विश्व गुरु भारत और जगदगुरुत्तम (भाग - 2)
भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 2
(पिछले भाग से आगे..)
हमारे सनातन धर्म में आध्यात्मिक उन्नति के लिये मुख्य रुप से दो प्रकार के ग्रंथ हैं - विनिर्गत ग्रंथ और स्मृत ग्रंथ। वेद को भगवान ने प्रकट किया है इसलिये विनिर्गत ग्रंथ कहलाता है और स्मृत ग्रंथ कहते हैं जो सिद्ध महापुरुषों के, श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महारसिकों के द्वारा स्मरण करके, अनुभवयुक्त होकर के ग्रंथ बनाये जाते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है श्रीमद्भागवत।
नारद जी ने वेदव्यास से कहा, पहले भक्ति करो और भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करो उसके बाद भागवत लिखना। उन्होंने नारद जी की आज्ञा माना -
अपश्यत्पुरुषं पूर्वं मायां च तदपाश्रयाम। (भाग. 1-7-4)
उन्होंने भक्ति की और भगवान श्रीकृष्ण के भी दर्शन किये, माया के भी दर्शन किये। तीनों तत्वों का दर्शन किया तब भागवत की रचना की। ये स्मृत ग्रंथ हंै। गीतादि को भी स्मृत ग्रंथ कहते हैं। वेदों के सिद्धान्तों को, उपनिषदों के सिद्धान्तों का स्मरण करके जो महापुरुष लोग ग्रंथ लिखते हैं वे स्मृत ग्रंथ हैं।
मायाबद्ध व्यक्ति के द्वारा बनाये गये सिद्धान्त या ग्रंथ माननीय नहीं हैं। पाश्चात्य देशों में बिना अनुभव के मायिक बुद्धि से बहुत से सिद्धान्त बनाये गये हैं, जिन्हें हम कृत ग्रंथ कहते हैं। किंतु वेदसम्मत न होने के कारण माननीय नहीं हैं। अतएव विनिर्गत ग्रंथ वेद और वेदानुगत स्मृत ग्रंथ ही आध्यात्मिक उत्थान हेतु आध्यात्मिक ज्ञान का आधार हैं।
(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)
स्त्रोत- साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018
सर्वाधिकार सुरक्षित- जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।
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