हमारे विपरीत कोई बात हो जाने पर हमें क्या करना चाहिये? क्रोधित होने की आवश्यकता क्यों नहीं होनी चाहिये?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 313
(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने इस उद्धरण में समझाया है कि कैसे हम छोटी-छोटी सी बात पर अपना आपा खो बैठते हैं। जब हमारे विपरीत कोई बात होती है तो कैसे अपनी बुद्धि को संतुलित रखना है, साथ ही संसार में व्यवहार मात्र करते हुये कैसे अपने अन्तःकरण में एकमात्र हरि-गुरु सम्बन्धी सामग्री को ही प्रवेश देना है आदि विषयों की ओर आचार्यश्री ने इंगित किया है...)
...कभी कभी इतना अधिक गुस्सा आता है हम लोगों को कि बाप, माँ, बेटा, स्त्री, पति को भी अंड-बंड बोल जाते हैं। उस समय अगर कोई वीडियो कैसेट बना ले और बाद में आप उसको देखें तो अपनी शक्ल देखकर खुद ही कहें अरे मुझे क्या हो गया था? मैं ऐसा हो गया था? अपने बाप को ही मैनें बक दिया तमाम सारा। अपने पति को ही मैंने गालियाँ बक दी। ये सब बात कब आप महसूस करेंगे जब नॉर्मल हो जायेंगे।
और फिर फील करते हैं आप लोग, ऐ! क्या मुझको हो गया था? मुझको गुस्सा क्यों आया अंड-बंड बक गया मैं!! बड़ा गधा हूँ मैं!! लेकिन उस समय पागल हो गये थे। इसलिये बोल रहे थे। होश में नहीं थे उस समय। बाद में होश में आये तो भी क्या होता है? और फिर ये दौरा पड़ता ही रहता है। दिन में कई बार। महीने में बहुत जोर से, कभी-कभी साल में तो कभी-कभी ये नौबत आ जाती है कि मैं मर जाऊँ तो अच्छा। यहाँ तक पहुँच जाते हैं आप लोग। तो हैं सब पागल। तो पागल को पागल कहें तो क्यों बुरा मानो भाई। जैसे तुम, वैसे हम।
सोचो क्या बात है? नकटा नकटे को नकटा कहे तो नकटे को हँसना चाहिये कि जरा अपनी नाक को देख लो। हमको नकटा कह रहे हो तुम भी तो वैसे ही हो यार। अपन एक पार्टी के हैं। अपनी बड़ी-बड़ी मैज्योरिटी है। अरे तुलसीदास, सूरदास तो इने-गिने हुये हैं तो हम तो बहुत ज्यादा हैं। हाँ आपस में क्यों बुराई करते हो, दोनों एक से हैं बिल्कुल। तुम्हारा टैम्प्रेचर हाई हो गया गुस्से का, हमारा एक घण्टे बाद हो जायेगा और क्या फर्क है। वो सब के पास है। जैसा वातावरण मिलेगा वही दोष बलवान हो जायेगा।
गेहूँ आप लोग देखते हैं। बोरे में गेहूँ बन्द है, चार महीने से वैसा का वैसा है लेकिन जब उसको मिट्टी में डाल दिया, पेड़ बन गया। फल लग गये। उसी प्रकार सारे दोषों का जो बीज है हमारे अन्तःकरण में बैठा है, जिसका वातावरण मिल जाय बस वही बलवान हो जाता है। दिन में सैकड़ों बार दौरे पड़ते हैं। एक दो बार नहीं इतना सारा परिवर्तन हो रहा है हमारे अन्तःकरण में और हम समझ नहीं पाते ये क्या बीमारी है? बोल रहे हैं लेकिन हमारे पास समय नहीं है सोचने का कि ये बीमारी है क्या और क्या इसका इलाज है? सबका इलाज है। पहले बीमारी तो मानो। तुम तो बीमारी ही नहीं मानते। ये मुश्किल है। तो इलाज कैसे हो? क्यों नहीं मानते? सभी ऐसे हैं। इसलिये क्यों मानें? उसके बेटे ने भी डाँटा था। हमारे बेटे ने भी डाँट दिया। ठीक है। उसके पति ने बीबी को डाँटा, हमारे पति ने डाँटा ठीक है। सब हो रहा है, ये सब चल रहा है।
लेकिन हमको फील करना चाहिये कि इस सब स्वरूप को समझकर फील ना करें। अंदर (अन्तःकरण) न जानें दें गंदी चीज। अंदर तो केवल भगवान, उनका नाम, उनका गुण, उनका रूप, उनकी लीला, उनका धाम, उनके संत - बस इतने हमारे अन्तःकरण में जायें। बाकी को बाहर रखें। चारों ओर बिठा लो अपने, कोई बात नहीं। अंदर न जाने दो। नहीं तो वैसे ही मन गन्दा है और हो जायेगा। परत की परत मैल जम जायेगी उसमें। यानी प्यार भगवाब के क्षेत्र में ही हो। व्यवहार संसार भर में हो।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'अध्यात्म संदेश' पत्रिका, अक्टूबर 2006 अंक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
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