श्रीराधारानी के रुप तथा गुण माधुरी पर स्वयं मदनविमोहन श्रीकृष्ण भी मोहित रहते हैं!!
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 116
श्रीराधारानी समस्त ब्रज-महारसिकों की प्राणाधार तथा स्वामिनी हैं। इन महारसिकों ने अपने साहित्यों में अनंतानंत उपमायें देकर श्रीकिशोरी जी का गुणगान किया है। रसिकवर जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भी अपनी 'प्रेम-रस-मदिरा' पदग्रन्थ में रास-रासेश्वरी श्रीराधारानी जी की श्रृंगार-माधुरी का अनुपमेय वर्णन किया है। प्रस्तुत है उन्हीं पदों में से एक पद, जिनमें रसिकन प्राणाधीश्वरी श्रीराधारानी के श्रृंगार का सरस वर्णन हुआ है ::::::
'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ
श्रीराधा-माधुरी, पद संख्या 33
रँगीली राधा रसिकन प्रान।
सरस किशोरी की रसबोरी, भोरी मृदु मुसकान।
सुबरन बरन गौर तनु सुबरन, नील बरन परिधान।
कनकन मुकुट लटनि की लटकनि, भृकुटिन कुटिल कमान।
कनकन कंकन कनकन किंकिनि, कनकन कुंडल कान।
लखि लाजत श्रृंगार लाड़लिहिं, कहँ लौं करिय बखान।
होत 'कृपालु' निछावर जापर, सुंदर श्याम सुजान।।
भावार्थ ::: रंगीली राधा रसिकों को प्राण के समान प्रिय हैं। रसमयी किशोरी जी की प्रेम रस से सराबोर भोली सी मुस्कान अत्यन्त ही मधुर है। किशोरी जी की देह का रंग सुवर्ण के रंग के समान अत्यन्त सुन्दर है। वे नीले रंग की साड़ी पहने हुये हैं। सुवर्ण के मुकुट, घुँघराले बालों की लटक एवं धनुष के समान टेढ़ी भौंहें नितांत कमनीय हैं। हाथ में सुवर्ण के कंकण, कमर में सुवर्ण की किंकिनि एवं कानों में सुवर्ण के कुंडल मन को बरबस लुभा रहे हैं। कहाँ तक कहें किशोरी जी की श्रृंगार माधुरी को देखकर स्वयं श्रृंगार भी लज्जित हो रहा है। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि सबसे बड़ी बात तो यह है कि त्रिभुवन मोहन मदन मोहन भी स्वयं किशोरी जी के हाथों बिना दाम के बिके हुये हैं।
00 सन्दर्भ ::: प्रेम-रस-मदिरा ग्रन्थ, श्रीराधा-माधुरी, पद 33
00 रचनाकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
Leave A Comment