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  अनेक शास्त्रों तथा धर्मग्रन्थों को पढ़कर भी अक्सर कुसंग हो जाता है; अर्थात सुलझन के बजाय उलझनें अधिक बढ़ जायेंगी!!
 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 358

(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'कुसंग' पर दिये गये प्रवचन से संबंधित श्रृंखला में आज चौथे कुसंग 'अनेकानेक शास्त्रों-धर्मग्रन्थों का पढ़ना' की चर्चा यहाँ प्रकाशित की जा रही है। 'जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' के भाग 354 से 'कुसंग' विषय पर विस्तृत चर्चा का प्रकाशन हो रहा है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित इस अमूल्य तत्वज्ञान से निश्चित ही हमें आध्यात्मिक हानि उठाने से बचाव के उपाय ज्ञात होंगे....)

★ चौथा कुसंग - अनेकानेक शास्त्रों-धर्मग्रन्थों का पढ़ना

...अनेकानेक शास्त्रों, वेदों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों को पढ़ना कुसंग है। चौंको मत, बात समझो। कारण यह है कि वे महापुरुष के प्रणीत ग्रन्थ हैं, अतएव उन्हें हम भगवत्प्रणीत ग्रन्थ भी कह सकते हैं। उनका वास्तविक तत्त्व अनुभवी महापुरुष ही जानते हैं। तुम उन्हें पढ़कर अनेकानेक प्रश्न पैदा कर बैठोगे, जिनका कि समाधान अनुभव के बिना संभव नहीं।

यदि किसी मात्रा में संभव भी है तो वह एकमात्र महापुरुष के द्वारा ही। अतएव हमारे यहाँ के प्रत्येक शास्त्रादि स्वयं प्रमाण देते हैं कि महापुरुष के द्वारा ही शास्त्रों का तत्त्वज्ञान हो सकता है;

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।।
(गीता 4-34)

यदि तुम शास्त्रों, वेदों को पढ़कर स्वयं ही तत्त्वनिर्णय करना चाहो तो सर्वप्रथम इस विषय में महापुरुष का ही निर्णय पढ़ लो। तुलसीदास के शब्दों में;

श्रुति पुराण बहु कहेउ उपाई।
छूटै न अधिक अधिक उरझाई।।

अर्थात यदि महापुरुष के बिना ही, अपने आप शास्त्रीय भगवद-विषयों का तत्त्वनिर्णय करने चलोगे तो सुलझने के बजाय उलझते जाओगे। सारांश यह है कि एक प्रश्न के समाधान के लिये तुम शास्त्रों में अपनी बुद्धि को लेकर उत्तर ढूँढने जाओगे, तो शास्त्रों का वास्तविक रहस्य न समझकर सैकड़ों प्रश्न उत्पन्न करके लौटोगे क्योंकि पुनः तुलसीदास ही के शब्दों में;

मुनि बहु, मत बहु, पंथ पुराननि, जहाँ तहाँ झगरो सो।
(विनय पत्रिका)

अर्थात अनेक ऋषि मुनि हो चुके हैं एवं उनके द्वारा प्रणीत अनेक मत भी बन चुके हैं। पुराणादिक में इस विषय में झगड़े ही झगड़े हैं। फिर तुम्हारी बुद्धि भी मायिक है अतएव तुम मायिक अर्थ ही निकालोगे।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज
०० स्त्रोत : 'साधन साध्य' पत्रिका, जुलाई 2011 अंक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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