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 जिसे ईश्वर-प्राप्ति की भूख हो, उसके लिये कौन-सी बात परमावश्यक है, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु के प्रवचन-अंश से जानें!

 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 136


(स्वरचित पद 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' की व्याख्या का अंश, जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने यह व्याख्या सन 1981 में 10-प्रवचनों में की थी...)

गौरांग महाप्रभु ने पहला शब्द यही लिखा है;

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:।।
(शिक्षाष्टक - 3)

...अगर किसी को ईश्वर की कृपा प्राप्त करना है, तो तृण से बढ़कर दीन भाव लाओ, तृण से बढ़कर दीन भाव। अरे सचमुच की बात है, क्या है तुम्हारे पास जो अहंकार करते हो। है क्या? क्यों समझते हो, सोचते हो, फील करते हो कि हम भी कुछ हैं। अरे क्या हो तुम? और अगर यह शरीर छूट जायेगा तो उसके बाद फिर कुत्ता बनना पड़े, कि बिल्ली, कि गधा, कि पेड़, कि कीट पतंग, कहाँ जाओ तब तुमसे हम बात करें कि क्यों जी ऐ नीम के पेड़! तुम डि. लिट्. प्रोफेसर वही थे न, पिछले जन्म में? 

हमने कहा था ईश्वर की शरण में चलो, दीनता लाओ। तो तुमने कहा था हम ऐसे अन्धविश्वासी नहीं हैं, डि. लिट्. हैं। अब क्या हाल है, नीम के पेड़ बने हो। हाँ जी। वह गलती हो गई, उस समय पता नहीं क्या दिमाग खराब था। अहंकार में डूबे हुये थे। श्यामसुन्दर के आगे भी दीन नहीं बन सके। दीनता के बिना साधना नहीं हो सकती, कोई गुंजाइश नहीं।

एक वेंकटनाथ नाम के महापुरुष हुये हैं। वह वेंकटनाथ ईश्वर की ओर जब चलने लगे, बड़े आदमी थे। और जोरदार आगे बढ़े, तो तमाम विरोध हुआ। सभी महापुरुषों के प्रति होता है। तो उनके विरोधियों ने उनके आश्रम के गेट पर जूते की माला बनाकर टाँग दी कि यह नशे (भगवत्प्रेम/स्मृति का नशा) में तो चलते ही हैं, इनके सिर में लगेगी तो हम लोग हँसेंगे। हा हा हा हा जूता सिर में लग रहा है तुम्हारे। वो अपना बाहर से नैचुरेलिटी में जा रहे थे तो जूते की माला जो लटका रक्खा था मक्कारों ने, नास्तिकों ने, वह सिर में लगी, उन्होंने देखा और हँसने लगे।

अब लोग दूर खड़े देख रहे थे जिन्होंने नाटक किया था कि यह गुस्से में आयेंगे, फील करेंगे फिर हम लोग हँसेंगे, फिर हमसे कुछ बोलेंगे फिर हम बोलेंगे, अब वह उसको देखकर हँसने लगे और कहते हैं;

कर्मावलम्बका: केचित् केचित् ज्ञानावलम्बका:।

कुछ लोग कर्म मार्ग का अवलम्ब लेते हैं, कुछ लोग ज्ञान मार्ग का अवलम्ब लेते हैं। और,

वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका:।।

और हम तो भगवान के जो दास हैं, वह उनका जो पाद रक्षा है जूता, सौभाग्य से हमको वह मिल गया। हमारा तो उसी से काम बन जायेगा, हम क्यों कर्म, ज्ञान, भक्ति के चक्कर में पड़ें। अब वह विरोधी लोग देखें कि अरे! यह तो उलटा हो गया। हम तो समझ रहे थे कि गुस्सा करेगा फिर बात बढ़ेगी और फिर हम लोग भी अपना रौब दिखायेंगे, गाली गलौज होगी। अरे! यह तो देखकर हँस रहा है और कहता है;

वयं तु हरिदासानां पादरक्षावलम्बका:।।

यह दीनता है, यह आदर्श है, ईश्वर प्राप्ति की जिसको भूख हो, ऐसे बनना पड़ेगा।

00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
00 सन्दर्भ ::: 'प्राणधन जीवन कुँज बिहारी' स्वरचित पद की व्याख्या
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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