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  मान अपमान (भाग - 2)
 विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और  अपमान  विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन 
 (पिछले भाग से आगे)
 मान अपमान  ये दोनों ही बहुत खतरनाक है, इसलिये दोनों को छोडऩा होगा। मान-अपमान दोनों ही न चाहें। अपमान न चाहने का मतलब कि जब हमें अपमान मिले तो हम उसको पकड़ें ना, ऐसा करने से हम कभी अशान्त नहीं होंगे और मान मिले तो भी, उसको भी नहीं पकडऩा है। उसको नहीं पकड़ेंगे तो अहंकार नहीं होगा। अगर दोनों में से एक को भी पकड़ा तो क्या होगा?
 तो फिर मन में मान या अपमान भर जायेगा। तो उस मन से फिर हम भगवान को कैसे पकड़ सकेंगे? एक ही तो मन है, चाहे उसमें मान-अपमान को रख लें, या भगवान को बिठा लें। एक मन में एक समय में एक ही चीज रह सकती है।
 युगपत् ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम।
 दोनों चीजें एक साथ, एक ही मन में नहीं रह सकतीं। तो अगर इस मन में मान भरा तो भी खतरा, अपमान भरा तो भी खतरा। किसी दुश्मन को आप दु:खी करना चाहते हैम इसलिये उसका अपमान करते हैं। यानि उसके प्रति आपके मन में द्वेष है। राग-द्वेष दोनों ही हानिकारक है। जितनी मात्रा में राग हानिकारक है, उतनी ही मात्रा में द्वेष हानिकारक है। हमें राग-द्वेष दोनों से रहित होना है।
 (क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)
 (प्रवचन संदर्भ-  अध्यात्म संदेश  पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत  एवं  राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।)

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