यदि हमने भगवान के प्रेमराज्य में कदम रखा है, तो सफलता के लिये किन दो शर्तों को अनिवार्यतः पूरा करना होगा?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 439
महत्वपूर्ण बिन्दु :
• प्रेम का स्वरूप कैसा हो?
• प्रेम मार्ग की अनिवार्य शर्तें क्या हैं?
• भक्ति शब्द का अर्थ क्या है?
....आदि प्रश्नों पर जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा मार्गदर्शन!!
प्रेम की परिभाषा में दो बातें खास हैं। एक तो निरंतर हो, और एक, निष्काम हो। अपने सुख की कामना न हो। अपने सुख की कामना आई तो अपना सुख पूरा हुआ सेंट परसेन्ट, तो प्यार सेंट परसेन्ट। अपना सुख अगर उससे कम सिद्ध हुआ, तो प्रेम कम। बिल्कुल नहीं सिद्ध हुआ स्वार्थ उससे, प्रेम कम। यह तो संसार में होता है, यह तो व्यापार है। हम चाय में, दूध में एक चम्मच चीनी डालें, थोड़ी मीठी। दो चम्मच डाला, और मीठी हो गई। तीन चम्मच डाला, और मीठी हो गई। यह तो ऐसा बिजनेस है। यह प्रेम नहीं। इसलिये एक दिन में दस बार आपका प्रेम स्त्री से, पति से, बाप से, बेटे से, अप-डाउन, अप-डाउन होता रहता है। स्वार्थ की लिमिट के अनुसार।
तो सबसे पहली शर्त है, अपने सुख को छोड़ना होगा। यहीं हम फेल हो जाते हैं। अनंत बार भगवान मिले हमको, अनंत बार संत मिले हमको। हम उनके पास गये लेकिन अपने सुख की कामना, अपने स्वार्थ की कामना लेकर गये।
आज हमारे संसार में करोड़ों लोग भगवान के भक्त दिखाई पड़ते हैं। वो चाहे खुदा को मानें, चाहे गॉड को मानें, चाहे राम-श्याम को मानें, लेकिन 99.9 परसेन्ट लोग अपनी कामना ले के जाते हैं भगवान के मन्दिर में।
हमारे इण्डिया में एक तिरुपति मन्दिर है। ओ, वहाँ करोड़ों की भेंट चढ़ती है। एक-एक आदमी करोड़-करोड़ रुपया दान करता है। क्यों? यह हल्ला मचा हुआ है कि यह हमारे संसार की जो भी हमारी कामना होगी, उसको पूरा कर देंगे। बस, भीड़ चली आ रही है। अरे जो लोग मर जाते हैं बाबा लोग, फ़क़ीर लोग, और कहीं उनकी हड्डी है गड़ी हुई, वहाँ जाते हैं लोग। ये हमारी इच्छा पूरी कर देंगे। सब सकाम। और वह कामना भी भगवान सम्बन्धी हो, तो कोई बात नहीं। संसार माँगने के लिये। धन मिले, प्रतिष्ठा मिले, वैभव मिले, इसके लिये जाते हैं। यही सबसे बड़ी रुकावट है प्रेम पाने में। अपनी कामना छोड़ना होगा। नारद जी ने प्रेम की परिभाषा की;
न सा कामयमाना।
नारद भक्ति का सातवाँ सूत्र। कामना-रहित होना चाहिये। कामना आई, तो उसका नाम भक्ति नहीं। उल्टा हो गया यह तो। भक्ति शब्द का अर्थ है, सेवा। सेवा माने क्या होता है? जैसे एक माँ छोटे से बच्चे की सेवा करती है। इस समय बच्चा कुछ नहीं सेवा करता माँ की, माँ सेवा करती है। ऐसे ही, हम अगर दास हैं शास्त्र वेद के अनुसार भगवान के, तो हम भगवान की सेवा करना चाहते हैं न। तो सेवा में भगवान को सुख देने की भावना होनी चाहिये, अपने सुख देने की नहीं। अपने को सुख देने की भावना कर-करके अनन्त जन्म दुःखी रहे। अगर भगवान के सुख देने की भावना करके भगवान से प्यार करते, तो अनन्त बार भगवत्प्राप्ति हो गई होती!!
• सन्दर्भ ::: 'साधन साध्य' पत्रिका, अक्टूबर 2013 अंक
★★★
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