किशोरी श्रीराधारानी की कृपा के बिना कोई पापमुक्त नहीं हो सकता; उनसे कृपा की याचना का सुंदर भाव इस पद में पढ़ें!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 445
★ भूमिका - निम्नांकित पद भक्तियोगरसावतार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित 'प्रेम रस मदिरा' ग्रन्थ के 'सिद्धान्त-माधुरी' खण्ड से लिया गया है। 'प्रेम रस मदिरा' ग्रन्थ में आचार्य श्री ने कुल 21-माधुरियों (सद्गुरु, सिद्धान्त, दैन्य, धाम, श्रीकृष्ण, श्रीराधा, मान, महासखी, प्रेम, विरह, रसिया, होरी माधुरी आदि) में 1008-पदों की रचना की है, जो कि भगवत्प्रेमपिपासु साधक के लिये अमूल्य निधि ही है। इसी ग्रन्थ के 'दैन्य माधुरी' का यह 36-वाँ पद है, जिसमें आचार्यश्री ने जीवों की ओर से किशोरी श्रीराधारानी जी से कृपा की याचना की है, उनकी कृपालुता के गुणों का स्मरण करते हुये उनसे अपनी ओर कृपादृष्टि से निहारने का अनुरोध है...
किशोरी मोरी, सुनिय नेकु इक बात।
हौं मानत हौं परम पातकी, विश्व-विदित विख्यात।
पै यह कौन बात अचरज की, तव चरनन विलगात।
कोऊ इक मोहिं बताऊ तुमहिं तजि, बिनु पातक जग जात।
जेहि दरबार कृपा बिनु कारण, बटत रही दिन रात।
तेहि दरबार भयो अब टोटो, यह अचरज दसरात।
मोहिं 'कृपालु' कछु आपुन सोच न, तोहिं सोचि पछितात।
भावार्थ - हे वृन्दावन विहारिणी राधिके ! मैं आपसे एक छोटी सी बात कहना चाहता हूँ, कृपया बुरा न मानते हुए सुन लीजिये. मैं स्वयं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि मैं संसार में प्रख्यात एवं विश्व विदित पापात्मा हूँ, पर साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि तुम्हारे चरण कमलों से विमुख होने के कारण हूँ, इसमें आश्चर्य ही क्या है? आदिकाल से लेकर आज तक के इतिहास में मुझे किसी एक जीव का भी नाम बता दीजिये जो तुमसे विमुख होकर भी संसार में निष्पाप हुआ हो. आश्चर्य तो यह है कि जिस दरबार में बिना कारण ही निरंतर कृपा का वितरण हुआ करता था, आज उसी दरबार में मुझ पतित के लिए कृपणता की जा रही है. 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि मुझे अपनी तो कोई भी चिंता नहीं, किन्तु तुम्हारे अपयश को सोचकर बार बार शोक सा हो रहा है, क्योंकि तुम्हारा यह अपयश मुझ अभागे पतित के द्वारा ही होगा....
• सन्दर्भ ::: प्रेम-रस-मदिरा (दैन्य माधुरी, पद संख्या- 36)
★★★
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