भगवान के 'पतितपावन' नाम के संदर्भ में एक रसमयी मधुर बात, जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी से!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 158
(जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित दोहे के माध्यम से एक विनोदमयी चर्चा)
मोसे पतितों ने दिये गोविन्द राधे।
विरद पतित पावन का निभा दे।।
(स्वरचित दोहा)
गोलोक में भगवान को 'पतितपावन' नाम नहीं मिला, क्योंकि वहाँ कोई पतित है ही नहीं। वहाँ तो सब शुद्ध निर्मल महापुरुष रहते हैं, भक्तवत्सल नाम उनको मिला। हमारे मृत्युलोक में आये तो हम सरीखे तमाम ढेर लाखों, करोड़ों, अरबों पतितों ने मिलकर ये प्लान बनाया कि हमारे यहाँ भगवान आये हैं, इनको कोई उपाधि देनी चाहिये। अभिनन्दन कहते हैं हमारे संसार में, उपाधि दी जाती है हमारे प्राइम मिनिस्टरों को, ऐसे बड़े बड़े लोगों को। विदेश में 'डॉक्टरेट' की उपाधि मिलती है, किसी को 'भारतरत्न' मिलता है, किसी को 'पद्म-विभूषण' मिलता है।
तो पतितों ने सोचा कुछ हम लोगों को भी देना चाहिये। तो पतितों ने मिलकर भगवान को एक नाम दिया - 'पतितपावन', पतितों को पवित्र करने वाले। अब भगवान भूल गये। क्यों जी, हम ही से तुमको उपाधि मिली और हमको ही भुला दिये, ये तो बहुत खराब बात है। अरे! एहसान मानना चाहिये कि ये पतितों ने हमको पतितपावन की उपाधि दी तो पतितों का उद्धार तो करके जायँ। ऐसे ही चले गये अपने लोक को, ये ठीक नहीं किया। खैर, चले गये, कोई बात नहीं, वहाँ से कर दो अपना काम। ये विरद निभा दो, नहीं तो जानते हो, टाइटल छीन लेंगे हम लोग!!
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'कृपालु भक्ति धारा' प्रवचन पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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