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 अपनी बिगड़ी बनाने के लिये हम गलत राह पर भटक रहे हैं!!
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से नि:सृत प्रवचन
श्रीराधाकृष्ण प्रेम संबंधी साधन सामग्रियों से अलंकृत अपनी  प्रेम-रस-मदिरा  ग्रन्थ में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने निम्नांकित पद में मन को संबोधित करते हुये कहा है कि इस मन ने अनादिकाल से आनंदप्राप्ति के अपने लक्ष्य के लिये उन द्वारों को खटखटाया जहाँ आनंद था ही नहीं। अत: उस भूल की सुधार कर लेने का आग्रह इस पद के माध्यम से अपने मन से किया गया है। आइये हम इसका आधार लेकर स्वयं पर विचार करें -
 
'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ
सिद्धान्त माधुरी, पद संख्या - 38
 
चपल चित! कत इत उत भटकात।
कूकर शूकर कीट पतंगनि, धर्-यो अनंतन गात।
अगनित सुत पति नारि बनायो, अबहुँ बनावत जात।
तू चह परमानंद कहां सो?, यह नहिं सोचि सकात।
वेद पुरानन बात मान गहु, चरण शरण बलभ्रात।
तब  कृपालु  तिन अनुकंपा ते, सब बनि जैहैं बात।।
 
भावार्थ :::: अरे चंचल मन! तू इधर-उधर क्यों भटक रहा है? तूने कूकर, शूकर, कीट पतंगादि अनन्त शरीर धारण किये। अनंत स्त्री, पति, पुत्र बनाये एवं अब भी बनाता जा रहा है। किंतु तू जिस दिव्यानंद को चाहता है, वह कहाँ है, यह नहीं सोच पाता। अरे मन सुन! वेद-पुराणादि द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह परमानन्द एकमात्र नंदनंदन (श्रीकृष्ण) पादारविन्द की शरणागति से ही प्राप्त हो सकता है।  श्री कृपालु जी  कहते हैं, जब तू उनके शरणागत हो जायगा तब वे अपनी अनुकम्पा द्वारा तुझे अनन्तकाल के लिए आनन्दमय कर देंगे; इस प्रकार तेरी सब बिगड़ी बन जायेगी।
 
रचनाकार ::: जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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