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 संसार में सुख है अथवा दुःख है? जो सुख अथवा दुःख हमें मिलता है, उसका क्या अर्थ है? हमारा सुख किसमें है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 306

★★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 11-वें दोहे पर विचार करें, जो कि संसार में सुख अथवा दुःख की मान्यता पर प्रकाश डाल रही है...)

जग महँ सुख दुख दोउ नहिँ, अस उर धरि ले ज्ञान।
सुख माने दुख मिलत है, सुख न जगत महँ मान।।11।।

भावार्थ - संसार में न सुख है, न दुख ही है - यह ज्ञान दृढ़ कर लेना चाहिये। संसार में सुख मानने से ही उसके अभाव में दुख मिलता है।

व्याख्या - संसार, माया से बना है। फिर भी इसमें 3 तत्व हैं; 

1 - ब्रह्म।
2 - जीव। 
3 - माया।

इनमें माया निर्मित जड़ जगत् तो प्रत्यक्ष ही है। जीव गण भी सब जानते ही हैं। केवल ब्रह्म परोक्ष रूप से व्यापक है। यह जगत् जीव का भोग्य है। अतः वेद कहता है। यथा;

भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्म ......।

आप कहेंगे कि जब जीव इस संसार का भोक्ता है, तो फिर वैराग्य आदि क्यों बताया जाता है? तथा इस संसार से सुख क्यों नहीं मिलता। यह संसार, जीवों के शरीर के उपयोग के लिये बनाया गया है। उपभोग के लिये नहीं। जीवों का शरीर मायिक है। एवं जगत् भी मायिक है। अत: शरीर का विषय सजातीय होने से जगत् है। किंतु आत्मा तो दिव्य है। यथा;

चिन्मात्रं श्री हरेरंशं......
(वेद)

भागवत कहती है। यथा;

आत्मानित्योऽव्ययः......।

जब आत्मा दिव्य नित्य तत्व है, तो उसका विषय भी दिव्य ही होगा। संसार, आत्मा का विषय हो ही नहीं सकता। वस्तुत: प्रत्येक अंश अपने अंशी को ही चाहता है। अतः आत्मा भी जगत् में व्याप्त परमात्मा का ही नित्य दिव्य अनंत सुख चाहता है। वही आत्मा का विषय है। हमको संसार में जो सुख का मिथ्या भान होता है, वह हमारी ही मनःकल्पना का परिणाम है। यदि हम संसार में सुख न माने तो दुख स्वयं समाप्त हो जाय। संसार में सबको एक ही वस्तु में सुख नहीं मिलता, जो व्यक्ति जिस व्यक्ति या वस्तु में बार-बार सुख की भावना बनाता है, उसी में आसक्ति हो जाती है। फिर उसी की ही कामना उत्पन्न होती है, फिर उसी कामनापूर्ति में क्षणिक सुख मिल जाता है। यही कारण है कि एक भिखारिन माँ को अपने काले कुरूप पुत्र से ही सुख मिलता है। शराबी को ही शराब से सुख मिलता है। पंडित जी को तो शराब देख कर भी दुख मिलता है। यदि शराब में सुख होता तो पंडित जी को भी शराबी की भांति ही सुख मिलता। संसार का कल्पित सुख भी एक सा नहीं होता। प्यासे को ही पानी में, कामी को ही कामिनी में सुख मिलता है। वह सुख भी प्रतिक्षण घटमान होता है। मां कई दिन के खोये अपने शिशु को प्रथम आलिंगन में अधिक सुखी, पुनः दूसरी-तीसरी बार क्रमशः कम सुखी एवं अंत में विरक्त सी हो जाती है ।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या - 11
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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