पुरुषोत्तम महीने में इस बार 15 दिन शुभ योग बनेगा, पहला दिन होगा बेहद शुभदायी
-सुस्मिता मिश्रा
पुरुषोत्तम महीना या अधिमास या मल मास 18 सितंबर से शुरू होकर 16 अक्टूबर को समाप्त हो रहा है। इस पूरे महीने भगवान विष्णु की आराधना किए जाने का प्रावधान है।
इस बार बने हैं 15 दिन शुभ योग , जाने क्या करें
ज्योतिषियों के अनुसार इस बार पुरुषोत्तम मास में 15 शुभ योग बने हैं। पहले ही दिन शुक्रवार को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और शुक्ल योग रहेगा। पूरे महीने नौ सर्वार्थसिद्धि योग, दो द्विपुष्कर योग, एक अमृतसिद्धि योग और दो दिन पुष्य नक्षत्र के योग बने रहे हैं। रविवार और सोमवार को पुष्य नक्षत्र अधिक फलदायी होगा।
ज्योतिषियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस मास का पहला दिन दिन बेहद शुभदायी रहेगा। यह योग मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला और हर काम में सफलता देने वाला होता है। 26 सितंबर के बाद एक अक्तूबर, चार अक्तूबर, छह-सात अक्तूबर, नौ अक्तूबर, 11 अक्तूबर और 17 अक्तूबर को यह योग रहेगा। इसी तरह इस महीने में दो दिन द्विपुष्कर योग मिलेगा। ज्योतिष के अनुसार इस योग में किए गए किसी भी काम का दोगुना फल मिलता है। 19 और 27 सितंबर को द्विपुष्कर योग रहेगा। इसी तरह दो अक्तूबर को अमृतसिद्धि योग है।
पुरुषोत्तम मास में दो अक्तूबर को अमृत सिद्धि योग है। मान्यता के अनुसार इस योग में किया गया कोई भी कार्य दीर्घ फलदायी होता है।
भारतीय पंचांग (खगोलीय गणना) के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष एक अधिक मास होता है। यह सौर और चंद्र मास को एक समान लाने की गणितीय प्रक्रिया है। शास्त्रों के अनुसार पुरुषोत्तम मास में किए गए जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। सूर्य की बारह संक्रांति होती हैं और इसी आधार पर हमारे चंद्र पर आधारित 12 माह होते हैं। हर तीन वर्ष के अंतराल पर अधिक मास या मलमास आता है। शास्त्रानुसार-
यस्मिन चांद्रे न संक्रान्ति- सो अधिमासो निगह्यते
तत्र मंगल कार्यानि नैव कुर्यात कदाचन।
यस्मिन मासे द्वि संक्रान्ति क्षय मास स कथ्यते
तस्मिन शुभाणि कार्याणि यत्नत परिवर्जयेत।।
अधिक मास क्या है?
जिस माह में सूर्य संक्रांति नहीं होती वह अधिक मास होता है। इसी प्रकार जिस माह में दो सूर्य संक्रांति होती है वह क्षय मास कहलाता है।
इन दोनों ही मासों में मांगलिक कार्य वर्जित माने जाते हैं, परंतु धर्म-कर्म के कार्य पुण्य फलदायी होते हैं। सौर वर्ष 365.2422 दिन का होता है जबकि चंद्र वर्ष 354.327 दिन का होता है। इस तरह दोनों के कैलेंडर वर्ष में 10.87 दिन का फ़कऱ् आ जाता है और तीन वर्ष में यह अंतर 1 माह का हो जाता है। इस असमानता को दूर करने के लिए अधिक मास एवं क्षय मास का नियम बनाया गया है।
पौराणिक ग्रंथों में अधिक मास
अधिक मास कई नामों से विख्यात है - अधिमास, मलमास, मलिम्लुच, संसर्प, अंहस्पति या अंहसस्पति, पुरुषोत्तममास। इनकी व्याख्या आवश्यक है। यह द्रष्टव्य है कि बहुत प्राचीन काल से अधिक मास निन्द्य ठहराये गए हैं।
-ऐतरेय ब्राह्मण में आया है: देवों ने सोम की लता 13वें मास में खऱीदी, जो व्यक्ति इसे बेचता है वह पतित है, 13वां मास फलदायक नहीं होता।
-तैतरीय संहिता में 13 वां मास संसप एवं अंहस्पति कहा गया है।
-ऋग्वेद में अंहस का तात्पर्य पाप से है। यह अतिरिक्त मास है, अत: अधिमास या अधिक मास नाम पड़ गया है। इसे मलमास इसलिए कहा जाता है कि मानों यह काल का मल है।
-अथर्ववेद में मलिम्लुच आया है, किन्तु इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है।
-काठसंहिता में भी इसका उल्लेख है।
-पश्चात्कालीन साहित्य में मलिम्लुच का अर्थ है चोर
-अग्नि पुराण में आया है - वैदिक अग्नियों को प्रज्वलित करना, मूर्ति-प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, संकल्प के साथ वेद-पाठ, सांड़ छोडऩा (वृषोत्सर्ग), चूड़ाकरण, उपनयन, नामकरण, अभिषेक अधिमास में नहीं करना चाहिए।
हेमाद्रि ने वर्जित एवं मान्य कृत्यों की लम्बी-लम्बी सूचियां दी हैं।
सामान्य नियम यह है कि मलमास में नित्य कर्मों एवं नैमित्तिक कर्मों (कुछ विशिष्ट अवसरों पर किए जाने वाले कर्मों) को करते रहना ही चाहिए, यथा सन्ध्या, पूजा, पंचमहायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, वैश्वदेव आदि), अग्नि में हवि डालना (अग्निहोत्र के रूप में), ग्रहण-स्नान (यद्यपि यह नैमित्तिक है), अन्त्येष्टि कर्म (नैमित्तिक)। यदि शास्त्र कहता है कि यह कृत्य (यथा सोम यज्ञ) नहीं करना चाहिए तो उसे अधिमास में स्थगित कर देना चाहिए। यह भी सामान्य नियम है कि काम्य (नित्य नहीं, वह जिसे किसी फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है) कर्म नहीं करना चाहिए। कुछ अपवाद भी हैं, यथा कुछ कर्म, जो अधिमास के पूर्व ही आरम्भ हो गए हों (यथा 12 दिनों वाला प्राजापत्य प्रायश्चित, एक मास वाला चन्द्रायण व्रत), अधिमास तक भी चलाए जा सकते हैं। यदि दुभिक्ष हो, वर्षा न हो रही हो तो उसके लिए कारीरी इष्टि अधिमास में भी करना मना नहीं है, क्योंकि ऐसा न करने से हानि हो जाने की सम्भावना रहती है। ये बातें कालनिर्णय-कारिकाओं (21-24) में वर्णित हैं।
पुरुषोत्तम मास नामकरण कैसे हुआ
हमारे पंचांग में तिथि, वार, नक्षत्र एवं योग के अतिरिक्त सभी मास के कोई न कोई देवता या स्वामी हैं, परंतु मलमास या अधिक मास का कोई स्वामी नहीं होता, अत: इस माह में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य, शुभ एवं पितृ कार्य वर्जित माने गए हैं।
पुराण में जिक्र है कि अधिक मास अपने स्वामी के ना होने पर विष्णुलोक पहुंचे और भगवान श्रीहरि से अनुरोध किया कि सभी माह अपने स्वामियों के आधिपत्य में हैं और उनसे प्राप्त अधिकारों के कारण वे स्वतंत्र एवं निर्भय रहते हैं। एक मैं ही भाग्यहीन हूं जिसका कोई स्वामी नहीं है, अत: हे प्रभु मुझे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाइए। अधिक मास की प्रार्थना को सुनकर श्री हरि ने कहा हे मलमास मेरे अंदर जितने भी सद्गुण हैं वह मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूं और मेरा विख्यात नाम पुरुषोत्तम मैं तुम्हें दे रहा हूं और तुम्हारा मैं ही स्वामी हूं। तभी से मलमास का नाम पुरुषोत्तम मास हो गया और भगवान श्री हरि की कृपा से ही इस मास में भगवान का कीर्तन, भजन, दान-पुण्य करने वाले मृत्यु के पश्चात् श्री हरि धाम को प्राप्त होते हैं।
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