चैतन्य-रामानंद संवाद (भाग - 2)
- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत यह प्रवचन भक्तिमार्गीय उपासकों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य के संबंध में प्रवचन दिया है। श्री चैतन्य महाप्रभु जी तथा श्री राय रामानंद जी के मध्य हुई आधात्मिक चर्चा का उन्होंने बड़ी गहराई में तथा सारगर्भित विवेचन किया है। श्री कृपालु महाप्रभु जी अपने श्रीमुखारविन्द से कहते हैं.....
(पिछले भाग से आगे, भाग - 2)
...महाप्रभु जी ने कहा - हाँ-हाँ! ये तो उससे भी अच्छा है , लेकिन इसमें तो पाप नाश कहा है और जिसके पाप ही न हों कुछ, उसके लिये क्या है? तो कुछ सोचकर फिर बोले,
ब्रम्हभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिम् लभते पराम।।
(गीता 18-54)
भक्त्या मामभिजानाति यावन्याश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदन्तरं।।
(गीता 18-55)
मेरी भक्ति, परा भक्ति से ब्रम्ह का ज्ञान होगा तब शान्ति मिलेगी। महाप्रभु जी ने कहा - हाँ-हाँ! ये तो ज्ञानयुक्त भक्ति है, मिक्श्चर है, और आगे बोलो। तो रामानंद राय ने कहा,
ज्ञाने प्रयासमुदपास्य नमन्त एव जीवन्ति सन्मुखरितां भवदीयवार्ताम।
स्थाने स्थिता: श्रुतिगतां तनुवाङ्मनोभिर्ये प्रायशोजित जितोप्यसि तैस्त्रिलोक्याम।।
(भागवत 10-14-3)
सब कुछ छोड़कर जो केवल अनन्य भाव से निरंतर राधाकृष्ण की भक्ति करते हैं, बस उनको ही वो सबसे बड़ा साध्य मिलता है - भगवतप्रेम। महाप्रभु जी ने सिर हिलाया, हां अब बोले ठीक-ठीक। लेकिन अब जरा महल में घुसो। आ तो गये महल के पास तुम लेकिन अंदर घुसो। खाली महल के पास बाहर से महल को देखा तो ये तो अभी पूरा नहीं है रस। देखो, अंदर क्या है?
शान्त भाव के महापुरुषों को तो बैकुण्ठ का ऐश्वर्य मिलता है, उसमें रस कम है, ऐश्वर्य बहुत है। तो उन्होंने कहा, दास्य भाव से राधाकृष्ण की भक्ति करे। मैं दास हूँ, वे स्वामी हैं। हाँ, अब आये रास्ते पर। लेकिन दास और स्वामी में दूरी तो रहती है? मान लो, दास की इच्छा हुई कि स्वामी का कान पकड़ूँ। अरे! नहीं-नहीं, नाराज हो जायेंगे, सर्विस से निकाल देंगे। इसके आगे बताओ। तो उन्होंने कहा, सख्य भाव से भक्ति करें। वो हमारे सखा हैं, अब तो कान पकड़ सकते हैं। अरे, घोड़ा बनाया ग्वालों ने ठाकुर जी को, कन्धे पर बैठे। सखाओं को इतना बड़ा अधिकार है। उन्होंने कहा, ठीक है, लेकिन फिर भी अभी और अंदर के कमरे में चलो। (क्रमश:...)
(शेष प्रवचन अगले भाग में)
( प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
प्रवचन स्त्रोत - साधन-साध्य पत्रिका, मार्च 2010 अंक
सर्वाधिकार सुरक्षित- राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
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