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  अगर भगवान बिना कारण के ही कृपा कर देने वाले हैं तो फिर वे हम सभी जीवों पर कृपा क्यों नहीं कर देते हैं?
 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 442

जिज्ञासा ::: अगर भगवान् अकारण करुण हैं तो फिर हम सब जीवों पर कृपा क्यों नहीं कर देते?

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::: कुछ लोगों का प्रश्न है कि शास्त्रों वेदों में भगवान् को अकारण करुण कहा गया। अकारण करुण अर्थात् बिना कारण के कृपा करने वाले, दया करने वाले। लेकिन ये बात लॉजिक से तर्क से जँचती नहीं। क्यों? अगर भगवान् अकारण करुण हैं तो फिर हम सब जीवों  पर कृपा क्यों नहीं कर देते। सब जीव आनन्दमय हो जायें, मायातीत हो जायें। ये वेदों से लेकर रामायण तक सभी ग्रन्थों में साधना बताई जाती है। जीवों के लिये उपदेश दिये जाते हैं ऐसा करो, ऐसा करो, तो भगवान् करुणा करेंगे, कृपा करेंगे। फिर अकारण करुण कहाँ रहे फिर तो बिजनिस मैन हो गये भगवान् भी। हमने कुछ किया तो भगवान् ने कृपा किया। ये तो ऐसी बात हो गई जैसे कोई दुकानदार अपना दुकान कपड़े की खोले है हमने रुपया दिया उसने कपड़ा दिया। ये तो लेन देन है।
 
अकारण कृपा तो उसे कहते हैं हम कुछ न करें और वो कपड़ा दे दे, कृपा कर दे। ऐसी कृपा तो भगवान् ने कभी की नहीं। अन्यथा भगवान् में एक गुण है वेद कहता है-

अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोऽविजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसंकल्पः।
(छान्दोग्योपनिषद)

ये दो बार आया है मंत्र। इसका अर्थ है कि भगवान् में आठ गुण हैं अलौकिक उसमें एक गुण का नाम है सत्यसंकल्प। यानी जो सोचा हो गया। करना वरना नहीं है। बस सोचा संसार बन जाओ, बन गया। संसार का प्रलय हो जा। सोचा और हो गया। जैसे हम लोग सोचते हैं फिर प्रैक्टिकल वर्क करते हैं फिर भी सफलता मिले न मिले, डाउट। और भगवान् ! ये सब कुछ नहीं है, बस सोचा और हो गया। और कोई चीज़ भगवान् के लिये असम्भव भी नहीं। हाँ-

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः।
स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम्॥
(श्वेताश्वतरोपनिषद 3-19)

ये वेद मंत्र कहता है भगवान् बिना हाथ के पकड़ लेते हैं, बिना पैर के दौड़ लेते हैं, बिना आँख के सब कुछ देखते हैं, बिना कान के सुन लेते हैं और कान से देख लेते हैं, सूंघ लेते हैं, सोच लेते हैं, जान लेते हैं। यानी एक इन्द्रिय से सब इन्द्रियों का काम भी कर लेते हैं। यानी इम्पॉसीबिल को पॉसीबिल करते हैं। सर्वसमर्थ भगवान्। तो फिर क्या बात है। एक संकल्प कर लो अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के समस्त जीव माया से उत्तीर्ण होकर आनन्दमय हो जायें। बस हम लोगों का काम बन जाय। चौरासी लाख की चक्की पीस रहे हैं हम लोग छुट्टी मिले पर ऐसा आज तक हुआ नहीं। और कुछ जीव आनन्दमय हो गये। ये भी इतिहास कहता है। ये ब्रह्मा हैं, शंकर हैं, विष्णु हैं, नारद हैं, सनकादिक, जनकादिक, शुकादिक, व्यासादिक, शंकराचार्यादिक, तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम, तमाम सन्त आनन्दमय हो गये। क्यों हो गये? अगर अकारण कृपा करते तो उन पर किया तो हम पर भी करते। नहीं नहीं, उन लोगों ने साधना की तब कृपा किया। और हम लोगों ने साधना नहीं की, सरैण्डर नहीं किया, भक्ति नहीं किया।

तो ये सरेन्डर और भक्ति की शर्त जो लगा दिया तो ये अकारण कैसे हुआ? ये प्रश्न है। हाँ बात ठीक है लेकिन गलत है। क्या मतलब? मतलब ये कि भक्ति से कृपा नहीं होती। भक्ति से भगवान् मिलते हैं ये बोला जाता है। लेकिन ये फैक्ट नहीं है। क्यों? क्योंकि हम भक्ति किससे करेंगे? मन से, इन्द्रियों से। हाँ। तो इन्द्रियों की भक्ति तो भगवान् नोट ही नहीं करते। अर्जुन करोड़ों मर्डर करता है भगवान् नोट ही नहीं करते। क्यों? उसका मन भगवान् के पास है। तो मन का जो कर्म है वो भगवान् नोट करते हैं। ठीक है मन का कर्म नोट करते हैं। मन से भक्ति करे कोई तो भगवान् कृपा करते हैं। यही तो हुआ। नहीं नहीं। मन से भक्ति करने से क्या होता है ? ये समझिये।

 मन से भक्ति करने से मन का मैल धुलता है। मन निर्मल होता है। निर्गुण होता है यानी शुद्ध होता है। जो संसार का अटैचमेन्ट है वो चला जाता है। बस। यानी मन का बर्तन खाली हो गया। उसमें कूड़ा कचरा जो था माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति, धन, प्रतिष्ठा ये सब वासनायें, ये खतम हो गईं। वो बिल्कुल नॉर्मल हो गया मन। क्लीन कहते हैं उसको। बस, भक्ति ने इतना किया। अब इसके आगे भगवान् का दर्शन वगैरह ये नहीं कर सकती भक्ति। क्योंकि भक्ति जिससे करते हैं वो मन मायिक है। माया का बना हुआ है और भगवान् दिव्य हैं। तो मायिक मन से दिव्य भगवान् का ग्रहण नहीं हो सकता। मायिक आँख से दिव्य भगवान् को हम नहीं देख सकते। हमारे बगल में बैठे हों और हम देख रहे हैं। हाँ। ये तो हमारी तरह है। और वो भगवान् बैठे हैं।

जाकी रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥

दिव्य भगवान् को देखने के लिये दिव्य नेत्र चाहिये, दिव्य कान चाहिये, दिव्य नासिका चाहिये, दिव्य रसना चाहिये, दिव्य त्वचा चाहिये, दिव्य मन चाहिये, दिव्य बुद्धि चाहिये। वो हमारे पास नहीं है। भक्ति से भी नहीं आयेगी वो। शुद्ध हो गया मन, बस। इससे न भगवान् मिलेंगे न भगवान् की कोई दिव्य वस्तु मिलेगी। शुद्ध किए बैठे रहो। फिर क्या होगा इसके बाद? मन शुद्ध होने के बाद फिर भगवान् महापुरुष के द्वारा उसमें दिव्य शक्ति भर देते हैं ये कृपा। अब आई अकारण कृपा यानी अपनी शक्ति से भगवान् आँख में दिव्य आँख, कान में दिव्य कान अपनी पॉवर को भर देते हैं। यानी इन्द्रियों को, मन को, बुद्धि को दिव्य बना देते हैं। ये हमारी साधना का फल नहीं है। हमारी साधना से, भक्ति से तो खाली मन शुद्ध हुआ। अब उसको दिव्य बनाने के लिये भगवान् की अकारण कृपा चाहिये। अगर वो नहीं तो हम बैठे रहते हम भगवान् का दर्शन नहीं कर सकते। माया समाप्त नहीं होती। चौरासी लाख में घूमते रहते। और अनन्त जन्मों के जो हमारे पाप पुण्य हैं वो भी भस्म नहीं होते। तो अकारण कृपा से भगवान् हमारी इन्द्रिय, मन, बुद्धि को दिव्य बना देते हैं। तब हम भगवान् का दर्शन करते हैं। ये जो बड़े बड़े सन्त हुये उन्होंने तब देखा भगवान् को उनसे बात की, उनका स्पर्श किया, उनको अपना बेटा बनाया, बाप बनाया, सखा बनाया, उनको घोड़ा बनाया सखाओं ने। जैसे हम संसार वाले करते हैं आपस में। क्योंकि उनके पास दिव्य सामान हो गया। ये दिव्य सामान के लिये भगवान् की अकारण कृपा आवश्यक है। तो भगवान् अकारण करुण हैं लेकिन वो अकारण करुण का उनका फल अन्त:करण के शुद्ध होने पर मिलता है। तो जिसने अन्तःकरण शुद्ध कर लिया, भक्ति के द्वारा उस पर कृपा हो गई। वो हो गया सन्त। इसलिये दोनों आवश्यक हैं। जैसे एक सामान देखना है हमको। हमारे सामने क्या रखा है? कैसे देखेंगे? आँख से। अच्छा? बड़ी अच्छी आँख है तो भी देख लेंगे। हाँ हाँ। और अगर लाइट ऑफ कर दें तो? अंधेरे में। अब नहीं देख सकते। क्यों आँख तो है उसके, अटक कर गिर गया। अरे क्यों रे कैसे गिर गया, अन्धा है क्या? नहीं नहीं अन्धा नहीं हूँ जी, अभी नई आँख है। फिर? अरे अंधेरा था जी, वो सामान रखा था वहाँ। यानी उस सामान के ऊपर लाइट भी चाहिये और आँख भी सही चाहिये। नहीं सूरदास को २५ जून के दोपहर को भी नहीं दिखाई पड़ेगा। दोनों कम्पलसरी है। ऐसे ही साधना भी कम्पलसरी है, उससे अन्तःकरण शुद्ध करो फिर भगवत्कृपा भी कम्पल्सरी है, उससे वो दिव्य बने, तब भगवत्प्राप्ति हो, माया निवृत्ति हो, आनन्द प्राप्ति हो। ये समाधान है।

• सन्दर्भ ::: 'प्रश्नोत्तरी' भाग - 3, प्रश्न संख्या - 5

★★★
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- सर्वाधिकार सुरक्षित ::: © राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
- जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(5) www.youtube.com/JKPIndia
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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