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 भगवत-मार्ग की रुकावट और उसका इलाज
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला
वस्तुत: भक्ति अथवा साधना के पथ पर चलते चलते साधक बहुधा अनेक बाधाओं में फंस जाता है, जिससे उसकी साधना की गति रुक जाती है, बदल जाती है और खतरा यह भी है कि वह उस मार्ग से ही च्युत हो सकता है। यूं तो साधना मार्ग में अनेक ऐसी बाधाएं हैं किंतु एक सबसे बड़ी बाधा अथवा लापरवाही, जो न जाने कब साधक को अपने चंगुल में जकड़ लेती है, जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से हम सभी उसे समझें और अपनी साधना को इस भयंकर व्याधि से बचाकर चलें ::::::::
 
(यहाँ से पढ़ें....)
 
परदोष दर्शन और स्वगुण बखान के कारण साधक साधना करके भी अपने लक्ष्य से कोसों दूर ही बने रहते हैं। साधना का कोई फल उन्हें प्राप्त नहीं होता, उल्टा हानि होती है। स्वयं में आध्यात्मिक प्रगति न पाकर साधकों की निराशा बढऩे लगती है। उससे कई तरह के अपराध होने लगते हैं। इतना ही नहीं , उसकी श्रद्धा हरि-गुरु के प्रति भी डगमगाने लगती है और उनके अपने मन में सर्वस्व हरि-गुरु के प्रति भी गलत विचार आने लगते हैं, जिसे शास्त्रों-वेदों में नामापराध कहा गया है। यह सबसे बड़ा पाप है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है। इससे तो पुन: गुरु ही उबार सकता है हम पर अहैतुकी कृपा करके। परदोष दर्शन से दो हानि होती है - एक तो वह दोष हमारे मन में आएगा, दूसरा इसके साथ हममें अहंकार भी आएगा। मन से ही तो दोष का चिन्तन करोगे न! तो वह मन में आएगा और मन को और गंदा करेगा। उसका दोष तो जाएगा नहीं, उल्टे तुम और दोषी हो जाओगे।
 
किसी की गंदगी को अपने अंदर डाल लेने से तो तुम्हारा मन और गंदा ही होगा। तो मन से यदि दूसरे का दोष देखेंगे तो हम सदोष हो जाएंगे। अनन्त जन्मों में अनन्त अपराध हम लोगों ने किए हैं , इसलिए ऐसे ही क्या कम सदोष हैं हम जीव? और ऊपर से और दूसरे का दोष मन में लाकर इसे और गंदा ही किए जा रहे हैं, अरे हमको तो अपने अन्त:करण को शुद्ध करना है और हम उल्टा किये जा रहे हैं।
 
दूसरे में दोष देखने से अपने में अहंकार आयेगा। ऐसे ही कम अहंकार है क्या? यही अहंकार ही तो हमे चौरासी लाख में घुमा रहा है। इसलिए सावधानी परमावश्यक है। यदि हम सावधान न रहे तो ये दोनों ही दोष हमारे अंदर बलवान होते चले जायेंगे।
 
नम्बर तीन, हम इसी प्रकार अगर अपने में गुण देखेंगें, तो अपने में दोष नहीं दिखाई पड़ेगा। साधना तो हम करेंगें, किन्तु हम इसके साथ यह भी करेंगें चोरी-चोरी, हमने इतना कीर्तन किया, इतना भजन किया, इतना दान किया। स्व-प्रशंसा की तुष्टि हेतु हम बारम्बार इसकी आवृत्ति करेंगें और हमें इसकी आदत पड़ जाएगी। बिना बताये चैन नहीं। हमें अपनी साधना का अहंकार हो जाएगा। दिन-रात इसी में व्यस्त रहेंगें, साधकों के दोष नही जाएँगे क्योकि भगवान के चिन्तन का हमारे पास समय ही कहां होगा!
 
हम तो गुणों का चिन्तन कर रहें है अपने। लोगों से बस यही कहते फिर रहें हैं। इसलिए यह गांठ बांधकर मन में बैठा लो की परमार्थ का जो भी काम करो, उसमे यह समझो कि यह भगवान और गुरु की कृपा ने करा लिया मुझसे। वरना मैं करता भला! अरे हमारे कितने भाई - बहन संसार में हैं! वे क्या कर रहें हैं? पूरे संसार का चिन्तन। उसी में चौबीसों घंटे लगे हैं। मां, पिता, बेटा, बीवी, पैसा , सम्मान, सब उसी के चक्कर में लगे हैं। पता नहीं हमारे ऊपर क्या कृपा हो गई भगवान और गुरु की, कि हमको तत्त्वज्ञान हो गया। यह चिन्तन हो, उसमें भगवत्वकृपा मानो। परदोष दर्शन के स्थान पर अपने दोषों को दूर करने का सोचो हरदम, तो फिर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ोगे भगवत-क्षेत्र में।
 
(प्रवचनकर्ता - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)

(स्त्रोत - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)

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