अपने सौभाग्य पर विचार करो
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अमृत वाणी
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने अवतारकाल में मानव-देह के महत्व तथा भगवान और गुरु की कृपाओं को बार-बार महसूस करते हुये भक्तिमार्ग पर निरन्तर आगे बढऩे की प्रेरणा अनगिनत बार दी है। वस्तुत: अनंत देहधारियों में मनुष्य देह प्राप्त करने वाले विशेष सौभाग्यशाली हैं। मानव देहप्राप्ति के सौभाग्य के साथ ही भगवान तथा गुरु के द्वारा प्रदत्त अन्य सौभाग्यों पर विचार करने संबंधी उनके इन वचनों को आइये हम पुन:-पुन: चिंतन, मनन करें :::::::
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देवदुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी-किसी भाग्यशाली को मिलता है, यानी पूरे ब्रह्माण्ड में केवल सात अरब मानव हैं। जबकि एक फुट गड्ढे में पांच अरब जीव रहते हैं। सोचो कि तुम कितने भाग्यशाली हो। सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थनि गावा। फिर उनमें वे और भाग्यशाली हैं, जिन्होंने भारत में जन्म लिया है, क्योंकि यहां जन्म से ही भगवान का नाम सुनने में आता है। धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे। फिर भारत में वो और भाग्यशाली हैं, जिनको कोई महापुरुष मिल गया है। जिसके पीछे भगवान चरण धूलि के लिये चलते हैं। अनुब्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभि:। फिर उन भाग्यशालियों में वे और भाग्यशाली हैं, जो गृहस्थ के प्रपंच से गुरु द्वारा बचाये गये हैं। फिर उनके भाग्य की सराहना क्या की जाए जो गुरु आश्रम में परम त्यागमय जीवनयुक्त गुरु की सेवा करते हैं। इससे अधिक सौभाग्य असम्भव है। यह सब सौभाग्य पाकर भी जो निरन्तर आगे न बढ़े तो उसके समान दुर्भाग्य या आत्महनन क्या होगा? उसके मन में हरि एवं गुरु के अतिरिक्त अहंकार या राग-द्वेष आता है तो यही समझना चाहिये कि उसने सारी कृपाओं को अपने पैरों से कुचलने की प्रतिज्ञा कर ली है।
प्रमुख साधन दीनता है, इसी आधार पर भक्ति का महल खड़ा होगा। अतएव यह शौक पैदा करना चाहिए कि कोई मेरी बुराई करे और मैं खुश होकर धन्यवाद दूं तथा उस बुराई को स्वीकार करके उसे ठीक करुं। एतदर्थ यह भी आवश्यक है कि हम किसी की बुराई न सुनें, न देखें, न करें, न सोचें। यदि कभी मन में ऐसे सर्वनाश करने वाले भाव आ भी जाएं तो जोर-जोर से कीर्तन करने लगें। शिकायत किसी की किसी से न करें। अनन्त जन्म की पापात्मा भला स्वयं को अच्छा कैसे समझ सकती है। जरा सोचो यह जीवन क्षणभंगुर है। अत: यदि कल का दिन ना मिला तो इतनी बड़ी गुरु-कृपा, भगवत्कृपा, सौभाग्य सब व्यर्थ हो जायेगा। बार-बार सोचो , बार-बार सोचो।
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
स्त्रोत -जगद्गुरु कृपालु जी महाराज साहित्य
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
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