साधक का लक्ष्य अपना उत्थान करना होता है, परन्तु साधनावस्था में कंचन, कामिनी और कीर्ति की कामना पतनकारक बन जाती है!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 329
★ भूमिका - निम्नांकित पद भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित 'प्रेम रस मदिरा' ग्रन्थ के 'सिद्धान्त-माधुरी' खण्ड से लिया गया है। 'प्रेम रस मदिरा' ग्रन्थ में आचार्य श्री ने कुल 21-माधुरियों (सद्गुरु, सिद्धान्त, दैन्य, धाम, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, मान, महासखी, प्रेम, विरह, रसिया, होरी माधुरी आदि) में 1008-पदों की रचना की है, जो कि भगवत्प्रेमपिपासु साधक के लिये अमूल्य निधि ही है। इसी ग्रन्थ का यह पद है, जिसमें अपने कल्याण की चाह में लगे साधक-जन के लिये कुछ महत्वपूर्ण सावधानियाँ आचार्यश्री द्वारा बतलाई गई हैं। आइये हम इसके प्रत्येक शब्द पर गंभीर विचार करते हुये लाभ प्राप्त करें ::::
कहत हम खरी खरी कछु बात।
बुरा न मानिय साधक-जन कछु, सोचिय समुझिय तात।
कंठी-तिलक धारि वैष्णव बनि, गणिकनि राखत नात।
सबहिं योगवाशिष्ठ सुनावत, ममता-मद बलकात।
करत अनंत शिष्य पै इंद्रिन, शिष्य रहत दिन रात।
रसिकनि लखि जरि जात मंदमति, विषइन सों बतरात।
महारास-रस भेद बतावत, जहँ विधि-बुधि बौरात।
निज कहँ कहत 'कृपालु' दीन पै , रोम रोम मदमात।।
भावार्थ - साधना अवस्था मे कंचन, कामिनी एवं कीर्ति के चक्कर में पड़ जाने वाले, लोकरंजन का ही लक्ष्य-मात्र रखने वाले साधको! हमारी निम्नलिखित स्पष्ट हित की भावना से कही हुई बातों का बुरा न मानना। क्योंकि हम कुछ स्पष्ट बातें कहने जा रहे हैं। इसको निष्पक्ष होकर एकान्त में सोचने समझने का प्रयत्न करना। ऐसे दंभी, कंठी पहिनकर एवं तिलक लगाकर वैष्णव बनने का दावा रखते हुए भी, वेश्याओं से सम्बन्ध रखते हैं। चार-अक्षर पढ़ लेने के कारण सबको योगवशिष्ठ नामक ग्रंथ जिसमें ब्रह्म का ज्ञान लिखा है, जिसका अधिकारी साधन-चतुष्टय-सम्पन्न ही होता है , सुनाया करते हैं और स्वयं सांसारिक जीवों की आसक्ति में बँधे हैं। वे दंभी यों तो कान फूँक-फूँक कर अनन्तानन्त चले बनाते हैं, पर स्वयं अपनी ही इन्द्रियों के निरन्तर चले बने रहते हैं, वास्तविक महापुरुषों को देखकर वे दंभी लोग मूर्खतावश जलने लगते हैं, उनके पास तक जाना पसन्द नहीं करते, दूर से ही निंदा किया करते हैं किंतु स्वयं विषयी जनों से बातें एवं उनकी प्रशंसाएं किया करते हैं। जिस संसार का प्रतिक्षण अनुभव हो रहा है फिर भी उससे वैराग्य नहीं हो पाता। किन्तु ऐसी अवस्था वाले भी दम्भी, ब्रह्म आदि की बुद्धि से भी अतीत, अपनी ही कोटि वाले नारकीय जीवों से समक्ष महारास का रहस्य समझाते हैं। 'श्री कृपालु जी' अपने लिए कहते हैं कि मैं भी स्वयं अपने-आपको सबके सामने दीन कहा करता हूँ किन्तु मेरे रोम-रोम में अभिमान भरा पड़ा है।
०० रचनाकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'प्रेम रस मदिरा' ग्रन्थ, सिद्धान्त-माधुरी, पद 33
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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