राधा-कृष्ण संबंधी विषयों में ही मन लग जाय, एक दिन तो यहाँ तक पहुँचना ही होगा
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 130
(अनन्यता के पालन तथा साधना की निरंतरता के संबंध में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के द्वारा नि:सृत प्रवचन अंश...)
...मेन पॉइन्ट ध्यान में रखो कि अंत:करण गन्दा है, इसको शुद्ध करने के लिये शुद्ध में डुबोना है। तो इतनी चीज शुद्ध हैं - भगवान, भगवान को पा लेने वाला सन्त और भगवाब का नाम, रूप, गुण, लीला, धाम। इतने में कहीं मन रहे सब ठीक है, वो अनन्य है।
लेकिन इसके नीचे जो चार हैं - सात्विक, राजस, तामस और मायिक सामान - इनमें अटैचमेन्ट कहीं हुआ तो अनन्यता भंग हो गई। जैसे आप संसार में अपनी माँ से प्यार करते हैं, अपने पिता से प्यार करते हैं, अपनी बीवी से प्यार करते हैं, अपने पति से करते हैं, अपने बेटा, भाई, बहन, नाती, पोते से प्यार करते हैं, तो कोई बुरा नहीं मानता। किसी माँ ने कहा कि तुम अपनी स्त्री से क्यों प्यार करते हो जी, खाली हमसे किया करो। अरे हमारे चार बेटे हैं, तो किसी बेटे ने कहा कि और बेटों से प्यार न करना पापा, खाली हम ही से करना।
तो जैसे संसार में अपने ब्लड रिलेशन में प्यार करना मना नहीं। ऐसे ही भगवान कहते हैं कि हमारे परिवार में खूब प्यार करो, हमारे सन्त से, हमारे नाम से, हमारे गुण से, हमारी लीला से, हमारे धाम से। तो हमारा ही प्यार कहलायेगा वो। क्योंकि इनमें भेद नहीं होता। भगवान का नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, सन्त इनमें सबमें सबका निवास है। कोई छोटा बड़ा नहीं है। भगवान में सब रहते हैं, सबमें भगवान रहते हैं। इसलिये भगवान श्रीकृष्ण सम्बन्धी सब वस्तुओं से कहीं भी मन का अटैचमेन्ट करो तो सही है और मायिक जीव या मायिक सामान में अटैचमेन्ट हुआ तो वो अन्य हो गया, वो अपराध हो गया। उस पर कृपा नहीं होगी। जरा भी कहीं गड़बड़ है, अटैचमेन्ट है, पॉइन्ट वन परसेन्ट भी, तो भगवान कहते हैं कि अभी दूर है।
यदा ह्योवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते। अथ तस्य भयं भवति।
(तैत्तिरियोपनिषद 2-7)
देखो पारस और लोहा अगर मिल जायें तो लोहा सोना बन जाता है। लेकिन अगर पारस लोहे के पास आ गया तो नहीं बनेगा। एक नंगा तार जा रहा है उसमें इलैक्ट्रिसिटी है, हम उसके पास उँगली ले गये, कोई बात नहीं, अभी नहीं बिजली आई तुम्हारे शरीर में, जब छू गया तो उसने पकड़ लिया। ऐसे ही मन केवल भगवान के एरिया वालों में 'ही' रहे, 'भी' नहीं।
अभ्यास करते-करते होगा एक दिन, एक साल में हो, एक जन्म में हो, हजार जन्म में करो। ये तो तुम्हारी स्पीड पर निर्भर है। एक आदमी दो कदम चले आगे और एक कदम पीछे तो वो बहुत दिन में पहुँचेगा मथुरा, एक आदमी लगातार चले तो जल्दी पहुँचेगा। एक दौड़ता हुआ चले तो और जल्दी पहुँचेगा, एक कार से जाय तो वो और जल्दी पहुँचेगा। तो ये तो अपनी अपनी साधना पर निर्भर है। लेकिन एक दिन वहीं पहुँचना होगा कि राधाकृष्ण के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, जन में ही मन लग जाय और कहीं न जाय। उसको कहते हैं अनन्य।
(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
00 सन्दर्भ ::: 'हरि गुरु स्मरण' पुस्तक, प्रवचन संख्या 23
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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