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  हम साधारण लोग जैसे अपने किये कर्म का अच्छा या बुरा फल भोगते हैं, क्या महात्मा लोग भी कर्म का फल भोगते हैं?
 • जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 427

साधक का प्रश्न ::: जैसे हम कर्म का फल भोगते हैं क्या सन्त महात्मा भी कर्म का फल भोगते हैं?

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::: दो प्रकार की माया होती है एक तो त्रिगुणात्मिका माया तीन गुण वाली सत्व गुण, रजोगुण, तमोगुण और एक योगमाया दिव्य माया, इन दोनों का कार्य तो एक सा होता है कार्य में अन्तर नहीं है। जैसे माया वाला कर्म करता है सब इन्द्रियों से ऐसे ही योगमाया वाला भी सब कर्म करता है इन्द्रियों से लेकिन योगमाया वाले के कर्म का फल उसको नहीं मिलता, उसका बन्धन उसको नहीं होता और माया वाले को बन्धन हो जाता है, इतना सा अन्तर है। माया वाले के मन का अटैचमेन्ट कर्म में हो जाता है और योगमाया वाले के मन का अटैचमेन्ट भगवान् में ही रहता है क्योंकि वह भगवत्प्राप्ति कर चुका है। अब उसके मन को संसार में खिंचने का कोई साधन ही नहीं। कोई भगवान् से बड़ी चीज हो, बड़ा आनन्द हो, मैटीरियल हैपीनेस हो कोई ऐसी तब तो वो खिंच जाय। जब इसका अनन्त गुना आनन्द भगवान् में है स्वर्गादिक लोकों का भी अनन्त गुना, करोड़ अरब नहीं तो फिर उसका मन संसार में क्या खिंचेगा। हाँ, ये ठीक है रसगुल्ला खायेगा महापुरुष भी और रसगुल्ला खायेगा संसारी भी, दोनों सिर हिलायेंगे, बड़ा अच्छा है। वो भगवान् का प्रसाद समझकर खा रहा है, उसका मन भगवान में अटैच्ड है वो रसगुल्ले का आनन्द नहीं ले रहा है वो अपना रामानन्द, कृष्णानन्द, प्रेमानन्द, श्यामानन्द ले रहा है और हम समझ रहे हैं जैसे हम रसगुल्ला खाके सिर हिला रहे हैं ऐसे ही यह भी हिला रहा है हमारी तरह यह भी है। यानी माया का और योगमाया का कार्य एक सा है। हम लोग शादी ब्याह करते हैं एक स्त्री होती है दो चार बच्चे होते हैं उसी में परेशान रहते हैं टेन्शन रहता है और भगवान् ने सोलह हजार एक सौ आठ शादी की और एक-एक स्त्री से दस-दस बच्चे, फिर उनके करोड़ों बच्चे इतनी बड़ी फैमिली और कोई कहीं आसक्ति नहीं, कहीं अटैचमेन्ट नहीं, कहीं टेन्शन नहीं सबको मरवा दिया आपस में लड़ा करके और हमेशा मुस्कराते रहे, शादी के पहले भी, शादी के समय भी, शादी के बाद भी, सबको मरवाने के बाद भी, एक सी स्थिति।

प्रह्लाद एक महापुरुष थे आप लोग नाम सुने होंगे। एक बार प्रह्लाद के लड़के विरोचन और प्रह्लाद के गुरु के लड़के इन दोनों में होड़ हो गयी। प्रह्लाद के लड़के ने कहा मैं राजा का लड़का हूँ, इसलिये मैं तुमसे बड़ा हूँ हमारा सम्मान करो और गुरु पुत्र कहे तुम्हारे बाप का पूज्य हमारा बाप इसलिये तुम्हारे पूज्य हम, हम बड़े हैं। अब कोई किसी की माने ही न। दोनों लड़के। तो यह हुआ कि भई इसका फैसला कैसे हो? शर्त लग गयी अगर तुम्हारी बात सही तो हमारा प्राण तुम्हारे हाथ और अगर हमारी बात सही हुई तो तुम्हारा प्राण हमारे हाथ इतनी बड़ी शर्त लग गयी, लेकिन अब फैसला कौन करे? तो गुरु पुत्र ने कहा कि तुम्हारे बाप। गुरु पुत्र के बाप ने बता दिया था कि प्रह्लाद महापुरुष है उसका कहीं लगाव नहीं है, न हो सकता है। बचपन में ही उसने भगवत्प्राप्ति कर ली थी। भगवान् का अवतार हुआ था उसके लिये। इसलिये उसने कह दिया कि तुम्हारे बाप फैसला करेंगे । गये दोनों प्रह्लाद के पास। प्रह्लाद ने कहा, तुम दोनों हमारा फैसला मानोगे, वादा करो। उन्होंने कहा, हाँ मानेंगे। तो प्रह्लाद ने कह दिया अपने पुत्र से कि तुम हार गये। यह गुरु पुत्र हमसे भी पूज्य है तुम ही से नहीं। हूँ, चढ़ा दो फाँसी पर। फाँसी के तख्ते पर खड़े कर दिये गये विरोचन। अकेला पुत्र और सारी पृथ्वी का राजा प्रह्लाद। उस जमाने में प्रजातंत्र नहीं था और मुस्कराते रहे। तब गुरु पुत्र ने कहा कि मैं तुम्हारा पूज्य हूँ, बड़ा हूँ? हाँ हाँ । तो तुमको हमारी आज्ञा मानना होगा। जो आज्ञा। इसको छोड़ दो, अपने बेटे को। उसने कहा छोड़ दो भाई। दोनों अवस्थाओं में एक सी स्थिति।

तो भगवान् और महापुरुष इन दोनों का कार्य योगमाया से होता है इसलिये कार्य तो मायिक होता है लेकिन फल कुछ नहीं मिलता उस कर्म का, वह कर्म दिव्य माना जाता है। तुलसीदास ने लिखा;

जाको हरि दृढ़ करि अंग कर् यो।
उत्पत्ति पांडु सुतन की करनी , सुनि सतपंथ डरयो।
(विनय पत्रिका)

पाण्डवों की उत्पत्ति, पाँच पति से पाँच बच्चे हुये, पाण्डव। कितना खराब करैक्टर और फिर पाँचों ने एक पत्नी बना लिया। और सुनो  द्रोपदी । जहाँ कानून बना रहे हैं रामावतार में कि;

अनुज वधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।

छोटे भाई की बीबी में दुर्भावना करने वाले को मार देने में कोई पाप नहीं। और यहाँ बड़ा भाई , छोटे भाई सबकी बीबी एक और वो सब महापुरुष हैं। ये योगमाया का कार्य है। इसलिये उसका कोई फल नहीं मिलता है। वह देखने मे आता है मायिक कर्म। कर्म का स्वरूप एक-सा लेकिन एक कर्म  योगमाया से, एक कर्म माया से। तो मायिक कर्म का फल मिलता है, योगमाया के कर्म का फल नहीं मिलता है। भगवत्प्राप्ति के बाद कुछ भी करे महापुरुष फिर उसको कोई न अच्छे कर्म का फल मिलता है न बुरे कर्म का। 

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
(गीता 3-18)

अच्छा कर्म करे तो;

कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते।
विपर्ययेण वानर्थो निरहंकारिणां प्रभो।।
(भागवत 10-33-33)

शुभ आचरण करे तो फल नहीं मिलेगा। विपर्यय; उलटा करे तो भी उसको फल नहीं मिलेगा। जैसे - गेहूँ है, चना है, ये बोरे में बन्द है; अगर उसको हम डाल देते हैं खेत में तो उसमें पेड़ पैदा हो जाता है अंकुर होकर के लेकिन अगर गेहूँ को, चने को, लावा बना लें, भून लें भाड़ में और फिर खेत में डालें तो;

भर्जिताः क्वथिता धानः प्रायो बीजाय नेष्यते।

फिर उसमें पेड़ नही पैदा होगा क्योंकि बीज शक्ति भस्म हो गयी। ये माया की जो शक्ति है अविद्या ये समाप्त हो जाती है, भगवत्प्राप्ति के बाद। इसलिए उसके कार्य को संसार देखता है लेकिन वह कार्य नहीं वह कर्म नहीं। वह अलौकिक कर्म है। उसके नीचे होता है निष्काम कर्म, वो अलौकिक कर्म है योगमाया वाला और साधक जो कर्म करता है जिसमे मन का अटैचमेंट भगवान में हो  और इन्द्रियों से कर्म हो, थोड़ा बहुत करते हैं आप लोग भी, जैसा मैंने बताया रूपध्यान भी कर रहे है कर रसना से लाइन भी गा रहे हैं पद की, बाजा भी बजा रहे हैं, झाँझ भी बजा रहे हैं, ये थोड़ा-थोड़ा आप भी कर लेते हैं। यही अभ्यास बढ़ते-बढ़ते ये उच्च कोटि के साधक को वहाँ पहुँचा देता है कि अटैचमेन्ट नहीं है कर्म हो रहा है। तो ये उच्च कोटि के साधक भी ऐसे कर्म कर लेते हैं जिसका फल न मिले। बस मन का अटैचमेन्ट न हो सीधी-सीधी बात है। यह कर्म की संक्षिप्त परिभाषा है।

• सन्दर्भ - प्रश्नोत्तरी, भाग 2, प्रश्न संख्या 30

★★★
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(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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