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 भगवान की सभी प्रकार की कृपाओं में सबसे बड़ी कृपा कौन सी है? पढ़ें, जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा इसका समाधान!
 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 444

जिज्ञासा ::: भगवान् की सबसे बड़ी कृपा कौन सी है?

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया गया उत्तर ::: देखिये कृपा तीन प्रकार की होती है। एक सामान्य कृपा, एक विशेष कृपा, एक अद्भुत कृपा। तो सामान्य कृपा तो सब पर है - 'अग जग सब जग मम उपजाए'। 'सब पर मोरि बराबर दाया'। सब पर बराबर कृपा है भगवान् की।

भगवान् के महोदर में हम लोग पैण्डिंग में पड़े थे। हमको बाहर निकाला, हमारे लिये संसार बनाया और हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों का हिसाब रखा। उस हिसाब से हमको शरीर दिया और हमारे साथ बैठ गये सदा के लिये। अन्दर।

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद 6-11)
 
तीन बात, एक तो सर्वव्यापक हो गये;

तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।   
(तैत्तिरीयोपनिषद)

दूसरे सबके हृदय में बैठ गये। उसके वर्तमान कर्म को नोट करते हैं। पूर्वजन्म के कर्मों का फल देते हैं। ये सब विशेष कृपा। हम कोई मेहनताना देते हैं? देखो बड़े बड़े करोड़पतियों के यहाँ मुनीम होते हैं तनख्वाह लेते हैं तब हिसाब किताब रखते हैं। और भगवान् बिना हमारे कहे सब करते हैं। ये देखिये आप लोग जो यहाँ बैठे हैं मनगढ़ में, ये हँसी मजाक नहीं है। ये हजारों जन्म आपने बड़ी साधनायें की हैं उसका फल भगवान् ने दिया है। नहीं, कोई ऐरे गैरे नत्थू खैरे के चक्कर में पड़ जाते और वो कह देता कि माला का जप कर लो, सुन्दरकाण्ड का पाठ कर लो, चारों धाम की मार्चिंग कर लो और गोलोक पहुँच जाओगे। और तुम लोग बेवकूफ बनकर वैसे करते रहते। और क्या करते? कोई व्यक्ति अपने आप तो ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। दूसरे से ही तो ज्ञान लेगा। आज आप लोग कहाँ पहुँच गये हैं? अगर आप बस में बैठे हों, ट्रेन में बैठे हों, और हवाई जहाज में बैठे हों और आपके बगल वाला 'राधे' कह दे, अंगड़ाई लेकर के ही सही। तो आप चौंक जायेंगे न। अहा! ये बड़ा अच्छा आदमी है, 'राधे' बोला। हमारे मिलने के पहले 'राधा' नाम कुछ है भी, कहीं पता है उसका, कुछ जानते ही नहीं थे। अब 'राधे' नाम में इतना प्यार करा दिया मैंने कि बगल वाले के बोलने पर ही ये बुद्धि हो गई बड़ा अच्छा आदमी है। भले ही वो डाकू हो।

तो ये बड़ी भगवत्कृपा है।

जन्मान्तर सहस्रेषु तपोध्यान समाधिभिः।
नराणां क्षीण पापानां कृष्णे भक्ति प्रजायते।।

तमाम जन्मों की साधना से ये फल भगवान् ने दिया। हमको क्या पता था कि हम पूर्वजन्म में क्या थे, कहाँ थे? ये सब विशेष कृपा है। फिर अन्दर बैठे हिसाब कर रहे हैं फल दे रहे हैं। फिर सन्त से मिला दें अगर तो 'बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं सन्ता'।

अपनी बुद्धि से हम सन्त का पता नहीं लगा सकते। क्यों? अपनी बुद्धि से तो हम रोज बाहरी त्याग देखकर धोखा खाते। हम जहाँ देखते कि ये बाहर से त्यागी है, पेड़ के नीचे रहता है फलाहार करता है, पत्ता खाता है, खाली पानी पीकर रहता है। इतना बड़ा महात्मा है ल। हम ऐसे लोगों के चक्कर में पड़े रहते। क्या ऐसे लोग महात्मा होते हैं? अगर होते हैं तो जंगल में जितने जानवर हैं, ये सब महापुरुष हैं। उनके न तो घर है, न खाने का ठिकाना है, न तो पानी का ठिकाना है, कहाँ पानी मिलेगा उनको। सोचो, वो लोग कैसे जीवित हैं? उनके भी बच्चे पैदा हो रहे हैं। कौन सा डॉक्टर वहाँ जाता है। सब काम हो रहा है उनका।

तो मानव देह मिला ये भी भगवत्कृपा। ये केवल ऐसा नहीं है कि हमारे पूर्वजन्म के फल से मिल गया। अरे कर्म तो जड़ होता है। पुण्य-पाप, ये कर्म है न। ये तो जड़ है। हमने पूर्वजन्म में जो कुछ किया वो तो जड़ पदार्थ हैं। हमने एक करोड़ दान किया। तो क्या वो दान आकर बोलेगा अगले जन्म में? ये तो भगवान् फल देंगे तभी तो हमको फल मिलेगा उसका। तो ये मानव देह दिया ये भी भगवत्कृपा।

कबहुँक करि करुणा नर देही।
देत ईश बिनु हेतु सनेही।।

तो मानव देह भी भगवत्कृपा, सन्त से मिलना भी भगवत्कृपा, भारत में जन्म होना भी भगवत्कृपा - 'धन्यास्तु ये भारतभूमि भागे'। जहाँ मरने पर भी 'राम नाम सत्य' बोला जाता है। हाँ, ये तमाम कृपायें हैं - सामान्य कृपा, विशेष कृपा। और सबसे विशेष कृपा क्या है?

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
(गीता 9-29)

देखिये एक श्लोक में भगवान् ने दोनों कृपायें बता दीं । सामान्य कृपा क्या?

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।
(गीता 9-29)

अर्जुन! मैं समदर्शी हूँ, न मेरा कोई दुश्मन न मेरा कोई दोस्त। मैं तो जज की हैसियत से कर्म का फल दे देता हूँ।

पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्।।
(प्रश्नोपनिषद 3-7)

ये मैं बिना पैसे के सेवा करता हूँ अपने बच्चों की। लेकिन संसारी कानून में भी सब्सेक्शन होता है , ऐसे वहाँ भी होता है। लेकिन अगर कोई कम्पलीट सरेन्डर करता है; न पुण्य करता है, न पाप करता है, मेरे शरणागत हो जाता है भक्ति के द्वारा तो फिर मैं विशेष कृपायें करता हूँ। वो बहुत सारी हैं। उसी में अद्भुत कृपायें भी हैं - नम्बर एक, अद्भुत कृपा। हम लोग साधना करके क्या कर सकते हैं। सोचो। मायिक मन से हम साधना करेंगे। तो मायिक मन की साधना मायिक होगी। जैसे हम भगवान् का ध्यान करेंगे। भगवान् को तो देखा नहीं और नहीं देखा है ये बड़ा अच्छा है। अगर देख लें तो नास्तिक हो जायें। क्यों? इसलिये कि हमारी आँख प्राकृत है। वो प्राकृत भगवान् को देख पायेगी। जहाँ जायेगी ये प्राकृत अनुभव करेगी। और भगवान् का शरीर दिव्य है। वो तो देखेगी नहीं। और अगर कोई सन्त कह देगा कि ये भगवान् हैं और हम देख रहे हैं कि ये भगवान् वगवान् क्या हैं? हम तो अपने बेटे को, बाप को, बीबी को देख कर जितना सुख पाते हैं उतना भी नहीं पा रहे हैं इनको देखकर। ये काहे के भगवान् हैं? भगवान् तो अनन्तकोटि कन्दर्प लावण्य युक्त होते हैं। अब हमको जब तक कोई समझावे न कि देखो जी तुम्हारी आँख प्राकृत है इसलिये तुम सब जगह प्राकृत देखोगे । दिव्य को भी प्राकृत। भगवान् के शरीर में ऐसा वैचित्र्य है कि जो जैसी भावना वाला है वैसे ही दिखाई पड़ेगा। जब तक दिव्य दृष्टि न मिले, इन्द्रियाँ दिव्य न हों, मन दिव्य न हो, तब तक दिव्य भगवान् का दर्शन, मनन, चिन्तन हो ही नहीं सकता। लेकिन भगवान् कृपा  करके उस मायिक ध्यान को भी दिव्य मान लेते हैं और फल दे देते हैं। स्वरूप शक्ति से दिव्य बना देते हैं और फल दे देते हैं। उसी आधार पर अनन्त जीवों ने भगवत्प्राप्ति की अपनी कमाई से तो अन्त: करण शुद्धि कर लेंगे बस। शुद्धि कर लिया, दिव्य नहीं कर सकते। कूड़ा कचरा साफ कर दिया लेकिन दिव्य नहीं बना सकते हम अपनी साधना से। दिव्य तो वो भगवान् ही गुरु के द्वारा स्वरूप  शक्ति देकर बनवाते हैं। ये अद्भुत कृपा।

तो उसके द्वारा फिर भगवान् और अद्भुत कृपायें करते हैं - नम्बर एक, अनन्त जन्मों के अनन्त पाप माफ कर देते हैं। देखो हमारी दुनियाबी गवर्नमेन्ट में किसी जज के आगे कोई मुलजिम कहे कि हुजूर बस एक बार माफ कर दीजिये हमारे मर्डर के अपराध को, दोबारा मैं कभी नहीं करूँगा। अगर दफा तीन सौ तेईस वाला अपराध भी करूँ तो फाँसी दे दना। जज कहेगा ठीक है लेकिन ये अपराध का दण्ड तो भोगना पड़ेगा। हम इसीलिये तो दण्ड देते हैं कि ये अपराध दूसरा आदमी न करे। तो जो किया है उसका फल तो भोगना पड़ेगा। अरे यहाँ तक नाटक होता है हमारी दुनियाबी गवर्नमेन्ट में कि फाँसी प्लस 22 साल की सजा प्लस इतना जुर्माना। वो कहता है जब फाँसी ही की सजा लिख दिया तो ये सब क्या लिख रहे हो। अरे वो कायदा है लिखने का। उसमें ये भी लिख देंगे कि पहले कौन सजा दी जाय। ये संसार में नाटक होता है इस तरह का। तो भगवान् के यहाँ सब माफ। शरणागत हुआ;

अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(गीता 18-66)

अर्जुन! छुट्टी। वो फाइल जला दी गई। सब खतम। उसमें तीन गुण हैं, तीन कर्म हैं, तीन शरीर हैं, पंचक्लेश हैं, पंचकोश हैं। जितनी गड़बड़ियाँ हैं सब जीरो बटे सौ। उनकी जननी जो माँ है वो भी गई। और;

सदा पश्यन्ति सूरयः। तद्विष्णोः परमं पदम्।
(सुबालोपनिषद 6-7)

ये सब गड़बड़ियाँ सदा को गईं और भगवान् का सारा सामान सदा को मिल गया। ये अन्तिम कृपा। ये कृपा का संक्षिप्त रहस्य है।

सन्दर्भ ::: 'प्रश्नोत्तरी' भाग - 3, प्रश्न संख्या - 2

★★★
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(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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