेमियों की दृष्टि में आज ही के दिन नन्द-यशोदा के नन्दन श्रीकृष्ण प्रथम-बार गोचारण अर्थात गैया चराने गये थे। श्रीकृष्ण को गायें अत्यन्त प्रिय हैं। गायों के सेवक हैं श्रीकृष्ण, इसी से वे गोपाल कहलाये हैं। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपनी 11111-दोहों के ग्रन्थ 'राधा गोविन्द गीत' में श्रीकृष्ण की गोचारण लीला का बड़ा सरस वर्णन किया है। अपने अन्य ग्रंथों यथा 'प्रेम-रस-मदिरा' में भी गोचारण के पदों की रचना उन्होंने की है। प्रस्तुत भाव 'राधा गोविन्द गीत' की 'लीला-माधुरी' खण्ड के दोहे हैं। जो कि ब्रज-रस-माधुरी पुस्तक ग्रन्थ में भी वर्णित हैं। आइये इन दोहों का आधार लेकर मन से इस लीला में प्रवेश करें :::::::
(ब्रज रस माधुरी पुस्तक)भाग - 1, पृष्ठ संख्या 295, 2010 संस्करण
ग्वाल बाल गोपाल गोविन्द राधे, गोपाष्टमी को गो पूजन करा दे।।छोटो सो कन्हैया गोविन्द राधे, चल्यो है चरावन गैया बता दे।।एक काँधे पै तो गोविन्द राधे, धरि ली कन्हैया ने कामरी बता दे।।दूजे काँधे पै गोविन्द राधे, छोटी सी धरि ली लठिया बता दे।।छोटी सी मुरली को गोविन्द राधे, कान्ह ने खोंस ली फेंट में बता दे।।सिर पर मोरपंख गोविन्द राधे, कमर में पतरी करधनी बता दे।।गल में वनमाल गोविन्द राधे, पग में नुपूर कनक बता दे।।कटि पीताम्बर गोविन्द राधे, कछनी भी कछी मैया ने बता दे।।संग में है भैया गोविन्द राधे, मनसुख आदि सखावृन्द बता दे।।वंशीवट जाके गोविन्द राधे, बैठे तरु छाया में बता दे।।गैया चरन लागी गोविन्द राधे, हरी हरी घास बड़े चाव से बता दे।।चारों ओर सखा सब गोविन्द राधे, बीच में बैठे कन्हैया बता दे।।मुरली मधुर तान गोविन्द राधे, छेड़ी कान्ह ने तबहीं बता दे।।गैयान कानन को गोविन्द राधे, दोना बनाय सुनै तान बता दे।।छोटे बड़े सखा सब गोविन्द राधे, हास परिहास करें कान्ह सों बता दे।।जहाँ बैठे घनश्याम गोविन्द राधे, तहाँ भई भीर गोपियों की बता दे।।नभ में विमानन गोविन्द राधे, बैठी लखें देव अंगनायें बता दे।।भैया ने कहा कन्हैया गोविन्द राधे, अब चलो घर भई साँझ बता दे।।
00 उपरोक्त भाव-दोहों का सरलार्थ ::::::
'गोपाष्टमी' ही वह पावन दिन है जिस दिन बालकृष्ण नन्दबाबा तथा माता यशोदा जी से आज्ञा लेकर प्रथम बार गोचारण को जाते हैं। इस दिन उन्होंने समस्त ब्रजवासियों के साथ गोमाता की पूजा-अर्चना की थी। उनके गोचारण लीला की एक मधुर झाँकी ऐसी है कि छोटे से गोपाल कृष्ण अगनित गायों को साथ लेकर गोचारण को जा रहे हैं।
उन्होंने एक काँधे पर कामरी ओढ़ रखी है। और दूसरे काँधे पर उन्होंने छोटी सी लठिया (लाठी) धारण कर रखी है। छोटी सी मुरलिया को छोटे से कन्हैया ने अपनी फेंट में खोंस ली है। गोपालक गोपाल के सिर पर मोरपंख तथा कमर में पतली सी करधनी बँधी हुई है। गले में उन्होंने वनमाला धारण की हुई है तथा पैरों में सोने के नुपूर पहने हुये हैं। मैया यशोदा ने अपने लाला को पीताम्बर धारण कराया है तथा कछनी भी कसी हुई है।
ऐसे मनोहारी छवि वाले गोपाल कृष्ण के सँग भैया बलराम तथा धनसुख, मनसुख आदि अनगिनत सखाओं का समूह है। सभी वंशीवट पहुँचकर एक विशाल सघन वृक्ष की छाया में बैठ गये हैं, यह झाँकी ऐसी है कि समस्त सखावृन्द के मध्य में श्रीकृष्णचन्द्र विराजमान हैं। सभी गायें चारों ओर फैली हुई हरी-भरी घास चरने लगी हैं। कुछ देर बाद श्रीकृष्णचन्द्र अपनी मुरली की मधुर तान छेड़ देते हैं। इस मधुर तान को गैया बड़ी मगन होकर सुनने लगी हैं, ऐसा लग रहा है मानो मुरली के मधुर रस को वे अपने दोनों कानों को दोना बनाकर ग्रहण कर रही हैं।
वन की इस गोचारण लीला में सभी सखा अपने सखा कृष्ण के साथ निर्बाध हास-परिहास तथा क्रीड़ा आदि करते हैं। ब्रज की गोपियाँ इस सुन्दर शोभा को निहारने के लिये कन्हैया के चारों एकत्रित हो जाती हैं। इस लीला-माधुरी को आकाश में विचरती स्वर्गादिक देवांगनाएँ भी एकटक मुग्ध होकर निहारने लगती हैं। जैसे जैसे शाम ढलने लगती है, भैया बलदाऊ अपने भ्राता कृष्ण से कहते हैं कि लाला! चलो गैयाओं को लिवा लायें, अब साँझ ढलने लगी है। समस्त गैयाओं को साथ लेकर ब्रजराजकुमार नंदनन्दन गोपाल मीठी-मीठी बाँसुरी बजाते हुये, गैयाओं की पैरों से उठी धूल से धूसरित होकर गोकुल में प्रवेश करते हैं। समस्त ब्रजगोपियाँ, गोप, मैया आदि इस झाँकी पर बारम्बार 'बलिहार-बलिहार' कहते हुये बलिहार जाकर आनन्दित हो रहे हैं।
00 सन्दर्भ (केवल दोहे) ::: ब्रज-रस-माधुरी, भाग - 1 (2010 संस्करण)00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 121
(श्रीधाम वृन्दावन की एक मधुर झाँकी का वर्णन)
..अपने नित्यधाम वृन्दावन में सदा किशोरी जी (श्रीराधा) जाती हैं।
कैसे जाती हैं?
- श्यामसुन्दर के साथ जाती हैं।
- साथ में कैसे जाती हैं?
- एक दूसरे के गले में हाथ डाल कर जाते हैं।
- आँखों में प्यार और कृपा, इन दो शक्तियों को भर कर, इधर-उधर सखियों की ओर देखते हुये जाती हैं।
ऐसी किशोरी जी का मैं ध्यान करता हूँ। ऐसी सत्, चित्, आनन्द रूप किशोरी जी का ध्यान करता हूँ।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत)
00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, मार्च 2001 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 120
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचनों से नि:सृत साधना-स्मरण सम्बन्धी 5-सार बातें (भाग - 1) :::::
(1) भगवान कहते हैं विश्वास करो, मेरा स्मरण करो और कुछ न करो। बस। मैं सब कुछ करुँगा तुम्हारा। तुम खाली स्मरण करो, बाकी सब काम मैं करुँगा और सदा के लिए अपना बना लूँगा। बस तुम उनको न भूलो.
(2) अपने को अच्छा कहलवाना, उसको बंद करना होगा। अच्छा बनने का प्रयत्न करना होगा, अच्छा कहलवाने का नहीं। अच्छा बनने का प्रयत्न करो और किसी के किसी वाक्य को फील न करने का अभ्यास करो।
(3) दान करना बहुत आवश्यक है। अगर दान नहीं करोगे तो अगले जन्म में दरिद्री बनोगे। दरिद्र बनकर पेट के लिये पाप करोगे। तो जब पाप करोगे तो मरने के बाद फिर दरिद्री बनोगे, फिर पाप करोगे, ये लिंक बन जाती है उसकी दु:ख भोगने की।
(4) कोई सेवा कार्य हो, तो सेवा कार्य को करो लेकिन उसमें भावना सब वही भरी रहे, जो तुम्हारे लक्ष्य की है कि हम श्यामसुन्दर की प्रसन्नता के लिये कर रहे हैं।
(5) चाहे अनंतकोटि काल तक तुम साधक बने रहो, एक क्षण को भी अगर तुमने ये भुला दिया हमारे श्रीकृष्ण नहीं है, गुरु नहीं है, बस अपराध कर जाओगे। बच नहीं सकते।
00 सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - -जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 119
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' का महात्म्य/प्रस्तावना तथा दोहे
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय ::: ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
आइये इस रसमय ग्रन्थ में रचे गये दोहों का पठन तथा चिन्तन कर हम सभी अपनी आत्मोन्नति के लिये लाभ प्राप्त करें ::::::
श्यामा रटें श्याम श्याम श्याम रटें श्यामा।श्यामा श्याम आठु याम रटें ब्रजबामा।।1।।
अर्थ ::: श्रीवृषभानुनन्दिनी निरन्तर श्याम श्याम की रटना करती हैं। नंदनंदन प्रति पल राधे राधे रटते हैं। ब्रजगोपियाँ रात-दिन श्यामा-श्याम के सरस नामामृत का पान करती हैं।
मनमानी तजु भज श्याम अरु श्यामा।जाने कब तनु छिन जाय कह बामा।।2।।
अर्थ ::: अरे जीव! मनमानी छोड़कर निरन्तर श्यामा-श्याम का स्मरण कर। न जाने मृत्यु कब तुझसे यह मानव-शरीर छीन ले।
मैं, मैं, मैं, मैं काहे करे मूढ़ आठु यामा।अज जानि काल वृक भेजे यम धामा।।3।।
अर्थ ::: अरे मूर्ख! बकरे के समान रात दिन मिथ्या अभिमान-वश 'मैं मैं' क्यों करता है? काल-रूपी भेड़िया तुझे यमलोक भेजने की तैयारी में लगा है।
भुक्ति मुक्ति सुख सुख वैकुण्ठ धामा।तजु काम एक नाम रटु श्याम श्यामा।।4।।
अर्थ ::: ब्रम्हलोक-पर्यन्त के सुख, मुक्ति की कामना एवं बैकुण्ठ लोक की भी कामना का परित्याग कर एकमात्र श्यामा-श्याम का नाम रट।
शुक के समान जनि रटु श्याम श्यामा।बक के समान ध्यान करु कह बामा।।5।।
अर्थ ::: हे जीव! तोते के समान भाव से अनभिज्ञ रहकर केवल रसना से श्यामा-श्याम रटने से काम नहीं बनेगा। बगुले के समान एकाग्रता-पूर्वक कोटि-काम-कमनीय युगल सरकार के रुपध्यान-पूर्वक जब तू उनके पावन नाम का स्मरण करेगा तब नाम अपने प्रभाव से तेरे हृदय को द्रवीभूत कर देगा।
०० रचनाकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 118
(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित भक्ति-शतक ग्रन्थ के एक दोहे की व्याख्या का एक अंश....)
..भक्ति में अनन्यता पर भी प्रमुख ध्यान देना है। केवल श्रीकृष्ण एवं उनके नाम, रूप, गुण, लीला, धाम तथा गुरु में ही मन का लगाव रहे। अन्य देव, दानव, मानव या मायिक पदार्थों में मन का लगाव न हो। इसका तात्पर्य यह न समझ लो कि संसार से भागना है। वास्तव में संसार का सेवन करते समय उसमें सुख नहीं मानना है। श्रीकृष्ण का प्रसाद मानकर खाना पीना एवं व्यवहार करना है।
उपर्युक्त समस्त ज्ञान सदा साथ रखकर सावधान होकर साधना भक्ति करने पर शीघ्र ही मन अपने स्वामी से मिलने को अत्यन्त व्याकुल हो उठेगा। बस वही व्याकुलता ही भक्ति का वास्तविक स्वरूप है। यथा चैतन्य ने कहा -
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम....।
अर्थात उनसे मिले बिना रहा न जाय। एक क्षण ही युग लगे, सारा संसार शून्य सा लगे।
एक बात और ध्यान में रखना है कि साधनाभक्ति करते करते जब अश्रुपात आदि भाव प्रकट होने लगे तो लोकरंजन का रोग न लगने पाये। अन्यथा लोगों से सम्मान पाने की लालच में भक्तिभाव से ही हाथ धोना पड़ जायेगा। आपको तो अपमान का शौक बढ़ाना होगा। गौरांग महाप्रभु ने कहा है -
तृणादपि सुनीचेन......।
अर्थात साधक अपने आपको तृण से भी निम्न समझे। वृक्ष से भी अधिक सहनशील बने। सबको मान दे किन्तु स्वयं मान को विष माने। सच तो यह है कि जब तक साक्षात्कार या दिव्य प्रेम न मिल जाय, तब तक सभी नास्तिक या आस्तिक समान ही हैं क्योंकि अभी तो माया के ही दास हैं। फिर अहंकार क्यों?
उपर्युक्त तत्वज्ञान सदा काम में लाना चाहिये। प्राय: साधक कुछ निर्धारित साधना काल में ही तत्वज्ञान साथ रखते हैं। यह समीचीन नहीं है। क्षण-क्षण अपने मन की जाँच करते रहना है। नामापराध से प्रमुख रूप से बचना है। यदि मन को सदा अपने शरण्य में ही लगाने का अभ्यास किया जाय, तभी गड़बड़ी से बचा जा सकता है। अन्यथा मन पुराने स्थान पर पहुँच जायेगा। साधना भक्ति के पश्चात भाव-भक्ति का स्वयं उदय होता है। इन दोनों की यह पहिचान है कि साधना भक्ति में मन को संसार से हटाकर भगवान में लगाने का अभ्यास करना होता है। जबकि भावभक्ति में स्वयं मन भगवान में लगने लगता है। संसार के दर्शनादि से वितृष्णा होने लगती है। अर्थात पहले मन लगाना, पश्चात मन लगना।
जैसे संसार में कोई भी व्यक्ति जन्मजात शराबी नहीं होता। पहले बेमनी के बार-बार पीता है। फिर धीरे धीरे शराब उसे दास बना लेती है। वह शराबी समस्त लोक एवं परलोक पर लात मार देता है। जब जड़ शराब के नशे का यह प्रत्यक्ष हाल है तो हम भी जब भक्ति करते करते दिव्य मस्ती का अनुभव करने लगेंगे तब हम भी भुक्ति मुक्ति बैकुण्ठ को लात मार देंगे। एवं युगल सुख के हेतु युगल सेवा की ही कामना करेंगे।
रुपध्यान करते समय मन अपने पूर्व-प्रिय पात्रों के पास जायेगा। उस समय आप अशान्त न हों। मन जहाँ भी जाय, जाने दीजिये। बस उसी जगह उसी वस्तु में अपने शरण्य को खड़ा कर दीजिये। जैसे स्त्री की आँख के सौन्दर्य में मन गया तो उसी आँख में श्यामसुन्दर को खड़ा कर दो। बस कुछ दिन में मन थक जायेगा। सर्वत्र सर्वदा अपने श्याम के ही ध्यान का अभ्यास करना है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 1997 अंक00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 117
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिधाम मनगढ़ में 15 अक्टूबर सन 1966 को दिये गये प्रवचन का एक अंश...)
..माया के अधीन जितने भी जीव हैं उनमें सब दोष हैं, क्योंकि सब दोषों की जननी माया है। जिस प्रकार एक बीज में अंकुर भी रहता है और डाल भी रहती है, पत्ते और फल भी रहते हैं। किन्तु सब सूक्ष्म रुप में रहने के कारण दिखाई नहीं देते। जब कोई बीज खेत में डाला जाता है तो सारी चीजें समय पर मिल जाती हैं। इसी प्रकार से इस मायारूपी बीज में उसकी शाखायें आदि काम क्रोधादि सूक्ष्म रूप से सब विद्यमान रहते हैं।
जब भगवत्प्राप्ति पर माया समाप्त होती है तब ही ये सब के सब दोष इकट्ठे समाप्त होते हैं। एक एक नहीं। कोई कहे कि एक चला जायेगा, दूसरा वहीं रहेगा। यह नहीं हो सकता है। एक कभी नहीं जायेगा। जब ईश्वर भक्ति करते हैं तब भी यह दोष रहते हैं लेकिन लोगों को आश्चर्य होता है जब किसी साधक का पतन होता है। भगवत्प्राप्ति के एक सेकंड पहले तक भी, इतनी ऊँची अवस्था पर पहुँचने पर भी, महापुरुषत्व के पास पहुँचने पर भी, वह एक क्षण में राक्षस तक बन सकता है। इसके लिये इतना बड़ा प्रकरण अजामिल का है। अजामिल के लिये भागवत में लिखा है - सत्यवादी, जितेन्द्रिय, संयमात्मा। सभी गुण उसके पास थे जो महापुरुष में होते हैं। अर्थात महापुरुष के पास की क्लास में वह पहुँच चुका था। मन पर उसका पूर्ण कंट्रोल था। जिस क्षण में मन से कहा गुस्सा करो, गुस्सा कर दिया। जिस क्षण में कहा हँस दो, हँस दिया। उसका अन्तःकरण उसका सर्वेन्ट बनकर रहता था।
वह जब कोई कामना बनाना चाहता है तभी बन सकती है, वह कामना के अधीन नहीं रहता। किसी कामना को बनाकर जिस क्षण में चाहे कामना से अलग हो जाय। इतनी शक्ति जिसके पास हो वह जितेन्द्रिय कहलाता है। जो अभी मन के अण्डर में है, वह अभी साधक ही है। ऐसी स्थिति में पहुँचने पर भी अजामिल गिर गया और एक क्षण में गिरा, एक मिनट उसको नहीं लगा। स्त्री-पुरुष के मिलन का एक दृश्य देखा और उसके देखते ही एक क्षण में उसका इतना बड़ा पतन हुआ कि उसको पापियों का शिरोमणि कहा गया लेकिन आप लोगों को छोटे मोटे साधकों के गिरने में आश्चर्य हो जाता है। अरे इसका क्या आश्चर्य है? आश्चर्य तो इसका है कि कोई जीव थोड़ा ऊँचा किस प्रकार से उठ गया, एक आँसू श्यामसुन्दर के लिये कैसे निकल गया? अनंतकाल से संसार को अपना मानने वाला, संत या भगवान से प्यार कैसे करने लगा?
उस पर आप आश्चर्य नहीं करते, उसे तो नेचुरल समझते हैं। (टॉर्च हाथ से उठाकर) यह टॉर्च पृथ्वी की बनी हुई, इसलिये पृथ्वी की ओर जाने में इसको कोई परिश्रम थोड़े ही करना है। केवल इसको छोड़ दीजिये। चली गई। मन ने जरा लापरवाही की कि पतन हुआ। पतन करने के लिये कुछ करना नहीं पड़ता। जरा संत और भगवान के वाक्यों को भुला लीजिये। संत और भगवान को खोपड़ी से निकाल दीजिये, बस पतन हो जायेगा। उसके लिये कोई साधन मनन नहीं करना पड़ेगा। वह तो नीचे की ओर स्वतः ही भागता है, संसार की ओर भागने की तो उसकी नेचुरल प्रवृत्ति है, सजातीय धर्म है (मन भी माया का बना है, अतः वह माया के सजातीय है)। इसलिये यह आश्चर्य कभी नहीं होना चाहिये कि अमुक साधक का पतन कैसे हो गया? अपने आप को सँभालने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। अपनी-अपनी फिक्र करो, दूसरे के बारे में न सोचो, न बोलो, न देखो, न गन्दी भावनायें करो। नहीं तो सारी गन्दगी तुम्हारे अन्दर आ जायेगी, तुम्हारे अन्तःकरण में भर जायेगी और थोड़ा बहुत शुद्ध हुआ अन्तःकरण पुनः खत्म हो जायेगा। यह भयंकर कुसंग है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
०० सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश पत्रिका, जुलाई 2001 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 116
श्रीराधारानी समस्त ब्रज-महारसिकों की प्राणाधार तथा स्वामिनी हैं। इन महारसिकों ने अपने साहित्यों में अनंतानंत उपमायें देकर श्रीकिशोरी जी का गुणगान किया है। रसिकवर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भी अपनी 'प्रेम-रस-मदिरा' पदग्रन्थ में रास-रासेश्वरी श्रीराधारानी जी की श्रृंगार-माधुरी का अनुपमेय वर्णन किया है। प्रस्तुत है उन्हीं पदों में से एक पद, जिनमें रसिकन प्राणाधीश्वरी श्रीराधारानी के श्रृंगार का सरस वर्णन हुआ है ::::::
'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थश्रीराधा-माधुरी, पद संख्या 33
रँगीली राधा रसिकन प्रान।सरस किशोरी की रसबोरी, भोरी मृदु मुसकान।सुबरन बरन गौर तनु सुबरन, नील बरन परिधान।कनकन मुकुट लटनि की लटकनि, भृकुटिन कुटिल कमान।कनकन कंकन कनकन किंकिनि, कनकन कुंडल कान।लखि लाजत श्रृंगार लाड़लिहिं, कहँ लौं करिय बखान।होत 'कृपालु' निछावर जापर, सुंदर श्याम सुजान।।
भावार्थ ::: रंगीली राधा रसिकों को प्राण के समान प्रिय हैं। रसमयी किशोरी जी की प्रेम रस से सराबोर भोली सी मुस्कान अत्यन्त ही मधुर है। किशोरी जी की देह का रंग सुवर्ण के रंग के समान अत्यन्त सुन्दर है। वे नीले रंग की साड़ी पहने हुये हैं। सुवर्ण के मुकुट, घुँघराले बालों की लटक एवं धनुष के समान टेढ़ी भौंहें नितांत कमनीय हैं। हाथ में सुवर्ण के कंकण, कमर में सुवर्ण की किंकिनि एवं कानों में सुवर्ण के कुंडल मन को बरबस लुभा रहे हैं। कहाँ तक कहें किशोरी जी की श्रृंगार माधुरी को देखकर स्वयं श्रृंगार भी लज्जित हो रहा है। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि सबसे बड़ी बात तो यह है कि त्रिभुवन मोहन मदन मोहन भी स्वयं किशोरी जी के हाथों बिना दाम के बिके हुये हैं।
00 सन्दर्भ ::: प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ, श्रीराधा-माधुरी, पद 3300 रचनाकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
भाई दूज का त्योहार देशभर में 16 नवंबर को मनाया जाएगा। भाई दूज हर साल कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। इस दिन बहनें व्रत, पूजा और कथा आदि करके भाई की लंबी आयु और समृद्धि की कामना करते हुए माथे पर तिलक लगाती हैं। इसके बदले भाई उनकी रक्षा का संकल्प लेते हुए तोहफा देता है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, भाई दूज के दिन शुभ मुहूर्त में ही बहनों को भाई के माथे पर टीका लगाना चाहिए। मान्यता है कि भाई दूज के दिन पूजा करने के साथ ही व्रत कथा भी जरूर सुननी और पढऩी चाहिए। कहते हैं कि ऐसा करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है।
ज्योतिषाचार्यों ने बताया कि भाईदूज का पर्व कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। किवदंती है कि भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ला का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया।
यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया। यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।
प्रभु कृष्ण और सुभद्रा से जुड़ी त्योहार की रोचक कथा
यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो। मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करें, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की। इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 115
आज 'श्री गोवर्धन-पूजा' है। आप सभी सुधि पाठक-जनों को इस महापर्व की बारम्बार शुभकामनायें। समस्त ब्रज-महारसिकों ने अपनी वाणी में, अपने ग्रन्थों में गिरिराज पर्वत अर्थात श्री गोवर्धन की अगनित बार वन्दना की है। रसिक शिरोमणि जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी ने भी अपनी 'प्रेम रस मदिरा' आदि ग्रन्थों में गिरिराज जी की स्तुति की है। आज 'श्री गोवर्धन-पूजा' के अवसर पर आइये उन्हीं के द्वारा रचित ग्रन्थ के माध्यम से हम सभी श्री गोवर्धन जी की मानसिक पूजा करते हुये उनके माहात्म्य के सम्बन्ध में कुछ पठन करें :::::::
आओ गिरिराज (गोवर्धन) की वंदना करें..(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी विरचित 'प्रेम रस मदिरा' ग्रंथ से)
00 जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी 'गोवर्धन पर्वत' के माहात्म्य में कहते हैं :
..प्रेम-रस के रसिकों का जीवनधन-स्वरुप गोवर्धनधाम बार-बार धन्य है, जिसने सच्चिदानंद-ब्रम्ह-श्रीकृष्ण को भी अपने वश में कर लिया है।
..जिन अनंतकोटि ब्रम्हांडनायक पूर्णतम-पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के आश्रित अगणित ब्रम्हा, विष्णु, शंकर रहते हैं, उन श्रीकृष्ण ने भी (जब इंद्र ने अभिमानवश ब्रज को डुबाने के लिए एक सप्ताह तक अविच्छिन्न वर्षा की थी) इसी गोवर्धन का आश्रय लिया था। जिन त्रिपाद-विभूषित भगवान के चरणों को महालक्ष्मी स्वयं अपने हाथों से पूजती हैं, उन्हीं पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रम्ह श्रीकृष्ण ने अपने समस्त ब्रजवासियों के साथ इस गोवर्धन की पूजा की थी।
..वेद ब्रम्ह-श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं एवं ब्रम्ह-श्रीकृष्ण लीला प्रेम माधुरी में श्रीवृषभानुनन्दिनी की उपासना करते हैं। यद्यपि सिद्धांत से तो इन दोनों के दो शरीर होते हुए भी प्राण एक ही है। यह दोनों राधा-कृष्ण इस गोवर्धन की सुन्दर लताकुंजों में निरंतर दिव्य रास-विहार किया करते हैं, जिसे देखकर महालक्ष्मी भी इस रस का पान करने के लिए ललचाती हैं।
..संसार में कोई मुक्ति के लिए वन में जाकर अष्टांग योग की साधना करता है एवं कोई काशी में देह त्याग करता है। इन दोनों ही अल्पज्ञों को देखकर मुझे हँसी आती है। ये लोग मूर्तिमान गोवर्धन नाग को छोड़कर चारों ओर नागों के रहने के घर (बाँबी) के लिए भटकते फिरते हैं।
..जिस गोवर्धनधाम में चारों वेद भी झाड़ू लगाते हैं एवं जहाँ भगवान शंकर भी गोपी शरीर धारण करके दिव्य रास के लिए दौड़े आते हैं एवं जिस गोवर्धन धाम में मुक्ति भी अपनी मुक्ति के लिए दासी बनकर सेवा करती है।
..जो गोवर्धन-धाम मरकत मणियों से जटित है एवं परम प्रकाश करने वाला है तथा जो करोड़ों चंद्रमा की रुप-माधुरी को लज्जित करता है एवं जिसके माधुर्य को देखकर बैकुंठाधीश महाविष्णु भी अपने लोक के सुख को फीका समझकर संकुचित होते हैं। वह गोवर्धन-धाम ब्रजवासियों का आभूषण एवं रसिकों को आनंद देने वाला तथा सुरपति इंद्र के भी मद (अहंकार) को चूर्ण कर देने वाला है।
..जिस गोवर्धन-धाम की सुंदर लता-कुंजों की सुन्दरता को देखकर ब्रम्ह की कारीगरी भी लज्जित होती है एवं जिस गोवर्धन-धाम के मध्य मानसी गंगा तथा राधाकुण्ड, कृष्णकुण्ड आदि सुशोभित हो रहे हैं। जिनके माहात्म्य को वर्णन करने में वाणी अथवा सरस्वती भी लज्जित होती है।
..जिस रस को वेदों ने अप्राप्य बताया है, वही रस इस गोवर्धन की गली-गली में श्रीराधाकृष्ण द्वारा बहाया गया है, किन्तु रसिकों की कृपा के बिना उस रस को आज तक कोई नहीं पा सका। हम तो उस दिव्य चिन्मय गोवर्धन-धाम की शरणागति के सहारे सदा ही निर्भय रहते हैं..
(ऊपर की समस्त वंदना जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित 'धन-धन रसिकन-धन गोवर्धन' पद का हिन्दी भावार्थ है, यह पद उनकी 'प्रेम रस मदिरा' ग्रंथ की रसिया माधुरी में वर्णित (पद संख्या 9) है।)
जय हो गोवर्धन धाम की !! जय गिरिराज !! जय गिरिधर गोपाल की !!!
शुभकामनाओं सहित...
00 सन्दर्भ ::: प्रेम रस मदिरा ग्रन्थ, रसिया माधुरी, पद संख्या - 900 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। - वास्तुशास्त्र में घरों में पेड़- पौधे लगाने के अपने नियम- कायदे हैं। वहीं ज्योतिषशास्त्र में जातक को ग्रहों के हिसाब से पेड़ लगाने की सलाह दी जाती है। ज्योतिष शास्त्र में वृक्षों को देवताओं और ग्रहों के निमित्त लगाकर उनसे शुभ लाभ प्राप्त किये जाने का उल्लेख मिलता है।पीपल के वृक्ष में सभी देवताओं का तो आंवला और तुलसी में विष्णु का, बेल और बरगद में भगवान शिव का जबकि कमल में महालक्ष्मी का वास माना गया है। जामुन का वृक्ष धन दिलाता है तो पाकड़ ज्ञान और सुयोग्य पत्नी दिलाने में मदद करता है। बकुल को पापनाशक, तेंदु को कुलवृद्धि, अनार को विवाह कराने में सहायक और अशोक को शोक मिटाने वाला बताया गया है। श्रद्धा भाव से लगाया गया वृक्ष कई मनोकामनाओं की पूर्ति करता है। कन्या के विवाह में देरी हो रही हो तो कदली वृक्ष की सूखी पत्तियों से बने आसान पर बैठकर कात्यायनी देवी की पूजा करने चाहिए। शनि ग्रह के अशुभ फल को दूर करने हेतु शमी वृक्ष के पूजन से लाभ मिलता है। कदंब व आंवला वृक्ष के नीचे बैठकर यज्ञ करने से लक्ष्मी जी कृपा मिलती है।वहीं अशुभ प्रभाव देने वाले ग्रहों की शांति और प्रसन्नता के लिए ज्योतिष में रत्नों के स्थान पर जड़ी बूटी धारण करने की सलाह दी जाती है जो वृक्षों से ही प्राप्त होती है। सूर्य के लिए बेलपत्र, चंद्र के लिए खजूर या खिरनी, मंगल के लिए अनंतमूल, बुध के लिए विधारा, गुरु के लिए भृंगराज, शुक्र के लिए अश्वगंध, शनि के लिए शमी, राहु के लिए श्वेत चंदन और केतु के लिए असगंध की जड़ को शुभ दिन और नक्षत्र में लाकर विधि-विधान से धारण कर सकते हैं।ग्रहों के पेड़-सूर्य- मदार, तेज फल का वृक्ष। इनसे बौद्धिक प्रगति, स्मृति शक्ति का विकास होता है।चंद्र- दूध वाले पौधे, वृक्ष, पलाश। इनसे मानसिक रोगों से मुक्ति मिलती है।मंगल- नीम और खैर का वृक्ष। इनसे रक्त विकार तथा चर्म रोग ठीक होते हैं। प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है।बुध- चौड़े पत्ते वाले पेड़ पौधे और लटजीरा और अपामार्ग या आंधी झाड़ा का पौधा। इसके स्नान से वायव्य बाधा का शमन व मानसिक संतुलन बना रहता है।गुरु- पीपल का वृक्ष। इससे पितृदोष शमन, ज्ञान वृद्धि तथा भगवान विष्णु की कृपा बनी रहती है।शुक्र- बेल जैसे मनीप्लांट, अमरबेल और गूलर। गूलर पूजना से पूर्व जन्म के दोषों का नाश होता है।शनि- कीकर, आम, खजूर और शमी। शमी पूजन से धन, बुद्धि, कार्य में प्रगति, मनोवांछित फल की प्राप्ति तथा बाधाएं दूर होती हैं।राहु- चंदन, दूर्बा, कैक्टस, बबूल का पेड़ और कांटेदार झाडिय़ां। चंदन की पूजन से राहु पीड़ा से मुक्ति तथा सर्प दंश भय समाप्त होता है।केतु- कुशा, अश्वगंधा, इमली का वृक्ष, तिल के पौधे या केले का वृक्ष। अश्वगंधा के होने से मानसिक विकलता दूर होती है।जड़- सूर्य बेलमूल की जड़ में, चंद्र खिरनी की जड़ में, मंगल अनंतमूल की जड़ में, बुध विधारा मूल की जड़ में, गुरु हल्दी की गांठ वह जड़ में, शुक्र अरंडमूल की जड़ में, शनि धतूरे की जड़ में, राहु सफेद चंदन की जड़ में, केतु अश्वगंधा की जड़ में निवास करता है।नोट- सूर्य के साथ शनि, राहु और केतु के, चंद्र के साथ शनि, राहु के, मंगल के साथ शुक्र व शनि के, बुध के साथ केतु और गुरु के, गुरु के साथ केतु, शुक्र और बुध के, शुक्र के साथ केतु और बुध के, शनि के साथ चंद्र, मंगल और सूर्य के, राहु के साथ केतु, सूर्य व चंद्र के, केतु के साथ राहु, गुरु, चंद्र, मंगल, सूर्य के पेड़ पौधे ना लगाएं वर्ना होगा नुकसान।
- जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 114
छत्तीसगढ़ आज डॉट कॉम के सभी सुधि पाठक जनों को दीपपर्व 'दीपावली' की हार्दिक शुभकामनायें। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपने अनुज श्रीलक्ष्मण जी तथा अपनी भार्या माता सीता जी के साथ अयोध्या वापस आते हैं, इस परम पुनीत मंगलमय क्षण की भी आप सभी को अनंत अनंत बधाई। आज के अंक में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'दीपावली' के संबंध में दिये गये व्याख्यान का कुछ अंश प्रकाशित किया गया है। आशा है आप सभी इससे कुछ प्रकाश प्राप्त कर अपने जीवन में अध्यात्म का दीपक प्रज्जवलित करेंगे :::::::
00 'दीपावली' पर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा रचे गये दोहे;
आज तो है दीपावली गोविंद राधे।उर में प्रकाश करु तम को मिटा दे।।
आओ भरत शत्रुघन लछिमन राम।लाओ जनकनंदनिहुँ सँग महँ राम।
00 'दीपावली' पर्व पर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उपदेश :
अंश (1) 'दीपावली' शब्द का अर्थ है तेज पुंज, प्रकाश पुंज। तो संसार में भी आप लोग अनेक प्रकार के समूह उस दिन प्रकाशित करते हैं। अपनी अपनी रुचि के अनुसार लाभ उठाते हैं कुछ लोग मैटीरियल, कुछ लोग स्प्रिचुअल। किन्तु कुल मिलाकर साधारण से साधारण व्यक्ति भी दीपावली से यही अर्थ लगाता है कि अँधेरे में प्रकाश करना।
अंश (2) सुप्रीम पावर पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रम्ह श्रीकृष्ण ही वास्तविक नित्य अनंत मात्रा के प्रकाश हैं, शेष सब अन्धकार का स्वरुप है. जड़ स्वरुप हो, चाहे चेतन हो, चाहे कुछ भी हो।
अंश (3) वेद कहता है वह (भगवान) प्रकाश भी है, प्रकाशक भी है। मान लीजिये आपके सामने बल्व लगे हैं और आपसे पूछा जाय ये क्या है? आपका यही उत्तर होगा प्रकाश। लेकिन ये प्रकाशक भी है। ये इन सब वस्तुओं को, चेतन को, जड़ को सबको प्रकाशित कर रहा है। तो भगवान प्रकाश भी है और प्रकाशक भी है। भगवान से चेतन या जड़ सब प्रकाशित हो रहे हैं।
जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू। मायाधीश ज्ञान गुन धामू।।
चेतन जीव यह भी प्रकाश है, छोटा प्रकाश सही फिर भी इस पर माया का अंधकार है। ये अज्ञान का अंधकार कैसे आया और कैसे जायेगा। इस अंधकार को भगाने के लिये ही दीपावली मनाई जानी चाहिये।
अब लोग नहीं समझते इतनी गंभीरता को तो जैसे मैटीरियल लाइट करके अपना मनोविनोद कर लेते हैं। वैसे ही संसारी वस्तुओं को पाकर के लोग थोड़ी देर के लिए सात्विक सुख का अनुभव कर लेते हैं। लेकिन वास्तविक बात यह नहीं है। वास्तविक बात यह है कि जीव पर माया का अंधकार है उसमें भगवान् का प्रकाश लाना है. यह दीपावली का वास्तविक रहस्य है।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)०० सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, अक्टूबर 2008 अंक०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन। -
गोवर्धन पूजा का त्योहार 15 नवंबर को मनाया जाएगा। इस दिन गोवर्धन पर्वत और गायों और बैलों का श्रृंगार करके उनकी पूजा की जाती है। साल 2020 में गोवर्धन पूजा पर कई शुभ योग बन रहे है। जिसमें गोवर्धन पूजा करके आप भगवान श्री कृष्ण की विशेष कृपा प्राप्त कर सकते हैं तो आइए जानते हैं गोवर्धन पूजा पर बनने वाले शुभ संयोग। गोवर्धन पूजा के शुभ संयोग गोवर्धन पूजा के दिन गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत की आकृति बनाकर पूजा की जाती है। इस दिन गोवर्धन पूजा करने से भगवान श्री कृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त होता है। प्रत्येक साल यह त्योहार दिवाली के अगले दिन मनाया जाता है। लेकिन इस बार गोवर्धन पूजा पर बहुत ही ज्यादा शुभ योग बन रहे हैं। जिसमें पूजा करने से पूजा का कई गुना लाभ प्राप्त हो सकता है। यदि गोवर्धन पूजा के दिन सबसे ज्यादा शुभ मुहूर्त की बात करें तो यह दोपहर 3 बजकर 38 मिनट से शाम 5 बजकर 58 मिनट इस मुहूर्त में पूजा करने से आपको कई गुना लाभ की प्राप्ति हो सकती है। -
--दीपावली के दिन क्या करें, क्या न करें, पढ़ें....
ब्रह्म पुराण के अनुसार दीपावली पर्व पर अर्धरात्रि के समय महालक्ष्मी सद् गृहस्थ के घर में विचरण करती हैं। इस दिन घर-दुकान व संस्थानों को साफ सुथरा कर सजाया संवारा जाता है। मान्यता है कि माता लक्ष्मी स्वच्छता को पसंद करती हैं। स्वच्छतापूर्ण वातावरण में दीपावली मनाने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होकर स्थाई रूप से सद् गृहस्थ के घर निवास करती हैं।
ज्योतिषाचार्यों ने अनुसार दीपावली पर धनतेरस, महालक्ष्मी पूजन, गोवर्धन पूजा और भाई दूज इन पर्वों का मिलन एक साथ होता है। रोशनी के इस महापर्व पर श्रद्धालुओं को नशा व जुए से दूर रहना चाहिए। यह अंधविश्वास व कुप्रथा दीपावली के चलन में आ गई है कि दीपावली वाले दिन जुआ खेलना चाहिए। जबकि धर्म शास्त्रों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं। बल्कि जुआ खेलने से गृहक्लेश व दरिद्रता की स्थित बनती है।
मां लक्ष्मी को यह पसंद, यह नापसंद
ज्योतिषाचार्यों ने अनुसार एक बार रुकमणी देवी ने लक्ष्मी जी से पूछा कि, हे त्रिलोक नाथ भगवान नारायण की प्रियतम तुम इस जगत में किन प्राणियों पर कृपा करके उनके यहां निवास करती हो? कहां रहती हो? क्या सेवन करती हो? यह सब बातें मुझे यथार्थ रूप में बताओ। रुकमणी जी के इस प्रकार पूछने पर चंद्रमुखी मां लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर अद्भुत वचन देते हुए कहा...रुकमणी जी मैं ऐसे पुरुष में निवास करती हूं जो निर्भय हो, कार्यकुशल, कर्तव्यनिष्ठ, कर्म पारायण, क्रोध रहित तथा बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करने वाला हो। सद्गुणों से युक्त हो, गुरुजनों की सेवा में तत्पर, मन को वश में रखने वाला, क्षमाशील, देवी-देवता का पूजन करने वाला हो साथ ही अपने घर की स्त्रियों तथा भार्या का सम्मान करने वाला हो। ऐसे पुरुषों के अंदर मैं सदा निवास करती हूं। वहीं जो स्त्रियां पतिव्रता, करुणामय, घर को स्वच्छ व साफ रखने वाली, पति व घर के बड़े-बुजुर्गों का आदर करने वाली व लज्जाशील रहकर घर का मान बढ़ाती हैं। उन स्त्रियों के साथ में सदा निवास करती हूं। जो स्त्रियां पाप करने के लिए तत्पर होती हैं, जिनकी वाणी अपवित्र होती हैं। ऐसी नारी से मैं सदा दूर रहती हूं।
--दीपावली के दिन क्या करें जिससे मां लक्ष्मी प्रसन्न हों
दीपावली वाले दिन प्रात: स्नान आदि करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और संकल्प लेकर पूजन होने तक उपवास रखें।
घर को साफ-सुथरा कर घर के दरवाजे पर आम, अशोक व केले के पत्तों से तोरण लगाएं।
स्वादिष्ट भोजन के साथ फल पापड़ एवं मां भगवती को उनके प्रिय भोज खीर का भोग लगाएं।
पूरे दिन मन को शांत रखकर पूजा करें। किसी से झगड़ा ना करें, बुजुर्गों का आशीर्वाद लें, पत्नी का सम्मान करें।
उपहार भेंट करते समय अच्छा भाव रखें।
रात्रि जागरण करें।
घर के दरवाजे पर कोई भिक्षुक आए तो उसे निराश ना करें।
यथासंभव किन्नरों को उपहार के साथ कुछ दक्षिणा अवश्य दें।
घर के मुख्य दरवाजे पर सिंदूर से शुभ-लाभ, श्री, स्वस्तिक और ओम के शुभ चिन्ह बनाएं।
लक्ष्मी जी से पहले नारायण का पूजन करें, माता लक्ष्मी को सुहाग का सामान चढ़ाएं। साथ ही माता को प्रिय इत्र गुलाब का चढ़ावा दें।
पितरों की शांति के लिए 14 दीपक जौ के आटे के बनाकर पश्चिम दिशा में रखें।
दीपावली वाले दिन किसी जरूरतमंद को 9 किलो गेहूं का दान अवश्य करें।
दीपावली की खुशियां गरीबों के साथ बांटें। चाहें तो गरीब झुग्गी बस्तियों में असहाय लोगों को मिठाई के साथ वस्त्र व दक्षिणा अवश्य दें।
मां लक्ष्मी के प्रिय एरावत हाथी के लिए 3 गांठ का गन्ना पूजा में अवश्य रखें। ऐसा करने से जातकों को आर्थिक, बुद्धि व पुण्य का एक साथ लाभ होगा।
-दीपावली पर यह न करें, अन्यथा मां लक्ष्मी होंगी रुष्ठ...
नशा न करें।
जुआ न खेलें।
क्रोध न करें।
क्लेश न करें, आंसू ना निकालें।
झगड़ा न करें।
देर तक न सोए।
अपवित्र होकर रसोई न बनाएं।
प्रदोष काल में झाड़ू न लगाएं।
दीपावली पर यह रखें सावधानी...
दीपोत्सव की खुशी व उत्साह के बीच सावधानी भी रखें।
पटाखे न के बराबर जलाएं, बिना पटाखे जलाए भी दीवाली मनाई जा सकती है।
पटाखों के साथ खिलवाड़ ना करें, पटाखे जलाते वक्त उचित दूरी बनाकर रखें।
पटाखे चलाने के बाद हाथ साबुन से धोकर ही कुछ खाएं।
जो मिठाइयां शुद्धता व पवित्रता से बनी हो तथा ढकी हुई हों, वहीं खाएं।
भारतीय संस्कृत के अनुसार आदर्श व सादगीपूर्ण ढंग से दीपावली का त्योहार मनाएं।
पटाखे व दीपक से यदि दुर्घटनावश जल जाते हैं तो प्राथमिक स्तर पर तुरंत आलू का रस जले हुए स्थान पर लगाएं।
-काले कपड़े पहनकर पूजन न करें। -
देव शुक्र 17 नवंबर 2020 (मंगलवार) को दोपहर 12 बजकर 50 मिनट पर, कन्या से तुला राशि में गोचर करेंगे। देव शुक्र 11 दिसंबर 2020 (शुक्रवार) की सुबह 05 बजकर 04 मिनट तक इसी राशि में रहेंगे। ज्योतिष शास्त्र में शुक्र ग्रह को कला, प्रेम, सौंदर्य और सांसारिक सुखों का कारक माना जाता है। शुक्र देव अपनी ही राशि तुला में विराजमान रहेंगे, इस वजह से यह गोचर काफी महत्वपूर्ण रहने वाला है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, शुक्र ग्रह स्वयं तुला राशि के स्वामी हैं, इस वजह से इस राशि वालों के लिए यह गोचर शुभ रहने वाले हैं।
जानिए तुला राशि के जातकों पर शुक्र के राशि परिवर्तन का क्या पड़ेगा असर-
शुक्र देव अष्टम भाव के स्वामी होने के साथ-साथ तुला राशि के स्वामी भी हैं। यानी शुक्र तुला राशि के प्रथम भाव के भी स्वामी हैं। इस गोचर के दौरान शुक्र तुला राशि के प्रथम भाव में मौजूद रहेंगे। इसलिए गोचर का समय काफी प्रभावशाली रहेगा। ज्योतिष शास्त्र में लग्न भाव को तनु भाव कहा जाता है। ऐसे में तुला राशि के जातकों को गोचर के दौरान शुभ फल की प्राप्ति हो सकती है।
गोचर के दौरान तुला राशि के जातकों को रोजी-रोजगार में तरक्की मिल सकती है। व्यापार में भी भाग्य का साथ मिलेगा और आमदनी के नए साधन बनेंगे। इस गोचर के दौरान बड़ा निवेश करना भी उत्तम रहेगा। इस गोचर के दौरान समाज में आपका मान-सम्मान बढ़ेगा और छवि को सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा। लोग आपसे सलाह या मशवरा लेते नजर आएंगे।
यह गोचर उन जातकों के लिए भी शुभ है जो अपने रिश्ते को आगे बढ़ाने के लिए सोच रहे हैं। वैवाहिक जातकों को इस गोचर के दौरान शादीशुदा जीवन में खुशियों की प्राप्ति होगी। हालांकि आपको ज्यादा सोचने से बचने होगा और स्वास्थ्य का खास ख्याल रखें। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, इस गोचर के दौरान शुभ फलों की प्राप्ति के साथ मेहनत जारी रखें।
उपाय- हर दिन सूर्योदय के दौरान ललिता सहस्रनाम का पाठ करें।