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 दूसरों की निंदा से हानि किसकी?
-जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी महाराज के प्रवचनों के कुछ अंश
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साधक बहुधा भक्तिमार्ग में चलते तो हैं लेकिन साथ ही वे उन विपरीत आचरणों को भी निभाते जाते हैं जिनसे उनकी साधना की गति धीमी पड़ जाती है अथवा दिशा विपरीत हो जाती है। साधना का एक बहुत बड़ा बाधक तत्व है  परनिन्दा , अर्थात् चुगलखोरी या दूसरों की निंदा अथवा बुराई करना। जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अनेक अवसरों पर इस विषय में साधकों को सावधान किया है। आइये उन्हीं के प्रवचनों के कुछ अंशों से इस संबंध में कुछ विचार करें -
 
(दूसरों की निंदा से हानि किसकी? यहाँ से पढ़ें....)
 
(1) महापुरुषों ने  परनिन्दा को ही सबसे महान पाप बतलाया है फिर भी कमाल ये है कि हम  परनिन्दा  का ही श्रवण, मनन, कीर्तन आदि करते हैं।
 
(2) यावत्पापैस्तु मलिनं हृदयं तावदेव हि ।
न शास्त्रे सत्यता बुद्धि सद्बुद्धि सद्गुरौ तथा ।।
(ब्रम्हवैवर्त पुराण)
 
संसारी बातें, निन्दनीय बातें, पाप की बातें, सुनना, सोचना, बोलना - ये पहिचान है कि हमारा मन कितना पापयुक्त है।
 
सिद्धांत तो यह है कि जो स्वयं पापयुक्त होता है वही दूसरों की निंदा करता है. परनिन्दा करना ही स्वयं के निन्दनीय होने का प्रमाण है।
 
(3) निन्दनीय की भी निंदा करना हानिकारक है, निन्दनीय से तो उदासीन होना चाहिए। शत्रुता या निंदा किसी भी प्रकार भगवत्प्राप्ति की साधना में सहायक न होगा, फिर सारा संसार ही तो निन्दनीय है, तुम कहाँ तक निंदा करोगे? यह तो सोचो कि भगवत्प्राप्ति के पूर्व प्रत्येक जीव एवं तुम भी निन्दनीय हो।
 
(हम भी निन्दनीय हैं क्योंकि हमारे भीतर माया के समस्त विकार काम, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य इत्यादि भरे हैं और जब तक भगवान् को नहीं पा जायेंगे, रहेंगे, फिर अनन्त जन्मों के अनंत पाप भी हमारे साथ हैं।)
 
(4) गड़बड़ी का चिंतन न करो, न श्रवण करो। जैसे सांप को देखकर भागते हो, ऐसे भागो अगर कोई किसी की बुराई करे तो। हमें नहीं सुनना है। हम भी तो वैसे ही हैं। क्या सुनें उसको, हम कौन दूध के धोये हैं, महापुरुषों के दादा हैं, जो तुम उसकी बुराई कर रहे हो और मैं सुनूं बैठकर। हमसे क्या मतलब है, वो खऱाब है कि अच्छा है, हम अंतर्यामी तो हैं नहीं।
 
(5) वस्तुत: हम स्वयं दोष देखते हैं किसी में और दूसरों से कहकर उसका भी चिंतन खऱाब करते हैं, यह और बड़ा अपराध करते हैं। श्री कृपालु महाप्रभु जी कहते हैं... गन्दी बात सोचा, और सोचा तो सोचा उसके बाद दूसरे को सुनाया, ऐ सुनो ! वो उसके पास बहुत जाता है। और पाप हो गया। अब उसने उससे कहा, सुनो जी ! उसके पास वो 24 घंटे रहता है। और आगे बढ़ा दिया। तमाम का नुकसान कर डाला उस एक मूर्ख ने।
 
(6) महापुरुष तक भी अपने आपको 'मो सम कौन कुटिल खल कामी' कहते हैं। तुम तो वास्तव में ही कुटिल, खल, कामी हो। तुम्हे मान लेने में क्या आपत्ति है? यदि तुम ऐसा मान लो तो तुम्हारी बुद्धि में समस्त संसार ही अच्छा दिखाई पडऩे लगे।
 
(प्रवचनकर्ता : जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)

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