सायंकाल गोचारण से लौटते हुये श्रीकृष्ण की कैसी अनुपम झाँकी होती थी, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा रचित इस पद में है सुन्दर दर्शन!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 157
(जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 'प्रेम रस मदिरा' ग्रन्थ की श्रीकृष्ण-माधुरी खंड के 20वें पद में सायंकाल के समय वन से गायें चराकर सखाओं से साथ गोकुल लौटते श्रीकृष्ण की अत्यंत मधुर झाँकी का बड़ा सुन्दर वर्णन हुआ है। आइये हम भी पद के माध्यम से उस झाँकी का अपने अंतर्मन में दर्शन करें।)
'प्रेम रस मदिरा'
श्रीकृष्ण-माधुरी, पद 20
धूसरि धूरि भरे हरि आवत।
मोर मुकुट कटि कछनी काछे, मुरली मधुर बजावत।
धुनि सुनि वेनु सबै ब्रजबनिता, देखन को जुरि धावत।
काँधे लकुटि कामरी कारी, लट उरझी मन भावत।
वत्स-प्रेम रस पूरि सुरभि थन, मेदिनि क्षीर चुवावत।
सो 'कृपालु' झाँकी झाँकन हित, शंभु समाधि भुलावत।।
भावार्थ ::: (सायंकाल के समय गायों को चराकर लौटते हुए श्रीकृष्ण की अनुपम झाँकी) गायों के पैरों से उड़ी हुई धूल से युक्त श्रीकृष्ण आ रहे हैं। सिर पर मयूर पंख का मुकुट एवं कमर में सुन्दर काछनी काछे हुये हैं। मधुर मधुर स्वरों से मुरली बजा रहे हैं। उस मुरली की मधुर ध्वनि को सुनकर समस्त ब्रज गोपांगनायें (जो एक क्षण के लिये भी श्रीकृष्ण से पृथक होकर अत्यन्त विरह व्याकुलता में पुनः श्रीकृष्ण दर्शन होने पर विधाता को कोसती थीं कि तूने एक क्षण के वियोग के बाद पूर्ण मधुर मिलन की बाधक पलकों का निर्माण क्यों किया है।) अत्यन्त आतुर होकर श्यामसुन्दर के दर्शनार्थ अपने घरों से भागकर इकट्ठी हो गई हैं। श्रीकृष्ण के एक कंधे पर लठिया है, दूसरे कंधे पर काला कंबल है, घुंघराले बाल, उलझे हुए हठात मन को मुग्ध कर रहे हैं। गायें अपने बछड़ों के वात्सल्य प्रेम रस में विभोर अपने थनों से पृथ्वी पर स्वाभाविक ही दूध चुआती हुई चली आ रही हैं। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि गायों से युक्त गोपाल की इस बाँकी झाँकी को देखने के लिये भगवान शंकर भी बरबस अपनी निर्विकल्प समाधि को भूल जाते हैं।
०० सन्दर्भ ::: 'प्रेम रस मदिरा' पद-ग्रंथ, श्रीकृष्ण माधुरी, पद 20
०० रचनाकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
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