जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी विरचित 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का सातवाँ भाग, दोहा संख्या 31 से 35
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 160
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 6 के दोहा संख्या 30 से आगे)
मन ही शुभाशुभ कर्म करे बामा।
याते मन ते ही करो भक्ति आठु यामा।।31।।
अर्थ ::: मन ही शुभ अशुभ कर्मों का कर्ता है। अतएव मन से ही श्यामा श्याम की निरन्तर भक्ति करो। केवल इन्द्रियों द्वारा की गई भक्ति, भक्ति नहीं है।
मन ने ही बाँधा कर्मपाश कह बामा।
काटे पाश मन ही शरण गहि श्यामा।।32।।
अर्थ ::: जीव तो कुछ करता नहीं है। मन ने ही इसको कर्मजाल में फँसा रखा है। कर्मबन्धन में बँधा हुआ जीव जब अपने मन को श्रीराधा के शरणागत कर देता है तब यह मन ही जीव को कर्मबन्धन से मुक्त कर देता है।
माना मन अति चंचल कह बामा।
बार बार समझाओ मन तेरी श्यामा।।33।।
अर्थ ::: यह सत्य है कि मन अत्यंत चंचल है किन्तु यदि मन को बार बार समझाया जाय कि श्रीराधा ही तेरी हैं (सांसारिक नातेदार तो केवल शरीर के हैं और उन नातों का आधार केवल स्वार्थ ही है) तो धीरे धीरे मन संसार से विरक्त होकर श्रीराधा में अनुरक्त हो जायेगा।
तेरे हैं अनन्त पाप कह ब्रज बामा।
याते धीरे धीरे मन भायेंगी श्यामा।।34।।
अर्थ ::: हे जीव! अनादिकाल से अनन्तानन्त पाप करने के कारण तेरा मन अत्यन्त मलिन हो चुका है अतएव (साधना द्वारा अन्तःकरण शुद्धि की मात्रानुसार) श्रीराधा धीरे धीरे ही मन को अच्छी लगेंगी, एकाएक नहीं।
धीरे धीरे शिशु बने युवा कह बामा।
ऐसे ही माँगो सदा देंगी प्रेम श्यामा।।35।।
अर्थ ::: जैसे एक बालक धीरे धीरे ही युवा बनता है, ऐसे ही श्री किशोरी जी की शरण में जाकर उनसे सदा उनका दिव्य प्रेम माँगते रहो, अभ्यास करते करते जिस क्षण तुम्हारी याचना शत-प्रतिशत शरणागतियुक्त हो जायेगी, उसी क्षण किशोरी जी तुम्हें दिव्य प्रेम दे देंगी।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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