श्रीकृष्ण में अनुराग के लिये वास्तविक गुरु की शरणागति आवश्यक; जितना भगवान में अनुराग, उतना ही संसार से वैराग्य होगा!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 408
(भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 12-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि वैराग्य और अनुराग की उत्पत्ति कैसे होती है?.....)
जग विराग हो तितनोइ, जितनोइ हरि अनुराग।
तब हो हरि अनुराग जब, गुरु चरनन मन लाग।।12।।
• भावार्थ - वास्तविक गुरु की शरणागति से ही श्री कृष्ण में अनुराग उत्पन्न होता है। जितनी मात्रा में यह अनुराग होता है उतनी ही मात्रा में संसार से वैराग्य भी होता है।
• व्याख्या - कुछ लोग कहते हैं कि प्रथम संसार से ही वैराग्य करो। कुछ लोग कहते हैं कि प्रथम श्री कृष्ण से ही अनुराग करो। यह विरोधाभास है। मेरी राय में इन दोनों से पूर्व गुरु का कार्य है। प्रथम गुरु द्वारा तत्वज्ञान प्राप्त करना होगा। उस तत्वज्ञान द्वारा गुरु, श्रीकृष्ण, वैराग्य, अनुरागादि का विज्ञान हृदयंगम करना होगा। हम जितना समझते हैं, उसे सही मान लेना सही नहीं है। हमने 'क' ज्ञान भी स्वयं नहीं प्राप्त किया। फिर परोक्ष तत्व जीव , ब्रह्म , माया आदि का ज्ञान कैसे प्राप्त कर लेंगे। जब तत्वज्ञान हो जायगा , तब हम जानेंगे कि एक जीव है एवं उसका एक मन है। वह मन ही बंधन एवं मोक्ष का कारण है। उस मन को मायिक जगत् से हटाकर दिव्य श्री कृष्ण में लगाना है। क्योंकि श्री कृष्ण ही हमारे माता , पिता , भ्राता , भर्ता , अंशी आदि सब कुछ हैं। उन श्री कृष्ण को प्राप्त करने के हेतु साधनों का भी ज्ञान प्राप्त करना होगा। और वह ज्ञान यही होगा कि केवल भक्ति के द्वारा ही श्री कृष्ण की प्राप्ति होगी । अन्य कोई उपाय नहीं है। अपने गुरु द्वारा भक्ति का भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना होगा। गुरु से यही ज्ञान मिलेगा कि श्री कृष्ण भक्ति में कोई भी नियम नहीं है। सभी जीव अधिकारी हैं। यद्यपि श्रद्धा की शर्त बताई गई है। यथा;
आदौ श्रद्धा ततः ........।
किंतु भागवत में इसकी भी आवश्यकता नहीं बताई गई । यथा
सतां प्रसंगान्मम वीर्य संविदो .......।
अर्थात् गुरु की शरणागति में रहकर उन्हीं की सेवा करते हुये निरंतर सत्संग किया जाय, तो श्रद्धा भी स्वयं उत्पन्न हो जायगी। फिर श्री कृष्ण में अनुराग भी स्वयं होने लगेगा । फिर उसी अनुराग की मात्रा से ही स्वयं वैराग्य भी होगा। सारांश यह कि प्रथम गुरु की शरणागति। फिर श्री कृष्ण की नवधा भक्ति रूपी साधना। फिर संसार से वैराग्य। यही क्रम बढ़ते बढ़ते जब भक्ति परिपूर्ण हो जायगी तो संसार से पूर्ण सहज वैराग्य स्वयं हो जायगा। इतना ही नहीं अन्य ज्ञानादि सब कुछ अनचाहे ही मिल जायगा। यहाँ तक कि सभी प्राप्तव्य पुरुषार्थों का स्वामी श्रीकृष्ण भी उस भक्त के आधीन हो जायगा। फिर जीव कृतकृत्य हो जायगा। अतः उपर्युक्त क्रम से ही लक्ष्य की प्राप्ति के हेतु प्रयत्न करना चाहिये। शेष सब गुरु दे देगा।
• सन्दर्भ : 'भक्ति शतक' दोहा संख्या - 12
★★★
ध्यानाकर्षण/नोट (Attention Please)
- सर्वाधिकार सुरक्षित ::: © राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(5) www.youtube.com/JKPIndia
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)
Leave A Comment