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 भुक्ति और मुक्ति की कामनाओं को भक्तिमार्ग में त्यागना होगा; बिना इसके भक्ति पथ पर नहीं बढ़ा जा सकता!!
 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 435

महत्वपूर्ण बिन्दु :
• किन कामनाओं को त्यागना होगा?
• रागानुगा भक्ति या नवधा भक्ति
• कलियुग के लिये सर्वसुगम साधना
....आदि पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन!!

...भक्ति में सर्वाभिलाषिता शून्यं की शर्त है, अर्थात सब प्रकार की कामनाएँ त्याज्य हैं। सब प्रकार की कामनाएँ अर्थात दो ही कामनाएँ प्रमुख हैं - (1) भुक्ति और (2) मुक्ति। जितना संसार अर्थात माया का सुख एवं ऐश्वर्य है, इनकी कामना का नाम भुक्ति और संसार की बीमारी से मुक्त हो जाना मुक्ति।

इन दोनों कामनाओं को छोड़ दो तो आ गई भक्ति। सब प्रकार की कामनाओं से रहित होना है। वैधी भक्ति में ज्ञान, कर्म आदि सब दास बनकर रहेंगे, अनुगत बनकर रहेंगे, परंतु रागानुगा भक्ति में ज्ञान, कर्म आदि का स्पर्श भी नहीं रहेगा। वैधी भक्ति, गीता का सिद्धान्त है और रागानुगा भक्ति भागवत का सिद्धान्त है, भागवत परमहंस संहिता कहलाती है, परमहंस लोग जहाँ खड़े हैं, वहाँ से भागवत प्रारंभ होती है और गीता तो जहाँ अर्जुन आसक्तिवश अज्ञान अवस्था में खड़ा है, वहाँ से प्रारंभ होती है। अज्ञानी के लिये गीता और ज्ञानियों की अंतिम सीमा पर पहुँचे हुए जीवन्मुक्त शुकदेव परमहंस के लिये भागवत। 

रागानुगा भक्ति में कोई विधि, कोई निषेध, कोई वैदिक कायदे-कानून नहीं। रागानुगा भक्ति वालों के लिये ज्ञान, कर्म, योग, तपश्चर्या सब त्याज्य है, इनका स्पर्श भी न होने पाये। शास्त्र वेद को समझना, फिर उसके अनुसार चलना, ये कलियुग में तो असंभव है। जो अपने को भीतर से निर्बल, असहाय, अकिंचन, निराधार स्वीकार कर ले, बस! उस पर कृपा हो जाती है। जब कभी ये संयोग बनेगा, कोई महापुरुष मिलेगा और उसके प्रति अनुकूल ही चिंतन होगा, तब शरणागति का अध्याय प्रारंभ होगा। तब उसके आदेश के अनुसार हम साधना करेंगे, तब हमारा अंतःकरण शुद्ध होगा, तब अपने लक्ष्य की प्राप्ति होगी। रागानुगा भक्ति में मोक्ष पर्यन्त की कामनाएँ न हो और ज्ञान, कर्म, योग, तपश्चर्या किसी प्रकार के साधन का हस्तक्षेप न हो।

नवधा भक्ति में भी स्मरण भक्ति है और साथ में कीर्तन भी महत्वपूर्ण है। जब हम महापुरुषों द्वारा रचित पदों को बार बार कहेंगे तो उनमें वर्णित लीला, गुण आदि का चिंतन कुछ न कुछ मात्रा में तो अवश्य होगा। इसलिये शास्त्रों वेदों में संकीर्तन का विशेष महत्व बताया गया है, परन्तु स्मरण प्रमुख है। इस प्रकार साधना भक्ति करने के पश्चात हम भाव भक्ति पर पहुँचते हैं। प्रेमाभक्ति और साधना भक्ति के बीच में है - भाव भक्ति। भाव भक्ति उसे कहते हैं जिसमें भगवान में मन लगने लगे। जिस दिन वो कीर्तन, भजन, स्मरण हमको न मिले, हम न करें तो परेशान हों कि आज का दिन तो व्यर्थ गया। मन लगाने का अभ्यास करना, ये साधना भक्ति और मन लगने लगना, ये भाव भक्ति और मन लग गया तो भाव भक्ति सम्पूर्ण हो गई, तब गुरुकृपा से वो प्रेमाभक्ति मिलती है। प्रेम कृपा साध्य ही है।

• सन्दर्भ ::: जगदगुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित मासिक सूचना पत्र, जून 2012 अंक.

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