द्वारिका, मथुरा और ब्रजधाम तीनों ही रस के धाम हैं, परन्तु इनमें उत्तरोत्तर सरसता का एक क्रम है, वह क्या है, आइये जानें!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 352
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 70-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि भगवान श्रीकृष्ण का विशुद्ध माधुर्य स्वरूप ब्रजधाम में प्रगट होता है, ब्रजधाम का यही स्वरूप प्रेम/भक्ति का सर्वश्रेष्ठ रस जीवों को प्रदान करता है....
सबै सरस रस द्वारिका, मथुरा अरु ब्रज माहिँ।
मधुर, मधुरतर, मधुरतम, रस ब्रज रस सम नाहिँ॥70॥
भावार्थ - द्वारिका, मथुरा एवं ब्रज इन तीनों का ही रस माधुर्य रस व्याख्या युक्त है। क्योंकि श्रीकृष्ण रस सागर के ही धाम हैं। फिर भी द्वारिका से मथुरा, एवं मथुरा से ब्रजरस अधिक सरस है।
व्याख्या - अनन्त सौंदर्य माधुर्य सुधारस सार सर्वस्व श्रीकृष्ण के 3 धाम प्रमुख हैं। यथा - द्वारिका, मथुरा एवं ब्रज। एक ही गन्ने के गुड़, चीनी एवं मिश्री तीन स्वरूप हैं। तीनों धामों में दास्य, सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य भाव के रसिक हुये हैं। किंतु एक रहस्यात्मक अन्तर अवश्य है। वह यह कि द्वारिका में अधिक ऐश्वर्य एवं कम माधुर्य रहता है। और मथुरा में द्वारिका से अधिक माधुर्य एवं द्वारिका से कम ऐश्वर्य रहता है। इन दोनों धामों में भक्तों को ऐश्वर्य ज्ञान का भान बना रहता है। क्योंकि वहाँ ऐश्वर्य स्वतंत्र है। ऐश्वर्य ज्ञान से प्रेम संकुचित हो जाता है।
यथा - जब अर्जुन को विराट् ऐश्वर्य रूप दिखाया गया, तो अर्जुन सरीखा गांडीवधारी भी डर गया। काँपने लगा। प्रेम संकुचित हो गया। तब अर्जुन ने कहा कि मुझे ऐसा स्वरूप नहीं चाहिये, जिसमें सख्य रस संकुचित हो जाय। इसी प्रकार दास्य एवं वात्सल्य तथा माधुर्य भाव भी ऐश्वर्य मिश्रण से संकुचित हो जाते हैं। यह ऐश्वर्य द्वारिका में सर्वाधिक है। मथुरा में उससे कम है। भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है - गौरांगमहाप्रभु के शब्द;
ऐश्वर्य शिथिल प्रेमे नहे मोर प्रीत।
अर्थात् जो प्रेम, ऐश्वर्य मिश्रण से शिथिल हो जाता है, उसमें मुझे कम सुख मिलता है। वह मुझे कम प्रिय है। अत: द्वारिका एवं मथुरा का प्रेम प्रगाढ़ कम होता है। सारांश यह कि द्वारिका एवं मथुरा के प्रेमियों के प्रेम में इतनी प्रगाढ़ता नहीं होती कि ऐश्वर्य ज्ञान पूर्णरूप से लुप्त हो जाय। प्रेम के प्रवाह में ऐश्वर्यज्ञान के बह जाने पर जो रस मिलता है, वही ब्रजरसिकों का ब्रजरस है। इस ब्रजरस में पूर्ण ऐश्वर्य एवं पूर्ण माधुर्य रहता है किंतु ऐश्वर्य का प्रभाव तिल भर भी नहीं रहता। ऐश्वर्य चोरी चोरी ही सेवा करता है। इस माधुर्य में स्वयं भगवान् कृष्ण स्वयं को ब्रजवासियों का स्वामी, सखा, पुत्र एवं प्रियतम ही मानते हैं। अपनी भगवत्ता का भान ही नहीं रहने देते। इसी प्रकार उनके परिकरों को भी यह भान नहीं रहता कि हम गोलोक के नित्य परिकर हैं। दोनों स्वस्वरूप को भूल जाते हैं। एक बार गोवर्धन धारण के समय कुछ ब्रजवासियों को श्रीकृष्ण के प्रति ऐश्वर्य युक्त होने का संदेह हो गया। बस - श्रीकृष्ण रोने लगे। सखाओं के पूछने पर बताया कि लोग मुझे पता नहीं कैसे घूर-घूर कर देख रहे हैं। सदा वाली ममता नहीं है। फिर सब भूल गये। यह रस मधुरतम इसी से तो है।
०० व्याख्याकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या - 70
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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