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   यहां होती है भीम की पत्नी की पूजा
कुल्लू घाटी में महाराजा बहादुर सिंह (15वीं शताब्दी) के दौरान पैगोडा शैली के मंदिरों का निर्माण हुआ। इनमें त्रिपुर सुंदरी मंदिर नग्गर, आदि ब्रह्मा मंदिर खोखण, त्रिजुगी नारायण मंदिर दयार और पराशर ऋषि मंदिर उल्लेखनीय हैं। मनाली के पास ढूंगरी नामक स्थान पर हिडिम्बा माता का मंदिर भी इसी दौरान बनाया गया।
 हिमाचल प्रदेश में लकड़ी से बने हजारों साल पुराने विभिन्न देवी- देवताओं के बहुत से मंदिर आज भी पर्यटकों एवं श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र हैं। इन्हीं में से एक है-  हिडिम्बा मंदिर  जो हिमाचल का गौरव माना जाता है। लकड़ी से निर्मित यह मंदिर पैगोड़ा शैली में बना है। यह मंदिर धूंगरी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। पूरा मंदिर लकड़ी का बना है जिसकी छत भी लकड़ी से ही ढाली गई है। दीवारें भी लकड़ी की ही है जिनपर नक्कशी कर देवी-देवताओं के चित्र उकेरे गए है, जो मंदिर की सुन्दरता को बढ़ा देते हैं। मंदिर में महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति प्रतिस्थापित है।
 महाभारत के भीम का विवाह हिडिम्ब राक्षस की बहन हिडिम्बा से हुआ था। भीम और हिडिम्बा का पुत्र घटोत्कच महाभारत युद्ध में पांड्वों की और से अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ था। घटोत्कच वही है जिसने महाभारत में कर्ण के घातक बाण के प्रहार से अर्जुन की जान बचाते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। 
  हिडिम्बा राक्षसी थी लेकिन अपने तप और पतिव्रत के बल पर उसे देवी का सम्मान मिला।  कुल्लू का राजवंश हिडिम्बा को कुलदेवी मानता है। ऐसा माना जाता है की सन 1553 ई. (15वीं शताब्दी) में इस मंदिर का निर्माण कुल्लू के तत्कालीन महाराजा बहादुर सिह ने करवाया था। समुन्द्र तल से 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कुल्लू से मनाली की दूरी 40 किलोमीटर है। मनाली शहर से एक किलोमीटर की दुरी डूंगरी स्थान पर यह हिडिम्बा मंदिर अपने विशिष्ट काष्ठ के अद्भुत शिल्प शोभा के साथ विराजमान है। हिडिम्बा मनाली के ऊझी क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। समूचा क्षेत्र हिडिम्बा की प्रजा माना जाता है। यही कारण है कि समूचा क्षेत्र वर्ष में एक बार हिडिम्बा को  कौर (कर) अदा करता रहा है। कुछ वर्ष पूर्व से यह प्रथा समाप्त हो गई है। ज्येष्ठ संक्रांति के दिन ढूंगरी में देवी के यहां बहुत बड़ा मेला लगता है।
कहा जाता है कि राजा ने इस मंदिर को बनवाने के बाद मंदिर बनाने वाले कारीगरों के  सीधे हाथों को काट दिया ताकि वह कहीं और ऐसा मंदिर न बना सकें। यहां पर होने वाली विशेष पूजा को घोर पूजा के नाम से जाना जाता है। यह पूजा मंदिर में ही आयोजित की जाती है। हर साल 14 मई को मंदिर में देवी जी का जन्मदिन मनाया जाता है जिसमें शामिल होने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं।
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