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रसिक संतों, महापुरुषों द्वारा दिया गया भगवत्कथा का दान सबसे बड़ा है; जानिये संसार में पाये जाने वाले 6 प्रकार के लोग कैसे होते हैं?

 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 339


(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'नारद भक्ति दर्शन' की व्याख्या के 9-वें प्रवचन के इस अंश में उनके श्रीमुख से महापुरुषों व रसिक-संतों द्वारा संसार में भगवान की कथा के दान की महानता, सर्वोच्चता का वर्णन है। साथ ही, महापुरुषों के दिव्य गुण अथवा स्वभाव का भी वर्णन है कि किस प्रकार वे अपना अनिष्ट करते हुये, कष्ट सहकर भी हम पापी मनुष्यों के उद्धार के लिये अथक परिश्रम करते हैं.....)

...अगर ये सौभाग्य मिल जाय कि कोई रसिक भगवान् की बात सुनावे तब तो फिर क्या बात है? लेकिन अगर ऐसा सौभाग्य न हो, कोई मायाबद्ध ही भगवान् की कथा सुनावे, तो भी हमारा लाभ हो सकता है लेकिन एक बात की सावधानी बरतनी होगी कि मायाबद्ध कथा सुना सकता है, जैसी लिखी है, लेकिन वह सिद्धान्त सुनायेगा तो सब बंटाढार कर देगा। यानी वो पहले वाला श्रवण जो है तत्त्वज्ञान का वो तो केवल सिद्ध महापुरुष ही करा सकता है और दूसरा वाला जो श्रीकृष्ण लीला आदि सम्बन्धी कथा है, ये मायाबद्ध भी करता है, कर सकता है, जिसका लक्ष्य केवल ये है - चढ़ावा कितना होता है, भागवत के अन्तिम दिन। उसको इतने से मतलब है केवल।

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः॥
(भागवत 10-31-9)

गोपियां श्यामसुन्दर के वियोग में कहती हैं - महाराज! आपकी जो कथा है वह तीन तापों से तपने वालों के ताप को शान्त कर देती है। और बड़े-बड़े जीवन्मुक्त अमलात्मा परमहंस भी इस कथा से अपनी समाधि भुला देते हैं।

आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।
(भागवत 1-7-20)

कैसे?

इत्थं भूतगुणो हरिः।

अरे ! शुकदेव परमहंस ने गुण सुना था;

अहो बकीयं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम।।
(भागवत 3-2-23)

पूतना को भी गोलोक दे दिया श्रीकृष्ण ने, इतने दयालु हैं - ये सुनकर ही शुकदेव परमहंस भागे-भागे आये और सिद्धावस्था को प्राप्त करने के बाद फिर प्रारम्भिक श्रवण किया, भागवत का 'श्रोतव्यः' पहले, 'मन्तव्यः' बाद में और 'निदिध्यासितव्यः' अन्त में। अन्त में पहुँचने वाले परमहंस शुकदेव भी प्रारम्भिक क्लास में दाखिला लिये। 'श्रोतव्यः' क्योंकि कथा का श्रवण ऐसा है कि ये प्रारम्भ भी है और अनन्त काल तक है और इस कथा को 'भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः', जो इस कथा का दान करते हैं, रसिक लोग, उसके बराबर कोई दान नहीं हो सकता यानी एक तो सन्तों के द्वारा दिया हुआ तत्त्व-ज्ञान और उससे बड़ा दान उन महापुरुषों के द्वारा दिया हुआ, ये कथा का दान। देखिये! महापुरुष लोग अपना अनिष्ट करके हम लोगों का इष्ट करते हैं;

भूर्ज तरू सम सन्त कृपाला।

भोजपत्र का पेड़ होता है, उस पेड़ की छाल होती है तो एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक। सब निकाल लो तो पेड़ जीरो बटा सौ, वो छालों का लिपटा हुआ एक पुंज ही पेड़ होता है। देखिये! छः प्रकार के लोग होते हैं। हाँ, जल्दी समझियेगा ध्यान देकर। अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना। आप लोग सोचते तो हैं और बोलते भी हैं, अपने छोटों के आगे - हैं-हैं-हैं, मैं भी कुछ अकल रखता हूँ और छोटी-सी बात जल्दी नहीं समझते, हमको डिटेल करना पड़ता है। अपना अनिष्ट करके भी दूसरे का अनिष्ट करना - ये सबसे निम्न क्लास के लोग होते हैं। हमारा नुकसान हो जाय तो हो जाय लेकिन उसका नुकसान ज़रूर करना है। अरे! ये कौन-सी समझदारी की बात है कि अपना नुकसान कर रहे हो, उसके नुकसान करने के चक्कर में। लेकिन होते हैं ऐसे;

जे बिनु काज दाहिने बायें।

तो अपना अनिष्ट करके दूसरे का अनिष्ट करना, सबसे खराब, नम्बर एक। इससे अच्छा, अपने इष्ट के लिये दूसरे का अनिष्ट करना यानी अपने फायदे के लिए दूसरे का नुकसान कर देना। ये पहले वाले से कुछ अच्छे हैं, नम्बर दो और तीसरा अपने इष्ट के लिये दूसरे का इष्ट करना यानी अपना भी लाभ हो इसका भी हो, फिफ्टी-फिफ्टी ये उससे भी अच्छा है, नम्बर तीन और नम्बर चार अपने इष्ट के लिए दूसरे का अनिष्ट न करना। नम्बर पाँच, दूसरे का ही इष्ट करना और नम्बर छः, अपना अनिष्ट करके दूसरे का इष्ट करना। अपना नुकसान भले ही हो जाय लेकिन इसका लाभ हो जाय। महाराज! हमको नरक में वास दे दो लेकिन इन जीवों का कल्याण करो - ये महापुरुषों का सिद्धान्त है। आप लोग इसको सोच नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते।

एक बात देखिये, आप लोग जब गहरी नींद में सोते होते हैं और आपकी बीबी, आपकी माँ, आपकी बहिन, आपका बेटा, आपका बाप, कोई जगाता है और आप जगते हैं - 'क्या है?' जागते ही गुस्सा करते हैं। 'सोने दो न'! यानी कष्ट हुआ आपको। हाँ जी, गहरी नींद में आराम से सो रहे थे - 'सुखमहमस्वाप्सम्' और जगा दिया, वो बाप हो, चाहे माँ हो, चाहे बीबी हो, चाहे कोई हो। अब अगर छोटे ने जगाया तो डाँट लगाकर फिर तान दिया चद्दर और अगर बड़े ने जगाया और डर है तो फिर कुड़कुड़ा करके उठा किसी प्रकार। पिता जी जगा रहे हैं, बच्चे को स्कूल जाना है। अब अगर फिर तान लेंगे चद्दर तो झापड़ भी पड़ सकता है, कहीं एक बाल्टी पानी ही छोड़ दे बाप। डर के मारे उठेगा। तो देखो! ये नींद का सुख छोड़ना आपको कितना खल रहा है तो जिसको अनलिमिटेड हैप्पीनेस, अनन्त प्रेमानन्द श्यामसुन्दर का, दर्शनादि का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है कि जब चाहे तब ले, वह अपने उस रस को छोड़कर और हमको तत्त्वज्ञान करावे, गन्दी-गन्दी बातों की एक्ज़ाम्पिल देकर समझावे;

कामिहिं नारि पियारि जिमि, लोभिहिं प्रिय जिमि दाम।

भगवान् कैसे प्यारे लगें। कैसे लगें ? कैसे समझावें इन गधों को? तो;

युवतीनां यथा यूनि, यूनां च युवतौ यथा।
मनोऽभिरमते तद्वन्मनो मे रमतां त्वयि॥
(पद्म पुराण)

वही 'कामिहिं नारि पियारि जिमि', तो ये तमाम अनावश्यक विषय सोचना, किताब में लिखना, लेक्चर देना - ये सब तो हमारे देखने में तो कुछ नहीं लगता, लेकिन अपने आनन्द को छोड़कर वे लोग हमारे लिये जो इतना लेबर कर रहे हैं, ये अपना अनिष्ट करके यानी इष्ट को छोड़ दिया, उन्होंने उतनी देर के लिये। पतन नहीं होगा उनका, डरो मत लेकिन उस आनन्द पर कन्ट्रोल करना पड़ा उनको और फिर हमारे समान संसार में रहना पड़ा, एटीकेट सीखना पड़ा। ऐ! कपड़ा पहन कर आना महात्मा जी, नंगे-वंगे आये तो हम गृहस्थी लोग पागल समझ कर तुमको पागलखाने में बन्द करवा देंगे। बाकायदा कपड़ा पहनो, ढंग से रहो। ढंग से बात करो सब। नैचुरैलिटी नहीं चलेगी, हम लोगों के बीच में, नैचुरैलिटी। नेचुरल अवस्था क्या है। वही;

मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।

एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः।
हसत्यथो रोदिति रौतिगाय त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः।।
(भागवत 11-2-40)

वह तो पागल की अवस्था है, नैचुरैलिटी उनकी। संसार से परेशान हुए, हिरन में आसक्ति हुई जड़ भरत की और पुनर्जन्म हुआ तो अबकी बार उन्होंने कहा - हम शास्त्र वेद पढ़ेंगे ही नहीं, पढ़े ही नहीं कुछ वो पूर्व जन्म का ज्ञान रखा हुआ रिजर्व मिल गया और पागल बन कर के, नंगे-धडंगे जहाँ मन में आया बैठ गये, लेट गये। न नहाना, न धोना, न कोई हिसाब न किताब शरीर का, न संसार की परवाह तो लोग समझे पागल हो गया है कोई। उन्होंने कहा, चलो अब तो छुट्टी मिली। अब कभी हिरन में आसक्ति तो नहीं होगी। तो नैचुरैलिटी से रहना है तो लोक-कल्याण नहीं कर सकता कोई भी महापुरुष या भगवान्। नेचुरल रहना है, जाओ गोलोक और हमारे संसार में रहना है तो हमारे संसार के नियमों का पालन करो। ये सब कष्ट करता है महापुरुष, हम लोगों के कल्याण के लिये। इसे हम लोग सोच नहीं सकते। जब जरा से एक माँ बच्चे को चिपटाये है - ये दस महीने बाद मिला है, खो गया था। एक प्रेयसी प्रियतम को चिपटाये है, प्रथम बार मिल रही है, इतने दिन के चिन्तन के बाद और उसी समय कोई डिस्टर्ब करे बीच में तलवार लेकर, रिवॉल्वर लेकर खड़ा हो जाय तो कितना कष्ट होगा उसको? और जो परमानन्द में लीन रहने वाला महापुरुष, वो हमारे लिये इतना परिश्रम करे अपने इष्ट को उसने छोड़ा उतनी देर के लिये, आनन्द को छोड़ा, योगमाया से कन्ट्रोल किया, उसके ऊपर इसलिए यह छठवाँ है अपना अनिष्ट करके भी दूसरे का इष्ट करना।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'नारद भक्ति दर्शन' प्रवचन (व्याख्या)
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

*+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -?
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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