वट सावित्री व्रत के दिन क्यों की जाती है बरगद के पेड़ की पूजा.. जानें क्या है इसका धार्मिक महत्व
हिंदू धर्म में वट सावित्री व्रत का विशेष महत्व है। वट सावित्री का व्रत सुहागिन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए रखती हैं। इस दिन बरगद के पेड़ की पूजा की जाती है। वट सावित्री व्रत हर साल ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को रखा जाता है। इस साल वट सावित्री व्रत 30 मई, सोमवार को रखा जाएगा। सुहागिन महिलाएं इस दिन विधि-विधान के भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी और वट वृक्ष यानी बरगद के पेड़ की पूजा करती हैं। मान्यता है कि इस व्रत को रखने से सुख-समृद्धि व अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। आज जानते हैं इस पर्व का क्या है धार्मिक व वैज्ञानिक महत्व-
शास्त्रों के अनुसार, बरगद के वृक्ष के तने में भगवान विष्णु, जड़ों में ब्रह्मा और शाखाओं में भगवान शिव का वास है। इस वृक्ष में कई सारी शाखाएं नीचे की ओर रहती हैं, जिन्हें देवी सावित्री का रूप माना जाता है। इसलिए मान्यता है कि इस वृक्ष की पूजा करने से भगवान का आशीर्वाद प्राप्त होता है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं। संतान प्राप्ति के लिए इस वृक्ष की पूजा करना लाभकारी माना जाता है।
मान्यता है कि ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि के दिन वट वृक्ष की छांव में देवी सावित्री ने अपने पति की पुन: जीवित किया था। इस दिन से ही वट वृक्ष की पूजा की जाने लगी। हिंदू धर्म में जिस तरह से पीपल के वृक्ष को भगवान विष्णु का प्रतीक माना जाता है। उसी तरह बरगद के पेड़ को भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षय वट के नीचे तपस्या की थी। इस स्थान को प्रयाग में ऋषभदेव तपस्थली नाम से भी जाना जाता है।
वटवृक्ष को क्यों कहा जाता है अक्षय वट
वैदिक ग्रंथों से लेकर उपनिषद्, ब्राह्मण तथा पौराणिक ग्रंथों में मृत्यु को भी चुनौती देने वाले वट प्रजाति के वृक्षों में बरगद को अमूल्य बताया गया है। इसकी जड़, छाल, पत्ते, दूध, छाया और हवा को न सिर्फ मनुष्य बल्कि धरती, प्रकृति तथा समस्त जीव-जंतुओं के लिए जीवन-रक्षक कहा गया है। मनुष्य के शरीर में बीमारियों के रूप में यदि यमदूत प्रवेश कर गया हो और वह इस पेड़ की शरण में चला जाए, तो जैसे सावित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज के हाथ से जीवित लौटाने में सफलता हासिल की थी, उसी तरह सामान्य व्यक्ति भी यमदूतों से मुक्ति पा सकता है। कारण यह है कि इसकी हवा से मन की शक्ति बढ़ती है। मन मजबूत हो तो काल भी परास्त हो जाता है।
यही कारण है कि जब श्रीराम वनवास के लिए निकले और प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि के आश्रम में आए, तब ऋषि ने जिस पेड़ की पूजा करने को, वह बरगद ही था। यही 'अक्षयवटÓ बरगद का पेड़ है, जिसे आज भी आस्था का पेड़ माना जाता है। जब गोकुल में प्रकृति को प्रदूषित करने वाला कंस का दूत प्रलंबासुर आ गया था तथा प्रदूषित अग्नि से प्राकृतिक असंतुलन पैदा करने लगा था, तब कृष्ण ने बरगद के पेड़ पर चढ़कर उसका वध किया।
हमारे ऋषियों ने ज्येष्ठ मास की अमावस्या तिथि को वट प्रजाति के वृक्षों में बरगद के पेड़ की पूजा का विधान इसीलिए किया, क्योंकि अन्य सभी वृक्षों में किसी एक देवता का निवास है, जबकि बरगद में त्रिदेवों का निवास है। इस पेड़ की छाल में साक्षात विष्णु, जड़ में ब्रह्मा और शाखाओं में देवाधिदेव महादेव का वास होता है। ज्येष्ठ मास की अमावस्या से पहले त्रयोदशी तिथि से इस पेड़ के पूजन का आशय भी त्रिदेवों का पूजन माना जा सकता है।
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