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   धार्मिक कार्यों में क्यों किया जाता है कुश का उपयोग
 कुश चारे के रूप में कम प्रयुक्त होने वाली दीर्घजीवी घास है, जो अमरबेल की तरह होती है। यह घास अगर जरा सी भी भूमि के अन्दर रह जाये तो वह पौधे का रूप धारण कर लेती है। पशुओं में कम लोकप्रिय कुश अध्यात्म के क्षेत्र में विशेष महत्व रखती है। यह देव, पितर, प्रेत व पूजा में समान महत्व रखती है। इसको अनामिका में धारण करने के उपरान्त ही सभी मांगलिक व अमांगलिक कार्यों में विधान पूर्ण होता है।
 कुश एक प्रकार का तृण है। कुश की पत्तियां नुकीली, तीखी और कड़ी होती है। धार्मिक दृष्टि से यह बहुत पवित्र समझी जाती है और इसकी चटाई पर राजा लोग भी सोते थे। वैदिक साहित्य में इसका अनेक स्थलों पर उल्लेख है। अर्थवेद में इसे क्रोध नाशक और अशुभ निवारक बताया गया है। आज भी नित्य-नैमित्तिक धार्मिक कृत्यों और श्राद्ध आदि कर्मों में कुश का उपयोग होता है। कुश से तेल निकाला जाता था, ऐसा कौटिल्य के उल्लेख से ज्ञात होता है। भावप्रकाश के मतानुसार कुश त्रिदोष नाशक है।
पूजा आदि कर्मकांड में इंसान के अंदर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय पृथ्वी में न समा जाए, इसलिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का काम करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों से शक्ति को खत्म नहीं होने देता है। कहा जाता है कि कुश से बने आसन पर  बैठकर मंत्र जाप करने से मंत्र सिद्ध होते हैं। कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झड़ते हैं। वेदों में कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि , आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया गया है। 
पूजा पाठ के दौरान कुश की अंगुठी बनाकर अनामिका ऊंगली में पहनने का विधान है , ताकि हाथ में संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की ऊंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति , तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकता है। कर्मकांड के दौरान यदि  भूल से हाथ जमीन पर लग जाए तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका बुरा असर हमाले दिल और दिमाग पर पड़ता है। 
 एक बार की बात है, जब भगवान् श्रीहरि ने वाराह अवतार धारण किया तब हिरण्याक्ष का वध करने के बाद जब पृथ्वी को जल से बाहर निकाला और अपने निर्धारित स्थान पर स्थापित किया। उसके बाद वाराह भगवान् ने भी पशु प्रवृत्ति के अनुसार अपने शरीर पर लगे जल को झाड़ा तब भगवान् वाराह के शरीर के रोम (बाल) पृथ्वी पर गिरे और वह कुश के रूप में बदल गये। चूँकि कुश घास की उत्पत्ति स्वयं भगवान वाराह के श्री अंगों से हुई है। अत: कुश को अत्यंत पवित्र माना गया। इसलिए किसी भी पूजन-पाठ, हवन-यज्ञ आदि कर्मो में कुश का प्रयोग किया जाता है।
 पंचक में मृत्यु- ऐसी मान्यता है कि यदि किसी की पंचक में मृत्यु हो जाए तो घर में पांच सदस्य मरते हैं। इसके निवाराणार्थ 5 कुश के पुतले बनाकर मृतक के साथ उनका भी अंतिम संस्कार किया जाता है। 
 कुश ग्रन्थि माला- कुश की जड़ों से निर्मित दानों से बनी माला पापों का शमन, कलंक हटाने, प्रदूषण मुक्त करने व व्याधि का नाश करने हेतु प्रयुक्त होती है।
 आसन- कुश घास में बने आसन पर बैठकर पूजा करना ज्ञानवर्धक, देवानुकूल व सर्वसिद्ध दाता बनता है। इस आसन पर बैठकर ध्यान साधना करने से तन-मन से पवित्र होकर बाधाओं से सुरक्षित रहता है।
 धनवर्धक- कुश को लाल कपड़े में लपेटकर घर में रखने से समृद्धि बनी रहती है।
 ग्रहण काल में कुश का प्रयोग- मान्यता है कि ग्रहण काल से पूर्व सूतक में इसे अन्न-जल आदि में डालने से ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है।
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