संत का संग करना सत्संग है लेकिन क्या संत अथवा महापुरुष की फोटो या तस्वीर रखकर संग करना भी सत्संग है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 312
साधक का प्रश्न ::: संत के साथ जब रहते हैं तो ये सत्संग हुआ, और जो घर में जाकर फोटो वगैरह रखकर सत्संग करते हैं क्या वो भी सत्संग हुआ?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::: हाँ वो भी सत्संग है। वो नम्बर दो का है। संत के मुख से सत्संग मिले वो नंबर एक है। अधिक प्रभावशाली होता है। उसी बात को, संत की बात को एक सत्संगी बोले और बाकी लोग सुनें उसका भी लाभ है, उतना नहीं है। बस इतना सा अन्तर है। लेकिन कूड़ा-कबाड़ा संसार की बात करना या सुनना या सोचना - उससे हजार गुना अच्छा है भगवान और गुरु की बात सोचना, सुनना, पढ़ना, बोलना। लेकिन वास्तविक तो;
सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथाः।
तज्जोषणादाश्चपवर्गवत्-र्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति।।
(भागवत 3-25-25)
श्रद्धा पहली आवश्यक वस्तु है। 'सतांप्रसंगान' स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि असली संत के द्वारा तो सत्संग मिलता ही है और जो मेरी अलौकिक लीला, नाम, गुणादि का जो प्रसंग प्राप्त करता है कोई साधक, उसके लगातार सेवन से सत्संग मिलता रहे बार-बार, तो 'श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति' श्रद्धा भी अपने-आप पैदा हो जायेगी। श्रद्धा के बाद रति होती है (भाव-भक्ति) वो भी मिल जायेगी और उसके बाद प्रेम (असली भक्ति) वो भी, क्रम से तीनों मिल जायेंगी। सत्संग किया जाय। तो सत्संग, सत् भी सही हो। रसिक संत हो, उसके पास दिव्य प्रेम हो और संग भी सही हो।
यानी हमारा मन, हमारी बुद्धि उसमें आसक्त हो, संत की वाणी में। यानी हम भोले बनकर और संत की वाणी पर विश्वास करके सुनें, वो सत्संग है। जैसे एक पारस है, एक लोहा है। पास-पास कर दो तो भी सोना नहीं बनेगा। संग हो। संग माने सेंट परसेन्ट शरणागति। खास तौर से मन की। शरीर की शरणागति मात्र से काम नहीं बनेगा कि उठाया खोपड़ी को पैर पर रख दिया। ये सिर को पैर पर रखने का अभिप्राय तो ये है कि मैं अपना सब कुछ आपको अर्पित करता हूँ। अब अर्पित न करे, केवल सिर धर दे पैर के ऊपर, सुन ले सत्संग, गुरु के वाक्यों को और समझ में भी आ जाये, सिर भी हिला दे और प्रैक्टिकल अमल न करे, तो फिर वो सत्संग नहीं है।
सत्संग का मतलब असली सत्, असली संग। संत, सत्, महात्मा, गुरु, महापुरुष - ये सब एक नाम हैं। जो भगवान को पा ले वही सही है, उसी को सत् कहते हैं। और जो भगवान से दूर रहे, संसार में अटैच्ड है जिसका मन, वो असत्। बस दो ही चीज तो है - एक ब्रह्म, एक माया। ज्यादा गड़बड़ है ही नहीं, तमाम समझने की जरूरत नहीं। सीधी-सीधी बात है, गधे की अकल समझ सकती है। बस दो, अच्छा-बुरा, लाभ-हानि।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'साधन-साध्य' पत्रिका, जुलाई 2011 अंक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
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