श्रवण, कीर्तन आदि साधनाओं में सर्वप्रमुख कौन सी बात ध्यान में रखने की है? संबंध और अभिधेय ज्ञान क्या है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 324
★ भूमिका - प्रस्तुत प्रवचन अंश में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने भक्ति में 'स्मरण' की प्रमुखता पर प्रकाश डाला है। किस प्रकार श्रवण से प्रारंभ होकर भक्ति में प्रगाढ़ता आती है और किस प्रकार भक्ति के सभी रूपों में भगवान के 'स्मरण' की प्रधान्यता है, यह निम्न उद्धरण में वर्णित है। आचार्यश्री का यह प्रवचन उनके द्वारा निःसृत 'नारद भक्ति दर्शन' की व्याख्या का एक अंशमात्र है...
...अनन्त गुण हमारे सम्बन्धी श्रीकृष्ण में हैं, यह समझना है। फिर उनसे सम्बन्ध को दृढ़ करने के लिये क्या करना है? उस सम्बन्ध पर बार-बार विचार करना है।
देखो ! एक लड़का जा रहा है, एक लड़की जा रही है, एक दूसरे को देखते तो हैं छुप-छुप के। वो लड़की उधर देख रही है तो हमने देख लिया - कैसी आँख है, कैसी नाक है, कैसा मुँह है, काली है, गोरी है, क्या है और जब हमारी तरफ देखने लगी तो हम सीरियस हो गये, इधर देखने लगे। ऐसा हम लोग करते हैं। सद्भावना-दुर्भावना का मतलब नहीं है, नेचर है। कोई आपके सामने सीट पर बैठा है ट्रेन में, अब क्या वो अन्धा बना रहेगा, देखेगा तो है ही। लेकिन वो डायरेक्ट नहीं देखता। जब वो और तरफ देख रहा है तो उसको देख लिया, जब वो मेरी तरफ देखने लगा तो सीरियस हो गये। एटीकेट है, चार सौ बीस है, तरीका है। हम उसको देखते हैं लेकिन ये बताना चाहते हैं कि हमारा कोई कॉन्टेक्ट नहीं तुमसे। जब दोनों की सगाई हो गई, अभी ब्याह नहीं हुआ, सगाई हो गई, तब वो लड़की उस लड़के का चिन्तन करती है, चिन्तन। ये हमारा है, ये हमारा है, ये हमारा है। अभी हुआ-वुआ नहीं ब्याह। कितनी सगाई कैंसिल हो जाती है। लेकिन वो चिन्तन शुरू हो गया उसका। वो ऐसा है, वो ऐसा है, वो ऐसा है। इतना पढ़ा-लिखा है, इतना लम्बा-चौड़ा है, इतनी उसके अन्दर बातें हैं, इतनी प्रॉपर्टी है। अब सबका चिन्तन हो रहा है। यानी हम इतने के मालिक हो गये। अरे! अभी ब्याह भी नहीं हुआ और सबकी मालिक हो गई तू, वो चिन्तन से आत्मीयता दृढ़ हो गई। ऐसे ही जब हमने ये जान लिया और मान लिया कि श्रीकृष्ण ही हमारे सम्बन्धी हैं;
त्वमेव माता च पिता त्वमेव।
त्वमेव सर्वम् मम देव देव।
तब फिर उसका चिन्तन प्रारम्भ होगा, अपने-आप होगा, जितनी नॉलेज पक्की होगी उतना चिन्तन होगा और चिन्तन होने से;
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते।
वेदव्यास कहते हैं - बस, चिन्तन लगातार किया कि मन का अटैचमेन्ट हो गया। ये नम्बर दो हो गया, अभिधेय हो गया। अगर सम्बन्ध ज्ञान (नम्बर एक) परिपक्व हुआ तो अभिधेय माने साधना स्वयं हो गई। लेकिन जितनी लिमिट में आपका सम्बन्ध ज्ञान परिपक्व हुआ उतनी लिमिट में आपने चिन्तन किया। जितनी लिमिट में चिन्तन बढ़ता गया, उतनी लिमिट में अटैचमेन्ट बढ़ता जायेगा और जब परिपूर्ण सम्बन्ध ज्ञान पर परिपूर्ण फेथ हो जायेगा तब ये 'यज्ज्ञात्वा', ये सफल होगा शब्द 'यज्ज्ञात्वा', जिसको जानकर। जानकर, वो जानना नित्य होगा, प्रत्येक काल में, प्रत्येक स्थान में, प्रत्येक वस्तु में यह सम्बन्ध-ज्ञान रहे, ये शर्त है सम्बन्ध-ज्ञान पक्का है कि नहीं। प्रत्येक स्थान पर जहाँ जाइये वो श्रीकृष्ण हमारे सम्बन्धी हैं, श्रीकृष्ण हमारे सम्बन्धी हैं। वृन्दावन में जाने पर यह फीलिंग तो हुई - श्रीकृष्ण हमारे सम्बन्धी हैं, बताया था महाराज जी ने लेकिन जब हम और जगहों में जाते हैं संसारी जगहों में तो वहाँ भूल जाते हैं। नहीं, 'यो मां पश्यति सर्वत्र', सब जगह। देश, काल, वस्तु, ये तीन होते हैं। देश, काल, वस्तु। इन तीनों में यह ज्ञान परिपक्व होना चाहिये कि वे हमारे ही हैं और सब जगह हैं। तो किसी भी वस्तु से द्वेष नहीं, किसी भी समय या किसी भी स्थान से द्वेष नहीं । सर्वत्र हमारे श्रीकृष्ण हैं ओतप्रोत। तो इस प्रकार अभिधेय भी आप समझ गये। अभिधेय में तीन चीजें हैं जो आप लोग करते हैं यहाँ डेली।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम्।
(भागवत 2-1-5)
शुकदेव परमहंस ने तीन प्रमुख साधना भक्ति बताया परीक्षित को, 'श्रोतव्यः' - सुनो। ये सुनना भी कीर्तन है और 'कीर्तितव्यः' और मुख से बोलना, ये भी कीर्तन है। देखो! कीर्तन तीन पद्धति का होता है - व्यास पद्धति, नारद पद्धति और हनुमत् पद्धति । व्यास पद्धति है कीर्तन सुनाना, भगवान् की लीलाओं के उनके विषय को सुनाना या सुनना जो आप लोग इस समय कर रहे हैं। ये भी कीर्तन है और नारद पद्धति है कि मुख से शब्द बोलना, खाली सुनना नहीं और साथ में बाजे-गाजे भी हों - हारमोनियम, तबला, सितार जो भी बाजा होता है, उन बाजों के साथ भगवान् के नाम, गुण, लीलादि को गाना। ये नारद जी की पद्धति है, इसको आप लोग करते ही हैं। तो व्यास पद्धति भी आपको हम कराते हैं, प्रैक्टिकल, नारद पद्धति भी कराते हैं। और एक हनुमत् पद्धति है, वो कैसी है? उसमें भी कीर्तन तो होगा ही, मुख से शब्द बोला जायेगा, लेकिन उसमें नृत्य भी होता है, जिसको गँवारी भाषा में कहते हैं - उछल-कूद। जब प्रेम का उद्रेक अधिक होता है और कन्ट्रोल नहीं होता तो 'नृत्यति लोकबाह्यः', फिर वो नाचने लगता है। ये सब कम्बाइन्ड होकर के कीर्तन कहलाते हैं। लेकिन चाहे कथा सुनी जाये, चाहे बोली जाये, चाहे बाजे-गाजे से, चाहे नृत्य करते हुए, सदा सर्वत्र सर्व वस्तु में हमको तीसरी साधना पर खास ध्यान देना है - 'स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम्' - श्रीकृष्ण का स्मरण। देखो, देखो! संसार में आप लोग किसी को बुलाते हैं तो पहले क्या करते हैं? पहले-पहल शब्द बोलते हैं?
नहीं-नहीं-नहीं, पहले ध्यान करते हैं फिर उसका नाम लेते हैं और कभी-कभी नाम जल्दी में याद नहीं आता तो आप कहते हैं - अरे ! वो कहाँ है, वो वो जो बरेली से आया है, वो क्या नाम है उसका, वो सुन्दरलाल। देखो! स्मरण पहले हुआ, नाम बाद में। तो उसी प्रकार हमको स्मरण पहले करना है, भगवन्नाम बाद में लो, न लो, दोनों का मूल्य बराबर है। लेकिन स्मरण मेन है 'स्मर्तव्यः'। तो ये तीन प्रकार की भक्ति जो मैं आप लोगों से कराता हूँ, यही प्रमुख हैं और बाकी तो छः प्रकार की और हैं नवधा भक्ति जिसे कहते हैं उसमें और फिर एकादशधा भक्तियाँ भी हैं और पच्चीस-तीस प्रकार की भक्तियाँ भी होती हैं, अनन्त प्रकार की भी हो सकती हैं।
जिस किसी प्रकार से भगवान् में मन लगे उसी का नाम भक्ति, साधना भक्ति। विचित्र-विचित्र तरीके होते हैं, भक्ति करने के जिसकी कल्पना आप नहीं कर सकते।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'नारद भक्ति दर्शन' प्रवचन, संख्या - 5
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)
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