क्या है असली त्याग का स्वरूप, किस त्याग के बिना त्याग अधूरा है, जगदगुरु श्री कृपालु महाराज के प्रवचन से जानें!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 140
('गुरु सेवा' संबंधी एक महत्वपूर्ण सावधानी, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी से समझें...)
..गुरु सेवा करते हुये गुरु सेवाभिमान न लाओ। सेवाभिमान न आने पावे। तब वो असली त्यागी है।
एक राजा था। उसको वैराग्य हुआ तो वो एक महात्मा के पास गया जंगल में। जैसे जिस पोज में वो बैठा हुआ था राजा उसी पोज में भाग पड़ा। और महात्मा जी को प्रणाम किया और कहा कि हम आपके शिष्य बनना चाहते हैं। उन्होंने देखा। प्राचीनकाल में महात्माओं की ऐसी परम्परा थी तपस्वियों की, उन्होंने कहा कि भाग यहाँ से, सब छोड़कर तब आ हमारे पास। उसने कहा कि महाराज! सब छोड़ आये।
ए झूठ बोलता है! अब वो चला गया बेचारा। उन्होंने जाकर स्वयं सोचा, अरे! राजा के भेष में ही मैं आ गया। महात्मा के पास मुकुट पहन करके मैं आया, ये मुझसे गलती हो गई। एक लँगोटी लगाकर के सब फेंक-फांक करके तब गया कि महाराज! गलती हो गई। फिर देखा उन्होंने और कहा कि मैंने कहा न कि सब छोड़ कर आ। तुमने सुना नहीं। अब वो हैरान, सब कुछ तो छोड़ दिया मैंने, तो लँगोटी भी फेंककर आया, दिगम्बर।
तो अब की बार और जोर से डाँटा। उन्होंने कहा कि देख अब अगर बिना छोड़े मेरे पास आया तो दण्ड दूँगा। तूने तीन बार आज्ञा का उल्लंघन किया। ऋषि मुनि तपस्वी का दण्ड क्या? शाप। कोई भक्ति मार्ग के महापुरुष तो थे नहीं। तो राजा जाकर दूर एक पेड़ के नीचे बैठ गया और सोचने लगा कि महात्मा जी क्या चीज छोड़ने के लिये कह रहे हैं? शरीर छोड़ा नहीं जा सकता और क्या है मेरे पास? रोने लगे। उन्होंने सोचा कि अब गुरुजी नहीं अपनायेंगे तो अब शरीर रखना भी बेकार है। संसार में कुछ नहीं है, ये तो समझ ही लिया और अब छोड़ भी आये अब दोबारा जाना भी गलत है और ये शरणागति नहीं स्वीकार रहे हैं हमारी। तो फिर अब देह ही छोड़ देते हैं।
तीन चार दिन बाद गुरुजी उधर से निकले और उन्होंने कहा क्यों राजन! यहाँ कैसे बैठे हो? चुप। ओ त्यागी जी! अब भी चुप। उन्होंने कहा कि हाँ, अच्छा आजा आजा। अब तूने त्याग दिया सब कुछ। राजा होने का अभिमान भी त्यागने का मेरा आदेश था और त्यागने का भी अहंकार छोड़ो। 'मैंने सब छोड़ दिया है' - ये अहंकार भी छोड़ो। तब वो त्याग असली हुआ।
तो जो सत्कर्म करे कोई व्यक्ति, उस सत्कर्म का अहंकार न होने पावे उसको गुरुकृपा माने। उनकी कृपा से इतना हमने भगवन्नाम ले लिया, इतनी सेवा कर ली, वरना मुझसे होता भला? एक भिखारी भी अगर मुझसे माँगता कभी पैसा तो मैंने कभी एक रुपया भी नहीं दिया लाइफ में। उन्होंने कैसे करा लिया हमसे? ये कृपा रियलाइज करना। सब कुछ त्यागो और त्यागने के अहंकार को भी त्यागो। और कुछ मत त्यागो और त्यागने का या आसक्ति का अहंकार छोड़ दो तो भी त्याग है। दोनों प्रकार का त्याग है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'गुरुसेवा' पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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