जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 'भक्ति शतक' ग्रन्थ में भगवान के वास्तविक भक्त/सेवक की निष्काम भावना का स्वरूप!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 418
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 15-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि भगवान का वास्तविक दास कभी भी उनसे पाँच प्रकार की मुक्ति न चाहकर एकमात्र भगवान श्रीराधाकृष्ण की सेवा तथा उनके सुख में ही सुखी होने की कामना करता है....
साँचो दास न कबहुँ चह, पाँचहुँ मुक्ति बलाय।
चहइ युगल सेवा सदा, तिन सुख सुखी सदाय।।15।।
भावार्थ - श्री कृष्ण का वास्तविक दास 5 प्रकार की मुक्ति नहीं चाहता। वह तो केवल श्यामा श्याम के सुख के लिये ही उनकी सेवा चाहता है। एवं उन्हीं के सुख में सुखी रहता है।
व्याख्या - शास्त्रों में भुक्ति एवं मुक्ति को पिशाचिनी के समान बताया गया है। यथा;
भुक्ति मुक्ति स्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते ......।
इन दोनों में भुक्ति का अभिप्राय है ब्रह्मलोक तक के सुख। यह सुख इंद्रिय जन्य मायिक विषयों का है। पूर्व में बताया जा चुका है कि माया का जहाँ तक आधिपत्य है, वह सब सुख अनित्य, सीमित एवं परिणाम में घोर दुःखप्रद हैं। इन सुखों की 3 कक्षायें हैं। सात्विक, राजस, तामस । यथा वेद;
पुण्येन पुण्य लोकं नयति पापेन पापं ......।
अर्थात् सात्विक कर्म का फल सात्विक, राजस का राजस एवं तामस का फल तामस मिलता है। तीनों ही मायिक हैं अनादिकाल से भुक्ति सुख ने जीव को मूर्ख बना रखा है अतः इसे चुड़ैल कहा है। यह पीछा ही नहीं छोड़ती। किंतु मुक्ति के विषय में बुद्धिमानों को भी आश्चर्य होता है कि उसे चुडैल क्यों कहा? मुक्ति तो भुक्ति रूपी चुडैल से छुटकारा दिलाकर ब्रह्मानंद प्रदान करती है। कृपा द्वारा ही करोड़ों जीवन्मुक्त परमहंसों में किसी बड़भागी को ही प्रेमानंद प्राप्त होता है। यथा मुक्तानामपि ......।
यथा - वेदव्यास, सनकादिक, शुकादिक। उपर्युक्त सायुज्य मुक्ति को चैतन्य देव ने कैतव माना है। यथा;
अज्ञानतमेर नाम कहिये कैतव .........।
अर्थात् धर्म अर्थ काम की कामना रखने वाले अज्ञानियों से भी बड़ा अज्ञानी सायुज्य मुक्ति चाहता है। भागवत के प्रारंभ में ही यथा - 'धर्मः प्रोज्झित कैतवः' अर्थात् भागवत में कैतव रहित (5 मुक्ति) धर्म ही है। शंकरानुयायी श्रीधर ने भी यह माना है। यह तो ठीक है कि सायुज्य मुक्ति में प्रेमानंद नहीं मिलता। अतः निंदनीय है । किंतु शेष 4 मुक्ति में तो प्रेमानंद मिलता है। इसकी निंदा या त्याग क्यों कहा जा रहा है ? दोहा लेखक का आशय यह है कि वास्तविक दास वही है जो कोई भी कामना अपने सुख के लिये न करे। और मुक्ति की कामना तो अपने लिये है। निष्काम भक्त तो श्री कृष्ण सुखैक तात्पर्यमयी भक्ति ही करता है। श्री कृष्ण के सुख के लिये ही सेवा चाहता है । एवं उनके सुख में ही सुख मानता है। अतः भागवत;
साष्टि सामीप्य सालोक्य ......।
अर्थात् उपर्युक्त पाँचों मुक्तियों को श्री कृष्ण के देने पर भी नहीं लेता। ब्रजांगनायें ही ऐसे निष्काम प्रेम की आचार्या हैं। उन्हीं की कृपा से ही ऐसा उच्चतम रस प्राप्त हो सकता है। आप सोच नहीं सकते कि ब्रजगोपियों की विरहावस्था क्या रही होगी। राधा विरह के वर्णन में संकेत किया गया है। यथा;
और्वस्तोमात्कटुरपि कथं .......।
अर्थात् यदि राधा विरह की आग के धुयें का आभास भी हृदय से बाहर निकल जाय तो समस्त विश्व भस्म हो जाय। इतनी विरहावस्था में भी वे कहती हैं। यथा;
सौख्यं नः स्याद्यदपिबलवद् .......।
अर्थात् यदि मेरे प्राणवल्लभ को मथुरा में रहकर ही सुख मिलता हो, तो वे कभी मेरे पास न आवें। भागवत में कितना अद्भुत प्रेम निरूपण है। यथा;
यत्ते सुजात चरणांबुरुहं स्तनेषु ....।
अर्थात् विरह ज्वाला को शांत करने के लिये जब गोपियाँ श्यामसुंदर के चरण के तलुओं को अपने हृदय से लगाती हैं तो अत्यंत संभाल कर धीरे से रखती हैं कि कहीं मेरे कठोर स्तन उनके कोमल चरणों में चुभ न जायँ। यह प्रेम की निष्कामता की पराकाष्ठा है। कूड़ा कबाड़ा संसारी मां-बाप स्त्री-पति आदि के प्रेमालिंगन में भी हम यह नहीं सोच सकते एक मां 10 दिन के विमुक्त शिशु को जोर से चिपटा लेती है । शिशु छटपटा जाता है। तब मां को ध्यान आता है कि मैंने स्वार्थ के लिये शिशु को कष्ट दिया। अस्तु वास्तविक एवं अंतिम रस निष्काम प्रेम में ही मिलता है।
• सन्दर्भ - 'भक्ति शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या 15
★★★
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