कुसंग से व्यक्ति की साधना का जैसा नाश होता है, वैसा और किसी से नहीं, पढिय़े साधना-मार्ग में कुसंग से बचना क्यों आवश्यक है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 159
(साधक की साधना की कमाई कैसे सुरक्षित रहे, इस सावधानी के संबंध में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा मार्गदर्शन)
जिस वातावरण से तुमको नुकसान होने वाला है, उस वातावरण में तुम क्यों जाते हो? शास्त्र में लिखा है, धधकते अंगारों के बीच लोहे के पिंजड़े में प्राण त्याग देना अच्छा है बजाय इसके कि गलत एटमॉस्फियर में पहुँच जाना। भगवत्प्राप्ति के एक सेकण्ड पहले तक पग पग पर खतरा है। शास्त्रों का ज्ञाता, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा अजामिल भी एक क्षण के कुसंग से पापियों की एक्जाम्पिल बन गया। अनंत जन्मों का गलत अभ्यास है इसलिये बिगडऩा जल्दी हो जाता है और बनना देर में होता है। बिगडऩे की बहुत लंबी प्रैक्टिस है।
कुसंग से बचने वाली बात हम लोग बहुत कम मानते हैं। अपनी बुराई सुनते ही धक्क से लग जाती है जबकि दूसरे की बुराई बड़े गौर से सुनते हैं और करते हैं। इतनी असावधानी है इस जीव की। मान लो कोई बुरा भी है और हम उसकी बुराई को सुनते हैं तो उससे होगा क्या? एक वेश्या और एक योगी बराबर मकानों में रहते थे। वेश्या को अपने जीवन से बड़ी घृणा होती, वह योगी के बारे में चिंतन करती रहती कि इसका जीवन कितना अच्छा है। इधर योगी जी वेश्या के नीच कर्म के बारे में सोचते रहते कि यह हमारे पड़ोस में क्यों आ बसी है। मरने के बाद योगी जी को नरक मिला और वेश्या स्वर्ग को गई क्योंकि योगी का मन सदा कुसंग करता रहा और वेश्या का मन सत्संग करता रहा।
आप निर्भीक होकर कुसंग सुनते हैं, बोलते हैं। रोज कमाते हैं, रोज गँवाते हैं। हममें वह बुराई होते हुये दूसरे की बुराई करते हैं। चन्दन पर सांप का विष नहीं लगता। लेकिन तुम तो अभी चन्दन नहीं हो। गंगा पार होने पर नाव को छोड़कर नाचो कूदो, लेकिन पानी में नाव को छोडऩा खतरे से खाली नहीं।
00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म सन्देश, मार्च 2001 अंक
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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