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  श्री वेदव्यास द्वारा वर्णित ब्रह्म श्रीकृष्ण के 3 स्वरुपों की व्याख्या, उनमें एकता तथा सगुण साकार स्वरूप की विलक्षणता!!
 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 323

★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 21-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि भगवान श्रीकृष्ण के ही 3 अभिन्न स्वरूप कौन-कौन से हैं तथा उनमें क्या-क्या विशेष बात है और कैसे सगुण साकार और प्रेमानन्द वाले श्रीकृष्ण का सौरस्य अन्य सभी से विलक्षण है!!...

तीन रूप श्री कृष्ण को, वेदव्यास बताय।
ब्रह्म और परमात्मा, अरु भगवान कहाय।।21।।

भावार्थ - वेदव्यास ने परात्पर ब्रह्म श्रीकृष्ण के 3 रूप बताये हैं। जिन्हें ब्रह्म और परमात्मा एवं भगवान् कहा जाता है। 

व्याख्या - वेदव्यास ने भागवत में कहा है। यथा;

वदंति तत्तत्वविदस्तत्वं यज्ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।।

अर्थात् अद्वयज्ञान तत्व ही भगवान् श्रीकृष्ण हैं। तत्व का तात्पर्य है स्वरूप। वह तत्व अद्वय ज्ञान है। 'ज्ञानं चिदेक रूपम्' (तत्व संदर्भ), अर्थात् चिद् वस्तु ही ज्ञान है। ज्ञान शब्द से चित् (चेतन) एवं चित् शब्द से सच्चिदानंद का बोध होता है। इसी से वेद ने,

'सत्यं विज्ञानमानंदं ब्रह्म'

कहा है। अतः श्रीकृष्ण का स्वरूप सच्चिदानंद ब्रह्म है। कृष्ण शब्द का अर्थ भी यही है। यथा;

कृषि शब्दो हि सत्तार्थोणश्चानंद रूपकः।
सत्ता स्वानंदयोर्योगाच्चित् परं ब्रह्मचोच्यते।।
(वृ. गौ. तंत्र)

श्रीकृष्ण सशक्तिक ब्रह्म हैं। अतः सत् से संधिनी शक्ति, चित् से संवित् शक्ति, एवं आनंद से ह्लादिनी शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। इन तीनों को मिलाकर संक्षेप में चित् भी कहते हैं। वह अद्वय ज्ञान तत्व परब्रह्म श्रीकृष्ण, अपनी संधिनी शक्ति से स्वयं की सत्ता तथा समस्त जीवों की सत्ता की रक्षा करता है। संवित् शक्ति से स्वयं को एवं जीवों को भी ज्ञान युक्त करता है। ह्लादिनी शक्ति से स्वयं को एवं जीवों को भी आनंद प्रदान करता है। अब यह प्रश्न आता है कि यह अद्वय ज्ञान तत्व क्यों कहलाता है? अद्वय का तात्पर्य क्या है ? उत्तर यह है कि;

1. कोई भी तत्व अद्वय तभी माना जायगा, जब वह स्वयं सिद्ध हो। दूसरे पर निर्भर न हो।
2. उस तत्व के समान दूसरा तत्व न हो।
3. उस तत्व की विजातीय वस्तु भी न हो।
4. उसकी अपनी ही शक्ति सहायिका रहे।

भावार्थ यह कि अद्वय ज्ञान तत्व सजातीय विजातीय स्वगतभेद शून्य हो। अब इन तीनों पर विचार कर लीजिये। 

1. सजातीय भेद शून्य - श्रीकृष्ण के ही अभिन्न स्वरूप नारायण एवं समस्त अवतार हैं। वे सब श्री कृष्ण पर निर्भर हैं। अतः सजातीय भेद शून्य हैं। जीव भी चित् (चेतन) है। एवं श्रीकृष्ण की सत्ता पर निर्भर है। यह सजातीय भेद शून्य हुआ।

2. विजातीय भेद शून्य - श्रीकृष्ण ब्रह्म चिद्रूप हैं। उनका विजातीय तत्व जड़ है। किंतु वह जड़ प्रकृति भी श्री कृष्ण से ही नियंत्रित है। अतः यह विजातीय भेद शून्य हुआ। 

3. स्वगत भेद शून्य - श्रीकृष्ण में देह एवं देही का भेद नहीं है । जबकि जीवों का देह पृथक् होता है । तथा प्राकृत होता है । भगवान् का देह भगवान् ही है । यह स्वगतभेद शून्य हुआ। यथा;

आनंदमात्र कर पाद मुखोदरादिः..
(भागवत)

पुनश्च - आनंद चिन्मय सदुज्वल विग्रहस्य....
(ब्र. सं.)

इस प्रकार सिद्ध हुआ कि अद्वय ज्ञान तत्व श्रीकृष्ण ही हैं । वे अद्वितीय भी हैं। यथा;

न तत्समश्चाभ्यधिकश्च......
(वेद)

उपर्युक्त अद्वय ज्ञान तत्व रूप परब्रह्म श्रीकृष्ण का 3 अभिन्न रूप होता है। यथा 1. ब्रह्म, 2. परमात्मा, 3. भगवान्। जैसे जल , बर्फ एवं गैस तीनों ही जल के ही स्वरूप हैं। ऐसे ही ब्रह्म, परमात्मा एवं भगवान् - तीनों एक ही के 3 रूप हैं।

यह 3 प्रकार का कल्पित भेद जीवों की इच्छापूर्ति के हेतु ही बनाया गया है। जैसे बादल युक्त सूर्य (ब्रह्म), बादल रहित सूर्य (परमात्मा), खुर्दबीन से दृष्ट सूर्य (भगवान्) वस्तुतः एक ही है। तात्पर्य यह कि ब्रह्मानंद भी अनंत एवं नित्य है किंतु उससे सरस सगुण साकार परमात्मानंद है। तथा उस परमात्मानंद से भी सरस लीला परिकर युक्त कृष्णानंद है।

इसी से कृष्ण गुणानुवाद के एक श्लोक को सुनकर आत्माराम पूर्णकाम परम निष्काम निग्रंथ परमहंस शुकदेव अपना ब्रह्मानंद भुलाकर बरबस प्रेमानंद (भगवदानंद) में विभोर हो गये। शुकदेव एवं सनकादिक, व्यासादिक तथा ब्रह्मादिकों ने तीनों रसों का अनुभव किया है। किंतु अंत में श्रीकृष्णानंद में ही सदा को लीन हो गये। अत : स्वप्न में भी भेद बुद्धि न आने पाये।

०० व्याख्याकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति-शतक' (दोहा संख्या 21)
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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