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  भगवान राम की लीला में रावण की भूमिका तथा दशहरा के उद्देश्य पर जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा प्रकाश
- जगदगुरुत्तम कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन ::: पर्वादिक महात्म्य खण्ड

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दशहरा अर्थात विजया दशमी के सम्बन्ध में दिया गया प्रवचन नीचे उद्धृत है :::::

भगवान का अवतार क्यों होता है, अधिकतर लोग यही समझते हैं कि भगवान का अवतार राक्षसों का संहार करने के लिये और धर्म की संस्थापना के लिये होता है,

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय  सम्भवामि  युगे  युगे।।
(गीता 4-6, 7)

किन्तु जो सर्वशक्तिमान है, सबके हृदय में बैठा है, चाहे राक्षस हो चाहे साधु हो तो क्या वह राक्षसों का संहार अपने दिव्य धाम में रहकर नहीं कर सकता, वह तो सर्वसमर्थ है, सत्यसंकल्प है। बस संकल्प कर ले, सब काम अपने आप ही जाये। फिर यहाँ अवतार लेकर आने की क्या आवश्यकता है? इसका मतलब है कोई और कारण है।

केवल एक कारण है - जीव कल्याण। अवतार लेने से पहले मीटिंग हुई भगवान के सब पार्षदों की भगवान के साथ। तो भगवान ने कहा कि भई पृथ्वी पर जाना है, वहाँ अपना नाम, रुप, लीला, गुण छोड़कर आना है जिसका सहारा लेकर जीव मुझे आसानी से प्राप्त कर सकें। 'दशरथ का रोल (अभिनय) कौन करेगा', कौशल्या, सुमित्रा, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सबका निश्चित हो गया। 'अरे रावण का रोल कौन करेगा, कैकेयी का रोल कौन करेगा, बदनामी होगी लोग गाली देंगे।' 'कोई बात नहीं हमारे प्रभु का काम होना चाहिये बस हमें उनकी इच्छा में इच्छा रखना है।' (उनके भक्तों की सोच इस प्रकार होती है, वे उनकी लीला की पूर्ति के लिये बदनामी भी मोल लेने को तैयार हो जाते हैं।) यानी भगवान अपने परिकरों, पार्षदों को लेकर आते हैं और यहाँ लीला करते हैं। जितने भी उस लीला में सम्मिलित होते हैं, वे सब महापुरुष ही होते हैं अर्थात सब मायातीत होते हैं। उनके समस्त कार्यों का कर्ता भगवान ही होता है अत: उन्हें अपने कर्म का फल नहीं मिलता।

रावण भी भगवान का पार्षद ही था। भगवान ने सोचा लडऩा चाहिये, लेकिन लड़ें किससे? सब तो हमसे कमजोर हैं और कमजोर से लडऩा ये तो मजा नहीं आयेगा। अपने बराबर वाले से लडऩा चाहिये। भगवान के बराबर कौन है? महापुरुष में भगवान की सारी शक्तियाँ होती हैं। लेकिन कोई महापुरुष भगवान से क्यों लड़ेगा? अगर भगवान कहते भी हैं लडऩे के लिये तो कह देगा महाराज मैं तो शरणागत हूँ, अगर आप शरीर चाहते हैं तो मैं पहले ही दे रहा हूँ। फिर क्या किया जाये, तो भगवान ने कहा कि भई ऐसा करो कि किसी महापुरुष का श्राप दिलवाओ और उसको राक्षसी कर्म के लिये मृत्युलोक भेजो, फिर मैं वहाँ जाऊँ और उसको मारूँ तो जमकर युद्ध होगा।

तो गोलोक के दो पार्षद थे नित्य सिद्ध सदा से महापुरुष, भगवान के गेट कीपर, उनको श्राप दिला दिया सनकादि परमहंसों से जबरदस्ती। उनको प्रेरणा किया तुम हमसे मिलने आओ और गेट कीपर्स को आर्डर दे दिया कि कोई अन्दर न आने पाये। सनकादि चल पड़े भगवान से मिलने तो जय विजय ने रोक दिया, इन्होंने कहा आज तक तो किसी ने रोका नहीं था, आज क्या हो गया, श्राप दे दिया, जाओ मृत्युलोक में जाओ राक्षस बन जाओ। फिर प्रेरणा किया सनकादि को कि हमेशा के राक्षस न बनाओ बस तीन जन्म के लिये राक्षस बनकर पृथ्वी पर रहें, फिर यहाँ आ जायें। हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, रावण-कुम्भकर्ण, कंस-शिशुपाल ये थे जय-विजय। अत: रावण वास्तव में भगवान का पार्षद था, राक्षस नहीं था, भगवान की इच्छा से ही उसने यह सब किया। अत: दुर्भावना नहीं करना उसके प्रति। हमारी रावण से कोई दुश्मनी नहीं है और न राम की दुश्मनी रावण से थी। वो तो राम को केवल ये जनता को दिखाना था कि जो भी गलत काम है उससे ऐतराज करो, गलत काम करो उसका परिणाम हानिकारक है।

मायिक जो भी वर्क है चाहे सात्विक हो चाहे राजसिक हो चाहे तामसिक हो तीनों हानिकारक हैं। सात्विक भी निन्दनीय है, उससे अधिक निन्दनीय राजस है और तामस सबसे अधिक निन्दनीय है। केवल राम की भक्ति करने वाला ही तीनों गुणों से परे होकर परमानन्द प्राप्त कर सकता है इसलिये रावण दहन का अर्थ ये नहीं है कि रावण नाम का जो राक्षस था वो जला दिया गया, छुट्टी मिली। रावण जलाने से तात्पर्य है कि रावण से जो गलत काम कराया गया था उस कर्म को छोडऩा है। भले ही हम शास्त्र वेद के ज्ञाता हो जायें, निन्दनीय कर्म किसी भी प्रकार क्षम्य नहीं है जब तक उस अवस्था पर न पहुँच जायँ कि हमारा कर्ता भगवान हो जाय अर्थात भगवत्प्राप्ति से पहले कोई भी आचरण जो शास्त्र-विरुद्ध है, वह निन्दनीय है। दशहरे वाले दिन जो रावण का पुतला जलाया जाता है वह इसी बात का द्योतक है कि सात्विक, राजसिक, तामसिक सब कर्म बन्धन कारक हैं, निन्दनीय हैं। केवल भगवान की भक्ति ही वन्दनीय है। भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम, जन में ही निरंतर मन को लगाना, यही दशहरे पर्व का मनाने का मुख्य उद्देश्य है।

(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)

0 सन्दर्भ ::: साधन साध्य पत्रिका, अक्टूबर 2008 अंक
0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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