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कुसंग' और उसकी हानि को समझना परमावश्यक; साधक कई बार यह समझ ही नहीं पाता कि वह कुसंग कर रहा है!!

 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 354


(भूमिका - विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने समस्त साधक समुदाय तथा जनसाधारण को आत्मकल्याण के लिये 'निष्काम-भक्ति' का सर्वसुगम मार्ग बतलाया है। इस निष्काम-भक्ति की अनेक बारीक तथा गूढ़ बातें उन्होंने बारम्बार अपने प्रवचनों व साहित्यों आदि में समझाई हैं। उन्होंने इस बात पर भी विशेष जोर दिया कि 'साधना मार्ग में साधना/भक्ति की कमाई भले ही कम हो, पर जो कमाई हो, उसकी गँवाई न हो'। अक्सर प्रमादवश, भूलवश साधक अनेक ऐसे कृत्य कर बैठता है जिससे उसकी कमाई साधना नष्ट हो जाती है। ये कृत्य 'कुसंग' हैं। श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत 'कुसंग' तत्त्व पर प्रवचन नीचे प्रकाशित किया जा रहा है। अगले 8-दिनों में विभिन्न प्रकार के कुसंग और उससे बचने के उपायों संबंधित प्रवचन क्रमशः प्रकाशित किए जायेंगे...)

★★ 'कुसंग क्या है?'

....संसार में सत्य एवं असत्य केवल दो ही तत्त्व हैं जिनके संग को ही सत्संग एवं कुसंग कहते हैं। सत्य पदार्थ हरि एवं हरिजन ही हैं अतएव केवल हरि, हरिजन का मन बुद्धि युक्त सर्वभाव से संग करना ही सत्संग है तथा उसके विपरीत अवशिष्ट विषय हैं, सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण से युक्त होने के कारण मायिक हैं, अतएव असत्य हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जिस किसी भी संग के द्वारा हमारा भगवद-विषय में मन बुद्धि युक्त लगाव हो वही 'सत्संग' है। इसके अतिरिक्त समस्त विषय 'कुसंग' हैं। (नोट - नीचे के सभी 4 दोहे जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित 'राधा गोविन्द गीत' ग्रन्थ के दोहे हैं.)

सत अर्थ हरि गुरु गोविन्द राधे।
संग अर्थ मन का लगाव बता दे।।

हरि हरि भक्त सत गोविन्द राधे।
शेष सब जगत असत है बता दे।।

'कु' का अर्थ मायिक गोविन्द राधे।
संग अर्थ मन का लगाव बता दे।।

हरि ते विमुख 'कु' है गोविन्द राधे।
मन  का  ही  संग  कुसंग  बता  दे।।

जितने टाईम तक तुम्हारे मन का संग भगवान, उनके नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, उनके संत में नहीं था, उतने टाईम मन कुसंग कर रहा था। जितने क्षण मन सुसंग में नहीं होगा उतने क्षण तक मन कुसंग में अवश्य होगा। आप कहेंगे, क्यों जी न सुसंग में हो, न कुसंग में हो, ऐसा नहीं हो सकता? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि;

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।
(गीता 3-5)

अर्थात एक क्षण को भी हम कुछ न करें, ऐसा नहीं हो सकता। और दो ही करना है - एक ईश्वरीय क्षेत्र में संग और एक सांसारिक क्षेत्र में संग, कुसंग की परिभाषा यही समझनी चाहिये कि भगवान, उनके नाम, रूप, लीला, धाम, उनके संत - इनमें से किसी में अगर आपका मन नहीं है तो वह मन कुसंग कर रहा है।

यह कुसंग कई प्रकार का होता है। इसको समझना परमावश्यक है। ताकि साधक सावधान रहे और कुसंग से बच सके। कई बार तो वह समझ ही नहीं पाता कि वह कुसंग कर रहा है।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज
०० स्त्रोत : 'साधन साध्य' पत्रिका, जुलाई 2011 अंक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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