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 अपने कल्याण के लिये मनुष्य को संसार के स्वरूप को समझते हुये उससे विरक्त होकर महापुरुष का श्रद्धायुक्त सँग करना होगा!!
  जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 281
 
(भूमिका - प्रस्तुत उद्धरण जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा लिखित सिद्धान्त पुस्तक 'प्रेम रस सिद्धान्त' के 'महापुरुष' अध्याय से लिया गया है। 'प्रेम रस सिद्धान्त' पुस्तक आचार्यश्री के द्वारा लिखित प्रथम पुस्तक है, जिसमें उन्होंने समस्त प्रमुख आध्यात्मिक विषयों यथा; जीव तथा उसका लक्ष्य, भगवान, माया तथा संसार का स्वरूप, अनुराग-वैराग्य, महापुरुष, भगवत्प्राप्ति के प्रमुख तीन मार्ग कर्म, ज्ञान व भक्ति, साधना के क्रियात्मक स्वरूप तथा कुसंग आदि विषयों को शास्त्र-वेदों के प्रमाण सहित बड़ी सरल व बोधगम्य शैली में समझाया है। इस पुस्तक का प्रथम प्रकाशन वर्ष 1955 में हुआ था। भगवदीय जिज्ञासुओं के लिये यह पुस्तक-ग्रन्थ एक अमूल्य निधि के समान ही है...)
 
...एक बात स्मरण रहे कि महापुरुष या गुरु-तत्त्व से यह अभिप्राय नहीं है कि जो केवल शास्त्र-वेद का विद्वान-मात्र हो अथवा केवल अनुभवीमात्र हो। आप्त ग्रंथों ने दोनों ही बातों को प्राधान्य दिया है। यद्यपि मेरी राय में यदि शास्त्र वेद का विद्वान नहीं भी है तो भी अनुभवी महापुरुष से काम बन सकता है क्योंकि उसके (भगवान/भगवत्तत्व) जान लेने पर सब कुछ स्वयंमेव ज्ञात हो जाता है।
 
आप्त ग्रंथों एवं लोक में भी तीन शब्द पढ़ने सुनने में आते हैं; एक पुरुष, दूसरा महापुरुष एवं तीसरा परमपुरुष। दूसरे शब्दों में इन्हीं तीनों को जीवात्मा, महात्मा एवं परमात्मा शब्दों से पुकारा जाता है। हमें महापुरुष या महात्मा तत्त्व पर विचार-विनिमय करना है। वास्तव में जीवात्मा एवं परमात्मा अथवा पुरुष एवं परमपुरुष के मध्य की स्थिति का नाम ही महात्मा या महापुरुष है। अर्थात् जिस जीवात्मा या पुरुष ने परमात्मा या परम पुरुष को जान लिया हो, देख लिया हो, उसमें प्रविष्ट हो चुका हो, वही महात्मा या महापुरुष है। भावार्थ यह कि ईश्वर-प्राप्त जीव को ही महापुरुष कहते हैं।
 
यदि आप विरक्त हों तभी श्रद्धायुक्त हो सकते हैं, तभी महापुरुष का मिलन काम का हो सकता है, अन्यथा तुलसी के कथनानुसार;
 
मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलहिं विरंचि सम।
 
अर्थात् यदि ब्रह्मा सरीखा गुरु भी मिले और आप उससे न मिलें, तात्पर्य यह कि आप श्रद्धाहीन होने के कारण कुतर्क करें और कुतर्कों द्वारा उसे न पहिचानें तो महापुरुष का मिलन लाभदायक न हो सकेगा क्योंकि मरीज को, डॉक्टर को डॉक्टर मानने की तभी सूझेगी जब अपने आपको मरीज महसूस करेगा। आप कहेंगे, यह तो सभी जानते हैं कि हम काम, क्रोध, लोभादिक रोगों से ग्रस्त हैं। यह ठीक है सभी जानते हैं किन्तु सभी मानते नहीं हैं, जैसा कि तुलसीदास जी ने बताया है;
 
हैं सबके लखि बिरलन्हि पाये।
 
अर्थात् यह कामादि दोष यद्यपि सभी के अन्त:करण में नित्य विद्यमान रहते हैं किन्तु इनको इने-गिने बिरले ही महसूस करते हैं। अतएव वे ही इलाज कराने की सोचते हैं। वे ही डॉक्टर पर विश्वास करते हैं एवं औषधि सेवन करते हैं, अन्यथा यहाँ तक होता है कि महापुरुष को किसी सीमा तक लोग महापुरुष अर्थात् डॉक्टर (अंतःकरण/ईश्वरीय क्षेत्र के संदर्भ में) मान भी लेते हैं किन्तु दवा खाने अर्थात् साधना करने में लापरवाही करते हैं। अतएव वास्तविक परिणाम से वंचित रह जाते हैं। अतएव आप वास्तविक श्रद्धालु भी हों, एवं वास्तविक सन्त के शरणागत भी हों तभी समस्या हल हो सकती है। अतएव तुलसीदास जी के कथनानुसार;
 
शठ सुधरहिं सत संगति पाई।
 
अर्थात् शठ का भी सुधार हो सकता है यदि वह श्रद्धायुक्त होकर महापुरुष के आदेश का पालन करे। जैसे, लोहा भी पारस के संग से सुवर्ण बन जाता है। यहाँ तो सन्त-संग से सोना ही नहीं, पारस ही बना जा सकता है किन्तु यदि लोहे एवं पारस के मिलन में गड़बड़ी है अथवा लोहा ही गलत है या पारस गलत है या दोनों ही गलत हैं तो परम लक्ष्य की प्राप्ति सर्वथा असंभव है।
 
अब आप एक बार पुन: क्रम समझ लीजिये। आपको परमानन्द प्राप्त करना है। परमानन्द एकमात्र ईश्वर में ही है, अतएव ईश्वर को प्राप्त करना है। ईश्वर इन्द्रिय, मन, बुद्धि से अप्राप्य है किन्तु वह जिस पर कृपा कर देता है, वह उसे प्राप्त कर लेता है। उसकी कृपा शरणागत पर ही होती है। शरणागति मन की करनी है। मन अनादिकाल से संसार में ही सुख मानता आया है अतएव संसार का स्वरूप गंभीरतापूर्वक समझना है। संसार का स्वरूप समझकर उस पर बार-बार विचार करना है यानी मनन करना है। तब संसार से वैराग्य होगा। अर्थात् मन राग-द्वेष-रहित होगा।
 
यह ध्यान रहे कि जब तक मन ईश्वर के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी राग या द्वेषयुक्त (आसक्त) रहेगा, तब तक ईश्वर-शरणागति असम्भव है और जब तक संसार में, 'न तो यहाँ हमारा आध्यात्मिक सुख है और न यहाँ हमें बरबस अशान्त करने वाला दुःख ही है', ऐसा ज्ञान परिपक्व न होगा, तब तक वैराग्य भी असम्भव है।
 
इस परिपक्वता के लिये संसार स्वरूप पर गम्भीर विचार एवं बार-बार विचार करना होगा, बार-बार विचार से ही दृढ़ता आयेगी। एक बार विचार करने मात्र से काम नहीं बनेगा क्योंकि अनन्तानन्त जन्मों का विपरीत विचार संगृहीत है। उसे काटने के लिए;
 
जन्म मृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्। (गीता)
 
अर्थात् बार-बार विचार करना होगा तब मन खाली होगा। बस, वही दिन आपका सौभाग्य का होगा जिस दिन मन खाली हो जायगा। उस विरक्त मन को ईश्वर के शरणागत करना है, जिस शरणागति के परिणामस्वरूप, ईश्वर-कृपा के परिणामस्वरूप ईश्वरीय ज्ञान एवं ईश्वरीय दिव्यानन्द की प्राप्ति होनी है।
 
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० पुस्तक सन्दर्भ ::: 'प्रेम रस सिद्धान्त' (अध्याय - महापुरुष)
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
 
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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