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  किसी के शरीर पर साँप-बिच्छू चढ़ता रहे और कोई बता दे, तो बताने वाला तो हमारा हितैषी है!!

 -जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की प्रवचन श्रृंखला


भक्तिमार्ग में दीनता की परम आवश्यकता है। किन्तु हम मायाधीन हैं, और माया के तमाम विकारों से घिरे हुये हैं। तथापि तत्व को समझना चाहिये कि यद्यपि हर बुराई हमारे भीतर है, फिर भी उसको स्वीकार कर अब उसके सुधार के लिये प्रयास करना चाहिये। इस सुधार के लिये हम क्या करें, विशेषकर आध्यात्ममार्गी पथिक के लिये परमावश्यक सुझाव जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा निःसृत प्रवचन के इस अंश में है। आइये इस महत्वपूर्ण विषय को समझें तथा साँप-बिच्छू और हितैषी शब्द के सांकेतिक अर्थ लेकर विचार करें ::::::

(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से है...)

..देखो! एक सिद्धांत सदा समझ लो, जब तक हमको भगवत्प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक हम पर माया का अधिकार रहेगा। जब तक माया का अधिकार रहेगा, तब तक काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि सब दोष रहेंगे। इसके अतिरिक्त पिछले अनन्त जन्मों के पाप भी रहेंगे क्योंकि भगवत्प्राप्ति पर ही समस्त पाप भस्म होते हैं। यथा,

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
(गीता 18-66)

अब सोचो यदि कोई मुझे कामी, क्रोधी, लोभी, पतित, नीच, अनाचारी, दुराचारी, पापाचारी कहता है तो गलत क्या है? सच को सहर्ष मानकर उस दोष को ठीक करना चाहिये।

एक कॉन्स्टेबल को हम जब कॉन्स्टेबल कह के परिचय कराते हैं तो वह यह नहीं कहता हमें एस.पी. कहो, आई.जी. कहो। फिर हम क्यों बुरा मानते हैं? तुलसीदास तो कहते हैं,

निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय।

वह निंदक तो हमारा हितैषी है। किसी के शरीर पर साँप, बिच्छू चढ़ रहा है और कोई बता दे तो वह तो हमारा हितैषी है। जितने मायातीत भगवत्प्राप्त महापुरुष हुए हैं वे तो लिख कर दे रहे हैं,

मो सम कौन कुटिल खल कामी।

और हम सचमुच हैं, तो बुरा मानकर अपनी घोर हानि कर रहे हैं। एक सिद्धांत और समझे रहना चाहिये। हम जितने क्षण मन को भगवान में रखते हैं बस, उतने क्षण ही हमारे सही हैं। शेष सब समय पाप ही तो करेंगे। इस प्रकार 24 घण्टे में कितनी देर हमारा मन भगवान में रहता है, सोचो। बार बार सोचना है कि मेरे पूर्व जन्मों के अनन्त पाप संचित कर्म के रूप में मेरे साथ हैं। पुन: इस जन्म के भी अनन्त पाप साथ हैं फिर भी हम भगवान के आगे आँसू बहा कर क्षमा नहीं माँगते। धिक्कार है, मेरी बुद्धि को।

बार-बार प्रतिज्ञा करना है कि अब पुन: किसी के सदोष कहने पर बुरा नहीं मानेंगे। अभ्यास से ही सफलता मिलेगी। प्रतिदिन सोते समय सोचो आज हमने कितनी बार ऐसे अपराध किये। दूसरे दिन सावधान होकर अपराध से बचो। ऐसे ही अभ्यास करते-करते बुरा मानना बन्द हो जाएगा। यह भी सोचो कि श्रीकृष्ण हृदय में बैठकर हमारे आइडियाज़ नोट करते हैं। यदि हम फ़ील करेंगे तो वे कृपा कैसे करेंगे। सदा सर्वत्र यह महसूस करने से दोष कम होंगे और इष्टदेव का बार बार चिन्तन भी होता रहेगा। निन्दनीय के प्रति भी दुर्भावना न होने पाये क्योंकि उसके हृदय में भी तो श्रीकृष्ण हैं । निन्दनीय से उदासीन भाव रहे, दुर्भावना न हो। यह प्रार्थना बार-बार करो,

यदि दैन्यं त्वत्कृपाहेतुर्न तदस्ति ममाण्वपि।
तां कृपां कुरु राधेश ययाते दैन्य माप्नुयाम्॥

अर्थात् 'हे श्री कृष्ण! यदि दीनता से ही तुम कृपा करते हो तो वह तो मेरे पास थोड़ी भी नहीं है। अत: पहले ऐसी कृपा करो कि दीन भाव युक्त बनूँ।' - ऐसा कह कर आंसू बहाओ। यह करना पड़ेगा। मानवदेह क्षणिक है। जल्दी करो, पता नहीं कब टिकट कट जाय। यह मेरा नम्र निवेदन सभी से है।

(प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु महाप्रभु जी)

० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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