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 वेदादिक ग्रन्थ कहते हैं कि भगवान से यह संसार निकला है, तो भगवान ने यह संसार दुःखमय क्यों बनाया? (समाधान, भाग - 4)
 • जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 405

(भूमिका - किसी साधक/जिज्ञासु ने जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज से यह प्रश्न किया था कि... 'वेदों में, शास्त्रों में, पुराणों में, हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सभी स्थलों में बताया गया है कि ये संसार भगवान् से निकला है, भगवान् ने बनाया। तो भगवान् ने ये दुःखमय संसार क्यों बनाया?' नीचे जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा वेदादिक सम्मत दिया गया समाधान प्रकाशित किया जा रहा है। चूँकि यह उत्तर अधिक विस्तार में है, अतएव इसे 3 या 4 भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। विगत 22 से 24 सितम्बर तक श्रृंखला के 402-रे से 404-वें भाग में इस उत्तर के तीन भाग प्रस्तुत किया गये थे। कृपया आप सभी पिछले भाग से ही इसे पढ़ें, ताकि सम्पूर्ण समाधान से लाभान्वित हो सकें...)

(अंतिम भाग - 4, पिछले भाग से आगे)

........देखो, भगवान् के कितने विरोधी नाम - 'विश्वकृत' माने संसार बनाने वाला, 'विश्ववित्' इसमें सर्वव्यापक है इसलिये जानने वाला। विश्वकृत, विश्ववित् और विश्वरूप यानी जैसे भगवान् था वैसे ही भगवान् बन गया। कुछ बनाया नहीं । जो कुछ भगवान् था पहले, वही भगवान् प्रकट हो गया -

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्ष मथोस्वः।।
(नारायणोपनिषद् 5-7)

ससर्जेदं स पूर्ववत्।
(भागवत 2-9-38)

प्रजाः सृज यथापूर्वं याश्च मय्यनुशेरते।
(भागवत 3-9-43)

यानी, जैसे संसार था प्रलय के पहले और भगवान् में सब लीन हो गया था; वैसे ही फिर प्रकट हो गया। तो भगवान् के अन्दर ये संसार था। और संसार माने क्या? तीन का मिक्श्चर- एक भगवान्, एक जीव, एक माया। बस इसी का नाम भगवान।

अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत् तस्मिंश्चान्यो मायया संनिरुद्धः।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद 4-9)

इस संसार में आप क्या देखते हैं? एक तो जड़ वस्तु है, ये माया और एक चेतन हम लोग और महा चेतन भगवान् सर्वव्यापक। ये तीन का मिक्श्चर संसार है। इसी संसार में हम लोग जड़ देखते हैं। इसी संसार में ज्ञानी लोग ब्रह्म को देखते हैं। इसी संसार में भक्त लोग भगवान् को देखते हैं। संसार एक है।

उमा जे राम चरण रत विगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध।।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।
(गीता 7-19)

अतएव भगवान् सर्वव्यापक है तो ये संसार भी वैसे ही है। एक शब्द का अन्तर है। ध्यान दो। श्रीकृष्ण निरावरण ब्रह्म हैं। और संसार सावरण ब्रह्म है। बस। तो निरावरण ब्रह्म से चाहे जानकर प्यार करें, चाहे अनजाने में करें, भगवत्प्राप्ति होगी और सावरण ब्रह्म में बिना जाने भगवत्प्राप्ति नहीं हो सकती। जरा बुद्धि लगाओ। भगवान् को भगवान् जानकर कोई प्यार करे भगवत्प्राप्ति हो जायेगी? हाँ वो तो हो ही जायेगी। और अगर भगवान् को भगवान् नहीं जानता इन्सान जानता है - अपना बाप मान लिया, अपना बेटा मान लिया, पति मान लिया वो भी भगवत्प्राप्ति करेगा। क्यों? इसलिये कि किसी ने किसी को जहर पिला दिया तो वो मर गया। किसी ने आत्महत्या करने के लिये अपने आप पी लिया वो भी मर गया। यानी जहर अपना काम करेगा। चाहे जान कर पियो, चाहे अनजाने में पिओ। चाहे कोई स्त्री सती होने जाय वो भी जलेगी। किसी को आग में पटक दो वो भी जलेगी। यानी वस्तु का फल मिलता है भावना से कोई मतलब नहीं। इसीलिये भागवत में कहा गया -

कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च।
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते॥
(भागवत 10-29-15)

भगवान् के प्रति कैसे ही प्यार हो जाय मन का भगवत्प्राप्ति का फल मिलेगा। कंस को भी मिला, शिशुपाल को भी मिला, गोपियों को भी मिला। लेकिन संसार में क्या है? देखो संसार में भगवान् की भावना करके प्यार करने वाले भी तर गये। संसार में भगवान् की भावना। ये मूर्ति क्या है? पत्थर की मूर्ति, मिट्टी की मूर्ति, सोने की मूर्ति, लोहे की मूर्ति। मूर्तियाँ होती है न आठ प्रकार की। अरे, मन की भी मूर्ति होती है।

मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्ट विधास्मृता।
(भागवत 11-27-12)

ये मूर्ति तो जड़ है न। हाँ, पत्थर की बनी है। चट्टान को तोड़ा वोड़ा, हथौड़ी चला कर नाक मुँह बना दिया। हाँ। लेकिन अगर उसमें आपने भगवान् की भावना कर ली तो भगवत्प्राप्ति का फल होगा। अनन्त जीव भगवत्प्राप्ति कर लिये मूर्ति के द्वारा या मन से ही बना लो। वो भी मायिक है। ये भी गया भगवान् के पास। और जिसने ये संसार में संसार की भावना की बस वो मर गया। वही हम लोग कर रहे हैं। हम लोग जो प्यार कर रहे हैं मायाबद्ध या मायिक वस्तु से; ये संसार में संसार की भावना वाला प्यार है।

एक पत्थर की मूर्ति बनाओ अपने बाप की, अपनी माँ की , अपने बेटे की। हाँ बनाया। अब उसमें भावना बनाओ बाप की, माँ की, बेटे की। हाँ बनाया। तो क्या मिलेगा? जीरो बटे सौ। क्यों, भगवान् का फल तो मिल जाता है मूर्ति से। भगवान् का फल इसलिये मिल जाता है नम्बर एक, भगवान् सर्वव्यापक है, वो पत्थर में भी व्याप्त है। आपका बाप पत्थर में व्याप्त नहीं है वो तो इंग्लैण्ड में बैठा है। नम्बर दो , भगवान् सर्वज्ञ है वो आपके हृदय की भावना को जानता है। इसलिये वो भगवान् का फल दे देता है। आपका बाप क्या जाने। आप रो- रोकर मर गये उसको पता ही नहीं है। आपको जला भी दिया गया उसको पता ही नहीं है। जब कोई चिट्ठी जाय, तार जाय, फोन जाय- ऐ! मेरा बेटा मर गया!

इसलिये संसार में संसार की भावना करने वाले को चौरासी लाख में घूमना पड़ता है और बाकी तीन, कृतार्थ हो गये।

 तो भगवान् के अवतार काल में दो बातें होती हैं- भगवान् जानकर के भी लोगों ने उस समय प्यार किया, महापुरुषों ने और बिना जाने अपना बाप मान लिया, बेटा मान लिया और पति मान लिया और प्यार हो गया मन का बस, वो भी गया। अब अवतार नहीं है तो ? तो फिर हम जड़ वस्तु में भगवान् की भावना करके भगवत्प्राप्ति करते हैं अथवा बिना वस्तु के। मन भी तो जड़ है इससे चिन्तन बना करके भगवत्प्राप्ति कर लेते हैं। जब अघासुर का भगवान् में प्रवेश होने की बात शुकदेव परमहंस ने कही तो परीक्षित का माथा ठनका। उसने कहा गुरु जी ! इतना बड़ा पापी अघासुर, सारे ग्वालों को अपने अन्दर कर लिया उसने कि सब को खा जाय। मुँह बन्द कर सब मर जायें। तो भगवान् ने कहा- 'अरे रे! ये क्या कर रहा है? हमारे सारे सखाओं को खा जा रहा है।' तो भगवान् भी घुस गये उसके मुँह में। उसने कहा- 'बड़ा अच्छा हुआ, आओ - आओ तुम भी आ गये। अब आज तो छुट्टी मिली पूरे परिवार की। हम तो यह ही चाहते थे कि वो नेता भी आ जाय।' तो भगवान् ने कहा - 'अच्छा बच्चू मैं बताता हूँ।' तो भगवान् बड़े होते गये। होते-होते, होते-होते उसका मुँह फट गया और वो मर गया। वो भगवान् में लीन हो गया। तो परीक्षित ने कहा, 'अरे ! उसको नरक मिलना चाहिये!' तो शुकदेव परमहंस ने कहा-

सकृद् यदङ्ग प्रतिमान्तराहिता मनोमयी भागवतीं ददौ गतिम्।
(भागवत 10-12-39)

अरे गधे ! जब मन से बनाई हुई मूर्ति की उपासना, भगवद् भावना करने से भगवत्प्राप्ति किया या अनन्त महापुरुष बने; तो वो तो साक्षात् भगवान् उसके मुँह में घुस गये थे। फिर भी वो न तरे!

 तो इसलिये संसार में संसार की भावना करने वाला नहीं तरेगा। उसको संसार ही मिलेगा। इसलिये भगवान् ने अर्जुन से कहा-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
(गीता 8-7)

अर्जुन ! निरन्तर मेरा स्मरण कर। ताकि अन्त समय में मेरा स्मरण हो। अंत समय में अगर मेरा स्मरण होगा तो मेरा लोक प्राप्त होगा -

मद्भक्ता यान्ति मामपि।
(गीता 7-23)

एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया।
जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायणस्मृतिः॥
(भागवत 2-1-6)

कर्म, धर्म, ज्ञान, योग किसी भी साइड से; किसी भी मार्ग से जाओ निरन्तर चिन्तन करो कि अन्तिम समय में भगवान् का स्मरण हो। तब भगवत्प्राप्ति होगी। इसलिये भगवान् के विषय में;

तर्काप्रतिष्ठानात्।
(ब्र.सू. 2-1-11)

वेदान्त सूत्र कहता है कि वहाँ तर्क मत ले जाओ। ये तर्क वाली तुम्हारी मायिक बुद्धि है। अरे जब इण्डिया का कानून इंग्लैण्ड में लागू नहीं होता तो फिर तुम्हारा ये मायिक तर्क भगवान् के एरिया में कैसे लागू होगा? वहाँ न ले जाना बुद्धि को। वो बुद्धि से परे है। ये भावार्थ है।
(समाप्त)

• सन्दर्भ ::: प्रश्नोत्तरी, भाग - 2, प्रश्न संख्या - 4

★★★
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- सर्वाधिकार सुरक्षित ::: © राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(5) www.youtube.com/JKPIndia
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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