गुरु प्लस भगवान अथवा केवल गुरु की ही भक्ति, दोनों बात शास्त्रों में है; परन्तु इसमें कौन सी एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 327
(भूमिका - प्रस्तुत उद्धरण में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साधक समुदाय को समझा रहे हैं कि साधना में महापुरुष अथवा गुरु की भक्ति का क्या महत्व है? भक्ति या साधना का वास्तविक स्वरूप क्या है? मन की चंचलता को स्थिर करने के लिये क्यों साधना के विभिन्न उपायों/तरीकों का सहारा लेना चाहिए? इन प्रश्नों पर आइये इस उद्धरण के माध्यम से विचार करें...)
...भगवान, उनके नाम, उनके रूप, उनकी लीला, उनके गुण, उनके धाम, उनके संत - ये सब एक हैं किन्तु उनमें महापुरुष का नम्बर एक है। उनके बिना न भगवान साथ देगा, न उनका नाम साथ देगा, न उनकी लीला साथ देगी, न उनका धाम साथ देगा। महापुरुष की शरणागति कम्पलसरी है। उसके बाद आप भगवान को भी ले लीजिये, उनके नाम भी, उनके गुण भी, उनकी लीला भी, उनके धाम - सबको साथ लेकर चलिये और अच्छा है क्योंकि मन हमारा बहुत गड़बड़ है। एक चीज में मन लगा नहीं करता क्योंकि चंचल है इसलिए इन्हीं के अन्दर रखना है। लेकिन प्रमुख जो हमारा लक्ष्य होना चाहिये वो महापुरुष में होना चाहिये।
हमारे देश में जितने सिद्धान्त अभी तक बने, वैदिक काल से अब तक, उसमें दो ही उपासना बतलाई जाती है - या तो केवल गुरु की उपासना की जाय अथवा गुरु प्लस भगवान दोनों की भक्ति एक-सी की जाय।
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मनः।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद 6-23)
वेद कहता है जैसी भक्ति इष्टदेव के प्रति हो, जितनी मात्रा की, वैसी ही भक्ति गुरु के प्रति हो।
तो गुरु प्लस भगवान दोनों को बराबर मानकर उपासना करना है, साथ में नाम भी रहे, गुण भी रहे, लीला भी रहे, धाम भी रहे, महापुरुष का नाम रहे, भगवान का नाम रहे, महापुरुष का गुण रहे, भगवान का गुण रहे, महापुरुष की लीला रहे, भगवान की लीला रहे, सब बराबर हैं।
और या तो फिर केवल गुरुभक्ति हमारे शास्त्रों में, वेद में, संप्रदायों में चल रही है। भई! जब भगवान को हमने देखा नहीं, समझा नहीं, वह हमारी बुद्धि में समाता नहीं तो जो भगवान के बराबर ही सामान है, और सामने है उसको हम जल्दी पकड़ लेंगे। तो कुछ लोग गुरुभक्ति ही करते हैं लेकिन केवल गुरुभक्ति करना उसी के लिये उपयुक्त है जिसकी गुरु में निष्ठा परिपक्व हो गई है।
जिसकी निष्ठा परिपक्व नहीं हुई है उसे दोनों को साथ लेकर चलना चाहिये और इस प्रकार दोनों को साथ रखने में और भी बहुत सामान मिलता है। भगवान की लीला भी मिली, महापुरुष की लीला भी मिली, महापुरुष के गुण हैं, भगवान के भी गुण हैं, सब कुछ सामान है।
तो चूँकि मन गड़बड़ है साधनावस्था में इसलिये अनेक प्रकार का सामान दो। बाललीला के स्मरण में उदासी आ गई, अब किशोर लीला दो, अब वात्सल्य भाव दो, अब सख्य भाव दो। तो लुभाये रहिये मन को उसी ईश्वरीय जगत में, वो नीचे न आने पावे।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'नाम-महिमा' प्रवचन पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
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(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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