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 भक्ति अथवा भगवान के प्रेमराज्य का 'दुःख' किस प्रकार संसार के दुःख से अलग है? जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी के श्रीमुख से!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 315

★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 89-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि भक्ति अथवा भगवान के दिव्य प्रेमराज्य के 'दुःख' की दिव्यता कैसी होती है, कैसे वह संसार के दुःख से सर्वथा भिन्न होता है जो भक्त/प्रेमी को अनंतानंत आनन्द देता रहता है...

मिलन पाय पिय विरह भय, विरह पाय नहिँ चैन।
दुहुँन भांति अस दिव्य दुख, पाव रसिक दिन रैन।।89।।

भावार्थ - श्यामसुन्दर के मिलन काल में भक्तों को यह भय रहता है कि कहीं वियोग न हो जाय। अतः दुःखी रहता है। वियोग में तो दुःखी होना स्वाभाविक है ही। इस प्रकार मिलन एवं वियोग दोनों ही दशाओं में भक्तों को दिव्य दुःख मिलता है।

व्याख्या - दिव्य प्रेम में यह विशेष विलक्षणता होती है कि श्याम मिलन की अवस्था में भी यह भय बना रहता है कि यदि कभी वियोग हो गया तो कैसे जीवित रह सकूँगा। नियम यह है कि जिस वस्तु के मिलन में जितना सुख मिलता है, उस वस्तु के वियोग में उतना ही दुःख मिलता है। अनन्त मात्रा के ब्रह्मानन्द का भी अनन्त गुना आनन्द प्रेमानन्द है। अतः उसके वियोग का दुःख भी अनन्त मात्रा का ही होगा। श्रीकृष्ण प्रेम में दोनों की ऐसी दशा हो जाती है कि मिलन काल में भी वियोग का अनुभव होने लगता है। राधा-कृष्ण एक दूसरे का आलिंगन करते-करते ही एक दूसरे से कहने लगते हैं कि मेरी राधा कहाँ चली गई? मेरे श्यामसुन्दर कहाँ चले गये? की बुद्धि से भी परे हैं। संसार में तो मिलन में भी अल्प सुख मिलता है। अतः वियोग में भी अल्प ही दुःख मिलता है। अतः मिलन दशा में वियोग का चिंतन संसारी प्रेम में नहीं होता। फिर भी कभी-कभी यह झलक आ ही जाती है कि कहीं यह सुख छिन न जाय। किंतु श्रीकृष्ण प्रेम में यह स्वाभाविक रूप से होता रहता है। एक रसिक इसी बात को निम्न शब्दों में व्यक्त करता है। यथा;

अदृष्टे दर्शनोत्कंठा दृष्टे विश्लेषभीरुता।
नादृष्टेन न दृष्टेन भवता लभ्यते सुखम्।।

अर्थात् वियोग में तो दर्शन की व्याकुलता का दुःख रहता है एवं मिलन दशा में यह दुःख रहता है कि कहीं वियोग न हो जाय। अतः दोनों ही दशाओं में दुःख ही दुःख है। किंतु यह समझे रहना चाहिये कि यह वियोग दुःख, मिलन के सुख से भी अधिक मधुर होता है। श्रीकृष्ण प्रेम (दिव्य) एवं संसारी प्रेम (आसक्ति) में यही प्रमुख अन्तर है। यही कारण है कि रसिकों ने दिव्य प्रेम को विषामृत की संज्ञा दी है। अर्थात् संयोग में संयोग, संयोग में वियोग, वियोग में वियोग, वियोग में संयोग का विचित्र अनुभव होता है। प्रत्येक दशा में अनन्त अनिर्वचनीय प्रतिक्षण वर्धमान इत्यादि। सखियाँ अनेक प्रकार के उपचार करती हैं। दोनों को स्वस्वरूप का बोध कराती हैं। फिर भी दोनों समाधि दशा में वियोग का ही अनुभव चिरकाल तक करते रहते हैं। यह अवस्थायें परमहंसों दिव्यानन्द प्राप्त होता है। वहाँ दुःख का प्रवेश हो ही नहीं सकता। क्योंकि दुःख तो माया का विकार है।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या 89
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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