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नयी दिल्ली. अंतरिक्ष की यात्रा से अंतरिक्ष यात्रियों के पेट के अंदरूनी अंगों में ऐसे बदलाव आ सकते हैं जो उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली एवं चयापचय प्रक्रिया पर असर डाल सकते हैं। एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आयी है। अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि ये नतीजे यह समझने में मदद करते हैं कि कैसे लंबी अवधि के अंतरिक्ष अभियान अंतरिक्ष यात्रियों के स्वास्थ्य पर असर डाल सकते हैं। कनाडा के मैकगिल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं की अगुवाई में एक दल ने आनुवंशिक प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल कर तीन महीने की अवधि के लिए अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पर गए चूहे की आंत, मलाशय और यकृत में परिवर्तनों का विश्लेषण किया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा या अन्य अंतरिक्ष एजेंसियों के अंतरराष्ट्रीय सहयोग से स्थापित आईएसएस पृथ्वी की कक्षा में स्थित एक अंतरिक्ष यान है। यह एक विशिष्ट विज्ञान प्रयोगशाला है और अंतरिक्ष में जाने वाले यात्रियों का ‘घर' है। अध्ययन के लेखकों ने आंत के बैक्टीरिया में परिवर्तन पाया जो चूहे के यकृत और आंतों के जीन में बदलावों को दर्शाता है। इससे पता चलता है कि अंतरिक्ष की यात्रा से प्रतिरक्षा प्रणाली पर दबाव पड़ सकता है और चयापचय प्रक्रिया में बदलाव आ सकता है। पत्रिका ‘एनपीजे बायोफिल्म्स एंड माइक्रोबायोम्स' में प्रकाशित अध्ययन में लेखकों ने लिखा, ‘‘ये अंत: क्रियाएं आंत-यकृत अक्ष पर असर डालने वाले संकेतों, चयापचय प्रणाली और प्रतिरक्षा कारकों में व्यवधान का संकेत देती हैं जो ग्लूकोज और लिपिड (वसा) के विनियमन को प्रेरित करने की संभावना रखते हैं।'' अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि अध्ययन के नतीजे सुरक्षा उपायों को विकसित करने और चंद्रमा पर दीर्घकालिक उपस्थिति स्थापित करने से लेकर मंगल ग्रह पर मनुष्यों को भेजने तक भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की सफलता सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं।
- मैमथ यानी विशालकाय प्राचीन हाथी कैसे खत्म हुए, इस पर विज्ञान जगत में एक राय नहीं है। एक नया शोध बताता है कि उनकी विलुप्ति में सबसे बड़ा हाथ होमो सेपियंस का था।विज्ञान बताता है कि लगभग 20,000 साल पहले, प्राचीन हाथी या मैमथ और उनके रिश्तेदार धरती पर बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे. लेकिन लगभग 10,000 साल पहले, ये पूरी तरह से विलुप्त हो गए। जबकि वे लाखों वर्षों तक पृथ्वी पर जीवित रहे थे। इसकी एक बड़ी वजह जलवायु में हुए परिवर्तन को माना जाता है क्योंकि लगभग 11,000 साल पहले, पृथ्वी पर हिमयुग समाप्त हो गया था, लेकिन एक नए अध्ययन ने पाया है कि धरती का तापमान बढ़ना मैमथ के खत्म होने की मुख्य वजह नहीं था। ‘साइंस अडवांसेज' पत्रिका में प्रकाशित इस नए विश्लेषण के मुताबिक प्रारंभिक प्रोबोसाइडीन यानी हाथी, फर वाले मैमथ और उनके लंबे-नाक वाले रिश्तेदारों के पतन का संबंध इंसानों के आने और बढ़ने से है।स्विट्जरलैंड के फ्राइबर्ग विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद् टॉर्स्टन हॉफे की अगुआई में हुए इस शोध के मुताबिक, "होमो सेपियंस के उदय ने विलुप्ति की दर को तेज कर दिया, जबकि क्षेत्रीय जलवायु का प्रभाव कम था।"शोधकर्ता कहते हैं कि उनका मॉडल पृथ्वी पर जीवन की विविधता को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण देता है। एक प्रजाति का विलुप्त होना अक्सर एक ही कारण का परिणाम नहीं होता, बल्कि कई परिस्थितियों का एक क्रम होता है जो किसी विशिष्ट जीव के जीवित रहने में बाधा डालता है।. जीवन के लिए असहज वातावरण, भोजन की कमी और प्रतिस्पर्धा और अन्य प्रजातियों द्वारा शिकार जैसे कारक मिलकर उस प्रजाति की विलुप्ति का कारण बनते हैं।विज्ञान बता चुका है कि आदिमानवों ने मैमथ का शिकार किया था। कई जगहों पर खुदाइयों में इन विशालकाय हाथियों की हड्डियां मिली हैं जिन पर कटने और मांस छीले जाने के निशान हैं. लेकिन शोधकर्ताओं के बीच इस बात पर एकराय नहीं है कि इस शिकार ने इन जानवरों के विलुप्त होने में कितना योगदान दिया।हॉफे और उनकी टीम ने यह जांचने की कोशिश की कि क्या आधुनिक मानवों के आगमन और मैमथ के पतन के बीच कोई संबंध पाया जा सकता है।कैसे हुआ शोधइसके लिए, उन्होंने एक न्यूरल नेटवर्क का उपयोग किया. उन्होंने एक एल्गोरिदम को प्रशिक्षित किया जो जीवाश्म रिकॉर्ड को स्कैन करता है, प्रोबोसाइडीन प्रजातियों की घटती संख्या को मापता है और इन संख्या को उनके पर्यावरणीय कारकों से मिलाता है।गोल हो गया है इंसान का दिमागमॉडल को 2,118 जीवाश्मों के डेटा पर प्रशिक्षित किया गया जो 3.5 करोड़ से 10,000 साल पहले तक जीवित थे। इनमें उनके दांतों के आकार जैसे रूपात्मक बदलाव शामिल थे। मॉडल ने 17 संभावित कारकों को देखा जो इन जानवरों की जनसंख्या को प्रभावित कर सकते थे। इनमें जलवायु और पर्यावरणीय डेटा तो शामिल था ही। साथ ही आधुनिक मानवों यानी होमो सेपियंस के विकास से भी तुलना की गई। 1,29,000 साल पहले होमो सेपियंस का आगमन हुआ था।शोधकर्ता कहते हैं कि उनका मॉडल पृथ्वी पर जीवन की विविधता को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण देता है। एक प्रजाति का विलुप्त होना अक्सर एक ही कारण का परिणाम नहीं होता, बल्कि कई परिस्थितियों का एक क्रम होता है जो किसी विशिष्ट जीव के जीवित रहने में बाधा डालता है।जीवन के लिए असहज वातावरण, भोजन की कमी और प्रतिस्पर्धा और अन्य प्रजातियों द्वारा शिकार जैसे कारक मिलकर उस प्रजाति की विलुप्ति का कारण बनते हैं।54,000 साल पहले निएंडरथालों के यूरोप में गए थे हमारे पूर्वजइससे शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रोबोसाइडीन की विलुप्ति में इंसान द्वारा शिकार एक बड़ी वजह हो सकता है।. वे लिखते हैं, "हमारा मॉडल, सभी अन्य कारकों का ध्यान रखते हुए मानवों के प्रभाव को अलग करता है।. यह दिखाता है कि आदिमानवों और होमो सेपियंस के कारण अनुमानित 5 से 17 गुना वृद्धि में अन्य कारकों का प्रभाव नहीं है। "शोधकर्ता कहते हैं कि हमने पाया कि पिछले लगभग 1,20,000 वर्षों में इंसान का प्रभाव सबसे अधिक रहा लेकिन शुरुआती मानवों का प्रभाव भी कुछ हद तक रहा है। यह निष्कर्ष उस सिद्धांत को और मजबूत करता है कि इंसान ने जैवविविधता को बड़ी हानि पहुंचाई है।
- नील आंदोलन (1859-60 ) आजादी के पहले अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए प्रमुख आंदोलनों में से एक था। यह मुख्य रूप से किसानों का आंदोलन था।अंग्रेजों के शासनकाल में किसानों का पहला जुझारू एवं संगठित विद्रोह नील विद्रोह था। 1859-60 ई. में बंगाल में हुये इस विद्रोह ने प्रतिरोध की एक मिसाल ही स्थापित कर दी। यूरोपीय बाजारों की मांग की पूर्ति के लिये नील उत्पादकों ने किसानों को नील की अलाभकर खेती के लिये बाध्य किया। जिस उपजाऊ जमीन पर चावल की अच्छी खेती हो सकती थी, उस पर किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाकर झूठे करार द्वारा नील की खेती करवायी जाती थी। करार के वक्त मामूली सी रकम अग्रिम के रूप में दी जाती थी और धोखा देकर उसकी कीमत बाजार भाव से कम आंकी जाती थी। और, यदि किसान अग्रिम वापस करके शोषण से मुक्ति पाने का प्रयास भी करता था तो उसे ऐसा नहीं करने दिया जाता था।कालांतर में सत्ता के संरक्षण में पल रहे नील उत्पादकों ने तो करार लिखवाना भी छोड़ दिया और लठैतों को पालकर उनके माध्यम से बलात नील की खेती शुरू कर दी। वे किसानों का अपहरण, अवैध बेदखली, लाठियों से पीटना, उनकी एवं फसलों को जलाने जैसे हथकंडे अपनाने लगे।नील आंदोलन की शुरुआत 1859 के मध्य में बड़े नाटकीय ढंग से हुयी। एक सरकारी आदेश को समझने में भूलकर कलारोवा के डिप्टी मैजिस्ट्रेट ने पुलिस विभाग को यह सुनिश्चित करने का यह आदेश दिया, जिससे किसान अपनी इच्छानुसार भूमि पर उत्पादन कर सकें। बस, शीघ्र ही किसानों ने नील उत्पादन के खिलाफ अर्जियां देनी शुरू कर दी। पर, जब क्रियान्वयन नहीं हुआ तो दिगम्बर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में नादिया जिले के गोविंदपुर गांव के किसानों ने विद्रोह कर दिया। जब सरकार ने बलपूर्वक युक्तियां अपनाने का प्रयास किया तो किसान भी हिंसा पर उतर आये। इस घटना से प्रेरित होकर आसपास के क्षेत्रों के किसानों ने भी उत्पादकों से अग्रिम लेने, करार करने तथा नील की खेती करने से इंकार कर दिया।बाद में किसानों ने जमींदारों के अधिकारों को चुनौती देते हुये उन्हें लगान अदा करना भी बंद कर दिया। यह स्थिति पैदा होने के पश्चात नील उत्पादकों ने किसानों के खिलाफ मुकदमे दायर करना शुरू कर दिये तथा मुकदमे लडऩे के लिये धन एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। बदले में किसानों ने भी नील उत्पादकों की सेवा में लगे लोगों का सामाजिक बहिष्कार प्रारंभ कर दिया। इससे किसान शक्तिशाली होते गये तथा नील उत्पादक अकेले पड़ते गये। बंगाल के बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने किसानों के समर्थन में समाचार-पत्रों में लेख लिखे, जनसभाओं का आयोजन किया तथा उनकी मांगों के संबंध में सरकार को ज्ञापन सौंपे। हरीशचंद्र मुखर्जी के पत्र हिन्दू पैट्रियट ने किसानों का पूर्ण समर्थन किया। दीनबंधु मित्र से नील दर्पण द्वारा गरीब किसानों की दयनीय स्थिति का मार्मिक प्रस्तुतीकरण किया।स्थिति को देखते हुये सरकार ने नील उत्पादन की समस्याओं पर सुझाव देने के लिये नील आयोग का गठन किया। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें किसानों को यह आश्वासन दिया गया किउन्हें निल उत्पादन के लिए विवश नहीं किया जाएगा तथा सभी सम्बंधित विवादों को वैधानिक तरीकों से हल किया जाएगा। कोई चारा न देखकर नील उत्पादकों ने बंगाल से अपने कारखाने बंद करने प्रारम्भ कर दिये तथा 1860 तक यह विवाद समाप्त हो गया।
- पर्थ। नासा का डीएआरटी मिशन - दोहरा क्षुद्रग्रह पुनर्निर्देशन परीक्षण - मानवता का पहला वास्तविक दुनिया का ग्रह रक्षा मिशन था। सितंबर 2022 में, डीएआरटी अंतरिक्ष यान पृथ्वी से एक करोड़ 10 लाख किलोमीटर दूर एक छोटे क्षुद्रग्रह के साथी "चंद्रमा" से टकरा गया। इस टक्कर का लक्ष्य यह पता लगाना था कि अगर कोई इस तरह हमारी तरफ आ रहा हो तो क्या हम ऐसी चीजों को बढ़ावा दे सकते हैं। क्षुद्रग्रह के हमारी तरफ बढ़ने और इस तरह के टकराव के बाद बहुत सारे डेटा इकट्ठा करने से, हमें यह भी बेहतर अंदाज़ा मिलेगा कि अगर ऐसा कोई क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकराता है तो हमें क्या होगा। नेचर कम्युनिकेशंस में आज प्रकाशित पांच नए अध्ययनों में डिडिमोस-डिमोर्फोस दोहरे क्षुद्रग्रह प्रणाली की उत्पत्ति को जानने के लिए डीएआरटी और उसके यात्रा मित्र लिसियाक्यूब e से भेजी गई छवियों का उपयोग किया गया है। उन्होंने उस डेटा को अन्य क्षुद्रग्रहों के संदर्भ में भी रखा है।क्षुद्रग्रह प्राकृतिक खतरा हैंहमारा सौर मंडल ऐसे छोटे-छोटे क्षुद्रग्रहों के मलबे से भरा है जो कभी ग्रह नहीं बन पाए। जो सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा के करीब आते हैं उन्हें नियर अर्थ ऑब्जेक्ट (एनईओ) कहा जाता है। ये हमारे लिए सबसे बड़ा जोखिम पैदा करते हैं, लेकिन सबसे सुलभ भी हैं। इन प्राकृतिक खतरों से ग्रहों की रक्षा वास्तव में उनकी संरचना को जानने पर निर्भर करती है - न कि केवल वे किस चीज से बने हैं, बल्कि वे एक साथ कैसे रखे गए हैं। क्या वे ठोस वस्तुएं हैं जो मौका मिलने पर हमारे वायुमंडल में घुस जाएंगी, या वे मलबे के ढेर की तरह हैं, जिन्हें बमुश्किल एक साथ रखा जा सकता है? डिडिमोस क्षुद्रग्रह, और इसका छोटा चंद्रमा डिमोर्फोस, एक द्विआधारी क्षुद्रग्रह प्रणाली के रूप में जाना जाता है। वे डीएआरटी मिशन के लिए एकदम सही लक्ष्य थे, क्योंकि टकराव के प्रभावों को डिमोर्फोस की कक्षा में परिवर्तन में आसानी से मापा जा सकता था। वे पृथ्वी के भी करीब हैं, या कम से कम एनईओ हैं। और वे एक बहुत ही सामान्य प्रकार के क्षुद्रग्रह हैं जिन्हें हमने पहले अच्छी तरह से नहीं देखा था। यह भी सीखने का मौका मिला कि द्विआधारी क्षुद्रग्रह कैसे बनते हैं, यह सोने पर सुहागा था। बहुत सी द्विआधारी क्षुद्रग्रह प्रणालियों की खोज की गई है, लेकिन ग्रह वैज्ञानिकों को ठीक से पता नहीं है कि वे कैसे बनते हैं। नए अध्ययनों में से एक में, अमेरिका में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के ओलिवियर बार्नौइन के नेतृत्व में एक टीम ने सतह के खुरदरापन और क्रेटर रिकॉर्ड को देखकर सिस्टम की उम्र का अनुमान लगाने के लिए डीएआरटी और लिसियाक्यूब की छवियों का उपयोग किया। उन्होंने पाया कि डिडिमोस लगभग एक करोड़ 25 लाख वर्ष पुराना है, जबकि इसका चंद्रमा डिमोर्फोस 300,000 साल से भी कम समय पहले बना था। यह भले बहुत बड़ा लगे, लेकिन यह अपेक्षा से बहुत छोटा है।पत्थरों का ढेरडिमोर्फोस भी कोई ठोस चट्टान नहीं है जैसा कि हम आम तौर पर कल्पना करते हैं। यह पत्थरों का एक मलबे का ढेर है जो मुश्किल से एक साथ बंधे हुए हैं। इसकी कम उम्र के साथ, यह दर्शाता है कि बड़े क्षुद्रग्रहों के टकराव के मद्देनजर इन मलबे के ढेर वाले क्षुद्रग्रहों की कई "पीढ़ियाँ" हो सकती हैं। सूरज की रोशनी वास्तव में क्षुद्रग्रहों जैसे छोटे पिंडों के घूमने का कारण बनती है। जैसे ही डिडिमोस एक लट्टू की तरह घूमने लगा, उसका आकार पिचक गया और बीच में उभर आया। यह बड़े टुकड़ों के मुख्य ढेर से लुढ़कने के लिए पर्याप्त था, कुछ के तो निशान भी छूट गए। इन टुकड़ों ने धीरे-धीरे डिडिमोस के चारों ओर मलबे का एक घेरा बना दिया। समय के साथ, जैसे-जैसे मलबा आपस में चिपकने लगा, इससे छोटे चंद्रमा डिमोर्फोस का निर्माण हुआ। अमेरिका में ऑबर्न विश्वविद्यालय के मौरिज़ियो पाजोला के नेतृत्व में एक अन्य अध्ययन में इसकी पुष्टि के लिए बोल्डर वितरण का उपयोग किया गया। टीम ने यह भी पाया कि मनुष्यों द्वारा देखे गए अन्य गैर-बाइनरी क्षुद्रग्रहों की तुलना में वहां काफी अधिक (पांच गुना तक) बड़े पत्थर थे। एक अन्य नए अध्ययन से हमें पता चलता है कि अब तक जितने भी क्षुद्रग्रह अंतरिक्ष अभियानों (इटोकावा, रयुगु और बेन्नू) पर गए हैं, उन पर पत्थरों का आकार संभवतः एक ही तरह का था। लेकिन डिडिमोस प्रणाली पर बड़े पत्थरों की यह अधिकता बायनेरिज़ की एक अनूठी विशेषता हो सकती है। अंत में, एक अन्य पेपर से पता चलता है कि इस प्रकार के क्षुद्रग्रह में दरार पड़ने की संभावना अधिक होती है। यह दिन और रात के बीच ताप-शीतलन चक्र के कारण होता है: जमने-पिघलने के चक्र की तरह लेकिन पानी के बिना। इसका मतलब यह है कि अगर कोई चीज़ (जैसे अंतरिक्ष यान) इस पर प्रभाव डालती है, तो अंतरिक्ष में बहुत अधिक मलबा गिरेगा। इससे "धक्का" देने की मात्रा भी बढ़ जाएगी। लेकिन इस बात की अच्छी संभावना है कि सतह पर हमे जो दिखाई दे रहा है, सतह के नीचे वह उससे कहीं अधिक मजबूत है। यहीं पर यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का हेरा मिशन कदम रखेगा। यह न केवल डीएआरटी प्रभाव स्थलों की उच्च-रिज़ॉल्यूशन छवियां प्रदान करने में सक्षम होगा, बल्कि कम-आवृत्ति रडार का उपयोग करके क्षुद्रग्रहों के अंदरूनी हिस्सों की जांच करने में भी सक्षम होगा। डीएआरटी मिशन ने न केवल भविष्य के क्षुद्रग्रह प्रभावों से खुद को बचाने की हमारी क्षमता का परीक्षण किया, बल्कि हमें पृथ्वी के पास मलबे के ढेर और बाइनरी क्षुद्रग्रहों के गठन और विकास के बारे में भी बताया।
- बुरंजी असमिया भाषा में लिखी हुईं ऐतिहासिक कृतियाँ हैं। अहोम राज्य सभा के पुरातत्व लेखों का संकलन बुरंजी में हुआ है। प्रथम बुरंजी की रचना असम के प्रथम राजा सुकफा के आदेश पर लिखी गयी, जिन्होंने 1228 ई में असम राज्य की स्थापना की। आरंभ में अहोम भाषा में इनकी रचना होती थी, कालांतर में असमिया भाषा इन ऐतिहासिक लेखों की माध्यम हुई। इसमें राज्य की प्रमुख घटनाओं, युद्ध, संधि, राज्यघोषणा, राजदूत तथा राज्यपालों के विविध कार्य, शिष्टमंडल का आदान प्रदान आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। राजा तथा मंत्री के दैनिक कार्यों के विवरण पर भी प्रकाश डाला गया है।असम में इनके अनेक वृहदाकार खंड प्राप्त हुए हैं। राजा अथवा राज्य के उच्चपदस्थ अधिकारी के निर्देशानुसार शासनतंत्र से पूर्ण परिचित विद्वान् अथवा शासन के योग्य पदाधिकारी इनकी रचना करते थे। घटनाओं का चित्रण सरल एवं स्पष्ट भाषा में किया गया है; इन कृतियों की भाषा में अलंकारिकता का अभाव है। सोलहवीं शती के आरंभ से उन्नीसवीं शती के अंत तक इनका आलेखन होता रहा।बुरंजी राष्ट्रीय असमिया साहित्य का अभिन्न अंग हैं। गदाधर सिंह के राजत्वकाल में पुरनि असम बुरंजी का निर्माण हुआ जिसका संपादन हेमचंद्र गोस्वामी ने किया है। पूर्वी असम की भाषा में इन बुरंजियों की रचना हुई है।बुरंजी मूलत: एक टाइ शब्द है, जिसका अर्थ है "अज्ञात कथाओं का भांडार"। इन बुरंजियों के माध्यम से असम प्रदेश के मध्य काल का काफी व्यवस्थित इतिहास उपलब्ध है। बुरंजी साहित्य के अंतर्गत कामरूप बुरंजी, कछारी बुरंजी, आहोम बुरंजी, जयंतीय बुंरजी, बेलियार बुरंजी के नाम अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन बुरंजी ग्रंथों के अतिरिक्त राजवंशों की विस्तृत वंशावलियाँ भी इस काल में हुई।आहोम राजाओं के असम में स्थापित हो जाने पर उनके आश्रय में रचित साहित्य की प्रेरक प्रवृत्ति धार्मिक न होकर लौकिक हो गई। राजाओं का यशवर्णन इस काल के कवियों का एक प्रमुख कर्तव्य हो गया।वैसे भी अहोम राजाओं में इतिहास लेखन की परंपरा पहले से ही चली आती थी। कवियों की यशवर्णन की प्रवृत्ति को आश्रयदाता राजाओं ने इस ओर मोड़ दिया।पहले तो अहोम भाषा के इतिहास ग्रंथों (बुरंजियों) का अनुवाद असमिया में किया गया और फिर मौलिक रूप से बुरंजियों का सृजन होने लगा।
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क्या आप जानते हैं कि एक कीड़े की कीमत 75 लाख रुपये हो सकती है? जी हाँ, 'स्टैग बीटल' (Stag Beetle) दुनिया के सबसे महंगे कीड़ों में से एक है। तो, क्या बात है जो इसे इतना ख़ास बनाती है? स्टैग बीटल महंगा है क्योंकि यह काफ़ी दुर्लभ है और इसे शुभ माना जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि स्टैग बीटल रखने से रातों-रात अमीर बना जा सकता है। यह कीड़े "जंगल पारिस्थितिक तंत्र में एक महत्वपूर्ण सैप्रोक्सिलिक सभा का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने बड़े मैंडिबल्स और पुरुष बहुरूपदर्शिता के लिए जाने जाते हैं। " वैज्ञानिक डेटा जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में लिखा गया है। लंदन स्थित नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के अनुसार, ये कीड़े 2-6 ग्राम के बीच का वज़न होते हैं और उनका औसत जीवनकाल 3-7 साल होता है। जबकि नर 35-75 mm लंबे होते हैं, मादा 30-50mm लंबी होती हैं। इनका इस्तेमाल औषधीय उद्देश्यों के लिए भी किया जाता है स्टैग बीटल नाम नर बीटल पर पाए जाने वाले विशिष्ट मैंडिबल्स से लिया गया है, जो हिरण के सींग से मिलते-जुलते हैं.। नर स्टैग बीटल अपने विशिष्ट, सींग जैसे जबड़ों का इस्तेमाल एक दूसरे से लड़ने के लिए करते हैं। ताकि प्रजनन के मौसम में मादा से मिलन का मौका मिल सके।
ये कहां पाए जाते हैं?स्टैग बीटल गर्म, उष्णकटिबंधीय वातावरण में पनपते हैं और ठंडे तापमान के प्रति संवेदनशील होते हैं.। वे स्वाभाविक रूप से वन में रहते हैं, लेकिन हेजरो, पारंपरिक बागों और शहरी क्षेत्रों जैसे पार्कों और बागानों में भी पाए जा सकते हैं, जहां मृत लकड़ी बहुत ज़्यादा होती है।वे क्या खाते हैं?वयस्क स्टैग बीटल मुख्य रूप से मीठे तरल पदार्थ जैसे पेड़ का रस और सड़ते फलों का रस खाते हैं।. वे मुख्य रूप से अपने लार्वा अवस्था के दौरान एकत्र की गई ऊर्जा भंडार पर निर्भर रहते हैं, जो उनके पूरे वयस्क जीवन में उनका पोषण करता है.। स्टैग बीटल के लार्वा मृत लकड़ी खाते हैं। अपने तेज़ जबड़ों का इस्तेमाल करके रेशेदार सतह से छीलन निकालते हैं.।चूंकि वे सिर्फ़ मृत लकड़ी खाते हैं, इसलिए स्टैग बीटल ज़िंदा पेड़ों या झाड़ियों के लिए कोई खतरा नहीं होते, जिससे वे स्वास्थ्य वनस्पतियों के लिए हानिकारक नहीं होते। - वैदिक धर्म पूर्णत: प्रतिमार्गी हैं वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की आराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की आराधना पशु के रुप में की जाती थी। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी।आकाश के देवता - सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि।अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य।पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय इन्द का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के कऱीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता द्योंस हैं अग्नि उसका यमज भाई है और मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफ़ान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं।ऋग्वेद में दूसरे महत्वपूर्ण देवता अग्नि थे, जिनका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियां दी जाती थीं। ऋग्वेद में कऱीब 200 सूक्तों में अग्नि का जि़क्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) ने उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हें अथर्वन कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। तीसरा स्थान वरुण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतुु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हें अहुरमज्द तथा यूनान में यूरेनस के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हें ऋत्स्यगोप भी कहा जाता था। वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में वरुण को वायु का सांस कहा गया है। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गों (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। ऋग्वेद का 7 वां मण्डल वरुण देवता को समर्पित है।
- आल्हाखण्ड लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जो परमाल रासो का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं।आल्हाखण्ड में महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों- आल्हा और ऊदल (उदय सिंह) का विस्तृत वर्णन है। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था। आरम्भ में वह वीर रस-प्रधान एक लघु लोकगाथा (बैलेड) रही होगी, जिसमें और भी परिवद्र्धन होने पर उसका रूप गाथाचक्र (बैलेड साइकिल) के समान हो गया, जो कालान्तर में एक लोक महाकाव्य के रूप में विकसित हो गया।पृथ्वीराजरासो के सभी गुण-दोष आल्हाखण्ड में भी वर्तमान हैं, दोनों में अन्तर केवल इतना है कि एक का विकास दरबारी वातावरण में शिष्ट, शिक्षित-वर्ग के बीच हुआ और दूसरे का अशिक्षित ग्रामीण जनता के बीच। आल्हाखण्ड पर अलंकृत महाकाव्यों की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। शब्द-चयन, अलंकार विधान, उक्ति-वैचित्र्य, कम शब्दों में अधिक भाव भरने की प्रवृत्ति प्रसंग-गर्भत्व तथा अन्य काव्य-रूढिय़ों और काव्य-कौशल का दर्शन उसमें बिलकुल नहीं होता। इसके विपरीत उसमें सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण रक्त का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। उसमें वीर रस की इतनी गहरी और तीव्र व्यंजना हुई है और उसके चरित्रों को वीरता और आत्मोत्सर्ग की उस ऊँची भूमि पर उपस्थित किया गया है कि उसके कारण देश और काल की सीमा पार कर समाज की अजस्त्र जीवनधारा से आल्हखण्ड की रसधारा मिलकर एक हो गयी है।
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नॉर्मन गार्डन्स (ऑस्ट्रेलिया). ‘बैलरैट क्लेरेंडन कॉलेज' ने पिछले महीने पांचवीं से नौवीं कक्षा के छात्रों के लिए कक्षा में पानी की बोतलों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाकर एक परीक्षण किया। स्कूल के अनुसार, ‘‘प्रारंभिक प्रतिक्रिया'' से संकेत मिलता है कि ऐसा करने से कक्षा के दौरान शोर कम हुआ और शौचालय जाने के लिए छात्रों के ‘ब्रेक' लेने में कमी आई। पानी की बोतलें अब स्कूल के लिए जरूरी मानी जाती हैं लेकिन सवाल यह है कि बच्चों को एक दिन में कितना पानी पीने की जरूरत होती है? इसका उनके दिमाग पर क्या असर पड़ता है? बच्चों और किशोरों को कितने तरल पदार्थ की जरूरत होती है? यह मौसम और शारीरिक गतिविधियों पर निर्भर करता है कि बच्चों को कितने तरल पदार्थ की जरूरत है लेकिन सामान्य तौर पर: चार से आठ साल के बच्चों को प्रतिदिन लगभग 1.2 लीटर पानी पीना चाहिए।
नौ से 13 साल के लड़कों को 1.6 लीटर पानी पीना चाहिए।
नौ से 13 साल की लड़कियों को 1.4 लीटर पानी पीना चाहिए।
चौदह साल से अधिक उम्र के लड़कों को 1.9 लीटर पानी पीना चाहिए।
चौदह साल से अधिक उम्र की लड़कियों को 1.6 लीटर पानी पीना चाहिए।
आहार संबंधी ऑस्ट्रेलियाई दिशा-निर्देशों के अनुसार, सादा पानी पीना बेहतर होता है लेकिन यदि आपका बच्चा पानी पीना पसंद नहीं करता है, तो आप जूस की कुछ बूंदें इसमें मिला सकते है। शोध से पता चलता है कि कई स्कूली बच्चे पर्याप्त पानी नहीं पीते। कुल 13 देशों (ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर) के 6,469 बच्चों (चार से 17 वर्ष की आयु वर्ग) को शामिल कर 2017 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 60 प्रतिशत बच्चे और 75 प्रतिशत किशोर पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थों का सेवन नहीं करते। हमें कितनी बार पानी पीना चाहिए?
इस बारे में कोई विशेष सलाह नहीं दी गई है कि बच्चों और किशोरों को कितनी बार पानी पीना चाहिए लेकिन शोध से मुख्य रूप से यह संदेश मिलता है कि छात्रों को सुबह उठते ही पानी पीना चाहिए। सुबह, सबसे पहले पानी पीने से शरीर और मस्तिष्क पानी का समुचित उपयोग करते हैं, जिससे पूरे दिन हमारा दिमाग बेहतर तरीके से काम करता है। हमारे मस्तिष्क के लिए पानी इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
मस्तिष्क के कुल द्रव्यमान का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा पानी है और हमारे दिमाग को काम करते रहने के लिए पानी की आवश्यकता होती है। पानी हार्मोन के स्तर को संतुलित करने, उचित रक्त प्रवाह बनाए रखने और मस्तिष्क में विटामिन, खनिज एवं ऑक्सीजन पहुंचाने में मस्तिष्क की कोशिकाओं और ऊतकों की मदद करता है। इसलिए यदि छात्रों को पर्याप्त मात्रा में पानी पिलाया जाए तो इससे उनकी एकाग्रता बढ़ती है।
पानी पढ़ाई में कैसे मददगार है?
जर्मनी के पांच और छह साल के बच्चों पर 2020 में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि जिन बच्चों ने सुबह चार घंटे की अवधि में पानी की अपनी दैनिक आवश्यकता का कम से कम 50 प्रतिशत (लगभग एक लीटर) पानी पिया, उनका दिमाग समग्र रूप से बेहतर कार्य करता है। बच्चों की दिनचर्या में पानी शामिल करें
नियमित समय पर पानी पीने से बच्चों और युवाओं के लिए नियमित दिनचर्या बनाने में भी मदद मिल सकती है। नियमित दिनचर्या ध्यान, भावनाओं और व्यवहार को प्रबंधित करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है। ऐसा जरूरी नहीं है कि पानी पीने के लिए ‘ब्रेक' कक्षा के दौरान ही दिया जाए (खासकर अगर स्कूल को लगता है कि इससे पढ़ाई में बाधा पैदा होती है)। बच्चों के जागने पर, भोजन के समय, बच्चों के स्कूल पहुंचने पर, कक्षाओं की शुरुआत या समाप्ति पर और घर पहुंचने पर पानी पीना मददगार होगा। -
नयी दिल्ली. व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली ‘ओजेम्पिक' और ‘वेगोवी' जैसी मधुमेह और वजन घटाने की दवाओं से पेट के पक्षाघात का खतरा बढ़ सकता है। नए अध्ययनों के निष्कर्ष से यह जानकारी मिली है। पेट का पक्षाघात यानी ‘गैस्ट्रोपैरेसिस' पेट की मांसपेशियों को कमजोर कर देता है, जिससे भोजन मुख्य पाचन अंग में लंबे समय तक पड़ा रहता है। ‘वेगोवी' वजन प्रबंधन के लिए अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा अनुमोदित दवा है और ‘ओजेम्पिक' ‘टाइप 2' मधुमेह के रोगियों में रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। मधुमेह के मरीजों को दी जाने वाली दवाओं और वजन घटाने के लिए दी जाने वाली दवाओं से मतली, उल्टी और दस्त जैसे ‘गैस्ट्रोइन्टेस्टनल' (जठरांत्र) से जुड़े दुष्प्रभाव के खतरे के बारे में सभी को जानकारी है लेकिन नए अध्ययन में पता चला है कि इनसे पेट के पक्षाघात, ‘इलियस' (आंत का सिकुड़कर अपशिष्ट को शरीर के बाहर ना निकाल पाना) और ‘पैन्क्रियाटाइटिस' (अग्नाशय में सूजन) का खतरे बढ़ने का भी पता चला है। ये अध्ययन 18 से 21 मई तक अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में आयोजित सम्मेलन ‘पाचन रोग सप्ताह 2024' में पेश किए गए। ‘कन्सास' यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं सहित कई शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इन अध्ययनों में से एक अध्ययन ने मधुमेह या मोटापे से पीड़ित ऐसे 1.85 लाख रोगियों की पहचान की, जिन्हें एक दिसंबर 2021 से 30 नवंबर 2022 के बीच ये दवाएं दी गई थीं। शोधकर्ताओं ने पाया कि लगभग 0.53 प्रतिशत रोगियों में ‘गैस्ट्रोपैरेसिस' की समस्या पाई गई और उन्होंने अनुमान जताया है कि इस स्थिति का खतरा 66 प्रतिशत बढ़ गया है। एक अन्य अध्ययन में टाइप 2 मधुमेह की दवाएं लेने वाले रोगियों में ‘गैस्ट्रोपैरेसिस' के जोखिम का आकलन किया गया और उनमें इसका खतरा बढ़ने की पुष्टि हुई। ‘मायो क्लिनिक मिनेसोटा' के शोधकर्ताओं के एक अन्य अध्ययन में भी यही बात साबित हुई।
- हाइपरटेंशन या हाई ब्लड प्रेशर देखने में भले ही आम लगे, लेकिन वास्तव में यह एक गंभीर समस्या है, जिसे नजरअंदाज करना सेहत से जुड़ी कई गंभीर समस्याओं का कारण भी बन सकती है। हाइपरटेंशन कई बार हार्ट अटैक और स्ट्रोक का भी कारण बन सकता है। हर साल 17 मई को विश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने के पीछे का मकसद लोगों में हाइपरटेंशन के प्रति जागरुकता फैलाना होता है। इस दिवस पर जगह-जगह कैंप लगाकर लोगों को जागरुक किया जाता है।विश्व हाइपरटेंशन दिवस का इतिहासहर साल 17 मई को विश्वभर में विश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाया जाता है। इस दिवस की शुरुआत वर्ल्ड हाइपरटेंशन लीग (WHL) द्वारा 14 मई 2005 को की गई थी। आगे चलकर इस दिवस को 17 मई को मनाया जाने लगा। हर साल हाइपरटेंशन के बढ़ते मामलों को देखकर यह दिवस मनाया जाने लगा, जिससे लोगों में हाई बीपी की रोकथाम होने के साथ ही इसे बढ़ने से भी रोका जा सके। खराब लाइफस्टाइल और अनियंत्रित जीवनशैली के चलते यह समस्या लोगों में बढ़ती जा रही है। आंकड़ों की मानें तो हाई ब्लड प्रेशर के चलते हर साल दुनियाभर में 7.5 मिलियन लोगों की मौत होती है।विश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाने का उद्देश्यविश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाने के पीछे का उद्देश्य या फिर मकसद लोगों को हाइपरटेंशन से मुक्त करना है। इस दिन दुनियाभर में अलग-अलग जगहों पर सेमिनार और इवेंट्स आयोजित करके लोगों को हाइपरटेंशन से जीतने का हौंसला दिया जाता है। इस दिवस को मनाकर लोगों का हौंसला उफजाई किया जाता है। इस दिन लोगों को हाइपरटेंशन के कारण, लक्षण और इससे बचने के तरीकों के बारे में बताया जाता है। जिससे लोग अपना लाइफस्टाइल ठीक करके इस बीमारी से बचे रहें।विश्व हाइपरटेंशन दिवस की थीमविश्व हाइपरटेंशन दिवस की इस साल की थीम Measure Your Blood Pressure Accurately, Control It, and Live Longer है। इस थीम से यह समझ आता है कि ब्लड प्रेशर को सटीकता के साथ कंट्रोल किया जाना चाहिए। इसे कंट्रोल करके आप लंबे समय तक सामान्य रूप से अपना जीवन यापन कर सकते हैं। हाई बीपी के लक्षण दिखने पर इसे नजरअंदाज नहीं करें।
- नयी दिल्ली. वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने एक अनूठी पहल ‘‘रिंकल्स अच्छे हैं'' के तहत हर सोमवार को अपने कर्मचारियों को बिना इस्त्री किए हुए कपड़े पहनने के लिए कहा है जिससे कि करीब 1,25,000 किलोग्राम कार्बन उत्सर्जन से बचा जा सकता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बंबई के प्रोफेसर चेतन सिंह सोलंकी ने यह जानकारी दी।हालांकि,सीएसआईआर ने स्पष्ट किया कि उसके मुख्यालय ने अपनी प्रयोगशालाओं को ऐसा कोई सुर्कलर या आदेश जारी नहीं किया गया है जिसमें कर्मचारियों को इस्त्री किए हुए कपड़े पहनने से बचने को कहा गया हो। सीएसआईआर ने एक पोस्ट में कहा, ‘‘23 अप्रैल 2024 को पृथ्वी दिवस समारोह के दौरान आईआईटी-बंबई के प्रोफेसर चेतन सोलंकी ने सीएसआईआर-मुख्यालय में जलवायु घड़ी स्थापित करने के बाद अपने भाषण में ऐसे विचार साझा किए थे।'' ‘रिंकल्स अच्छे है' पहल का उद्देश्य हर किसी को ऊर्जा बचाने, पर्यावरण की रक्षा करने और जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता फैलाने के बारे में याद दिलाना है। ‘एनर्जी स्वराज मूवमेंट' के संस्थापक चेतन सिंह सोलंकी ने कहा, ‘‘हम हर सोमवार को करीब 1,25,000 किग्रा. कार्बन उत्सर्जन कम कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के सबसे आसान समाधानों में से एक ‘कुछ न करना' है।'' उन्होंने कहा, ‘‘हमारा ‘रिंकल्स अच्छे हैं' (डब्ल्यूएएच/वाह) अभियान जोर पकड़ रह है। इसमें हम लोगों से सोमवार को बिना इस्त्री किए हुए कपड़े पहनने के लिए कह रहे हैं।'' उन्होंने कहा कि एक जोड़ी कपड़ा इस्त्री न करके हम 200 ग्राम तक कार्बन उत्सर्जन से बच सकते हैं।सोलंकी ने कहा, ‘‘हम लाखों लोग एक जैसा करते हैं तो बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन से बचते हैं और यह चलन बन जाता है। अभी हर सोमवार को 6,25,000 लोग इसमें शामिल हो रहे हैं। हम हर सोमवार को करीब 1,25,000 किग्रा. कार्बन उत्सर्जन से बच रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि इस वर्ष के अंत तक एक करोड़ से अधिक लोग इस ‘वाह' मंडे अभियान में शामिल होंगे।'' एक अधिकारी ने बताया कि सीएसआईआर अपनी सभी प्रयोगशालाओं में 10 फीसदी तक बिजली खपत को कम करने की भी योजना बना रहा है। प्रोफेसर सोलंकी ने हाल ही में जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए सीएसआईआर इमारत के शीर्ष पर भारत की सबसे बड़ी जलवायु घड़ी स्थापित की है।
- बेंगलुरु. एक अध्ययन में पता चला है कि चंद्रमा के ध्रुवीय गड्ढों में बर्फ के रूप में पानी की अधिक मात्रा हो सकती है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने यह जानकारी दी। इसरो ने एक विज्ञप्ति में बताया कि यह अध्ययन अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (एसएसी)/इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर, दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, जेट प्रोपल्शन प्रयोगशाला और आईआईटी (आईएसएम) धनबाद के शोधकर्ताओं के सहयोग से किया गया। विज्ञप्ति के मुताबिक हाल के अध्ययन से पता चलता है कि पहले कुछ मीटर में उपसतह बर्फ की मात्रा दोनों ध्रुवों की सतह पर मौजूद बर्फ की तुलना में लगभग पांच से आठ गुना अधिक है। अंतरिक्ष एजेंसी ने बताया कि ऐसे में बर्फ का नमूना लेने या दोहन करने के लिए चंद्रमा पर खुदाई भविष्य के मिशन और दीर्घकालिक मानव उपस्थिति के लिए अहम होगी। विज्ञप्ति के मुताबिक, ‘‘इसके अलावा अध्ययन से यह भी पता चलता है कि उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में बर्फ के रूप में पानी की मात्रा दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र की तुलना में दोगुनी है।'' इसमें कहा गया कि इस बर्फ की उत्पत्ति के लिए अध्ययन इस परिकल्पना की पुष्टि करता है कि चंद्रमा के ध्रुवों में उपसतह जल बर्फ का प्राथमिक स्रोत इम्ब्रियन काल में ज्वालामुखी के दौरान निकलने वाली गैस है।
- ब्रह्म पुराण' गणना की दृष्टि से सर्वप्रथम गिना जाता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह प्राचीनतम है। काल की दृष्टि से इसकी रचना बहुत बाद में हुई है। इस पुराण में साकार ब्रह्म की उपासना का विधान है। इसमें 'ब्रह्म' को सर्वोपरि माना गया है। इसीलिए इस पुराण को प्रथम स्थान दिया गया है। कर्मकाण्ड के बढ़ जाने से जो विकृतियां तत्कालीन समाज में फैल गई थीं, उनका विस्तृत वर्णन भी इस पुराण में मिलता है। यह समस्त विश्व ब्रह्म की इच्छा का ही परिणाम है। इसीलिए उसकी पूजा सर्वप्रथम की जाती है।ब्रह्म पुराण सब पुराणों में प्रथम और धर्म अर्थ काम और मोक्ष को प्रदान करने वाला है,इसके अन्दर नाना प्रकार के आख्यान है।देवता दानव और प्रजापतियों की उत्पत्ति इसी पुराण में बताई गई है। लोकेश्वर भगवान सूर्य के पुण्यमय वंश का वर्णन किया गया है,जो महापातकों के नाश को करने वाला है। इसमें ही भगवान रामचन्द्र के अवतार की कथा है। सूर्य वंश के साथ चन्द्रवंश का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण भगवान की कथा का विस्तार इसी में है। पाताल और स्वर्ग लोक का वर्णन नरकों का विवरण सूर्यदेव की स्तुति कथा और पार्वती जी के जन्म की कथा का उल्लेख लिखा गया है। दक्ष प्रजापति की कथा और एकाम्रक क्षेत्र का वर्णन है। पुरुषोत्तम क्षेत्र का विस्तार के साथ किया गया है,इसी में श्रीकृष्ण चरित्र का विस्तारपूर्वक लिखा गया है। यमलोक का विवरण पितरों का श्राद्ध और उसका विवरण भी इसी पुराण में बताया गया है। वर्णों और आश्रमों का विवेचन भी इसमें मिलता है। इसके अलावा इसमें योगों का निरूपण, सांख्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन, ब्रह्मवाद का दिग्दर्शन और पुराण की प्रशंसा की गई है। इस पुराण के दो भाग हैं।इस जगत् का प्रत्यक्ष जीवनदाता और कर्त्ता-धर्त्ता 'सूर्य' को माना गया है। इसलिए सर्वप्रथम सूर्य नारायण की उपासना इस पुराण में की गई है। सूर्य वंश का वर्णन भी इस पुराण में विस्तार से है। सूर्य भगवान की उपसना-महिमा इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है।सम्पूर्ण 'ब्रह्म पुराण' में दो सौ छियालीस अध्याय हैं। इसकी श्लोक संख्या लगभग चौदह हज़ार है। इस पुराण की कथा लोमहर्षण सूत जी एवं शौनक ऋषियों के संवाद के माध्यम से वर्णित है। 'सूर्य वंश' के वर्णन के उपरान्त 'चन्द्र वंश' का विस्तार से वर्णन है। इसमें श्रीकृष्ण के अलौकिक चरित्र का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। यहीं पर जम्बू द्वीप तथा अन्य द्वीपों के वर्णन के साथ-साथ भारतवर्ष की महिमा का विवरण भी प्राप्त होता है। भारतवर्ष के वर्णन में भारत के महत्त्वपूर्ण तीर्थों का उल्लेख भी इस पुराण में किया गया है। इसमें 'शिव-पार्वती' आख्यान और 'श्री कृष्ण चरित्र' का वर्णन भी विस्तारपूर्वक है। 'वराह अवतार ','नृसिंह अवतार' एवं 'वामन अवतार' आदि अवतारों का वर्णन स्थान-स्थान पर किया गया है।सूर्यदेव का प्रमुख मन्दिर उड़ीसा के कोणार्क स्थान पर है। उसका परिचय भी इस पुराण में दिया गया है। उस मन्दिर के बारे में लिखा है-"भारतवर्ष में दक्षिण सागर के निकट 'औड्र देश' (उड़ीसा) है, जो स्वर्ग और मोक्ष- दोनों को प्रदान करने वाला है। वह समस्त गुणों से युक्त पवित्र देश है। उस देश में उत्पन्न होने वाले ब्राह्मण सदैव वन्दनीय हैं। उसी प्रदेश में 'कोणादित्य' नामक भगवान सूर्य का एक भव्य मन्दिर स्थित है। इसमें सूर्य भगवान के दर्शन करके मनुष्य सभी पापों से छुटकारा पा जाता है। यह भोग और मोक्ष- दोनों को देने वाला है। माघ शुक्ल सप्तमी के दिन सूर्य भगवान की उपासना का विशेष पर्व यहाँ होता है। रात्रि बीत जाने पर प्रात:काल सागर में स्नान करके देव, ऋषि तथा मनुष्यों को भली-भांति तर्पण करना चाहिए। नवीन शुद्ध वस्त्र धारण कर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके, ताम्रपात्र अथवा अर्क पत्रों से बने दोने में तिल, अक्षत, जलीय रक्त चन्दन, लाल पुष्प और दर्पण रखकर सूर्य भगवान की पूजा करें।"
- कुछ सबसे पसंदीदा पेट्स में से एक खरगोश भी होते हैं. लोग इन्हें पसंद भी खूब करते हैं और छोटे होने की वजह से इन्हें पालना भी बेहद आसान होता है. लोग इन्हें हाथों में लेकर खूब प्यार और दुलार करते हैं क्योंकि इनका वज़न भी कम होता है. हालांकि आज हम आपको जिस खरगोश से मिलवाने जा रहे हैं, वो न तो छोटा है, न ही हल्का बल्कि ये घर में पले तो आपको डॉग्स की तरह इसके लिए इंतज़ाम करना पड़ेगा.एक ऐसे खरगोश का वीडियो वायरल हो रहा है, जो देखने में किसी डॉग जितना लंबा चौड़ा है. इतना ही नहीं इसका वज़न इतना ज्यादा होता है कि इसे उठाना बच्चों का खेल नहीं होता. ये बेल्जियम की एक खरगोश (Belgium rabbits) की प्रजाति है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा खरगोश (World’s Largest Breed of Rabbit) माना जाता है. अगर इसे किसी डॉग के साथ बिठाया जाए, तो फर्क करना ही मुश्किल हो जाएगा.डील-डौल में खरगोशों से अलगफ्लैमिश जाएंट बेल्जियम नाम के इस खरगोश का एक वीडियो इस वक्त वायरल हो रहा है, जिसमें एक शख्स इसे लेकर खड़ा है. आप देख सकते हैं कि खरगोश को हाथ में लेने में वो थका जा रहा है क्योंकि इनका वज़न 22 किलोग्राम तक हो सकता है. इनकी लंबाई 2 फीट से लेकर 4 फीट तक भी हो सकती है. फिलहाल शख्स के हाथ में ढाई फीट का खरगोश है. ये दिखने में भले ही भड़कीले हों, लेकिन पालने के लिहाज से ये काफी शांत और सौम्य होते हैं. जिसने भी वीडियो में इस भारी-भरकम खरगोश को देखा, वो हैरान रह गया.16वीं सदी से पाले जा रहे हैं ये खरगोशइन बड़े खरगोशों की डाइट भी दूसरे और छोटे खरगोशों की तुलना में ज्यादा होती है. अगर आप सोच रहे हैं कि ये कोई नई ब्रीड हैं, तो ऐसा नहीं है, रिपोर्ट की मानें तो इन जीवों के मिलने का दावा 16वीं सदी से किया जा रहा है. माना जाता है कि ये बेल्जियन स्टोन रैबिट से विकसित हुए हैं. इन्हें ज्यादातर फर और मांस के लिए पाला जाता है लेकिन ये काफी फ्रेंडली होते हैं. पालतू जानवर के तौर पर इन्हें अच्छा माना जाता है.
- बुरहानपुर. मुगल काल में राजा-महाराजा ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करते थे, जिससे उनको कोई मार न सके. उस दौरान ऐसी तकनीक इस्तेमाल होता था, जो आज शायद ही कहीं देखने को मिले. ऐसा ही एक गिलास था, जो जहर पहचान सकता था. यह गिलास कासा-कांच से बनाया जाता था.इस गिलास में चारों ओर से कासा होता था और अंदर कांच लगा होता था. यह कांच जहर को पहचान लेता था. अगर कोई पानी या किसी पेय पदार्थ में जहर मिलाकर देता था तो ये गिलास साजिश का पर्दाफाश कर देता था. मुगल काल की इस निशानी को आज भी बुरहानपुर में संग्रहकर्ताओं ने संभाल कर रखा हुआ है.400 साल पुराना बर्तनपुरातत्व संग्रहणकर्ता और वैद्य डॉ. सुभाष माने ने बताया कि यह मुगल काल का 400 साल पुराना गिलास है, जो कासा धातु से बना होता था. इसके अंदर एक कांच लगा होता है. यह कांच जहर को पहचान लेता है. यदि पानी के साथ राजाओं को कोई कीटनाशक या जहर मिलाकर देता था तो गिलास में नीचे से अलग ही रंग दिखने लगता था, जिससे उनको साजिश का पता चल जाता था. राजा-महाराजा के समय में अक्सर जहर देकर मारने की साजिश रची जाती थी. ऐसे में गिलास काफी उपयोगी होता था.गिलास के नीचे से आता था रंगइस गिलास में यदि पानी के साथ जहर या कीटनाशक मिलाया जाता है तो जब कांच से आप देखते हैं तो उसमें हरा या लाल रंग नजर आने लगता है. इससे पुष्टि होती है कि इस पानी में कुछ मिलाया गया है. पहचान होने के बाद लोग इस पानी को नहीं पीते थे, जिससे उनकी जान बच जाती थी.शाहजहां-मुमताज की तस्वीरमुगल काल के कलाकारों ने इस गिलास पर शाहजहां और मुमताज की तस्वीर टकसाल से उकेरी है. इस गिलास की लंबाई आधा फीट की है. इसमें आधा लीटर पानी आता है.विद्यार्थियों को दे रहे फ्री जानकारीपुरातत्व संग्रहणकर्ता वैद्य डॉ. सुभाष माने 40 साल से पुरातत्व की वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं. वह स्कूली विद्यार्थियों को इस बारे में निशुल्क जानकारी भी देते हैं.
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साल का पहला चंद्र ग्रहण 25 मार्च (होली के दिन) लगने जा रहा है, तो 2024 का पहला सूर्य ग्रहण 8 अप्रैल को लगेगा। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहण का काफी महत्व है, तो वहीं खगोलीय घटनाओं में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए यह बेहद खास होता है। चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोनों भारत में दिखाई नहीं देंगे। हम आपको ग्रहण को लेकर विज्ञान से जुड़ी बातें बताएंगे। चंद्र ग्रहण क्यों लगता है? सू्र्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण में क्या अंतर है? सबसे पहले जानते हैं कि चंद्र क्यों लगता है...
सूर्य का धरती परिक्रमा करती है, तो चंद्रमा सूर्य और धरती दोनों का चक्कर लगाता है। इस दौरान कई बार चंद्रमा और सूर्य के बीच धरती आ जाती है। इसकी वजह से सूर्य की सीधी रोशनी चंद्रमा तक नहीं पहुंच पाती है और पृथ्वी की परछाई चंद्रमा पर पड़ती है। इसकी घटना को चंद्र ग्रहण कहते हैं। हालांकि पूरी तरह आसमान में चंद्रमा गायब नहीं होता है, बल्कि लाल रंग का नजर आता है।
क्यों लाल हो जाता है चंद्रमा?
धरती के वायुमंडल से टकराकर रोशनी चंद्रमा तक पहुंचती, जिसकी वजह से चंद्रमा लाल नजर आता है। इस दौरान धरती की परछाई भी दो तरह की होती है। पहला उम्ब्रा और दूसरी पेनुंब्रा। उम्ब्रा परछाई काफी गहरी होती है, जबकि पेनुंब्रा हल्की होती है। 25 मार्च को चंद्र ग्रहण के बाद 8 अप्रैल को सूर्य ग्रहण लगेगा। यह सूर्य ग्रहण पूर्ण ग्रहण होगा, जो अमेरिका में दिखाई देगा।
क्या होता है सूर्य ग्रहण?
जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा एक सीध में आ जाते हैं यानी सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाता है, तो ऐसी स्थिति को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। अमावस्या को ही सूर्य ग्रहण लगता है। सूर्य और पृथ्वी के बीच जब चंद्रमा आता है, तो पृथ्वी पर उसकी छाया पड़ती है। इस दौरान वह सूर्य के प्रकाश को पूरी तरह या आंशिक रूप से ढक लेता है। बता दें कि एक साल में चार या पांच ग्रहण लग सकते हैं। इनमें सूर्य और चंद्र ग्रहण दोनों होते हैं।
50 साल बाद लगेगा ऐसा सूर्य ग्रहण
8 अप्रैल 2024 को पहली बार सबसे लंबा सूर्य ग्रहण लगेगा। पूर्ण सूर्य ग्रहण का ऐसा अद्भुद नजारा 50 साल पहले दिखाई दिया था। 8 अप्रैल को लगने वाला सूर्य ग्रहण करीब 7.5 मिनट तक रहेगा। इस दौरान सूर्य नजर नहीं आएगा, सिर्फ उसका कोरोना दिखाई देगा। इससे पहले साल 1973 में इतना लंबा सूर्य ग्रहण दिखाई दिया था।
100 साल बाद होली के दिन होगा ऐसा
गणना के मुताबिक, 100 साल बाद होली और चंद्र ग्रहण एक ही दिन होंगे। खगोलविदों के मुताबिक, अगर आसमान साफ हो तो चंद्र ग्रहण को धरती से रात के समय देखा जा सकता है। कुछ स्थानों पर चंद्र ग्रहण नजर आएगा, तो वहीं अन्य इलाकों में ग्रहण के दौरान चंद्रमा उदय या अस्त होगा। भारत में चंद्र ग्रहण दिखाई नहीं देगा। चंद्र ग्रहण सुबह 10.23 मिनट से शुरू होगा और दोपहर बाद 3.02 बजे समाप्त होगा। यह चंद्र गहण उपछाया ग्रहण होगा।
इन देशों में नजर आएगा चंद्र ग्रहण
यह चंद्रग्रहण भारत में नहीं नजर आएगा। इस खगोलीय घटना को आयरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, इंग्लैंड, दक्षिण नॉर्वे, इटली, पुर्तगाल, रूस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड और फ्रांस के कुछ इलाकों में देखा जा सकेगा। भारतीय उपमहाद्वीप में यह ग्रहण नहीं दिखेगा, जिसकी वजह से होली के त्योहार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा।
जानिए कहां दिखेगा सूर्य ग्रहण
साल का पहला सूर्य ग्रहण भारत में नजर नहीं आएगा। 8 अप्रैल को लगने वाला सूर्य ग्रहण पश्चिमी यूरोप पेसिफिक, अटलांटिक, आर्कटिक मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका, कनाडा, मध्य अमेरिका, दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग, इंग्लैंड के उत्तर पश्चिम क्षेत्र और आयरलैंड में नजर आएगा। -
वाशिंगटन. खगोलविदों को हमारे सौर मंडल में तीन ऐसे चंद्रमा दिखे हैं जो पहले अज्ञात थे। इनमें से दो चंद्रमा वरुण और एक चंद्रमा अरुण के चारों ओर चक्कर लगा रहा है। हवाई और चिली में शक्तिशाली भूमि-आधारित दूरबीनों का उपयोग करके दूर स्थित इन छोटे चंद्रमाओं को देखा गया, और अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ (आईएयू) के लघु ग्रह केंद्र ने शुक्रवार को इसकी घोषणा की। इसी के साथ वरुण के चारों ओर चक्कर लगा रहे चंद्रमा की ज्ञात संख्या 16 और अरुण के चारों ओर घूम रहे चंद्रमा की ज्ञात संख्या 28 हो गई है। इस खोज में मदद करने वाले वाशिंगटन स्थित ‘कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस' के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने बताया कि वरुण के नए चंद्रमाओं में से एक की ज्ञात कक्षीय यात्रा अब तक सबसे लंबी है। उन्होंने बताया कि छोटे बाह्य चंद्रमा को सूर्य से सबसे दूर स्थित विशाल बर्फीले ग्रह वरुण के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में लगभग 27 साल लगते हैं। उन्होंने बताया कि अरुण की परिक्रमा कर रहा नया चंद्रमा इस ग्रह के चंद्रमाओं में संभवतः सबसे छोटा है और इसका अनुमानित व्यास केवल पांच मील (आठ किलोमीटर) है। उन्होंने कहा, “हमें लगता कि अभी ऐसे कई और छोटे चंद्रमा हो सकते हैं, जिनकी खोज की जानी बाकी है।
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नयी दिल्ली. खगोलविदों ने अब तक के सबसे तेजी से बढ़ने वाले ब्लैक होल की खोज की है जो ब्रह्मांड में सबसे चमकदार ज्ञात वस्तु है और यह हर दिन एक सूर्य के बराबर के आकार को निगल रहा है। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी (एएनयू) के अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि सूर्य से लगभग 17 अरब गुना अधिक द्रव्यमान वाले ब्लैक होल ने एक ऐसा रिकॉर्ड बनाया है जिसे शायद कभी नहीं तोड़ा जा सकेगा। एएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर और अनुसंधान रिपोर्ट के प्रमुख लेखक क्रिश्चियन वुल्फ ने कहा, "इसकी वृद्धि की अविश्वसनीय दर का मतलब भारी मात्रा में प्रकाश और गर्मी निकलना भी है।" वुल्फ ने एक बयान में कहा, "तो, यह ब्रह्मांड में सबसे चमकदार ज्ञात वस्तु भी है। यह हमारे सूर्य से 500 लाख करोड़ गुना अधिक चमकीला है।" ब्लैक होल अंतरिक्ष का एक ऐसा क्षेत्र होता है जहां गुरुत्वाकर्षण इतना मजबूत होता है कि प्रकाश सहित कुछ भी इससे बच नहीं सकता है। ‘नेचर एस्ट्रोनॉमी' पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के सह-लेखक क्रिस्टोफर ओंकेन ने कहा, ‘‘यह आश्चर्य की बात है कि ब्लैकहोल का अब तक पता नहीं चला, जबकि हम कई अन्य, कम प्रभावशाली वस्तुओं के बारे में जानते हैं।'' मेलबर्न विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राचेल वेबस्टर ने कहा, "इस ब्लैक होल से प्रकाश को हम तक पहुंचने में 12 अरब वर्ष से अधिक का समय लगा है।
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पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। महृर्षि वेदव्यास ने 18 पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है। ब्रह्मा विष्णु तथा महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं। त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं। इन 18 पुराणों के अतिरिक्त 16 उप-पुराण भी हैं किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दिया गया है। मुख्य पुराणों का वर्णन इस प्रकार हैः-
1. ब्रह्म पुराण :-ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।2. पद्म पुराण :-पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह गॅंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है। चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणा में रखा गया है। यह वर्गीकरण पुर्णत्या वैज्ञायानिक है। भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तरित वर्णन है। इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है। शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और पश्चात भारत पडा था।3. विष्णु पुराण :-विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं। इस के अतिरिक्त सम्राट पृथु की कथा भी शामिल है जिस के कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था।इस पुराण में सू्र्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास है। भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है जिस का प्रमाण विष्णु पुराण के निम्नलिखित शलोक में मिलता हैःउत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।(साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से घिरा हुआ है भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले सभी जन भारत देश की ही संतान हैं।) भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।4. शिव पुराण :-शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है। इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं। इस में कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व, सप्ताह के दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है। सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं।5. भागवत पुराण :-भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है। विष्णु और कृष्णावतार की कथाओं के अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।6. नारद पुराण :-नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं। गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक दी गयी है। दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध ऐवम कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है। जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं उन के लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे तथा संगीत की थि्योरी का विकास शून्य के बराबर था। मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं।7. मार्कण्डेय पुराण :-अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेय तथा ऋषि जैमिनि के मध्य वार्तालाप है। इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गा तथा श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं।8. अग्नि पुराण :-अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है। इस ग्रंथ में मत्स्यावतार, रामायण तथा महाभारत की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं। इस के अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं। धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।9. भविष्य पुराण :-भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है। इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है।इस पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं। इस पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले नन्द वँश, मौर्य वँशों, मुग़ल वँश, छत्रपति शिवा जी और महारानी विक्टोरिया तक का वृतान्त भी दिया गया है।ईसा के भारत आगमन तथा मुहम्मद और कुतुबुद्दीन ऐबक का जिक्र भी इस पुराण में दिया गया है। इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है। सत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है। यह पुराण भी भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है जिस पर शोध कार्य करना चाहिये।10. ब्रह्मवैवर्त पुराण :-ब्रह्मवैवर्त पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।11. लिंग पुराण :-लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।12. वराह पुराण :-वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है। श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे।13. सकन्द पुराण :-सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है जिस में 27 नक्षत्रों, 18 नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित 12 ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं। इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है। इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।14. वामन पुराण :-वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।15. कुर्मा पुराण :-कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है। कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा विस्तार पूर्वक लिखी गयी है। इस में ब्रह्मा, शिव, विष्णु, पृथ्वी, गंगा की उत्पत्ति, चारों युगों, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी वर्णन है।16. मतस्य पुराण :-मतस्य पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है। सृष्टि की उत्पत्ति हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है। कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी पुराण में है17. गरुड़ पुराण :-गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है।साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं क्यों कि इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है जिसे वैतरणी नदी आदि की संज्ञा दी गयी है।समस्त योरुप में उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी। अंग्रेज़ी साहित्य में जान बनियन की कृति दि पिलग्रिम्स प्रौग्रेस कदाचित इस ग्रंथ से परेरित लगती है जिस में एक एवेंजलिस्ट मानव को क्रिस्चियन बनने के लिये प्रोत्साहित करते दिखाया है ताकि वह नरक से बच सके।18. ब्रह्माण्ड पुराण :-ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है। इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में वर्णन किया गया है। कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है। सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। -
नयी दिल्ली. तमिलनाडु में किये गए एक अध्ययन के अनुसार लोगों के सहयोग से स्थानीय स्तर पर उपायों को बढ़ावा देकर सर्पदंश के मामलों को घटाया जा सकता है और कई व्यक्तियों की जान बचाई जा सकती है। यह अध्ययन, तमिलनाडु के ग्रामीण कृषक समुदायों के 535 लोगों पर किया गया। इसके तहत उनसे यह पूछा गया कि वे सर्पदंश रोधी क्या उपाय करेंगे तथा अपनी सुरक्षा के लिए और अधिक प्रयास करने की उनकी राह में क्या बाधक है। अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि तमिलनाडु में भारत की आबादी का केवल पांच प्रतिशत हिस्सा निवास करता है लेकिन देश में सर्पदंश से होने वाली मौतों में करीब 20 प्रतिशत इस राज्य में होती है। अध्ययन के नतीजे कंजरवेशन साइंस एंड प्रैक्टिस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इसमें कहा गया है कि ज्यादातर लोग (69 प्रतिशत) सर्पदंश को रोकने के उपाय करते हैं। सर्पदंश को रोकने के उपाय करने वाले लोगों में आधे से अधिक (59 प्रतिशत) साक्ष्य समर्थित उपाय करते हैं और सरकारी दिशानिर्देशों का पालन करते हैं। अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि इन उपायों में घरों और आसपास के स्थान को साफ-सुथरा रखना और रात में टॉर्च का इसतेमाल करना शामिल है। अध्ययन दल में मद्रास क्रोकोडाइल बैंक ट्रस्ट के विशेषज्ञ भी शामिल हैं।
अध्ययनकर्ताओं ने बताया कि हालांकि 41 प्रतिशत लोग पूरी तरह से या आंशिक रूप से उन उपायों पर निर्भर करते हैं जिन्हें शोध या आधिकारिक परामर्श द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है जैसे कि प्रतिरोधक के रूप में नमक, लहसुन, हल्दी आदि का छिड़काव करना। ब्रिटेन के एक्सटर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई के तहत अध्ययन का नेतृत्व करने वाले हैरिसन कार्टर ने कहा, ‘‘असल में इस महत्वपूर्ण चीज का पता लगाना है जो एक खास स्थान में कारगर हो और लोगों को उसका उपयोग व्यवाहरिक लगे तथा वे आसानी से कर सकें।'' अब ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययनरत कार्टर ने कहा, ‘‘उदाहरण के तौर पर, तमिलनाडु में कुछ किसानों को पूर्व में सुरक्षा के लिए घुटने तक के जूते दिये गए, लेकिन ज्यादातर लोग धान के खेतों में काम करते हैं जहां ये जूते तुरंत कीचड़ में फंस जाते हैं। लेकिन इसकी अनदेखी कर दी गई कि लोगों से बातचीत करना और उनसे उनकी जरूरत के बारे में पूछने की जरूरत है।'' अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि अपने समुदायों का विश्वास रखने वाले स्थानीय साझेदारों के साथ कम कर वास्तविक बदलाव लाने के लिए आसान उपायों को बढ़ावा दिया जा सकता है। उन्होंने कहा कि विश्वभर में हर साल करीब 1.4 लाख लोगों की सर्पदंश से मौत हो जाती है और अन्य चार लाख लोग स्थायी रूप से अशक्तत हो जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने सर्पदंश को एक ‘अनदेखी की गई उष्णकटिबंधीय रोग' की श्रेणी में अब रखा है और यह सर्पदंश से होने वाली मौतों एवं अशक्तता को 2030 तक आधा करने के प्रति प्रतिबद्ध है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, तमिलनाडु में ऐसे चार जहरीले सांपों की अधिक संख्या है जो मानव को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं। इनमें कोबरा, रसेल वाइपर, सॉ-स्केल्ड वाइपर, सामान्य करैत शामिल हैं। -
कैंब्रिज. बुढ़ापा जीवन का एक अपरिहार्य हिस्सा है, जो दीर्घायु की खोज के प्रति हमारे मजबूत आकर्षण को समझा सकता है। शाश्वत यौवन का आकर्षण अपने जीवनकाल को बढ़ाने की उम्मीद रखने वाले लोगों के लिए अरबों पाउंड के उस उद्योग को संचालित करता है, जो बुढ़ापा रोधी उत्पादों से लेकर पूरक और आहार तक का कारोबार करते हैं। यदि आप 20वीं सदी की शुरुआत पर नजर डालें तो ब्रिटेन में औसत जीवन प्रत्याशा लगभग 46 वर्ष थी। आज ये 82 साल के करीब है. हम वास्तव में पहले से कहीं अधिक लंबे समय तक जी रहे हैं, संभवतः चिकित्सा प्रगति और बेहतर रहने और काम करने की स्थितियों के कारण। लेकिन लंबे समय तक जीवित रहने की भी कीमत चुकानी पड़ी है। अब हम पुरानी और अपक्षयी बीमारियों की उच्च दर देख रहे हैं - हृदय रोग इस सूची में लगातार शीर्ष पर है। इसलिए जबकि हम इस बात से रोमांचित हैं कि हमें लंबे समय तक जीने में क्या मदद मिल सकती है, शायद हमें लंबे समय तक स्वस्थ रहने में अधिक रुचि होनी चाहिए। हमारी "स्वस्थ जीवन प्रत्याशा" में सुधार करना एक वैश्विक चुनौती बनी हुई है। दिलचस्प बात यह है कि दुनिया भर में कुछ ऐसे स्थानों की खोज की गई है जहां उल्लेखनीय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य वाले शतायु लोगों का अनुपात अधिक है। उदाहरण के लिए, सार्डिनिया, इटली के एकेईए अध्ययन ने एक "ब्लू जोन" की पहचान की (यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसे नीले पेन से चिह्नित किया गया था), जहां व्यापक सार्डिनियन समुदाय के मुकाबले मध्य-पूर्वी पहाड़ी इलाकों में रहने वाले ऐसे स्थानीय लोगों की संख्या अधिक थी जो अपने 100 वें जन्मदिन पर पहुंच गए थे। । इस दीर्घायु हॉटस्पॉट का तब से विस्तार हुआ है, और अब इसमें दुनिया भर के कई अन्य क्षेत्र भी शामिल हैं, जिनमें लंबे समय तक जीवित रहने वाले, स्वस्थ लोगों की संख्या भी अधिक है। सार्डिनिया के साथ-साथ, इन ब्लू जोन में अब लोकप्रिय रूप से शामिल हैं: इकारिया, ग्रीस; ओकिनावा, जापान; निकोया, कोस्टा रिका; और लोमा लिंडा, कैलिफ़ोर्निया। अपने लंबे जीवन काल के अलावा, इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग कुछ अन्य समानताएं भी साझा करते दिखाई देते हैं, जो एक समुदाय का हिस्सा होने, जीवन का उद्देश्य रखने, पौष्टिक, स्वस्थ भोजन खाने, तनाव के स्तर को कम रखने और उद्देश्यपूर्ण दैनिक व्यायाम या शारीरिक कार्य करने पर केंद्रित हैं। उनकी दीर्घायु उनके पर्यावरण से भी संबंधित हो सकती है, ज्यादातर ग्रामीण (या कम प्रदूषित) होने के कारण, या विशिष्ट दीर्घायु जीन के कारण। हालाँकि, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि आनुवंशिकी केवल लगभग 20-25% दीर्घायु के लिए जिम्मेदार हो सकती है - जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति का जीवनकाल जीवनशैली और आनुवंशिक कारकों के बीच एक जटिल तालमेल है, जो लंबे और स्वस्थ जीवन में योगदान देता है। क्या इसका रहस्य हमारे आहार में है?
जब आहार की बात आती है, तो प्रत्येक ब्लू जोन का अपना दृष्टिकोण होता है - इसलिए एक विशिष्ट भोजन या पोषक तत्व उल्लेखनीय दीर्घायु की व्याख्या नहीं करता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि पौधों के खाद्य पदार्थों (जैसे स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियां, फल और फलियां) से भरपूर आहार इन क्षेत्रों में उचित रूप से सुसंगत प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, लोमा लिंडा के सेवेंथ-डे एडवेंटिस्ट मुख्यतः शाकाहारी हैं। ओकिनावा में सौ साल के लोगों के लिए, बैंगनी शकरकंद, सोया और सब्जियों से फ्लेवोनोइड्स (आमतौर पर पौधों में पाया जाने वाला एक रासायनिक यौगिक) का उच्च सेवन बेहतर हृदय स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है - जिसमें निम्न कोलेस्ट्रॉल स्तर और स्ट्रोक और हृदय रोग की कम घटनाएं शामिल हैं। निकोया में, स्थानीय रूप से उत्पादित चावल और फलियों की खपत को टेलोमेयर की अधिक लंबाई के साथ जोड़ा गया है। टेलोमेयर हमारे गुणसूत्रों के अंत में संरचनात्मक भाग हैं जो हमारी आनुवंशिक सामग्री की रक्षा करते हैं। हर बार कोशिका के विभाजित होने पर हमारे टेलोमेयर छोटे हो जाते हैं - इसलिए जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, वे उत्तरोत्तर छोटे होते जाते हैं। कुछ जीवनशैली कारक (जैसे धूम्रपान और खराब आहार) भी टेलोमेयर की लंबाई को छोटा कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि टेलोमेयर की लंबाई उम्र बढ़ने के बायोमार्कर के रूप में कार्य करती है - इसलिए लंबे टेलोमेयर का होना, आंशिक रूप से, दीर्घायु से जुड़ा हो सकता है। लेकिन पौधे आधारित आहार ही एकमात्र रहस्य नहीं है। उदाहरण के लिए, सार्डिनिया में, स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियों और पारंपरिक खाद्य पदार्थों जैसे कि एकोर्न ब्रेड, पैन कारासौ (एक खट्टी रोटी), शहद और नरम पनीर के अधिक सेवन के साथ ही मांस और मछली का सेवन कम मात्रा में किया जाता है। कई ब्लू ज़ोन क्षेत्रों में जैतून का तेल, वाइन (संयम के साथ - दिन में लगभग 1-2 गिलास), साथ ही चाय का भी समावेश देखा गया है। इन सभी में शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो उम्र बढ़ने के साथ हमारी कोशिकाओं को क्षति से बचाने में मदद कर सकते हैं। शायद फिर, यह इन शतायु लोगों के आहार में विभिन्न पोषक तत्वों के सुरक्षात्मक प्रभावों का एक संयोजन है, जो उनकी असाधारण दीर्घायु की व्याख्या करता है। इन दीर्घायु गर्म स्थानों का एक और उल्लेखनीय अवलोकन यह है कि भोजन आमतौर पर घर पर ताजा तैयार किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पारंपरिक ब्लू ज़ोन आहार में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ, फास्ट फूड या शर्करा युक्त पेय शामिल नहीं होते हैं जो उम्र बढ़ने में तेजी ला सकते हैं। तो जितना यह जानना जरूरी है कि ये लंबे समय तक जीवित रहने वाली आबादी क्या कर रही है, उतना ही यह जानना भी जरूरी है कि वह क्या नहीं कर रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि 80% पेट भरने तक खाने का एक पैटर्न है (दूसरे शब्दों में आंशिक कैलोरी में कमी। यह इस बात का समर्थन करने में भी महत्वपूर्ण हो सकता है कि हमारी कोशिकाएं उम्र बढ़ने के साथ क्षति से कैसे निपटती हैं, जिसका अर्थ लंबा जीवन हो सकता है। इन ब्लू ज़ोन आहारों को बनाने वाले कई कारक - मुख्य रूप से पौधे-आधारित और प्राकृतिक संपूर्ण खाद्य पदार्थ - हृदय रोग और कैंसर जैसी पुरानी बीमारियों के कम जोखिम से जुड़े हैं। ऐसे आहार न केवल लंबे, स्वस्थ जीवन में योगदान दे सकते हैं, बल्कि अधिक विविध आंत माइक्रोबायोम का समर्थन कर सकते हैं, जो स्वस्थ उम्र बढ़ने के साथ भी जुड़ा हुआ है। जब दीर्घायु की बात आती है तो आहार बड़ी तस्वीर का केवल एक हिस्सा है, यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसके बारे में हम कुछ कर सकते हैं। वास्तव में, यह न केवल हमारे स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार के केंद्र में हो सकता है, बल्कि हमारी उम्र बढ़ने की गुणवत्ता में भी सुधार ला सकता है। - नई दिल्ली। अयोध्या के राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की गई रामलला की मूर्ति के सामने आने के बाद करोड़ों श्रद्धालुओं ने उसका दर्शन किया। रामलला की मूर्ति के जिस काले पत्थर यानी कृष्णशिला का उपयोग किया गया ।इसे तैयार करने वाले शिल्पकार अरुण योगीराज की पत्नी विजेता योगीराज ने कहा कि रामलला की मूर्ति बनाने के लिए इस पत्थर का उपयोग करने की एक खास वजह है। कृष्ण शिला में ऐसे गुण हैं कि जब आप अभिषेक करते हैं, यानी जब आप दूध प्रतिमा पर चढ़ाते हैं, तो आप उसका उपभोग कर सकते हैं। यह आपके स्वास्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं डालता है। इस पत्थर से दूध के गुणों में कोई बदलाव नहीं होता है। इस कारण से इस पत्थर का चयन किया गया है, क्योंकि यह किसी भी एसिड या आग या पानी से कोई रिएक्शन नहीं करता है। यह आने वाले हजार साल से भी अधिक वक्त तक कायम रहने वाला है। विजेता योगीराज ने यह भी कहा कि भव्य राम मंदिर के गर्भगृह में स्थापना के लिए रामलला की मूर्ति को बनाते समय अरुण योगीराज ने एक ऋषि के समान जीवन शैली अपनाई। इस दौरान अरुण योगीराज ने ‘सात्विक भोजन’, फल और अंकुरित अनाज जैसे सीमित आहार के साथ छह महीने का समय बिताया।क्या है कृष्णशिलादक्षिण भारत के मंदिरों में , देवी- देवताएं की अधिकांश मूर्तियां नेल्लिकारू चट्टानों से बनाई गई है, जिन्हें भगवान कृष्ण के साथ मेल खाने वाले रंग के कारण कृष्णशिला कहा जाता है। कृष्णशिला पत्थर कर्नाटक के एचडी कोटे और मैसूर जिलों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। मूर्ति को तलाशने के लिए इसके व्यापक उपयोग के पीछे कारण यह है कि कृष्णशिला के पत्थर की प्रकृति में नरम होते हैं जिनमें ज्यादातर लाख होते हैं। खदानों में ताजा लाने पर पत्थर नरम रहता है। हालांकि 2-3 साल तक उपयोग नहीं करने पर यह सख्त हो जाता है और ठोस आकार ले लेता है। पत्थर के ब्लॉक को शुरू में मनचाहे डिजाइन के अनुसार चिंहित किया जाता है और कारीगर जटिल पैटर्न प्राप्त करने के लिए विभिन्न आकारों की छेनी का उपयोग करके इसे आकार देते हैं। इसके बाद पत्थर को मूर्तियों में बदल दिया जाता है। मैसूर में कृष्णशिला पत्थर की नक्काशी का इतिहास कई शताब्दियों पुराना है और इसे शाही राज्यों द्वारा संरक्षण दिया गया है।
- प्राचीन काल से ही जोंक थैरेपी का तमाम बीमारियों से पार पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। यह प्रक्रिया रक्तस्राव के जरिए सम्पन्न किया जाता है जिसके तहत अशुद्ध रक्त को बाहर निकाला जाता है जिससे स्वस्थ होने में मदद मिलती है। कई बार तो जोंक थैरेपी औषधीय चिकित्सा से भी बेहतर कारगर होता है। जोंक थैरेपी के असंख्य फायदों के कारण ही यह पारंपरिक चिकित्सकीय पद्धति आज भी अस्तित्व में मौजूद है।वस्कुलर डिजीज से लडऩे के लिए सदियों से जोंक के लार का इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल जोंक के लार में सौ से ज्यादा बायोएक्टिव तत्व होते हैं जो कि वस्कुलर डिजीज के लिए लाभकर है। हिरुडिन इनमें से एक तत्व है। हिरुडिन एंटीकोग्यूलेशन एजेंट की तरह काम करता है। कैलिन भी जोंक के लार में पाया जाने वाला तत्व है। यह रक्त को गाढ़ा करने में मदद करता है। बहरहाल जोंक के लार में ऐसे तत्व भी होते हैं जो हमारे रक्त प्रवाह को बेहतर करते हैं जिससे हमारे स्वास्थ्य अच्छा रहता है। जिन वस्कुलर डिजीज मरीजों पर जोंक थैरेपी का इस्तेमाल किया जाात है, वे आसानी से इसके लिए स्वास्थ्य लाभ कर पाते हैं।20 वीं सदी से ही कार्डियोवस्कुल डिजीज से लडऩे के लिए जोंक थैरेपी का इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल जोंक के लार में पाया जाने वाला हिरुडिन एंजाइम कार्डियोवस्कुलर डिजीज के लिए लाभकर है। जैसा कि पहले ही जिक्र किया गया है इसमें एंटीकोग्यूलेशन एजेंट होते हैं जो कि इस बीमारी के लिए प्रभावशाली होते हैं। इसके अलावा चिकित्सक जोंक थैरेपी हृदय सम्बंधी बीमारियों से जुड़े मरीजों के लिए भी सलाह स्वरूप देते हैं।जोंक थेरेपी रक्तसंचार बेहतर करने के लिए भी जाना जाता है। यही कारण है कि जोंक थैरेपी को सिर पर जहां बाल कम है, जैसे स्थान पर लगाया जाए तो वहां बाल आने की उम्मीद बढ़ जाती है। दरअसल जोंक थैरेपी से शरीर में पौष्टिकता बढ़ती जो बालों के लिए आवश्यक है। यही नहीं यह बालों को जड़ों से मजबूत करते हैं जिससे बालों को उगने में आसानी होती है। जो लोग डैंड्रफ या फंगल संक्रमण के कारण गंजेपन से जूझ रहे हैं, उनके लिए जोंक थैरेपी एक रामबाण इलाज है। जोंक का लार फंगल संक्रमण को खत्म करने में मदद करता है।समूचे विश्व में जोंक की संभवत: 600 से ज्यादा प्रजातियां मौजूद हैं। लेकिन इनमें से महज 15 जोंक की प्रजातियां ही ऐसी हैं जो चिकित्सकीय जगत में इस्तेमाल की जाती है। ये कभी अर्थराइटिस के लिए इस्तेमाल की जाती हैं तो कभी अन्य बीमारियों को खत्म करने में मदद करती हैं। अर्थराइटिस को ठीक करने के जोंक थैरेपी एक सहज और आसान तरीका है। इसका डंक मच्छर के काटने के समान ही लगता है। जोंक के लार में ऐसे तत्व होते हैं जो जलन और जोड़ों के दर्द को कम करने में लाभकर है। चिकित्सकीय जोंक मरीज के शरीर में तकरीबन एक घंटे तक चिपके रहते हैं। प्रक्रिया पूरी होने के बाद मरीज रिलैक्स महसूस करता है। जोंक हटाने के बाद अंग विशेष को साफ किया जाता है। जोंक थैरेपी सामान्यतत: 6 से 8 माह में दोहराया जाता है। इसके अलावा यह मरीज की स्थिति से भी तय होता है कि यह थैरेपी उस पर कितनी बार इस्तेमाल की जाए।जोंक के लार में पाया जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण तत्व है हिरुडिन। यह तत्व रक्त में थक्के जमने नहीं देता। डायबिटीज के मरीजों के लिए भी जोंक थैरेपी कारगर साबित हुई है।----------
- मोरिगांव. असम के पोबितोरा वन्य अभयारण्य में प्रत्येक पक्षियों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है लेकिन जलपक्षी गणना के दौरान दो नयी प्रजातियां देखी गई। एक वन अधिकारी ने यह जानकारी दी। पक्षियों की शुक्रवार को हुई गणना में 7,225 पक्षी दर्ज किए गए जिनकी संख्या 2022-23 की गणना में 8,441 थी। अभयारण्य वन रक्षक नयन ज्योति दास ने कहा कि इस वर्ष पहचानी गई प्रजातियों की संख्या 72 थी जो पिछली गणना में दर्ज हुई 70 से अधिक है। उन्होंने कहा कि अभयारण्य में पहली बार देखी गई दो नई प्रजातियां ग्रेटर 'व्हाइट-फ्रंटेड गूज' और 'बैकाल टील' हैं। प्रोफेसरों, अनुसंधान विद्वानों, स्थानीय पक्षीविदों और वन कर्मचारियों सहित 45 विशेषज्ञों के एक दल ने यह सर्वेक्षण किया। अधिकारियों ने बताया कि अभयारण्य के जलाशयों को इस वर्ष सात खंडों में विभाजित किया गया था। वहीं, अभयारण्य में अब तक एवियन फ्लू का कोई मामला सामने नहीं आया है।